शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2010

पर्यटन

शिव का धाम महाकेदारेश्वर मंदिर
एक बार जिस पर शिव भक्ति का रंग चढ़ जाता है, वो व्यक्ति फिर कहीं नहीं भटकता क्योंकि शिव ऐसे भक्तों को अपनी भक्ति का आशीर्वाद देकर उन्हें अपनी शरण में ले लेते हैं। हमारे आसपास ऐसे कई शिव मंदिर है, जो कई वर्षों पुराने व चमत्कारी हैं।
अभी पुण्य कर्मादि करने का पवित्र श्रावण मास चल रहा है, ऐसे में शिव मंदिरों में भक्तों का मेला ना लगे, ऐसा कैसे हो सकता है। यदि आप भी शिवभक्ति में अपने मन को रमाना चाहते हैं तो हमारे साथ महाकेदारेश्वर चलिए।
आज हम आपको ले चलते हैं मध्यप्रदेश के ग्राम सैलाना के एक प्राचीन शिव मंदिर में, जिसका महत्व वहाँ के राजा-रजवाड़ों की इस मंदिर में चहलकदमी की बात से ही प्रतीत होता है। सैलाना का महाकेदारेश्वर मंदिर लगभग 278 वर्ष पुराना है।
समय-समय पर यहाँ के राजाओं ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया, जिसकी वजह से आज यह मंदिर अपने अस्तित्व को बचाए रखे है। महाराज जयसिंह, दुलेसिंह, जसवंत सिंह आदि राजाओं ने समय-समय पर इस मंदिर के जीर्णोद्धार में अपना सहयोग प्रदान किया।
मंदिर के पास स्थित कुंड में जब ऊँचाई से झरना गिरता है, तो इसका नजारा बहुत ही खूबसूरत होता है। कुंड के इसी जल में पादप्रक्षालन कर श्रद्धालु शिव मंदिर में दर्शन के लिए पहुँचते हैं। भारी बरसात के कारण कई बार यह कुंड बरसाती जल से लबालब भर जाता है। हर तरफ है सुंदर नजारे :
चारों तरफ हरियाली से घिरी सड़कों के बीच रतलाम से महाकेदारेश्वर का 14 किलोमीटर लंबा सफर शुरू होता है। इस सफर के बीच-बीच में पड़ाव के रूप में आपको दो-तीन गाँव मिलेंगे, जो अब धीरे-धीरे शहरी सभ्यता की ओर कदम बढ़ा रहे हैं। शहरी लोगों के लिए तो गाँव की छोटी-बड़ी झोपडि़यों व ग्रामीणों के जन-जीवन को करीब से देखने का यह अच्छा अनुभव होता है।
यदि आप बरसात के मौसम में यहाँ आते हैं तो आपका यह सफर वाकई में एक शानदार सफर सिद्ध होगा, क्योंकि इस मौसम में पक्की सड़कों के आसपास हरियाली के सुंदर नजारों की छटा आपकी शिव धाम महाकेदारेश्वर की इस यात्रा को यादगार यात्रा बना देगी।
चट्टानों की तलहटी में विराजे शिव
बरसात के मौसम में महाकेदारेश्वर मंदिर की खूबसूरती हरितिमा की चादर ओढ़ी चट्टानों से ओर भी अधिक बढ़ जाती है। मध्यप्रदेश के आदिवासी अंचल के ग्राम सैलाना से लगभग 3 से 4 किलोमीटर की दूरी पर महाकेदारेश्वर का मंदिर स्थित है। यह मंदिर चट्टानों की तलहटी में स्थित है।
जहाँ पहुँचने के लिए आपको प्रवेश द्वार से चट्टानों के बीच बनी पक्की सड़क से लगभग 1 किलोमीटर की दूरी तय करना पड़ेगी। इस दौरान आपको ऊँची-ऊँची चट्टानों से फिसलते छोटे-छोटे झरनों के खूबसूरत नजारे देखने को मिलेंगे।

यह रास्ता तय करने के बाद मंदिर तक पहुँचने के लिए आपको कई सीढ़ियाँ उतरकर नीचे की ओर जाना पड़ेगा। उसके बाद के नजारे की खूबसूरती तो आपके लिए बहुत ही लाजवाब होगी। आसपास की चट्टानों से रिसता पानी जब छोटी-छोटी नालियों के रूप में एक वृहद झरने का रूप लेता है तो उसकी खूबसूरती ओर भी अधिक बढ़ जाती है।
यहाँ मंदिर के पास स्थित कुंड में जब ऊँचाई से झरना गिरता है, तो इसका नजारा बहुत ही खूबसूरत होता है। कुंड के इसी जल में पादप्रक्षालन कर श्रद्धालु शिव मंदिर में दर्शन के लिए पहुँचते हैं। लगभग प्रतिवर्ष भारी बरसात के कारण कई बार यह कुंड बरसाती जल से इस कदर लबालब भर जाता है कि जल कुंड से बाहर निकलकर बहने लगता है।
बरसात के मौसम में यहाँ जिस तरह से झरने का आकार और उसमें जल की मात्रा बढ़ती जाती है, उसी तरह से इस झरने की झर-झर का शोर भी बढ़ता जाता है। जो हमें प्रकृति के एक सुंदर दृश्य के दर्शन कराता है।
यह मंदिर बहुत सालों पुराना है, जिसका अंदाजा यहाँ के शिवलिंग व अन्य मूर्तियों को देखने से प्रतीत होता है। यहाँ स्थित शिवलिंग भी प्राकृतिक है। शिव दर्शन के बाद जब आप मंदिर से बाहर निकलकर आसपास की खूबसूरत चट्टानों को देखते हैं तो नि:संदेह आपके मुख से भी यही वाक्य निकलेगा कि 'वाह क्या नजारा है।'
किस मौसम में जाएँ केदारेश्वर :
वैसे तो आप हर मौसम में यहाँ जा सकते हैं परंतु बरसात का मौसम यहाँ जाने का सबसे उपयुक्त मौसम होता है।
सैलाना के महाराज का महल, पुराना केदारेश्वर मंदिर, कैक्टस गार्डन, खरमोर पक्षी अभयारण्य, कीर्ति स्तंभ आदि। इसी के साथ ही महाकेदारेश्वर के आसपास रतलाम, जावरा आदि स्थानों पर कई प्राचीन मंदिर व दर्शनीय स्थल है।

नर्मदा के घाटों का अलौकिक सौंदर्य
उद्गम से लेकर सागर समागम तक नर्मदा का जो तेज, जो सौंदर्य, जो अठखेलियाँ और जो अदाएँ दिखाई देती हैं वे जबलपुर के अलावा अन्यत्र दुर्लभ हैं। प्रकृति ने तो इस क्षेत्र में नर्मदा को अतुलित सौंदर्य प्रदान किया ही, स्वयं नर्मदा ने भी अपने हठ और तप से अपने सौंदर्य में वृद्धि इसी क्षेत्र में की है। यहाँ नर्मदा ने हठ और तप से रास्ता भी बदला है। पहले कभी वह धुआँधार से उत्तर की ओर मुड़कर सपाट चौड़े मैदान की ओर बहती थी। उसकी धार के ठीक सामने का सौंदर्य संभवतः नर्मदा को भी आकर्षित करता होगा।
तभी तो लगातार जोर मारती लहरों से चट्टानों का सीना चीरकर हजारों वर्ष के कठोर संघर्ष के बाद नर्मदा ने यह सौंदर्य पाया है जिसे निहारने देश ही नहीं, विदेशी पर्यावरण प्रेमी भी खिंचे चले आते हैं। संगमरमरी चट्टानों के बीच बिखरा नर्मदा का अनूठा सौंदर्य देखते न तो मन अघाता है और न आँखें ही थकती हैं। भेड़ाघाट, तिलवाराघाट के आस-पास के क्षेत्र का इतिहास 150 से 180 करोड़ वर्ष पहले प्रारंभ होता है। कुछ वैज्ञानिक इसे 180 से 250 करोड़ वर्ष पुरानी भी मानते हैं।
उद्गम से लेकर सागर समागम तक नर्मदा का जो तेज, जो सौंदर्य, जो अठखेलियाँ और जो अदाएँ दिखाई देती हैं वे जबलपुर के अलावा अन्यत्र दुर्लभ हैं। प्रकृति ने तो इस क्षेत्र में नर्मदा को अतुलित सौंदर्य प्रदान किया है।
भेड़ाघाट के नाम को लेकर अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। प्राचीन काल में भृगु ऋषि का आश्रम इसी क्षेत्र में था। इस कारण भी इस स्थान को भेड़ाघाट कहा जाता है। एक अन्य मान्यता के अनुसार इसी स्थल पर नर्मदा का बावनगंगा के साथ संगम होता है।
लोक भाषा में भेड़ा का अर्थ भिड़ना या मिलना है। इस मत को मानने वालों के अनुसार इसी संगम के कारण इस स्थान का नाम भेड़ाघाट हुआ।
एक अन्य मत के अनुसार यह स्थान 1,700 वर्ष पूर्व शक्ति का केंद्र था। शैव मत वालों के अलावा शक्ति के उपासक भी यहाँ आते थे इसलिए निश्चय ही यह स्थान कभी भैरवीघाट रहा होगा और बाद में अपभ्रंश होकर भेड़ाघाट हो गया। गुप्तोत्तर काल में संभवतः इस मंदिर का विस्तार किया गया और इसमें सप्त मातृकाओं की प्रतिमाएँ स्थापित की गईं थीं।
ये प्रतिमाएँ आज भी भेड़ाघाट स्थित चौंसठ योगिनी मंदिर में हैं। लगभग 10 वीं शताब्दी में त्रिपुरी के कल्चुरि राजाओं के शासनकाल में इस मंदिर का और विस्तार किया गया। इन सभी मतों के पीछे तर्क और प्रमाण का आधार है। इनमें इतना तो सच है कि इस स्थान को नर्मदा ने अतुलित सौंदर्य प्रदान किया है।
748 हेक्टेयर क्षेत्र में फैला यह क्षेत्र आज शैव, वैष्णव, जैन तथा अन्य मत-मतांतर मानने वालों के लिए आस्था का केंद्र है। पर्यटन और सौंदर्य की दृष्टि से तो यह महत्वपूर्ण है ही। इस क्षेत्र में नौका विहार द्वारा भ्रमण करते समय नर्मदा के अलौकिक सौंदर्य के दर्शन होते हैं। बंदरकूदनी तक पहुँचते-पहुँचते पर्यटक संगमरमरी आभा से अभिभूत होता है और रंग-बिरंगे पत्थर उसे मुग्ध कर देते हैं।
जबलपुर के भेड़ाघाट में जहाँ से नौका विहार शुरू होता है वहाँ स्थित है पचमढ़ा का प्रसिद्ध मंदिर। यहाँ एक ही प्रांगण में चार मंदिर हैं। दो सौ साल पुराने इन मंदिरों का सौंदर्य अद्वितीय है। ये सभी मंदिर शिव को समर्पित हैं। जबलपुर में इसके अलावा भी अनेक ऐसे स्थान हैं जो नर्मदा क्षेत्र के पर्यटन में चार चाँद लगाते हैं। इनमें ग्वारीघाट, तिलवाराघाट, लम्हेटाघाट, गोपालपुर, घुघुआ फॉल, चौंसठ योगिनी मंदिर और पंचवटीघाट जैसे सौंदर्य से परिपूर्ण स्थल हैं।
इन क्षेत्रों में भी सौंदर्य की अपनी छटा है पर भेड़ाघाट के सौंदर्य के आगे सब फीके नजर आते हैं। जबलपुर में नर्मदा की आस्था का सबसे महत्वपूर्ण केंद्र है ग्वारीघाट।
शाम होते ही यहाँ का सौंदर्य अद्भुत होता है। घाट पर खड़े होकर नर्मदा की जलराशि में तैरते असंख्य दीप ऐसे लगते हैं मानो पूरा आकाश ही धरती पर उतर आया हो। नर्मदा की मद्धिम लहरों में झिलमिलाते दीपों का प्रकाश मन को प्रसन्न कर देता है।
रोज शाम को दीपदान करने वालों का रेला यहाँ पहुँचता है। नदी के बीच में देवी नर्मदा का मंदिर श्रद्धालुओं के लिए विशेष आकर्षण है। नाव से वहाँ तक पहुँचकर पूजा करना रोमांचक अनुभव है। इसके अलावा घाट पर अनेक मंदिर हैं, जिनमें कुछ प्राचीन हैं तो कुछ हाल के वर्षों में बने हैं। घाट से दूर जाने पर माँ काली का प्राचीन और सिद्ध मंदिर है।
विभिन्न संतों के आश्रम भी आस-पास होने के कारण यहाँ श्रद्धालुओं का ताँता लगा रहता है। कहते हैं नर्मदा के दर्शन से ही सारे पाप नष्ट होते हैं। इसलिए यहाँ दर्शनार्थियों का भी ताँता लगता है। ग्वारीघाट में नौका विहार की भी सुविधा है।

नर्मदा का दूसरा महत्वपूर्ण घाट है तिलवाराघाट
। यहाँ लगने वाला मकर संक्रांति का मेला बड़ा प्रसिद्ध है। इस मेले का इतिहास भी प्राचीन है। यहाँ स्थित मंदिर भी बहुत प्राचीन है। पुराने समय से गोपालपुर स्थित मंदिर की बाहरी छटा अत्यंत सुंदर है।

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