बुधवार, 31 मार्च 2010

महाप्रयोग

महाप्रयोग से बदलेगी विज्ञान की दुनिया
अपने रिसर्च प्रोजेक्ट के सिलसिले में मैं कुछ दिन पहले सेर्न से भारत आई थी, अब बुधवार शाम की फ्लाइट से वापस सर्न लौट रही हूँ, लेकिन इस बीच दुनिया बदल चुकी है।
सर्न में मौजूद दुनिया के सबसे बड़े पार्टिकल कोलाइडर एलएचसी में पहले विपरीत दिशा में दो अलग-अलग प्रोटॉन बीम छोड़ी गई, फिर आहिस्ता-आहिस्ता उनकी ऊर्जा का स्तर बढ़ाया गया और मंगलवार शाम करीब चार बजे इन दोनों शक्तिशाली बीम्स को एक-दूसरे के करीब लाकर, एलएचसी की 27 किलोमीटर लंबी गोलाकार सुरंगनुमा ट्यूब में लगभग रोशनी की रफ्तार से चक्कर काट रहे प्रोटॉन्स की आपस में टक्कर करवा दी गई।
जरा सोचिए ये सब कितना अद्भुत है। एक-एक सेकंड की निगरानी और शून्य से 271 डिग्री नीचे के तापमान में एलएचसी की बेहद संवेदनशील ट्यूब में दो अलग-अलग स्तर पर प्रोटॉन बीम्स चक्कर काट रही हैं।
कुदरत ने इन्हें जिस तरह रचा है, उस नियम के तहत दो प्रोटॉन्स एक-दूसरे के करीब नहीं आ सकते, क्योंकि प्रोटॉन्स के साथ धनावेश यानी पॉजीटिव चार्ज बँधा होता है और इसलिए करीब लाए जाने पर दो प्रोटॉन्स एक-दूसरे को दूर धकेलते हैं, क्योंकि समान आवेश हमेशा एक-दूसरे को दूर धकेलता है।
ठीक वैसे ही जैसे एक ऑफिस में एक ही पद पर दो बॉस नहीं हो सकते या फिर एक म्यान में दो तलवारें नहीं हो सकतीं। लेकिन हमारी तकनीक अब कुदरत के नियमों को तोड़कर काफी आगे निकल गई और यह ऐतिहासिक घटना ठीक उस पल घटी जब एलएचसी में जबरदस्त ऊर्जा से भरी दो प्रोटॉन बीम्स एक-दूसरे से जा टकराईं।
भारत समेत दुनियाभर के 80 से ज्यादा देशों के 8000 से ज्यादा वैज्ञानिकों की 14 साल की मेहनत मंगलवार को सफल रही। प्रयोग से कहीं कोई ब्लैक होल पैदा नहीं हुआ और धरती उसमें समा नहीं गई। मंगलवार को एलएचसी में प्रोटॉन्स की शानदार टक्कर के बाद अब हमने अज्ञान के ब्लैकहोल से बाहर निकलकर विज्ञान के उजाले की ओर कदम बढ़ा दिए हैं।

रोमांस

अनाम रिश्ता बेनाम उलझनें
हेलो दोस्तो! आपसे जुड़े ज्यादातर रिश्ते ऐसे होते हैं जिनको आप किसी न किसी नाम से पुकारते हैं। उन रिश्तों के बारे में सोचने की आपको जरूरत ही नहीं पड़ती है। उनके प्रति आपका फर्ज एवं अधिकार मानो जन्म से ही समझा दिया गया होता है इसीलिए बिना किसी विचार-विमर्श के सहजता से आप उसे निभाते चले जाते हैं। करीबी रिश्तेदार, दूर के रिश्तेदार इन सबकी भी एक श्रेणी बन जाती है। आप अपनी सुविधा और पसंद के अनुसार उनके साथ भी तालमेल बिठा लेते हैं।
इसी प्रकार दोस्तों की भी कई श्रेणियाँ होती हैं, वर्ग होते हैं। कुछ ऐसे होते हैं जिनसे आप हमेशा मिलते हैं पर उनसे आपका अपनापन नहीं होता है। कुछ ऐसे होते हैं जो आपका दुख-दर्द सुन तो लेते हैं पर उससे ज्यादा वे और कुछ नहीं करते। एक या दो दोस्त ऐसे होते हैं जिनसे आपकी महीनों बात नहीं होती पर मुसीबत में आप उन्हें फोन करते हैं और आपकी बातों और आवाज से उन्हें लगता है कि आपको उनकी हमदर्दी की जरूरत है। वह आपसे परेशानी पूछते हैं, आपको दिलासा देते हैं और उनसे कुछ बन पड़ता है तो वे आपके लिए करते भी हैं।
पर, कई बार आप एक विचित्र से रिश्ते में पड़ जाते हैं। न तो उसका कोई नाम होता है और न ही आपको यह पता होता है कि आपका उस व्यक्ति पर कितना अधिकार है। इतना ही नहीं, आपका उस व्यक्ति के प्रति क्या कर्तव्य होना चाहिए यह भी आप नहीं समझ पाते हैं। कभी आप उससे हफ्तों नहीं मिलते और जब मिलते हैं तो खूब अधिकार से झगड़ा करते हैं। आपकी यही ख्वाहिश होती है कि आपको वह मनाए, आपकी सारी शिकायतों पर माफी माँगे, कान पकड़े और सारी गलतियों को सर आँखों पर ले।
उनसे फूलों का उपहार लेना और घंटों बैठकर गप्पें लगाना आदि आपको दिल व जान से प्यारा होता है। इन सबके बावजूद आप उस रिश्ते को वहीं तक ठहरा देते हैं, उसे कोई नाम नहीं देते और उसके स्थायित्व पर भी प्रश्नचिह्न लगा रहता है पर ऐसे रिश्ते में मुश्किल यह होती है कि दूसरा पक्ष अपने बारे में कोई निर्णय नहीं कर पाता है और वह अपने भविष्य के बारे में कोई फैसला नहीं ले पाता है। यह दुविधा उसकी परेशानी का सबब बनती है।
इसी कशमकश में आज घिर गए हैं अरुण आहूजा (बदला हुआ नाम)। अरुण की एक दोस्त हैं। दोनों बातचीत में बेहद करीबी महसूस करते हैं पर अरुण की दोस्त अपनी ओर से पहल नहीं करतीं। यदि अरुण एक या दो सप्ताह तक बात न करें तो वह खोज-खबर नहीं लेतीं लेकिन अरुण द्वारा संपर्क करने पर उनसे खूब लड़ती-झगड़ती हैं, शिकायतों की झड़ी लगा देती हैं।
यह कहते हुए कि तोहफों पर पैसे क्यों खर्च करते हो, फूल और अन्य उपहार से खुश भी हो जाती हैं। पर यह पूछने पर कि इस रिश्ते का भविष्य क्या है ? क्या हमेशा साथ रहने के बारे में सोचा जा सकता है? तो अरुण की दोस्त का जवाब होता है, 'अभी इस रिश्ते में प्यार शामिल नहीं हुआ है। हम केवल दोस्त हैं।' अरुण की परेशानी यह है कि वह इस रिश्ते को समझ नहीं पा रहे हैं। इस रिश्ते पर अपना कितना समय लगाएँ या समय देना उचित है या नहीं यह उन्हें समझ में नहीं आ रहा है।
अरुण जी, आपकी दोस्त ने यूँ तो साफ लफ्जों में आपको कह दिया है कि वह केवल दोस्त हैं। प्यार उन्हें नहीं है इसलिए भविष्य के बारे में उनकी कोई योजना नहीं दिखती है फिर भी आप रिश्ते में जटिलता महसूस करते हैं। आप इसलिए परेशान हैं कि आप जो उनसे सुनना चाहते थे वह आप नहीं सुन पा रहे हैं। शायद आप अपनी दोस्त को प्यार करते हैं इसलिए उसको खुश करने का जतन करते हैं। यह बात तो साफ है कि आप दोस्त से ज्यादा उन्हें अपने जीवन में जगह देते हैं तभी उनका व्यवहार आपको विचलित किए रहता है।
आपकी दोस्त आपको प्यार नहीं करती बल्कि केवल दोस्त समझती है। यदि कहीं उनके भीतर प्यार की भावना है भी तो वह उसे अभी महसूस नहीं कर पा रही हैं। सच्चाई यह है कि उनकी नजर में आपके प्यार की कोई अहमियत नहीं है। आपको इस रिश्ते को केवल दोस्ती की श्रेणी में रखकर आगे बढ़ जाना चाहिए। साथ समय बिताना अच्छा लगता है तो समय बिताएँ पर उससे ज्यादा अपेक्षा न करें।
आप कुछ कदम ऐसा उठा सकते हैं जिससे आपकी दोस्त को इस रिश्ते को समझने में सहायता मिल सकती है। आपके प्रति उनके मन के भीतर क्या है वह समझ सकती है। आप उसे साफ तौर पर कह दें कि आप अपनी जीवनसाथी तलाश कर रहे हैं। यह बात आपकी ओर से गंभीरता से सामने आनी चाहिए। आप कोई तोहफा उन्हें अब नहीं दें। उन्हें संपर्क करने दें। एक माह तक संपर्क न करें।
यदि वह संपर्क नहीं करती हैं तो आप एक माह बाद यह बताएँ कि आप लंबे रिश्ते की तलाश में हैं इसीलिए समय नहीं मिला। जब उन्हें आपको खो देने का डर होगा तब वह गंभीरता से आपके बारे में विचार कर पाएँगी। रिश्ते को लेकर यह चिंतन व मंथन बेजा नहीं जाएगा। आप दोनों बेहतर तौर पर अपने भविष्य की योजना बना पाएँगे। इन सारी प्रक्रिया से गुजर कर आपकी दोस्ती भी अच्छी मजबूत हो जाएगी और भावनाओं के पैमाने का भी पता चल जाएगा।
मुझे जीने दो अपना मौसम
मेरी कोमल उड़ान को
नजर मत लगाओ।

ठंडी नशीली बयारों में
अपना आँचल लहराने दो मुझे।

भर लेने दो मेहँदी की खुशबू मुझे
अपनी सघन रेशमी जुल्फों में।

चूमने दो नाजुक एड़ियाँ
चमकीली पायल को।

मुझे अपना मौसम जीने दो।
कौन चाहती है भटकना, बहकना?

मुझे मिल जाए अगर
सच्चा प्यार।

सिर्फ मेरा प्यार।

तो क्या देंगे मुझे 'ब्रेकफास्ट' में
आजादी की 'ब्रेड' पर
विश्वास का 'बटर'

प्यार तो बस हो जाता है
प्यार करने वाले से पूछा गया कि प्यार क्या होता है? कैसा लगता है? तो उसका जवाब था कि प्यार गेहूँ की तरह बंद है, अगर पीस दें तो उजला हो जाएगा, पानी के साथ गूँथ लो तो लचीला हो जाएगा... बस यह लचीलापन ही प्यार है, लचीलापन पूरी तरह समर्पण से आता है, जहाँ न कोई सीमा है न शर्त। प्यार एक एहसास है, भावना है। प्रेम परंपराएँ तोड़ता है। प्यार त्याग व समरसता का नाम है।
प्रेम की अभिव्यक्ति सबसे पहले आंखों से होती है और फिर होंठ हाले दिल बयाँ करते हैं। और सबसे मज़ेदार बात यह होती है कि आपको प्यार कब, कैसे और कहाँ हो जाएगा आप खुद भी नहीं जान पाते। वो पहली नजर में भी हो सकता है और हो सकता है कि कई मुलाकातें भी आपके दिल में किसी के प्रति प्यार न जगा सकें।
प्रेम तीन स्तरों में प्रेमी के जीवन में आता है। चाहत, वासना और आसक्ति के रूप में। इन तीनों को पा लेना प्रेम को पूरी तरह से पा लेना है। इसके अलावा प्रेम से जुड़ी कुछ और बातें भी हैं -
प्रेम का दार्शनिक पक्ष-
प्रेम पनपता है तो अहंकार टूटता है। अहंकार टूटने से सत्य का जन्म होता है। यह स्थिति तो बहुत ऊपर की है, यदि हम प्रेम में श्रद्धा मिला लें तो प्रेम भक्ति बन जाता है, जो लोक-परलोक दोनों के लिए ही कल्याणकारी है। इसलिए गृहस्थ आश्रम श्रेष्ठ है, क्योंकि हमारे पास भक्ति का कवच है। जहाँ तक मीरा, सूफी संतों की बात है, उनका प्रेम अमृत है।
साथ ही अन्य तमाम रिश्तों की तरह ही प्रेम का भी वास्तविक पहलू ये है कि इसमें भी सामंजस्य बेहद जरूरी है। आप यदि बेतरतीबी से हारमोनियम के स्वर दबाएं तो कर्कश शोर ही सुनाई देगा, वहीं यदि क्रमबद्ध दबाएं तो मधुर संगीत गूंजेगा। यही समरसता प्यार है, जिसके लिए सामंजस्य बेहद ज़रूरी है।
प्रेम का पौराणिक पक्ष-
प्रेम के पौराणिक पक्ष को लेकर पहला सवाल यही दिमाग में आता है कि प्रेम किस धरातल पर उपजा-वासना या फिर चाहत....? माना प्रेम में काम का महत्वपूर्ण स्थान है, लेकिन महज वासना के दम पर उपजे प्रेम का अंत तलाक ही होता है। जबकि चाहत के रंगों में रंगा प्यार जिंदगीभर बहार बन दिलों में खिलता है, जिसकी महक उम्रभर आपके साथ होती है।

प्रेम का वर्जित क्षेत्र-
सामान्यतः समाज में विवाह के बाद प्रेम संबंध की अनुमति है। दूध के रिश्ते का निर्वाह तो सभी करते हैं, इसके अलावा निकट के सभी रक्त संबंध भी वर्जित क्षेत्र माने जाते हैं, जैसे- चचेरे, ममेरे, मौसेरे, फुफेरे भाई-बहन या मित्र की बहन या पत्नी आदि। किसी बुजुर्ग का किसी किशोरी से प्रेम संबंध भी व्याभिचार की श्रेणी में आता है। ऐसा इसलिए भी है कि एक सामाजिक प्राणी होने के नाते नियमों की रक्षा करना हमारा कर्त्तव्य भी है।

आई लव यू, स्वीट हार्ट
आपसे कुछ कदमों की दूरी पर वह लड़की खड़ी है, जिसे आप प्यार करते हैं, लेकिन परेशानी यह है कि आप अब तक उसे अपने दिल की बात नहीं बता सकते। वह दूर खड़ी अपने सर्कल में बातें कर रही है, लेकिन वह जानती नहीं कि आप उसे देख रहे हैं और आपकी दिल की धड़कन तेज हो रही है।
यह समस्या लगभग हर दूसरे प्रेमी की है, कि वह किसी लड़की से मन ही मन प्यार तो कर लेता है, लेकिन इजहार-ए-मुहब्बत की हिम्मत नहीं जुटा पाता। आइए हम आपको बता रहे हैं कि किसी लड़की के दिल में जगह किस तरह बनाई जाए, उसे अपनी मुहब्बत में कैसे गिरफ्तार किया जाए।
सबसे पहले आप अपने मन में सोच लीजिए कि आप दस लड़कियों को प्रेम प्रस्ताव देने जा रहे हैं और उन दस लड़कियों मे से केवल दो ही आप के प्रस्ताव को स्वीकार करेंगी, शेष आठ लड़कियाँ प्रस्ताव ठुकरा देंगी। इस तरह सोचने से आप मानसिक रूप से खुद को तैयार कर पाएँगे और हौसला भी बढ़ेगा।
खुद में इतना विश्वास पैदा कीजिए कि आपको किसी और सहारे कि जरूरत न पड़े। याद रखिए अगर आप अपनी मदद नहीं कर सकते तो दुनिया में कौन है जो आप कि मदद कर सकता है। अधिक से अधिक यही होगा कि वह मना कर देगी, लेकिन आपको इस बात का संतोष तो रहेगा कि कम से कम आपने कोशिश तो की।
जाइए और लड़की से स्वयं बात कीजिए, अगर आप पहल नहीं करेंगे तो कोई और बाजी मार ले जाएगा, वक्त किसी के लिए नहीं रुकता। आप के बात करने के दो परिणाम होंगे पहला यह कि वह लड़की आपका प्रस्ताव ठुकरा दे, लेकिन इससे कम से कम ये तो पता चल जाएगा कि वह चाहती क्या है? और आप उस लड़की के दिल में हलचल भी मचा देंगे।
दूसरा परिणाम यह कि वह कोई जवाब ही न दे, इसका मतलब यह है कि वह सोचने के लिए वक्त चाहती है और ये आपकी जीत की निशानी है। तो देर किस बात की, जाइए और कह दीजिए दिल की बात और डूब जाइए रोमांस में।

प्रेम में बंधन नहीं है
प्रेम में बंधन नहीं है
तुम उसे अहसास के,
नन्हें सजीले
पंख देकर मुक्त कर दो।
वह उड़ेगा,
क्षण भर उड़ेगा
और फिर से लौटकर
स्नेह के बंधन तुम्हारे,
चूम लेगा।
देह के लघु खंड तो,
क्षण की शिला हैं,
छू नहीं सकते, स्थिर हैं,
वे तुम्हारे प्रेम की नवसर्जना में
गदगद करेंगे,
मूक अभिनंदन करेंगे।

सोमवार, 29 मार्च 2010

चूडियां

रंगीन चूडि़यों का सच
मेरे सामने चित्रा आ जाती है। .. यूकलिप्टस के पेड की तरह चिकनी कलाइयां.. रंग, जैसे दूध में किसी ने सिंदूर घोल दिया हो।
मुझे चूडियां पहना दो।
आज तो संडे है चित्रा। तुम्हें पता है न कि यहां रविवार को दुकानें बंद रहती हैं।
प्लीज रवि.., हमारी बात मत ठुकराओ। ..
हमने जब कहानी की फरमाइश की, तुमने लिखी। हमने जब भी..। शर्म से सिर झुकाकर मेरे करीब आ जाती है वह। मुझे लगता है, भीनी-भीनी खुशबू वाली अगरबत्ती जल रही है.. सुगंध की बांहें मुझे घेर रही हैं। मैं कमजोर पडता जा रहा हूं। ऐसा क्यों होता है? मैं उसकी बात टाल नहीं पाता।
प्लीज रवि। वह आंखों से मुसकराती है। मैं सोचते हुए कहता हूं, चूडीघर वाला मेरा दोस्त है। मकान ऊपर, दुकान नीचे। अब उठो। चूडी क्या, किसी दिन ताजमहल बनवा दूंगा।
लेखक जी, जब शहंशाह हो, प्यार के साथ ही ब्लैक-मनी भी हो तो ताजमहल भले न बने, पैलेसनुमा घर जैसा कुछ बन जाता है।
बहुत बातें करती हो, अब चलो भी।
हम चूडियां यहीं पहनेंगे-तुमसे। दैट्स ऑल।
पागल हो गई हो? मैं चूडीवाला दिखता हूं? एक लंबी-सी मुस्क ान उसके चेहरे पर फैल जाती है, जैसे मासूम-सी बच्ची, स्लेट पर लंबी-सी लकीर खींच दे-यहां से वहां तक। हां, तुम्हारे प्यार में सचमुच पागल हो गए हैं, इसीलिए आग्रह कर रहे हैं।
मुझसे चूडियां टूट जाएंगी। हाथ में खरोंच पड सकती है।

पडने दो। खून निकल आए तो और अच्छा।

प्यार में बहा खून रंग लाता है।

मैं उसका चेहरा देखता हूं।

हमें देखने में टाइम वेस्ट मत करो। जाओ, चूडियां ले आओ। एक भी सलामत गई, तो हम समझेंगे।
क्या समझोगी?

यही कि तुम लेखन के साथ ही चूडियों की दुकान भी खोल सकते हो। दाल-रोटी मजे से चल जाएगी। वह भागती लहरों की तरह चंचल हंसी हंसती है।
मैं उठता हूं, तुम?
हम यहीं गंगा के किनारे तुम्हारा इंतजार करेंगे।
अरे, कहां चल दिए?
चूडियां लाने।
सचमुच, आदमी प्यार में पागल हो जाता है। लेखक जी, आपको साइज मालूम है मेरा? सवा दो इंच। और हां, साबुन भी लेकर आना। नहाने वाला-कपडा धोने वाला नहीं। वह फिर हंसती है। लंबी-सी हंसी। यहां से वहां तक फैली हुई हंसी।
मैं ढेर-सारी चूडियां लेकर आता हूं।
वह सीढी के करीब जाकर पानी में कलाइयां डुबो देती है। मुझे लगता है, यूकलिप्टस के पेड के इर्द-गिर्द बाढ आ गई है।
साबुन लगाकर वह कलाइयां मेरे सामने बढा देती है, अब पहना दो।
मैं एक पहनाता हूं। वह दूसरा हाथ बढा देती है।
फिर एक पहना देता हूं।
अब बस, एक भी टूट गई तो।
और आ जाएंगी।
नहीं रवि।
वह गंभीर आवाज में कहती है, तुम पुरुष हो न, इसलिए इसके टूटने का दर्द तुम्हें मालूम नहीं। चूडियां कलाइयों में आकर इतिहास बन जाती हैं, टूटकर महा-इतिहास। तब औरत को लगता है, कांच का इंद्रधनुष बिखर गया। कबूतर के उडने वाले पंखों में कीलें ठोंक दी गई। जैसे ईसा मसीह के हाथों में..।
एक लंबे अरसे के बाद चित्रा का खत आया है। इस शहर के बडे से कॉलेज में आकर, हम बहुत छोटे से हो गए हैं। यहां ढेरों पत्रिकाएं आती हैं। हर लेखक चुनाव को लेकर लिख रहा है। तुम्हारी खामोश कलम हमें रोज छोटा बना रही है। प्लीज अलमारी खोलकर हमें याद करना। विश्वास है, कहानी बन जाएगी।
मुझे खयाल आता है अपनी किताबों का। वह अलमारी के पास आई थी, तुम्हारी किताब मेरे तकिये के नीचे रहेगी तो उस बडे से कॉलेज-हॉस्टल में हम अकेले नहीं रहेंगे। उसने अलमारी खोली थी। चौंककर कहा, तुम तो चर्च जाते नहीं, बाइबिल पढते हो?
हां, सुबह उठने के बाद। रात, सोने से पहले। वह कुछ सोचती रही।
फिर उसने दोनों चूडियां उतारकर बाइबिल पर रख दीं, अब तुम रोज दो बार हमें याद करोगे। चूडियां हटाकर बाइबिल पढोगे। बाइबिल रख कर, उस पर चूडियां रखोगे। सॉरी यार, मैथ कमजोर है। तुम तो सुबह और रात, दो टाइम पढते हो। यानी तब चार बार याद करोगे।
मैं उठकर अलमारी के पास जाता हूं। धीरे से खोलता हूं। बाइबिल पर चित्रा की चूडियां रखी हैं। तभी बाहर से एक आवाज गूंजती है, हरी-पीली-लाल चूडियां।
मैं अलमारी बंद कर बरामदे में आता हूं। चूडी वाली, भाभी और छोटी भतीजी हैं। भैया शतरंज खेल रहे हैं, शह बचो प्रोफेसर सहाय।
प्रोफेसर नई चाल चलते हैं, तुम फंस गए। भाभी चूडी वाली से कहती हैं, उन्हें क्या देख रही है, मेरी बेटी को चूडियां पहना। लाल नहीं, काली पहना, नजर न लगे।
तभी भैया ठहाका लगाते हैं, अब तो तुम घिर गए प्रोफेसर सहाय।
चूडी वाली पूछती है, कौन हैं?
भाभी गर्व से कहती हैं, मुन्नी के बाबू। कारगिल-युद्ध में लडे थे। कई मेडल मिले हैं। बायां हाथ काटा गया। गोली लगी थी।
मैं भाभी को देखता हूं। वह आंचल से आंसू पोंछती है, चल, बच्ची को चूडी पहना।
चित्रा की चिट्ठियां आती रहीं। हर बार कलम उठाकर भी मैं कहानी नहीं लिख सका। चित्रा की फरमाइश बासी रोटी की तरह सूखकर कडी हो गई थी। इस घटना पर मैंने कहानी बुननी शुरू की। हमेशा की तरह अगरबत्ती जलाई, पानी रखा।
लिखते-लिखते पानी पीने की आदत है। एक बार चित्रा ने कहा था, आज मैं तुम्हारे पानी पीने का रहस्य जान गई। तुम काग्ाज की जमीन पर, कलम की कुदाली चलाते हो। ईमानदारी के शब्द बोते हो, फिर गिलास के पानी से सींचते हो, इसीलिए तुम्हारी कहानियों से मुहब्बत की फसल पैदा होती है।
प्लीज, डिस्टर्ब मत करो। तुम तो जानती हो, लिखते वक्त मैं एकांत चाहता हूं।
वह चली गई थी।
बाद में उसका पत्र आया कि पापा के साथ वह शिमला में गर्मी की छुट्टियां बिताकर आएगी। लिखा था, मैं यहां के रोमांटिक माहौल का मजा लूंगी। तुम मेरी चूडियों को याद कर, एक प्यारी लव-स्टोरी लिख कर रखना।
अचानक मुझे लगा, चित्रा करीब खडी है। पलटकर देखा, कोई नहीं है। हंसी आई। वह तो पराये शहर में है। उसकी फरमाइश बंद लिफ ाफेकी तरह जस की तस पडी है। मैं कलम उठाता हूं किवे यानी नेताजी आ जाते हैं, ये क्या हो रहा है?
कहानी लिखने जा रहा था..।
यह लिखने का नहीं, जीवन-मरण का प्रश्न है-युद्ध क्षेत्र में उतरना है। उन्होंने कहा।
मगर युद्ध तो कबका समाप्त हो गया।
भाई मेरे, लडाई में गोली चलती है। चौकियों पर कब्जे किए जाते हैं। तिरंगा लहराया जाता है। लाशें गिरती हैं और चुनाव में भी गोलियां चलती हैं, बूथ कैप्चर होते हैं, लाशें गिरती हैं। जीतने पर, अपने दल के झंडों के साथ जुलूस निकाले जाते हैं। उस युद्ध और इस लडाई में बस जरा-सा फर्क है। वह युद्ध बाहर वालों से लडते हैं, यह लडाई अपने लोगों से लडते हैं।
जैसे झूठ और सच में जरा-सा फर्क होता है। झूठ की जेब भरी होती है, सच की खाली। लेकिन यह जरा-सा फर्क तब बडा बन जाता है, जब भरी जेब से बंगला बन जाता है।
वाह! इन्हीं बातों से हाईकमान आपको इतना मानते हैं। साफ कह दिया कि उन्हें कैसे भी लेकर आएं। सारे मैटर रवि जी से लिखवाएं। चुनाव जीतते ही आपको एमएलसी बना देंगे-साहित्यकार कोटे पर। चलिए अब चेहरा क्या देख रहे हैं। सीरियस प्रॉब्लम है। हाईकमान आपसे डिस्कस करना चाहते हैं।
कैसी प्रॉब्लम।
वे चिंतित हो गए। फिर बोले, अपोजीशन पार्टी ने एक लेडी को मैदान में उतारा है। लेडी के खिलाफ लेडी कैंडिडेट को उतारना होगा। नहीं तो टांय-टांय फिस।
मैं कागज समेटता हूं। लिखने का मूड खत्म हो गया। भाभी की चीख सुनकर मैं बाहर आया। देखा, आज फिर चूडी वाली बैठी है। भाभी कह रही हैं, जा, रंगीन चूडियां लेकर। किसके लिए खरीदूं? तुझे मालूम है मेरे पति को किसी ने गुप्त सूचना दी थी कि आतंकवादी राघव के घर में छिपे हैं। उसे व उसकी पत्नी को बंदी बना रखा है। डर से राघव कुछ कहता नहीं। वह सामान लाता है, उसकी पत्नी बनाती है। लगता है, हादसा करने की योजना है।
फिर? आश्चर्य से चूडी वाली ने पूछा।
फिर क्या! यह सुनकर मेरे पति का फौजी खून खौल उठा। अलमारी खोली और मेडल्स मुझे देकर अपने सलामत हाथ से जेब में रिवाल्वर रखकर मुझे देखा। तेजी से बाहर निकल गए। बाद में पता चला, राघव व उसकी पत्नी को वहां से निकालने में तो वे सफल हुए, लेकिन अपने प्राण गंवा बैठे। भाभी रोने लगीं..।
चूडी वाली उन्हें चुपचाप, एकटक देखती रही। भाभी ने धीरे से कहा, ये चूडियां नहीं, मेरे लिए कांच की सलीबें हैं। तू सुहागिन है, बेच सुहाग की निशानी कहीं और जाकर।
चूडी वाली बोली, यह सब मुझे पता था। मैं तो गर्व से उठा तुम्हारा सिर देखने आई थी। मैं निर्धन परिवार की हूं, लेकिन गर्व से सिर पर सुहाग की निशानी उठाकर बेचती हूं। जो कुछ कमाती हूं, उसका कुछ हिस्सा जवानों के लिए भेजती हूं। चूडियां मुझे सलीबें नहीं लगतीं।
भाभी ने चौंककर पूछा, तुम विधवा हो? हां। मैं अपने पति से प्यार करती हूं और करती रहूंगी। मैं परमवीर चक्र विजेता शहीद की पत्नी हूं।
चूडी वाली की बात सुनकर नेताजी को मानो मुंहमांगी मुराद मिल गई। खुशी से उछलकर बोले, अब विपक्षी दल छाती पीट-पीट कर रोएंगे। कहां से यह हीरा खोजकर ले आए। उनकी सीट तो गई रवि बाबू।
फिर चूडी वाली से मुखातिब होकर कहते हैं, बहन, हम तुम्हें चुनाव में खडा करेंगे। सुनो भैया, चूडी वाली धीरे से मुसकराती है, तुम्हारे जैसे लोग देशभक्त नहीं, मौकापरस्त नेता हैं, जो कुर्सी के लिए लडते-लडवाते हैं। अपने गांव-देहात में, अपने ही लोगों से मुझे लडाने की बात करते हो। सीमा पर नहीं तो कम से कम देश के भीतर घुसे आतंकवादियों से लडो। फिर वहां से लौटकर, किसी शहीद की पत्नी को लडवाने की बात सोचना।
वह टोकरी सिर पर रखकर उठने लगती है। भाभी उसका हाथ पकडकर बिठा लेती हैं। फिर बडे प्यार से, अपने दोनों हाथों से उसकी कलाइयां सहलाने लगती हैं। मेरे सामने चार नंगी कलाइयां उसी तरह चमकने लगती हैं, जैसे सीमा पर जमी बर्फ, सूरज की किरणों के पडने से जगमगा उठती हैं, ढेर सारी रंगीन चूडियों की तरह..।

ईसा मसीह

क्या ईसा मसीह का कश्मीर में मकबरा है?
एक परंपरा ये कहती है कि ईसा मसीह ने सूली से बचकर अपने बाकी दिन कश्मीर में गुजारे और इसी आस्था के कारण श्रीनगर में उनका एक मजार बना दिया गया जोकि विदेशी यात्रियों के लिए एक महत्वपूर्ण स्थान बन चुका है। श्रीनगर के पुराने शहर की एक इमारत को रौजाबल के नाम से जाना जाता है।
यह शहर के उस इलाके में स्थित है जहाँ भारतीय सुरक्षा बल की गश्त बराबर जारी रहती है या फिर वह अपने ठिकानों से सर निकाले चौकसी करते हुए नजर आते हैं।
इसके बावजूद वहाँ सुरक्षाकर्मियों को कभी-कभी चरमपंथियों से मुठभेड़ का सामना करना पड़ता है तो कभी पत्थर फेंकते बच्चों का। फिर भी सुरक्षा स्थिति में बेहतरी आई है और पर्यटक यहाँ लौट रहे हैं।
पिछली बार जब एक साल पहले हमने रौजाबल की तलाश की थी तो हमारे टैक्सी वाले को एक मस्जिद और दरगाह के कई चक्कर लगाने पड़े थे और काफी पूछने के बाद ही हमें वह जगह मिली थी।
यह रौजा एक गली के नुक्कड़ पर है और पत्थर की बनी एक साधारण इमारत है। एक दरबान मुझे अंदर ले गया और उसने मुझे लकड़ी के बने कमरे को खास तौर से देखने के लिए कहा जो कि जालीनुमा जाफरी की तरह था।
इन्हीं जालियों के बीच से मैंने एक कब्र देखी जोकि हरे रंग की चादर से ढकी हुई थी।
'वो प्रोफेसर'
इस बार जब में फिर से यहाँ आया तो यह बंद था। इसके दरवाजे पर ताला लगा था क्योंकि यहाँ काफी पर्यटक आने लगे थे। इसका कारण क्या हो सकता था। नए जमाने के ईसाइयों, उदारवादी मुसलमानों और दाविंची कोड के समर्थकों के मुताबिक भारत में आने वाले सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति का यहाँ शव रखा है।
आधिकारिक तौर पर यह मजार एक मध्यकालीन मुस्लिम उपदेशक यूजा आसफ का मकबरा है, लेकिन बड़ी संख्या में लोग यह मानते हैं कि यह नजारेथ के येशु यानी ईसा का मजार है।
उनका मानना है कि सूली से बचकर ईसा मसीह 2000 साल पहले अपनी जिंदगी के बाकी दिन गुजारने कश्मीर चले आए थे। रियाज के परिवार वाले इस रौजे की देख-भाल करते हैं और वह नहीं मानते कि ईसा यहाँ दफन हैं।
उसने कहा, 'ये कहानी स्थानीय दुकानदारों की फैलाई हुई है क्योंकि किसी प्रोफेसर ने कह दिया था कि यह कब्र ईसा मसीह की है। उन्होंने सोचा की यह उनके कारोबार के लिए काफी अच्छा होगा। पर्यटक आएँगे। आखिर इतने सालों की हिंसा के बाद।'
उसने ये भी कहा, 'और फिर ये हुआ कि लोनली प्लैनेट में इसके बारे में खबर प्रकाशित हुई और फिर ये हुआ कि बहुत सारे लोग यहाँ आने लगे।'
उसने मेरी ओर खेद भरी नजरों से देखते हुए कहा, 'एक बार एक विदेशी यहाँ आया और मकबरे से एक टुकड़ा तोड़ कर अपने साथ ले गया।'
कहानी सुनाते हुए उसने कहा, 'एक बार एक थका-हारा और मैला ऑस्ट्रेलियाई जोड़ा अपने हाथ में लोनली प्लेनेट का भारत के लिए नया ट्रैवेल गाइड लिए पहुँचा जिसमें ईशनिंदा पर कुछ आपत्तियों के साथ ईसा की मजार के बारे में लिखा गया था।'
'उन्होंने मुझे मजार के बाहर उनकी तस्वीर लेने के लिए कहा क्योंकि मजार बंद था। वे इस बात से ज्यादा परेशान नहीं हुए।'
उनका कहना था कि उनके लिए ईसा का मजार भारत में उनकी यात्रा के दौरान उन स्थानों की सूची में शामिल था जिन्हें खना उन्होंने अनिवार्य कर रखा था यानी अपनी मस्ट-विजिट लिस्ट में शामिल कर रखा था।
बौद्ध सम्मेलन : श्रीनगर के उत्तर में पहाड़ों पर एक बौद्ध विहार के खंडहर हैं जिसका जिक्र अभी लोनली प्लेनेट में नहीं हो सका है। यह वह जगह है जहाँ हम पहले नहीं जा सके थे क्योंकि एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने बताया था कि वह इलाका चरमपंथियों से भरा हुआ है।
लेकिन अब ऐसा लगता है कि वहाँ के चौकीदार बहुत सारे पर्यटकों के आने के लिए तैयार हैं क्योंकि उन्होंने अंग्रेजी के 50 शब्द सीख लिए हैं और वे अपने छुपे हुए पुराने टेराकोटा टाइलों को बेचने का इरादा रखते हैं।
उन्होंने मुझे बताया कि सन 80 में हुए महत्वपूर्ण और प्रसिद्ध बौद्ध सम्मेलन में ईसा मसीह ने भाग लिया था। यहाँ तक कि उन्होंने वह जगह भी बताई कि ईसा मसीह उस सम्मेलन में कहाँ बैठे थे।
ईसा मसीह के संदर्भ में ये कहानियाँ भारत में 19वीं शताब्दी से प्रचलित हैं। ये उन कोशिशों का नतीजा थीं जिसमें बुद्धिजीवियों में 19वीं सदी के दौरान बौद्ध और ईसाई धर्मों के बीच समानता को उजागर क की कोशिश की गई थी। ऐसी ही इच्छा कुछ ईसाइयों की थी कि वे ईसा मसीह की कोई कहानी भारत से जोड़ सकें।
ईसा मसीह के कुछ वर्षों के बारे में कुछ पता नहीं है कि वह 12 साल की आयु से लेकर 30 वर्ष की आयु तक कहाँ थे। कुछ लोगों का मानना है कि वह भारत में बौद्ध धर्म का ज्ञान प्राप्त कर रहे थे, लेकिन आम तौर पर इसे सही नहीं माना जाता है।

नारी

शिक्षित नारी स्वयं उबर जाएगी
नवरात्रि को व्यतीत हुए ज्यादा दिन नहीं हुए हैं। नवरात्रि में देवी दुर्गा की शक्ति के रूप में आराधना में जगराते किए गए और व्रत-उपवास रखा गया। यह सब स्त्रियों ने ही नहीं पुरुषों ने भी बढ़-चढ़ कर किया। भारतीय पुरुष भी देवी के शक्तिस्वरूप को स्वीकार करते हैं किंतु स्त्री का प्रश्न आते ही विचारों में दोहरापन आ जाता है। इस दोहरेपन के कारण को जाँचने के लिए हमें बार-बार उस काल तक की यात्रा करनी पड़ती है जिसमें 'मनुस्मृति' और उस तरह के दूसरे शास्त्रों की रचना की गई जिनमें स्त्रियों को दलित बनाए रखने के 'टिप्स' थे।
फिर भी पुरुषों में सभी कट्टर मनुवादी नहीं हुए समय-समय पर अनेक पुरुष जिन्हें हम 'महापुरुष' की भी संज्ञा देते हैं, मनुस्मृति की बुराइयों को पहचान कर स्त्रियों को उनके मौलिक अधिकार दिलाने के लिए आगे आए और न केवल सिद्धांत से अपितु व्यक्तिगत जीवन के द्वारा भी मनुस्मृति के सहअस्तित्व-विरोधी बातों का विरोध किया। इनमें एक महत्वपूर्ण नाम है बाबा साहब डॉ. अंबेडकर का।
जुलाई, 1942 को नागपुर में संपन्न हुई 'दलित वर्ग परिषद्' की सभा में डॉ. अंबेडकर ने कहा था, 'नारी जगत्‌ की प्रगति जिस अनुपात में हुई होगी, उसी मानदंड से मैं उस समाज की प्रगति को आँकता हूँ।' इसी सभा में डॉ. अंबेडकर ने ग़रीबी रेखाGet Fabulous Photos of Rekha से नीचे जीवनयापन करने वाली स्त्रियों से आग्रह किया था कि 'आप सफाई से रहना सीखो, सभी अनैतिक बुराइयों से बचो, हीन भावना को त्याग दो, शादी-विवाह की जल्दी मत करो और अधिक संतानें पैदा करो। पत्नी को चाहिए कि वह अपने पति के कार्य में एक मित्र, एक सहयोगी के रूप में दायित्व निभाए। लेकिन यदि पति गुलाम के रूप में बर्ताव करे तो उसका खुल कर विरोध करो, उसकी बुरी आदतों का खुल कर विरोध करना चाहिए और समानता का आग्रह करना चाहिए।
डॉ. अंबेडकर के इन विचारों को कितना आत्मसात किया गया इसके आँकड़े घरेलू हिंसा के दर्ज आँकड़े ही बयान कर देते हैं। जो दर्ज नहीं होते हैं ऐसे भी हजारों मामले हैं। सच तो यह है कि स्त्रियों के प्रति डॉ. अंबेडकर के विचारों को हमने भली-भाँति समझा ही नहीं। हमने उन्हें दलितों का मसीहा तो माना किंतु उनके मानवतावादी विचारों के उन पहलुओं को लगभग अनदेखा कर दिया जो भारतीय समाज का ढाँचा बदलने की क्षमता रखते हैं।
डॉ. अंबेडकर ने हमेशा हर वर्ग की स्त्री की भलाई के बारे में सोचा। स्त्री का अस्तित्व उनके लिए जाति, धर्म के बंधन से परे था, क्योंकि वे जानते थे कि प्रत्येक वर्ग की स्त्री की दशा एक समान है। इसीलिए उनका विचार था कि भारतीय समाज में समस्त स्त्रियों की उन्नति, शिक्षा और संगठन के बिना, समाज का सांस्कृतिक तथा आर्थिक उत्थान अधूरा है। इसी ध्येय को क्रियान्वित करने के लिए उन्होंने सन्‌ 1955 में 'हिंदू कोड बिल' तैयार किया।
डॉ. अंबेडकर का विचार था कि यदि स्त्री पढ़-लिख जाए तो वह पिछड़ेपन से स्वतः उबर जाएगी। आज स्त्रियों का बड़ा प्रतिशत साक्षर है, फिर भी वह अपनी दुर्दशा से उबर नहीं पाई है। यह ठीक है कि आज गाँव की पंचायतों से ले कर देश के सर्वोच्च पद तक स्त्री मौजूद है लेकिन इसे देश की सभी स्त्रियों की प्रगति मान लेना ठीक उसी प्रकार होगा जैसे किसी प्यूरीफायर के छने पानी को देख कर गंगा नदी के पानी को पूरी तरह स्वच्छ मान लिया जाए।

जीवन के रंगमंच से

तमतमाती गर्मी की कूल-कूल यादें
दिन तमतमाते और रातें बेचैन... ये किसी शायर की रूमानी लाइनें नहीं बल्कि गर्मी की कविता है। सूरज के तीखे तेवर जब घरों की दीवारों तक को झुरझुरी लाने लगते हैं तब अचानक ग्लोबल वॉर्मिंग पर डिस्कशन करते-करते आप खुद पर ही अनजाने में कहर भरी लानतें भेजने लगते हैं। फिर उठते हैं और बगीचे में सजाए ढेर सारे गमलों और पौधों की हरियाली पर नजर दौड़ाकर संतु‍ष्टि का अनुभव करने लगते हैं। अचानक घर में शोर उठता है -लाइट गई... और आपके मुँह से निकलता है-'अरे! फिर से।' गर्मी की ये तस्वीर आपको कुछ देखी-देखी सी लग रही होगी। जी हाँ... आखिर आप अपनी ही डायरेक्ट की हुई फिल्म जो देख रहे हैं।
चलिए थोड़ा फ्लैशबैक में चलते हैं। तब जब आम के पेड़ की घनी छाँह में सोते राहगीरों को किसी फाइव स्टार का सा सुख मिला करता था... जब घर के घुले हुए सत्तू की ठंडक किसी शानदार आइस्क्रीम का सा मजा देती थी... जब पसीने में लथपथ बच्चों के झुंड दिनभर नदी में छलाँग लगाकर छुट्टियाँ बिताया करते थे... जब नानी के किस्से और दादी की कहानियों के लिए इंतज़ार करते बच्चे सोचते थे...उफ... ये कमबख्त दिन कितना लंबा है...जब पेड़ पर बँधे जूट या टायर के झूले पर भी परमानंद की अनुभूति होती थी... जब पाँच पैसे की बरफ की कुल्फी भी खुद के रईस होने का प्रमाण लगती थी।
धीरे-धीरे सुविधाएँ बढ़ीं, विकास हुआ और हम आजकल स्वीमिंग पूल की सदस्यता रखते हैं... हम वो आइस्क्रीम खा सकते हैं जो टीवी पर शाहरुख खाता है...वो पावडर लगा सकते हैं जो हीरोइनों को बर्फ सी ठंडक पहुँचाता है... छुट्टियों के दिन चाहें तो हम किसी हिल स्टेशन पर गुजार सकते हैं...। लेकिन जिस तरह इतिहास खुद को दोहराता है, ठीक वैसे ही हम वापस लौटते हैं फिर से पेड़ों की छाँव में, छत पर छिड़काव कर ठंडक लाने, बर्फ का गोला खाने की ओर।
अचानक आपको याद आता है, अभी पिछले ही दिनों आपके पड़ोसी ने किसी नए फल का ज्यूस यह कहते हुए पिलाया था कि यह न्यूज़ीलैंड से आया है। पहले तो गर्मियों में फल के नाम पर ज्यादातर आम, तरबूज, खरबूज या शकर बाटी ही हुआ करती थी। जिसको खाना घर में एक बड़ा अनुष्ठान बन जाता था। आजकल बाजार में आम हर मौसम में मिलते हैं। इसके अलावा गर्मियों में लाल, हरे, पीले कई अनजान से फल भी आपको दुकानों में सजे दिखाई दे जाते हैं और पूछने पर दुकानदार ठसके से जवाब देता है-'फारेन के हैं।' आप उन 'फारेन' के फलों को खाकर संतुष्ट होना चाहते हैं लेकिन न जाने क्यों आम के रस के बगैर संतु‍ष्टि मिलती नहीं।
हमारे बड़े-बुजुर्गों ने मौसम के हिसाब से खानपान के कुछ नियम बनाए थे जिनमें से कई हम आज भी लागू करते हैं। मसलन रात के खाने में हल्का-फुल्का जैसे खिचड़ी या दलिया आदि खाना। रात का खाना जल्दी खा लेना और उसके बाद घूमने निकल पड़ना या बतियाना ताकि भोजन ठीक से पच सके। आज भी आइस्क्रीम, कुल्फी या फ्रूट चाट खाने के बहाने आपको शहरों में भी लोग परिवार सहित देर रात तक सड़कों पर घूमते मिल जाएँगे।
गर्मी यानी की छुट्टियाँ... स्कूल छूटने के इतने सारे सालों के बाद भी गर्मी के मौसम की अनुभूति नहीं बदली...। यह मौसम वैसा ही उल्लासभरा लगता है, जैसा बचपन में कभी लगा करता था। वसंत में झड़ते पत्तों और चलती बयारों के बीच जिस तरह से परीक्षा का तनाव होता था आज भी उस मौसम में वह महसूस होता है, वैसे ही हर गर्मी में बचपन एक बार फिर से हरिया जाता है। वे खुशनुमा दिन... छुट्टी और पूरा मजा... दिनभर बस धूप के ढलने की फरियाद होती।
शाम जैसे ही होती आसपास किलकारी गूँजने लगती। दिनभर घर में बंद रहने के बाद बच्चे सड़कों पर निकल पड़ते और शुरू हो जाती धमाचौकड़ी। अब फिर आया है... वह मौसम, लेकिन बहुत कुछ बदल गया है। मौसम विशेषज्ञ कहते हैं कि पिछले कुछ सालों में धरती का तापमान बढ़ा है, इसलिए गर्मी ज्यादा लगती है। धरती का तापमान क्यों बढ़ा है, इसके कारण भी वे बताते हैं। महसूस तो हम भी करते हैं कि गर्मी पहले की तुलना में ज्यादा पड़ने लगी है। हमें भी लगता है कि वे सही कहते हैं। तभी तो गर्मियाँ इतनी मुश्किल लगने लगी हैं। शीतल करने वाली तमाम यांत्रिक चीजों के बाद भी यह मौसम बहुत मुश्किल होने लगा है। पहले तो बिना इन सुविधाओं के भी गर्मी बड़ी मजेदार हुआ करती थी और आज... !
गर्मियों में पानी की किल्लत का हिसाब शहरों और गाँवों में अलग-अलग होता था, तो इसके निदान भी जाहिर है अलग-अलग ही होंगे...। गाँवों, कस्बों में नहाने और कपड़े धोने के लिए लोग जलस्रोतों पर जाया करते थे। घरों में बस पीने और छोटी-मोटी जरूरत भर का पानी जमा किया जाता था, नतीजा पानी की खपत कम होती थी और बर्बादी भी...। आजकल घरों में जितने बाथरूम हैं, उन सबमें पानी निर्बाध पहुँच रहा है, नतीजा पानी की खपत बढ़ी है और बर्बादी भी (हाँ, इसमें बढ़ती जनसंख्या भी एक कारक है)। गर्मी के दिनों में आती पानी की किल्लत के समाधान के लिए घरों में ही कुएँ, बोरवेल होते हैं, फिर भी पानी खुट जाए तो प्रशासन है ही... टैंकर चलते हैं, अब आपमें उससे पानी ले पाने का दम-खम हो तो...।
गर्मी के तपन भरे दिनों में सर्दी के बने मटकों के ठंडे पानी से आकंठ शीतलता उतरती थी। जेठ में तो मटकों को जूट के बारदानों से ढँक दिया जाता था, और दिनभर उसे पानी डालकर भिगोया जाता था, ताकि लगातार मिल रही ठंडक से पानी भी ठंडा होता रहे। अब ये सारी कवायद फ्रिज में रखी जाने वाली प्लास्टिक की पानी की बोतलों को भरने के लिए की जाती है। फिर घर के बड़े बुजुर्ग यह कहते सुनाई देते हैं कि 'भई, हमें तो मटके का ही पानी दो, ये फ्रिज का पानी प्यास नहीं बुझाता है।'

सबसे ज्यादा मजेदार समय गर्मियों में शाम से लेकर सुबह तक का होता था, जब सूरज ढल जाता और थोड़ी ठंडक होने लगती, तो घरों की छतें, आँगन, मोहल्ले के चबूतरे और बाजार सभी आबाद होने लगते थे, बाजार तो आज भी इस समय गुलजार होते हैं...। छतों और आँगनों को बुहारकर उस पर पानी का छिड़काव किया जाता और सूखने के बाद रात के लिए या तो खटिया लगती या फिर नीचे ही बिस्तर लग जाते। घर को ठंडा रखने के लिए भी तरह-तरह के उपाय किए जाते... पक्के घरों की छत को चूने से पोत दिया जाता। दरवाजों, खिड़कियों पर खस के टाट लगाए जाते और थोड़ी-थोड़ी देर में उन्हें भिगोया जाता... ठंडी, खुश्बूदार हवा आती रहती...। छुट्टियों की शाम को पीली, उदास रोशनी फेंकते बल्बों के साए में कभी कैरम तो कभी ताश के पत्ते और कुछ नहीं तो अंत्याक्षरी से रात में तब्दील कर दिया करते थे।
फिलहाल, वक्त बदला है तो कुछ परिवर्तन भी हुए हैं। कुछ अच्छे भी हैं..! हालाँकि गर्म‍ी भगाने वाले सारे उपाय मशीनी है। लेकिन बिजली बंद होते ही‍ हम फिर लौटते हैं, हाथ पंखे और मटकों की तरफ। है ना मजेदार बात!

महानायक

तालिबानी हैं अमिताभ के आलोचक-मोदी
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी महानायक अमिताभ के समर्थन में आ गए हैं।

गौरतलब है कि बच्चन की मुंबई y में एक सरकारी कार्यक्रम में उपस्थिति को लेकर कांग्रेस नेताओं में असंतोष पैदा हो गया था, क्योंकि वे गुजरात के ब्रांड एंबेस्डर हैं और उन्हें मोदी का करीबी समझा जाता है।
मोदी ने अपने ब्लॉग पर राज्य में पर्यटन का प्रचार करने के लिए अमिताभ की आलोचना करने वालों को आड़े हाथ लेते हुए उन्हें ‘तालिबानी’ करार दिया है।
मोदी ने बच्चन को महान कलाकार बताया। उन्होंने कहा कि चौतरफा आलोचनाओं के बावजूद गुजरात की गौरवमयी विरासत और उसकी अस्मिता का जिस तरीके से प्रचार करने की उन्होंने जिम्मेदारी ली है, यह प्रेरणादायी है।
मोदी ने कहा कि गुजरात विरोधी अपने रवैये को आगे बढ़ाने के फेर में अस्पृश्यता के इन तालिबानी तत्वों ने अपना आपा ही खो दिया है। उन्होंने कहा गुजरात विरोध में अपने होश खो बैठे ये विकृत अस्पृश्यता के तालीबानी तत्व तो अब भारत में नमक खाने का विरोध करेंगे।
अमूल का दूध या मक्खन खाने पर प्रतिबंध लादेंगे, यहाँ तक कि युवाओं के डेनिम पहनने पर भी प्रतिबंध लादेंगे। वजह? क्योंकि यह सब गुजरात के हैं।
मोदी ने लिखा है दोस्तों, मेरा दिल अब भी यह मानने को तैयार नहीं है कि इन तालिबानों को उस नुकसान का अंदाजा नहीं है जो वे इस देश और हमारे समाज का कर रहे हैं।
गुजरात के मुख्यमंत्री ने गुजरात दंगा मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा नियुक्त एसआईटी द्वारा की गई मैराथन पूछताछ के बारे में भी ब्लॉग में लिखा है।
उन्होंने ब्लॉग में बताया है कि मैंने कानून की प्रक्रिया के साथ सहयोग किया और उसकी सर्वोच्चता को स्वीकार किया। मैं इस मुश्किल घड़ी में जनता के समर्थन और उनकी प्रार्थना के लिए उनका दिल से आभार व्यक्त करता हूँ।
गुलबर्ग सोसायटी नरसंहार मामले में उनकी कथित भूमिका के लिए एसआईटी ने उनसे शनिवार को नौ घंटे से अधिक समय तक पूछताछ की। इस घटना में पूर्व कांग्रेसी सांसद अहसान जाफरी समेत 59 लोग मारे गए थे।

रविवार, 28 मार्च 2010

नरेंद्र मोदी

मोदी ने सुनाई मंदिर आंदोलन की कथा
गुलबर्ग सोसाइटी हत्याकांड के सिलसिले में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने उत्तर से विशेष जाँच दल (एसआईटी) को ही उलझा कर रख दिया।
मोदी ने हर सवाल का उत्तर काफी विस्तार से दिया। उन्होंने अपने उत्तर के दौरान राम मंदिर आंदोलन और गोधरा में राम भक्तों की हत्या से जुड़े तथ्यों को भी एसआईटी के समक्ष रखा। कारण अहमदाबाद के दंगे गोधरा के बाद हुए। एक प्रकार से मोदी ने इस पूछताछ के दौरान राम मंदिर आंदोलन से लेकर गोधरा कांड की संक्षिप्त 'कथा' सुना डाली।

एसआईटी के लगभग हर सवाल के उत्तर में मोदी ने गुजरात की अस्मिता का भी उल्लेख किया। पूर्व कांग्रेसी सांसद अहसान जाफरी की हत्या से संबंधित एक सवाल के उत्तर में मोदी ने कहा कि उस समय की गुजरात सरकार ने अपनी तरफ से हर व्यक्ति की जान-माल की सुरक्षा करने का पूरा प्रयास किया। बिना यह देखे कि कौन सांसद है और कौन नहीं। एसआईटी के सवालों पर मोदी कभी कुटिल मुस्कान हँसते तो कभी चुप्पी साध लेते।
मोदी से एसआईटी के सवाल तो सीधे थे, मगर मोदी के उत्तर लंबे और घुमावदार। पूरी पूछताछ के दौरान मोदी ने यही दिखाने की कोशिश की कि वे पूरा सहयोग कर रहे हैं। जितना चाहो उतनी देर तक पूछताछ करो।

पहला सवाल : मोदी से एसआईटी का पहला सवाल गोधरा ट्रेन हादसे के बाद गुजरात बंद के आह्वान को लेकर था। एसआईटी मोदी से यह जानना चाहती थी कि क्या इस बंद का आह्वान उन्होंने किया था? इस सवाल के उत्तर में पहले तो मोदी ने अयोध्या आंदोलन और गोधरा में राम भक्तों की हत्या का विस्तारपूर्वक उल्लेख किया।

मोदी ने कहा- मैंने बंद का आह्वान नहीं किया था, लेकिन गोधरा की घटना के बाद तनाव को देखते हुए उनकी सरकार ने सुरक्षा की दृष्टि से लोगों से सद्भाव और शांति बनाए रखने का आह्वान किया था।

दूसरा सवाल : गोधरा कांड के बाद 27 फरवरी को हुई कैबिनेट की बैठक में क्या हुआ?

मोदी ने कहा- सबका मत था कि गोधरा के दोषियों को तत्काल पकड़ा जाए, ताकि लोग उत्तेजित न हों, साथ ही इस बात का भी प्रयास किया जाए कि साम्प्रदायिक सद्भाव न बिगड़े।

तीसरा सवाल : गुजरात के मंत्री दंगे के दौरान कंट्रोल रूम में बैठे थे, उन्हें किसने वहाँ भेजा था?

मोदी का जवाब था- सरकार के सभी मंत्री स्थिति को नियंत्रण करने में लगे थे। कंट्रोल रूम में उनकी मौजूदगी से संबंधित सवाल इस बात का प्रमाण है। दंगों को रोकने संबंधी सवाल पर मोदी ने कहा कि दंगों के दौरान जिसने हिंसा की, उसे पकड़ा गया। इसमें बहुसंख्यक भी थे और अल्पसंख्यक भी। मेरी जानकारी के अनुसार अल्पसंख्यकों की जानमाल की सुरक्षा के लिए बहुसंख्यक समाज के अधिक लोगों को गिरफ्तार किया गया।

बिग बी

गुटबाजी का नतीजा है बिग बी का मसला
अमिताभ बच्चन के साथ महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण द्वारा मंच साझा करने पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी की वजह से नहीं, बल्कि मुंबई कांग्रेस की गुटबाजी की वजह से बवाल हुआ।
मुंबई और दिल्ली के कुछ कांग्रेसी नेताओं ने इसमें अपनी रोटियाँ सेंकी व अशोक चव्हाण से पुराना हिसाब चुकाया। राहुल गाँधी की सफल मुंबई यात्रा से चव्हाण का ग्राफ पार्टी में जितना अच्छा था, उनके विरोधियों ने बच्चन को मुद्दा बनाकर चव्हाण को कमजोर साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
मुंबई में हुए कार्यक्रम में अमिताभ बच्चन को एनसीपी नेता और लोक निर्माण मंत्री छगन भुजबल ने सिर्फ इसलिए आमंत्रित किया था कि इससे कार्यक्रम में आकर्षण बढ़ जाएगा। लेकिन कार्यक्रम के लिए अखबारों में छपे विज्ञापन, निमंत्रण पत्र में मुंबई प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कृपाशंकर सिंह और अन्य प्रमुख कांग्रेसियों के नाम नहीं दिए गए और न ही इन्हें बुलाया गया।
इससे इन कांग्रेसी नेताओं ने भी अपना हिसाब चुकता करने की ठान ली और इस मामले को अमिताभ की गुजरात सरकार की तारीफ और ब्रांड एंबेसडर बनने से जोड़ते हुए ऐसा मुद्दा बना दिया कि दिल्ली में कांग्रेस नेतृत्व को भी चव्हाण को नसीहत देना पड़ी।

ज़रा हटके

जो दिखा आकाश में, वो क्या था?
सिडनी। ब्रह्मांड के बारे में वैज्ञानिक भले ही बहुत कुछ जान गए हैं, लेकिन उससे ज्यादा जानने को बाकी है। शनिवार की शाम आस्ट्रेलिया की राजधानी सिडनी के आकाश में ऐसा ही रहस्यमय नजारा देखने का मिला। सूर्यास्त के समय आकाश में एक अनोखी चीज उड़ती हुई दिखी, और इसे कैमरे में कैद कर लिया गया।
फिओना हार्टिगन नाम की एक महिला ने इसे सबसे पहले देखा और इसके चित्र कैमरे में कैद किए। उन्होंने बताया कि जैसे ही मैंने एक काले रंग की वस्तु देखी, मैंने उसकी फोटो खींचनी चाही, कुछ ही पलों में यह वस्तु हिलने-डुलने लगी। उन्होंने कहा कि पहले यह करीब 800 मीटर की दूरी पर दिखाई दी, फिर यह 400 मीटर तक निकट आ गई। उसके बाद उसके बगल में छल्ले जैसे आकार की दो वस्तुएं दिखाई दी।
उन्होंने बताया कि इसमें कोई आवाज नहीं हो रही थी। लेकिन यह बहुत ही आश्चर्यजनक चीज थी। फिओना ने कहा कि दो छोटे यूएफओ [अनआइडेंटीफाइड फ्लाइंग आब्जेक्ट] विपरीत दिशा में चले गए, जबकि बड़ा यूएफओ गायब हो गया। उन्होंने कहा कि मैं इसे समझा पाने में असमर्थ हूं, लेकिन यह बहुत ही अनोखी घटना थी।
न्यू साउथ वेल्स के यूएफओ रिसर्च के विशेषज्ञ डाउ मोफेट ने बताया कि आस्ट्रेलिया में हर साल एक से डेढ़ हजार उड़न तश्तरियां दिखती हैं। उन्होंने कहा कि अब तक कोई भी इनके रहस्य को जान नहीं पाया है। शायद यह विद्युतीय घटना हो सकती हैं या पृथ्वी से दूर कोई जीवन या फिर कुछ और।

बीयर से बाल धोती हैं जेटा जोंस
लंदन। हालीवुड अभिनेत्री कैथरीन जेटा जोंस के लहराते बालों की चमक का राज अब खुला है। आस्कर जीत चुकी यह खूबसूरत अभिनेत्री शहद और बीयर से अपने बाल धोती है। ओके पत्रिका में खुद जोंस ने राज पर से परदा उठाया है।
जोंस ने पत्रिका को दिए इंटरव्यू में कहा कि मैं अपने सौंदर्य के प्रति बहुत सजग रहती हूं। त्वचा पर मैं शहद और नमक का लेप लगाती हूं, इससे त्वचा नर्म और मुलायम बनी रहती है। इसी तरह अपने बालों को चमकदार बनाने के लिए मैं शहद और बीयर इस्तेमाल करती हूं। हालांकि इसके बाद कई दिनों तक मैं ऐसा महसूस करती हूं मानो बीयर के बैरल से निकल कर आई हूं। वैसे, 40 वर्षीय इस सुंदरी ने इन दिनों खूब लोकप्रिय हो रहे साइज जीरो के प्रति अपना विरोध दर्ज किया है। वह कहती हैं, यह लुक मुझे बहुत ही डरावना लगता है। मैं कभी जिम में दुबली होने के लिए नहीं गई। वहां जाने का लक्ष्य सदा फिट रहना रहा है।

चाहिए पति किराये पर..! कुआलालंपुर। मलेशिया में टिके रहने के लिए विदेशी सेक्स वर्कर किराए के पति खोज रही हैं। इसके लिए वह स्थानीय पुरुषों को एक महीने के पंद्रह सौ डालर [करीब 70 हजार रुपये] देने को भी तैयार हैं।
समाचार पत्र द न्यू स्ट्रेटस टाइम्स के अनुसार विदेश से आईं सेक्स वर्कर ऐसा इसलिए करती हैं, ताकि यहां अपने पेशे को जारी रख सकें। आव्रजन विभाग के डायरेक्टर जनरल अब्दुल रहमान ओथमान ने बताया कि सेक्स वर्कर अपनी वीजा को लंबे समय तक वैध करने के लिए स्थानीय पुरुषों से शादी करना चाहती हैं, लेकिन जब ऐसा नहीं कर पातीं, तो किसी पुरुष को किराये का पति बना लेती है। उसकी पत्नी की पहचान बना कर वह अपना काम करती है।
रहमान के अनुसार पिछले दिनों आव्रजन अधिकारियों ने जो छापे मारे हैं उनमें से 25 विदेशी सेक्स वर्करों में से एक ने वाकई शादी की थी, जबकि बाकी के पति किराए के थे। वे अपने पतियों को जानती तक नहीं थी, उसी तरह उनके पतियों को भी उनका नाम याद नहीं था।
मलेशिया में वेश्यावृत्ति पर पाबंदी है। ऐसे में अगर कोई सेक्स वर्कर शादी कर लेती है, तो उसकी शादी कानूनी रूप से मान्य होती है। जिस कारण आव्रजन कानूनों के तहत उसे जबर्दस्ती देश से भेजा नहीं जा सकता।

मिली सौतन बनने की सजा!लास एंजिलिस। अगर किसी महिला का पति बेवफाई करे और कीमत उसकी प्रेमिका को चुकानी पड़े तो क्या कहेंगे? ऐसा मामला अमेरिका के नार्थ कैरोलिना अदालत में आया, जब साठ साल की सिंथिया शैकेलफोर्ड ने अपील की कि उसके पति एलन का एक अन्य महिला एनी से पे्रम होने के कारण उनकी शादी टूट गई। उनकी भावनाएं आहत हुई। उनके दो जवान बच्चे हैं। सिंथिया ने एनी पर घर तोड़ने और भावनाओं को आहत करने का मुकदमा दर्ज किया।
कोर्ट में ज्यूरी ने सिंथिया की याचिका को सही मानते हुए एनी को दंड दिया कि वह सिंथिया को मुआवजे के तौर पर 90 लाख डालर [करीब चालीस करोड़ अस्सी लाख रुपये] दे। सिंथिया ने गुड मार्निग अमेरिका शो में कहा कि मेरा मकसद उन सभी महिलाओं को सबक सिखाना था, जो शादीशुदा मर्दों को अपने चक्कर में फंसाती हैं। मैं चाहती हूं कि लोग समझें, ऐसा करने से किसी को कितनी परेशानी होती है।
उधर, 49 वर्षीय एनी का कहना है कि मेरे पास देने के लिए इतना पैसा नहीं है। सिंथिया के 62 वर्षीय पूर्व पति, एलन का मानना है कि एनी शादी टूटने के लिए जिम्मेदार नहीं है। उनके और सिंथिया के बीच वर्षो से समस्याएं थी जिस कारण उनकी शादी टूट गई।
गौरतलब है कि अमेरिका में नार्थ कैरोलिना समेत सात राज्यों में 19वीं सदी का एलीनिएशन आफ अफेक्शन कानून अब भी अस्तित्व में है, जिसके तहत एनी को यह सजा सुनाई गई है।

एक विजेता ऐसा भी

कभी-कभी वो पोस्ट ऑफिस के साथ वाली गली से निकलकर, अचानक मेरे सामने आ जाता है। नाक पर टिका हुआ इतने मोटे लैंस का चश्मा कि लैंस के पीछे छुपी हुई उसकी आंखें बिल्कुल भी दिखलाई नहीं देतीं। सिर पर घने घुंघराले बाल। कुछ लम्बाई लेता हुआ तीखे नाक-नक्श वाला चेहरा। दरमियाना कद और दुबली काठी पर झूलते हुए ढीले-ढाले कपड़े। कमोबेश उसका हुलिया आज भी वैसा ही है जैसा वर्षो पहले विद्यालय में पढ़ने के समय हुआ करता था। तीस-पैंतीस साल बाद भी उसमें ऐसा कोई परिवर्तन नहीं आया है कि उसे पहचाना न जा सके। अलबत्ता बढ़ती हुई आयु के साथ अब वो उतना दुबला नहीं दिखता जितना कि छात्र जीवन में दिखा करता था।
विद्यालय में वो दंगल का दिन था। ब्वॉयस हॉस्टल के खुले मैदान के एक कोने में खोदकर बना लिए गए अखाड़े में कुछ तगड़े और कुछ बेहद तगड़े पहलवाननुमा लड़के ताल ठोंक रहे थे। उनके शरीर का गठन देखकर ही लगता था कि वे कायदे के पहलवान है। चारों ओर दंगल देखने को जुट आए छात्रों की भीड़ जमा थी। दंगल शुरू हुआ। एक के बाद एक पहलवान पटके जाने लगे। जो जीतता वो हुंकारता हुआ अखाड़े का चक्कर काटता और शाबाशी लेकर कपड़े पहन लेता। दंगल के अंतिम चरण में एक लम्बे-चौड़े गठे हुए शरीर वाला पहलवान लगातार जीत रहा था। उसने दो तीन पहलवानों को बुरी तरह पटककर चित कर दिया था और अब हुंकारता, ताल ठोंकता और ललकारता हुआ अखाडे़ में किसी शेर की तरह घूम रहा था। भीड़ में बहुत से छात्र उसके पक्ष में आवाज भी उठा रहे थे। वह काफी देर तक ताल ठोंकता हुआ अखाड़े में घूमता रहा पर कोई भी पहलवान उससे कुश्ती लड़ने के लिए तैयार नहीं हुआ। दरअसल उससे लड़ चुके पहलवानों का हश्र सभी ने देख लिया था और अब कोई भी उससे भिड़ने का हौंसला नहीं जुटा पा रहा था।
उछल-उछलकर ताल ठोंकते और अखाड़े में चारो तरफ घूमते हुए अचानक वो पहलवान चिल्लाने लगा ''कोई मर्द नहीं रहा? जिसने मां का दूध पिया हो, आ जाए।''
वो बार-बार उछल-उछलकर ललकार रहा था। उसका स्वर इतना तीखा और अशिष्ट हो चुका था कि भीड़ में सन्नाटा पसर गया। उसके पक्ष में बोलने वाले छात्र भी चुप हो गए। निश्चय ही उसकी विजय ने उस पर नशा जैसा कर दिया था और वो अपनी विजय के दर्प में अखाड़े की मर्यादा भी भूल गया था। सारी भीड़ सकते में खड़ी थी, शायद भीतर ही भीतर उसकी ललकार पर कुढ़ भी रही थी- पर कुछ भी बोलने की हिम्मत किसी में नहीं थी।
पहलवान ने फिर ललकार भरी और अखाड़े का चक्कर लगाया। तभी हमने देखा कि भीड़ में खड़ा हुआ एक बेहद दुबला-पतला लड़का आगे बढ़कर चीखते हुए कह रहा है-''ठहर जा। मैं लड़ूंगा।'' पहलवान ने उस लड़के को गौर से देखा और ठहाका लगाकर हंसा। जैसा कि भीड़ का मनोविज्ञान होता है, भीड़ भी पहलवान की हंसी के समर्थन में हंसने लगी। पर इन बातों को उस लड़के पर कोई प्रभाव नहीं हुआ। उसने हाथ से घड़ी उतारकर अपने साथी को पकड़ाई और कमीज के बटन खोलने लगा। जिस समय उसने बनियान उतारी तो भीड़ एक बार फिर हंसी। वो इतना दुबला था कि उसकी एक-एक पसली दिखलाई दे रही थी।

साधारण से झूलते हुए कच्छे में अपना दुबला-पतला शरीर लेकर वो अखाड़े में घुसा और किसी पहलवान ही की तरह माटी को माथे से लगाया और ताल ठोंकी। सूखी हुई पतली-पतली टांगों पर उसके हथेली मारते ही भीड़ की फिर हंसी छूट गई। कोई क्या करता वो दृश्य ही ऐसा था। किसी को ध्यान आया कि उस लड़के ने चश्मा नहीं उतारा है। उसे पुकार कर चश्मा उतारने के लिए कहा गया। पर उसने सुना-अनसुना कर दिया। तभी पलक झपकते ही अब तक के विजेत पहलवान ने उसे उठाकर अखाड़े में पटक दिया। उसके जमीन पर गिरते ही चश्मा छिटककर दूर जा गिरा। वो फुर्ती से उठ बैठा पर शायद चश्में के बिना उसे कुछ भी स्पष्ट दिखाई नहीं दे रहा था। वो मिट्टी में हाथ मार-मार कर चश्मा ढूंढ़ने लगा। भीड़ फिर हंसने लगी। उसके दोस्त ने चश्मा उठाकर उसे पहनाया तो वो फिर खड़ा होकर पहलवान की तरफ लपका।
कुछ ही क्षणों मे उसे आठ-दस पटकनी लग चुकी थीं। पहलवान के सामने उसकी स्थिति शेर और मेमने वाली थी।
''मर जाएगा। अखाड़ा छोड़ दे।'' इस बेजोड़ कुश्ती से शायद पहलवान भी खिसिया गया था। ''मरूंगा तो मैं, तू क्यों परेशान होता है।'' उसने हांफते हुए जवाब दिया। पहलवान ने उसे उठाकर कुछ और पटकियां दीं। इस बार भी उसने बेहद लड़खड़ाते हुए कदमों से उठने की कोशिश की पर गिर गया फिर किसी तरह उठ खड़ा हुआ। उस लड़के की हालत अब तक, काफी बिगड़ चुकी थी पर वो पीछे हटने को तैयार नहीं था।

पता नहीं क्यों पहलवान उसे चित करके कुश्ती खत्म नहीं कर रहा था। शायद पटक-पटककर उसे उसकी धृष्टता का मजा चखाना चाहता था या फिर सोचता था कि इतनी पटकनियों के बाद वो खुद ही भाग जाएगा। क्योंकि उस जैसे दुबले-पतले कमजोर लड़के को चित करके पहलवान को न तो वाह-वाही मिलने वाली थी और न ही आत्म-संतोष।
लड़के की बिगड़ती हुई हालत देख कर अब तक आनंद ले रही भीड़ चिंतित होने लगी, पहले भीड़ में से उसके बचाव में आवाजें उभरने लगीं और फिर एका-एक काफी लोग अपने जूतों सहित अखाड़े में उतर आए। कुश्ती रोक दी गई। कुछ ने जबरन उस लड़के को किनारे किया और कुछ लड़के समझाकर पहलवान को दूसरी तरफ ले गए। पर ज्यादा भीड़ उस कमजोर लड़के को घेर कर खड़ी हुई थी। वो लड़का धीरे-धीरे बदन से मिट्टी झाड़ते हुए घड़ी, कपड़े, मोजे पहन रहा था और बुरी तरह हांफ रहा था।

''तुझे क्या हो गया था भाई! पहाड़ से सिर टकराने लगा।'' किसी ने हंसते हुए कहा। लड़ने ने जवाब देने की कोशिश की पर उसकी सांस इतनी उखड़ी हुई थी कि बोल नहीं सका। यद्यपि उसके हाव-भाव से लग रहा था कि वो अभी भी पीछे हटने को तैयार नहीं है।
उस दिन तो शायद मैं भी उस कमजोर लड़के को लगती हुई पटकनियों पर हंसा था। पर जैसे-जैसे आयु बढ़ती गई मेरे मन से उस लड़के के लिए सम्मान बढ़ता गया। मां के दूध और मर्दानगी को ललकारने वाली उस पहलवान की अशिष्ट और अमर्यादित चुनौती के सामने खड़ा होने वाला उस भीड़ में कोई एक तो था।
आज न तो वो मुझे जानता है, न मैं उसे जानता हूं। मैं उसे पहचानता हूं, वो तो शायद मुझे पहचानता भी नहीं। पर जब कभी भी वो मुझे सड़क पर मिल जाता है तो मैं हाथ हिलाकर गर्दन की हल्की सी जुम्बिश के साथ उसका अभिवादन करता हुआ आगे बढ़ जाता हूं। मैंने कई बार अनुभव किया है कि वो अपने मोटे चश्में के पीछे से मुझे पहचानने की चेष्टा कर रहा है। वास्तव में तो यहां मेरी पहचान का कोई अर्थ है भी नहीं। शायद मैं कभी उसे बता भी न पाऊं कि एक दिन भीड़ के साथ मैं भी उस पर हंसा था। पर मेरे भीतर उसकी पहचान और सम्मान एक वास्तविक विजेता की सी है जो हकीकत में भले ही कहीं भी दर्ज न हो पर मेरे भीतर ता-उम्र दर्ज रहेगी।

बालिका वधु

बालिका वधु में नया किरदार
दर्शकों के मन में यह सवाल उठ रहा है कि टीपरी का किरदार बालिका वधु में क्यों लाया गया है? यह किरदार बालिका वधु की कहानी को कौन सा मोड़ देगा? इसका जवाब सिर्फ बालिका वधु सीरियल के लेखक पुर्णेन्दु शेखर के पास है। पुर्णेन्दु शेखर बताते हैं, बालिका वधु के हर किरदार की अपनी एक कहानी है और उनकी कहानियों को हम बता चुके हैं। सिर्फ आनंदी के सास-ससुर भैरों और सुमित्रा का अतीत शेष है। भैरों और सुमित्रा को अच्छे दंपति, स्नेही मां-बाप और अच्छे सास-ससुर के रूप में दर्शकों ने देखा है। अब तक उनके अपने रिश्ते में कोई ड्रैमेटिक एलीमेंट नहीं आया। टीपरी का किरदार उनके रिश्ते में वह चीज लाएगा।
टीपरी बताएगी कि परिवार को एकजुट करने में बहू कितनी बड़ी भूमिका निभाती है। इसके साथ ही टीपरी का किरदार सुमित्रा और आनंदी के रिश्तों को और मजबूत करेगा। पुर्णेन्दु शेखर कहते हैं, टीपरी साइकलोजिकली नाजुक किरदार है। मां सा के परिवार से उसका पुराना नाता है। वह बचपन में मां सा, भैरों और बसंत के साथ खेली है। उसका वह जुड़ाव अब तक छूटा नहीं है। पुर्णेन्दु कहते हैं कि टीपरी अपने आप में पॉजिटिव है, लेकिन दर्शकों की नजर में वह ग्रे हो सकती है। टीपरी का किरदार बालिका वधु में लंबे समय तक रहेगा।
साक्षी तंवर टीपरी के किरदार को अपने लिए चैलेंजिंग मानती हैं। साक्षी कहती हैं, मैं नर्वस हूं। मैं किरदार का सुर पकड़ने की कोशिश कर रही हूं। मुझे विश्वास है कि मैं दर्शकों को निराश नहीं करूंगी।

गुरुवार, 25 मार्च 2010

महिला विशेष

कब तक सहेंगे विषमता का जहर

हाल ही में 'भारत लिंग भेदभाव समीक्षा 2009' की रिपोर्ट को जारी किया गया, जिसमें इस तथ्य को उद्घाटित किया गया कि भारत लिंग जनित विश्व आर्थिक मंच की 134 देशों की सूची में 114वें स्थान पर है। विकास के मामले में दक्षिण अफ्रीका, नेपाल, बांग्लादेश एवं श्रीलंका भले ही भारत से पीछे हों, परंतु स्त्रियों और पुरुषों के बीच असमानता की सूची में इनकी स्थिति भारत से बेहतर है।
गाँवों और शहरों दोनों ही स्थानों में महिलाएँ स्वतंत्रता के छह दशक बीत जाने के बावजूद भी दोयम दर्जे की नागरिकता पा रही हैं। इस सभ्यता को देश की राष्ट्रपति श्रीमती पाटिल ने भी स्वीकार किया है। उनके अनुसार 'आजादी के बाद देश में महिलाओं का काफी विकास हुआ, लेकिन लैंगिक असमानता के क्षेत्र में अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है।'
चंद महिलाओं की उपलब्धियों पर पीठ थपथपाता भारत इस सत्य को स्वीकार करेगा कि भारतीय महिलाएँ न केवल दफ्तर में भेदभाव का शिकार होती हैं, बल्कि इसके साथ ही साथ कई बार उन्हें यौन शोषण का भी शिकार होना पड़ता है। देश में महिलाओं को न तो काम के बेहतर अवसर मिलते हैं और न ही पदोन्नति के समान अवसर। जो महिलाएँ नौकरी पा भी गईं वे भी शीर्ष पदों तक नहीं पहुँच पातीं महज 3.3 प्रतिशत महिलाएँ ही शीर्ष पदों तक उपस्थिति दर्ज करा पाती हैं।
'समान कार्य के समान वेतन' की नीति सिर्फ कागजों तक ही सीमित है। श्रम मंत्रालय से मिले आंकड़ों से पता चलता है कि कृषि क्षेत्र में स्त्री और पुरुषों को मिलने वाली मजदूरी में 27.6 प्रतिशत का अंतर है। दुर्भाग्य की बात तो यह है कि झाड़ू लगाने जैसे अकुशल काम में स्त्री और पुरुष श्रामिक में भेदभाव किया जाता है।
महिला आर्थिक गतिविधि दर (एफईएआर) भी केवल 42.5 प्रतिशत है, जबकि चीन में यह दर 72.4 प्रतिशत और नॉर्वे में 60.3 प्रतिशत है। वैश्विक आकलन से पता चलता है कि विश्व के कुल उत्पादन में करीब 16 ट्रिलियन (160 खरब) डॉलर का अदृश्य योगदान देखभाल (केयर) अर्थव्यवस्था से होता है और इसमें से भारत की महिलाओं का मुद्रा में परिवर्तनीय और अदृश्य योगदान 11 ट्रिलियन (110 खरब) डॉलर का है।
यूनीसेफ की रिपोर्ट यह सुनिश्चित करती है कि महिलाएँ नागरिक प्रशासन में भागीदारी करने में सक्षम हैं। यही नहीं वे महिलाओं और बच्चों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए सभी तरीकों का निश्चित प्रयोग करती हैं और यह पूर्णतया सत्य है कि महिलाओं के सही प्रतिनिधित्व के बगैर किसी भी क्षेत्र में काम ठीक से और सौहार्द्र के साथ नहीं हो सकता परंतु आज भी राजनीति पर महिलाओं का असर नाममात्र का है। विभिन्न देशों में महिलाओं के संसद में प्रतिनिधित्व के संबंध में जारी की गई इंटर पार्लियामेंटरी यूनियन में भारतीय संसद में पुरुषों के 92 प्रतिशत की तुलना में महिलाओं का प्रतिशत मात्र 8 है।
भारत में महिला संवेदी सूचकांक लगभग 0.5 है, जोकि यह स्पष्ट करता है कि महिलाएँ मानव विकास की समग्र उपलब्धियों से दोहरे तौर पर वंचित हैं। विकसित देशों में प्रतिलाख प्रसव पर 16-17 की मातृ मृत्यु दर की तुलना में भारत में 540 की मातृ मृत्यु दर, स्वास्थ्य रक्षा और पोषक आहार सुविधाओं में ढाँचागत कमियों की ओर इशारा करती है। देश का सबसे दुःखद पहलू तो यह है कि यहां जन्म से पूर्व ही लिंग के प्रति भेदभाव आरंभ हो जाता है।भारत में बालिका भ्रूण हत्या के संदर्भ मे नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने इस चिंता से सहमति जताई है कि इस कुप्रथा के चलते देश में ढाई करोड़ बच्चियाँ जन्म से पूर्व ही गुम हो गईं। यही नहीं, डब्ल्यूईएफ ने बच्चियों के स्वास्थ्य और जीवन प्रत्याशा के आँकड़ों के हिसाब से भी पुरुष-महिला समानता की सूची में निम्नतम पायदान पर पाया है। विश्व अर्थिक मंच की रिपोर्ट में कहा गया है कि स्वास्थ्य और जीवित रहने जैसे मसलों में पुरुष और महिलाओं के बीच लगातार अंतर बना हुआ है। समीक्षा में कहा गया है कि हर दिन बच्चों को जन्म देते समय या इससे जुड़ी वजहों से तीन सौ भारतीय महिलाओं की मौत होती है।
यह निर्विवादित सत्य है कि स्त्रियों की स्थिति में आमूलचूल परिवर्तन हो सकता है अगर वह 'शिक्षित' बनें, परंतु आज भी भारत का एक बड़ा वर्ग यह विश्वास करता है कि शिक्षा से स्त्री का कोई सरोकार नहीं होना चाहिए, क्योंकि स्त्री की सीमा पार की चारदीवारी ही है और इसका परिणाम है शिक्षा के क्षेत्र में लड़कों के 73 प्रतिशत की तुलना में लड़कियों का प्रतिशत 48 है।
जीवन के मूलभूत अधिकारों से वंचित देश की महिलाएँ अनवरत रूप से असमानताओं के देश झेल रही हैं। 'जब स्त्रियाँ आगे बढ़ती हैं तो परिवार आगे बढ़ते हैं, गाँव आगे बढ़ते हैं और राष्ट्र भी अग्रसर होता है' - हमारे देश के सामाजिक आर्थिक विकास की समूची अवधारणा का मूल आधार पंडित जवाहरलाल नेहरू के ये शब्द रहे हैं पर क्या हम वाकई इस तथ्य को आत्मसात कर पाए हैं?

विषमता-का-जहर

सारी नसीहतें बस उसके लिए
' देखो तो किस कदर कंधे पर हाथ रखकर वह उस लड़के से बात कर रही है। जरा भी लाज-शर्म नहीं। पूरा कॉलेज उसे देख रहा है लेकिन वह है कि अपने प्रेमालाप में इस कदर खोई है कि उसे कुछ दिखाई नहीं दे रहा है। लगता है अपने माँ-बाप का नाम नीचा करके ही दम लेगी। मैं तो कहूँ कि इस तरह लड़कों के साथ कॉलेज में हरकत करने वाली लड़की को कॉलेज से ही निकाल देना चाहिए, क्योंकि ये लड़कियाँ ही दूसरी लड़कियों को बिगाड़ती हैं।'
यह टिप्पणी कॉलेज की एक महिला प्राध्यापक ने जब की, तो मैं सोच में पड़ गई कि प्रेमालाप में तो लड़का व लड़की दोनों ही संलग्न थे, तो फिर लड़की के चरित्र पर ही उँगली क्यों उठाई गई। शायद इसलिए कि वह एक लड़की है। मैडम चाहतीं तो यह भी कह सकती थी कि कैसा बेशर्म लड़का है।
वैशाली और रोहित की सगाई दो महीने रही, फिर किसी बात पर सगाई टूट गई। रोहित के पिता एक दिन जब किसी काम से घर आए, तो मैंने उनसे सगाई टूटने का कारण पूछा, वे तपाक से बोले 'चरित्रहीन थी लड़की।' उसके पहले से ही किसी लड़के के साथ प्रेम संबंध थे। ऐसी लड़की को भला बहू कैसे बनाते? बल्कि सच तो यह था कि लड़के का ही एक अन्य लड़की से अफेयर चल रहा था और इस वजह से उसने ही शादी करने से इंकार कर दिया था।
पुरुष प्रधान समाज में नैतिकता की सारी नसीहतें महिलाओं के लिए ही हैं। पुरुष तो जैसे दूध का धुला है। पुरुष चाहे कितना ही दुश्चरित्र हो पर उँगली सदैव महिला के चरित्र पर ही उठेगी। बलात्कार की घटनाओं में भी पीड़िता के प्रति लोगों की सहानुभूति नहीं होती अपितु इसके लिए उसके चरित्र को ही दोषी माना जाता है। गोया उसने जानबूझकर बलात्कार करवाया हो।
बलात्कार करने वाला खुलेआम घूमता है, लेकिन जहाँ-जहाँ पीड़िता जाती है, वहाँ-वहाँ उसके चरित्र पर उँगली उठाई जाती है। नारी सशक्तिकरण के चाहे जितने दावे किए जाएँ, लेकिन पुरुषों को खोट नारी के चरित्र में ही नजर आती है। यहाँ तक कि कोई विवाहिता किसी गैर मर्द के साथ दो पल हँस-बोल भी ले, तो पति की नजर में वह पतिता हो जाती है। पति की यह सोच क्या पत्नी की कोमल भावनाओं को ठेस नहीं पहुँचाती?
होस्टल में रहकर पढ़ने या नौकरी के कारण अपने घर-परिवार से दूर रहने वाली लड़कियों और महिलाओं को भी लोग शक की नजर से देखते हैं। यदि कभी वे किसी लड़के या पुरुष के साथ देखी जाती हैं तो उसके चरित्र पर संदेह किया जाता है। उसका चरित्र कितना ही अच्छा क्यों न हो, उसे कलंकित करने का प्रयास किया जाता है। एक उम्र के बाद यदि कोई लड़की शादी नहीं करती या फिर शादी न करने का फैसला लेती है तो उस अकेली औरत का भी समाज जीना हराम कर देता है।
उसके बारे में तरह-तरह की अफवाहें फैलाई जाती हैं। कोई कहता है कि इसका तो शुरू से ही चाल-चलन ठीक नहीं था, इसलिए कोई शादी करने को तैयार नहीं हुआ, तो कोई कहता है कि उसे तो आजादी चाहिए छुट्टा रहने की। यानी जितने मुँह उतनी बातें। यदि अकेली अविवाहित औरत अच्छा पहनती-ओढ़ती है, सजती-सँवरती है, तो उसे दुश्चरित्र करार दे दिया जाता है कि वह किसके लिए यह सब कर रही है? किसी को उसकी खुशी से कोई वास्ता नहीं।
लोगों को महिलाओं के प्रति अपनी धारणा बदलनी होगी। औरत का सम्मान करना सीखना होगा। उसे दोयम दर्जे की या हेय न समझें। वह पैरों की जूती नहीं है कि चाहे जैसा व्यवहार किया जाए। उसका अपना भी समाज में एक स्थान, स्वाभिमान और इज्जत है। उसके चरित्र पर अनावश्यक दोषारोपण करने का अधिकार किसी को नहीं है। जो लोग महिलाओं के चरित्र पर उँगली उठाते हैं, उन्हें पहले अपने चरित्र को देखना चाहिए।

रोमांस

कितना खूबसूरत है प्यार !
कौन-सा जादू है इस नन्हे शब्द 'प्यार' में कि सुनते ही रोम-रोम में शहद का मीठा अहसास जाग उठता है। जिसे लव हुआ नहीं, उसकी इच्छा है कि हो जाए, जिसे हो चुका है वह अपने सारे 'एफर्ट्स' उसे बनाए रखने में लगा रहा है। प्रेम, प्यार, इश्क, मोहब्बत, नेह, प्रीति, अनुराग, चाहत, आशिकी, लव। ओह! कितने-कितने नाम। और मतलब कितना स्वीट, सोबर और ब्यूटीफूल। आज प्रेम जैसा कोमल शब्द उस मखमली लगाव का अहसास क्यों नहीं कराता जो वह पहले कराता रहा है?
जो इन नाजुक भावनाओं की कच्ची राह से गुजर चुका है वही जानता है कि प्यार क्या है? कभी हरी दूब का कोमल स्पर्श, तो कभी चमकते चाँद की उजल‍ी चाँदनी।
उसकी स्माइल के पर दिल में गुलाल की लहर का उठना है प्यार। उसके पहले उपहार से शरबती आँखों की बढ़ जाने वाली चमकीली रौनक है प्यार। कितने रंग छुपे हैं प्यार के अहसास में?
NDसूखे हुए फूल की झरी हुई पँखुरी है प्यार। किसी किताब के कवर में छुपी चॉकलेट की पन्नी भी प्यार है और बेरंग घिसा हुआ लोहे का छल्ला भी। प्यार कुछ भी हो सकता है। कभी भी हो सकता है। बस, जरूरत है गहरे-गहरे और बहुत गहरे अहसास की।

प्यार का अर्थ सिर्फ और सिर्फ देना है। और देने का भाव भी ऐसा कि सब कुछ देकर भी लगे कि अभी तो कुछ नहीं दिया।
प्यार किसी को पूरी तरह से पा लेने का स्वार्थ नहीं है, बल्कि डेटिंग पर अकेले में एक-दूजे को देखते रहने की भोली तमन्ना है प्यार। बाइक पर अपने साथी से लिपट जाना ही नहीं है प्यार, एक-दूसरे का रिस्पेक्ट और डिग्न‍िटी है प्यार। उधार लेकर प्रेशियस गिफ्ट खरीदना ही नहीं है प्यार, बल्कि अपनी सैलेरी से खरीदा भावों से भीगा एक रेड रोज भी है प्यार। प्यार को और क्या नाम दिए जाएँ, वह तो बस प्यार है, उसे पनपने के लिए हेल्दी स्पेस दीजिए। वेलेंटाइन 'डे' के नाम पर लव को 'डैमेज' मत कीजिए।

विश्व महिला दिवस विशेष

अब बेटियाँ सब जानती हैं!
जानता हूँ कि सारा भारत, दिल्ली या मुंबई नहीं है और यह भी जानता हूँ कि मैं जो बात कहने जा रहा हूँ वह सभी पर समान रूप से लागू नहीं होती है। हम सब इस देश में, एक ही समय में रहते हुए भी एक समय में नहीं रहते। हम सब एक जगह चलते हुए भी एक ही गति से नहीं चलते। हम सब बदलते हुए भी एक गति से नहीं बदलते। हमारे समाज में बहुत तरह की परतें हैं, सामाजिक चेतना तथा आर्थिक स्थितियों के अनेक धरातल हैं।
हमारे भूगोल, हमारी सांस्कृतिक-सामाजिक स्थितियाँ कई अर्थों में भिन्न हैं इसलिए यहाँ सामान्यीकरण करना कठिन है मगर फिर भी समय को समझने की कोशिश में कुछ सामान्यीकरण करने जरूरी होते है ।
मैं मध्य प्रदेश के एक कस्बे में पला-बढ़ा हूँ जहाँ मेरे कॉलेज में प्रवेश लेने से करीब एक दशक पहले ही कॉलेज खुला था । आज से करीब चार दशक पहले, ठीक-ठीक 38 वर्ष पहले की दुनिया कई-कई मायनों में आज से बहुत ही भिन्न थी। आज यह सोचकर भी कितना अजीब लगता है कि मैं जिस कक्षा में तीन साल तक पढ़ता रहा, उसमें दो लड़कियाँ थीं और मेरी ही क्या, 99 प्रतिशत लड़कों की उनसे कभी कोई बातचीत नहीं हुई। उन तीन सालों में एक ही कक्षा में, एक ही कॉलेज में पढ़ते हुए भी हम एक-दूसरे से अपरिचितों जैसा व्यवहार करते थे। इस तरह जैसे कि एक-दूसरे को जानते ही न हों। आज मेरा विश्वास है कि यह दुनिया उस कॉलेज में भी नहीं रही होगी।
और दुनिया बदलते-बदलते कितनी बदल गई है! उस जमाने में लड़कियों का लड़कों से बात करना, कम से कम, हमारे कस्बे में तो एक दुस्साहस माना जाता था और फौरन इसका दूसरा अर्थ लगाया जाता था यानी यह कि दोनों में कुछ 'गड़बड़' चल रहा है। 'बदनामी' हो जाती थी लड़की की। खुद बात करने वाले लड़के को यह भ्रम हो जाता था या उसके साथी दिला देते थे कि लड़की ने उससे बात की है यानी वह उस पर मरने लगी है।
हालाँकि एक-दूसरे पर मरने-जीने से भी सामान्यतः कोई खास फर्क नहीं पड़ता था क्योंकि होना वही था, जो मंजूरे माँ-बाप होता था। और प्रेम विवाह न माँ-बाप को मंजूर होता था, न बाकी समाज को। यह जमाना 'प्यार किया तो डरना क्या, प्यार किया कोई चोरी नहीं की, छुप-छुप के आहें भरना क्या' जैसे गाने के मशहूर होने के कुछ साल बाद का था मगर आम लड़के-लड़की वही करते थे, जिसकी मुमानियत यह गाना करता है हालाँकि किसी लड़की को देखकर लड़के यह या ऐसा ही कोई गाना अक्सर गाने लगते थे।
लड़कियाँ तब भी लड़कों के या उस समय के हीरो के सपने देखा करती थीं। मुझे याद है कि एक लड़की उस जमाने में विश्वजीत और जॉय मुखर्जी पर बहुत मरती थी। लेकिन उसका और तमाम लड़कियों का (तथा साथ ही लड़कों का भी) हश्र वही हुआ, जो होना बदा था। उनमें से 99 प्रतिशत की शादियाँ माता-पिता की पसंद से स्वजाति के सरकारी नौकरीशुदा लड़कों से हुईं, जिनसे विवाह उस जमाने में सबसे सुरक्षित माना जाता था।
उनकी भी हुई, जो उस जमाने में भी चोरी-छुपे प्यार करने का दुस्साहस कर बैठती थीं लेकिन इसका रहस्य जितनी जल्दी उजागर हो जाता था, उतनी जल्दी उन लड़कियों की शादियाँ भी हो जाती थीं और ऐसे रहस्य ज्यादा देर तक छुपे नहीं रहते थे इसलिए कॉलेज की परीक्षा पास करने का लक्ष्य सामने रखने वाली लड़कियों को बेहद संभल-संभलकर चलना पड़ता था ताकि उनका बी.ए. पास करने का सपना कहीं अधूरा न रह जाए और उनकी 'अच्छे' घर में शादी हो जाए। लेकिन यह न समझा जाए कि इन बंधनों को लड़के-लड़की बिल्कुल काट ही नहीं पाते थे मगर बहुत ही कम।
आज शायद ही किसी कस्बे में ठीक ऐसी ही स्थितियाँ हों और होंगी तो वहाँ शायद आज से चार दशक पहले इससे भी बुरे हालात रहे होंगे लेकिन सच यह भी है कि तब से लड़कियों की दुनिया बहुत बदली है, घर में भी और बाहर भी। मेरे आसपास ऐसे बहुत से परिवार हैं जो चाहते हैं कि लड़की अगर किसी लड़के से प्यार करती है तो वह बता दे माँ-बाप को और वे जाति-धर्म के बंधनों को तोड़ते हुए उस लड़के से उसकी शादी कर देते हैं बल्कि सच यह है कि वे खुद चाहते हैं कि लड़की किसी लड़के को पसंद कर ले ताकि उन्हें लड़का ढूँढने के जटिल चक्कर में न फँसना पड़े ।
मेरे एक मित्र कुछ-कुछ हिंदूवादी हैं लेकिन जब उन्होंने बेटी पर शादी के लिए दबाव बनाया तो अंततः उसने बता दिया कि वह वर्षों से एक मुस्लिम लड़के से प्रेम करती है। उससे शादी करने का निर्णय निश्चित रूप से उसके माता-पिता के लिए कठिन था लेकिन अपने आपसे जूझते हुए अंततः यह साहसिक फैसला उन्होंने लिया। एक और ने अपनी से निम्न समझी जाने वाली जाति के लड़के से अपनी लड़की की शादी बेहिचक कर दी।
हर जमाने में लड़के-लड़की प्रेम करते हैं मगर आज कम-से-कम शहरी लड़के-लड़कियों के पास एक-दूसरे को बेहतर ढंग से, लंबे समय तक जानने-पहचानने-समझने के अवसर हैं। इसलिए लड़कियाँ जब जाति और धर्म की दीवारें पार करती हैं तो सिर्फ भावुक होकर नहीं, दुनियावी समीकरणों को ठीक से सोच-समझकर, विवाह के दीर्घकाल तक चलने की संभावनाओं को बड़ी हद तक जाँच-परखकर।
वे अपने कॅरियर को और लड़के के कॅरियर को भी पूरी तरह ध्यान में रखती हैं। उनके सामने हमारे जमाने की तरह यह समस्या नहीं है कि जो लड़का नजदीक आ जाए, उसके ही प्यार में मर मिटो, फिर चाहे बाकी जिंदगी बर्बाद हो जाए। आज मध्यवर्गीय परिवारों में लड़कियाँ अक्सर माता-पिता से हर बात खुलकर करती हैं, अधिकारपूर्वक करती हैं और उनके आतंक में नहीं जीतीं। अपनी मर्जी हो, वही पहनती हैं, खाती हैं, घूमती हैं और जब चाहती हैं, तभी शादी करती हैं या नहीं करती हैं।
वे माता-पिता को यह विश्वास दिलाती हैं कि वे बाहर की स्थितियों का सामना करने में सक्षम हैं। वे कोई छुई-मुई नहीं हैं कि जिन्हें कोई भी डरा-धमका ले। वे परिवार के साथ कॅरियर की भी सोचती है और आसानी से अपना कॅरियर छोड़कर घर में नहीं बैठ जाती है। या ऐसा त्याग करती तो कुछ समय के लिए ताकि स्थितियाँ सामान्य होने पर फिर से कॅरियर की राह पर चल सकें।
उनका विश्वास और आत्मविश्वास देखकर सचमुच अच्छे अर्थों में मुझे उनसे ईर्ष्या होती है-अपनी ही बेटियों से ईर्ष्या! और जो लड़कियाँ मध्य वर्ग की नहीं है, उनसे नीचे पायदान पर हैं, वे इतनी आगे अगर नहीं हैं तो बहुत पीछे भी नहीं है। वे भी संभल-संभलकर दृढ़ता से कदम रखना सीख गई है। हालाँकि गलतियाँ और चूक किससे नहीं होती? इनसे भी हो जाती है। कौन सा ऐसा युग हो सकता है जब आपका विश्वास न छला जाए?
किस समय सारे मार्ग सभी को प्रशस्त मिलते हैं? महत्वपूर्ण यह नहीं है कि चीजें बहुत आसान है या नहीं हैं, महत्वपूर्ण यह है कि मुश्किलों के बीच अपना रास्ता निकालने का आपमें साहस है या नहीं? जहाँ साहस हैं, वहाँ खतरे भी हो सकते हैं। जहाँ खतरे हैं वहाँ कामयाबियाँ भी हैं और नाकामयाबियाँ भी, हालाँकि कई बार कामयाबियाँ ठोंकरें खा कर मिल जाती है, लेकिन किस चलने वाले ने कभी ठोंकरें नहीं खाई? कौन है जो रास्ते से नहीं भटका? और इस बात को हमारी ये बेटियाँ जानती हैं!

टीवी कहानी

‘बालिका वधू’ में साक्षी तँवर
कहानी घर-घर की धारावाहिक में पार्वती का रोल निभाकर साक्षी तँवर ने अपार लोकप्रियता प्राप्त की। वे एक तरह से हर परिवार के घर की सदस्य बन गई थीं। लेकिन इस धारावाहिक के बाद उन्हें कोई महत्वपूर्ण काम नहीं मिला।
एक-दो फिल्मों में वे नजर आईं। पार्वती की इमेज से छुटकारा पाना उनके लिए आसान नहीं रहा। लेकिन अब उन्हें एक लोकप्रिय धारावाहिक में महत्वपूर्ण किरदार मिला है।
साक्षी ‘बालिका वधू’ में अभिनय कर रही हैं और उनके द्वारा अभिनीत एपिसोड्‍स का प्रसारण एक-दो दिन में आरंभ होने वाला है। वे ऐसा किरदार निभा रही हैं जो दादीसा के नजदीक है।
साक्षी के मुताबिक उनका रोल बहुत दमदार है और इसलिए उन्होंने इसे स्वीकारा।
आमिर का पहला टीवी परफॉर्मेंस
छोटे परदे पर परफॉर्म करने के आमिर को कई ऑफर्स मिले लेकिन उन्होंने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। लेकिन ‘स्टार सिंटा- सुपर स्टार्स का जलवा’ के लिए जब उन्हें एप्रोच किया गया तो वे मान गए।
पैर में चोट के कारण उन्होंने कुछ दिनों के लिए इसकी शूटिंग टाल दी, लेकिन जैसे ही वे ठीक हुए उन्होंने रिकॉर्ड टाइम में शूट निपटा दिया। स्टेज पर उन्होंने ‘3 इडियट्स’ की टीम के साथ शूट किया।
‘ऑल इज वेल’ गीत में माधवन और शरमन उनके साथ नजर आएँ जबकि ‘ज़ूबी ज़ूबी’ में करीना ने आमिर का साथ निभाया। इस कार्यक्रम को स्टार प्लस पर 28 मार्च को रात नौ बजे देखा जा सकता है।
और नजदीक आए लारा तथा महेश
लारा दत्ता और महेश भूपति की नजदीकियों की पिछले कई दिनों से लगातार चर्चाएँ हो रही हैं। पिछले दिनों वे सार्वजनिक रूप से भी साथ नजर आए थे। अब दोनों एक-दूसरे के नजदीक रहने भी वाले हैं।
बैंगलुरु के रहने वाले महेश ने मुंबई में भी एक घर ले लिया है, जो लारा के घर के एकदम नजदीक है। महेश द्वारा मुंबई में घर लिए जाने से यह चर्चा चल पड़ी है कि दोनों एक-दूसरे के प्रति बेहद गंभीर हैं।

देह में सितार

तेरी आँखों ने चूमा मुझे देर तक
शबनम इंदौरी
कल तेरी आँखों ने चूमा मुझे देर तक
कल मेरी देह में सितार बजे देर तक,

कल तेरी हथेलियों के गुलाब
बालों में महके रात भर
कल मेरी मन-नदी के
भँवर तुझमें पड़े रात भर,

कल तेरी एक बात
चहकती रही साँझ ढले
कल मेरी एक हँसी
महकती रही चाँद तले,

कल तुम फिर ना आए
मैं देखती रही एकटक
कल मेरी चू‍ड़‍ियाँ
खूब रोई सिर पटक,

कल यादों की गली में
भटकती रही बार-बार
कल तुम मुझे भूल गए
और दिल हुआ तार-तार।

फर्क

स्वतंत्रता और स्वच्छंदता में फर्क कीजिए!
विवाह पूर्व यौन संबंधों को जायज करार देने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले में आधुनिकतावादी अपनी 'जीत' देख रहे हैं। उनकी नजर में इसके आलोचक पुरुष प्रधान मानसिकता और अहंकार से ग्रसित हैं। जाहिर है, बुद्धिजीवियों के हाथ महिलाओं के हक में पुरुषों को कोसने का नया मौका लग गया है।
सबसे पहले सुप्रीम कोर्ट की दलील को हथियार बनाकर पुरुषों पर प्रहार करने वालों को उसकी तहरीर पर गौर फरमाना चाहिए। उच्चतम न्यायालय ने अपनी टिप्पणी महज दक्षिण भारतीय अभिनेत्री खुशबू के उस बयान के खिलाफ दायर याचिका को खारिज कर दी है, जिसमें उन्होंने विवाह पूर्व यौन संबंध बनाने की बात कही थी। शीर्ष अदालत ने इसमें केवल इतना कहा है कि ऐसा करना कानूनन कोई अपराध नहीं है।
इसका यह मतलब कतई नहीं है कि इसे सामाजिक रूप से भी स्वीकार किया जाना चाहिए। इसे सच और झूठ के उदाहरण से समझते हैं। झूठ बोलना कानूनन कोई अपराध नहीं है, लेकिन हमारे शास्त्रों में झूठ बोलने को भी गलत माना गया है। इसका अर्थ हुआ जो चीज वैधानिक भले ही हो, लेकिन व्यवहार में उसे लाया जाय यह बिल्कुल भी जरूरी नहीं।
जो लोग इस फैसले की आड़ में लिव इन रिलेशनशिप और विवाह पूर्व सेक्स को सही ठहरा रहे हैं, वे असल में स्वच्छंदता और स्वतंत्रता के बीच की रेखाGet Fabulous Photos of Rekha मिटा देना चाहते हैं। वे हर उस आचरण को बंदिश मानते हैं, जिसमें किसी अनुशासन, संयम या बंधन का प्रावधान हो। गोया कि इनसान के रूप में मानव प्राणियों की तरह जीवन जीना चाहता है।
...तभी तो महिलाओं को गरिमा और मर्यादा में रहने की सीख देने वाली हर बात 'नादानों' को समूचे वामा समुदाय पर अत्याचार जान पड़ती है। उनके लिए शादी, ब्याह, समाज, सभ्यता और शुचिता जैसे शब्द केवल महिलाओं के पैरों में बेड़ियाँ डालने के लिए ही बने हैं।
वे तो सिर्फ इतना जानते हैं कि पुरुष महिला का दुश्मन है। इसलिए वे इसी कोशिश में रहते हैं कि जैसे भी हो, महिलाओं से जुड़े सभी मसलों में 'अधिकार', 'समानता', 'परिवर्तन प्रकृति का नियम' और इन जैसे कुछ और लच्छेदार शब्द जोड़ कर बुराई को भी अच्छाई का जामा पहनाकर पेश किया जाए।
कुछ लोगों का मानना है जब पुरुष के लिए वेश्यालय हो सकते हैं, वह एक से अधिक महिलाओं से संबंध रख सकता है तो महिलाओं के मामले में इतनी पाबंदियाँ क्यों? महिला हितों के नाम पर 'पूरब' की थाती पश्चिम को परोसने वाले ये बुद्धिजीवी शायद यह नहीं जानते कि वेश्यावृत्ति आज भी हिंदुस्तान में हेय दृष्टि से देखी जाती है, इसीलिए सरकार ने उसे कानूनी मान्यता नहीं दी है।
यहाँ तक कि दुनिया के तमाम देश जहाँ समलैंगिक शादी के सर्टिफिकेट जारी कर रहे हैं, वहाँ भारत में इसे उच्च न्यायालय द्वारा गैरआपराधिक कृत्य कहने के बावजूद सरकार कानून बनाने में हिचपिचा रही है। इसके समर्थन में खड़े होने वाले इससे अनिभज्ञ हैं कि क्यों संसद इसे लेकर मौन है।
जाहिर है, सरकार भी इस मुद्दे की संवेदनशीलता और गुण-अवगुण से भलीभाँति परिचित है, वरना वह सुप्रीम कोर्ट में अपना पक्ष रखने में इतनी सावधानी नहीं बरतती।
वैसे भी वेश्यावृत्ति में प्रवृत्त होने वाली हर महिला के पीछे मजबूरी का अंधेरा होता है। इसके चलते ही वह 'नरक' को अपनाती है। कोई भी महिला शौक से यौनकर्मी नहीं बनती। ऐसी महिलाओं पर गैरसामाजिक संगठनों की आए दिन जारी होती रिपोर्टों से इस सच तक पहुँचा जा सकता है।
हाँ, यह सही है कि कानून के नाम पर पुलिस और दूसरे लोग यौनकर्मियों का शोषण करते हैं, लेकिन इसके लिए उनका पुनर्वास ही बेहतर विकल्प है। कानूनी मान्यता देने से तो महिलाओं के शोषण में इजाफा ही होगा। इससे किसी भी प्रकार से महिलाओं का भला होने वाला नहीं है।
समाज में अगर विवाह पूर्व सेक्स स्वीकार कर लिया गया तो इसके नतीजे क्या होंगे, इसका अंदाजा इसके पैरोकारों को रत्तीभर भी नहीं है। क्या उन्हें यह इल्म है कि ऐसा हुआ तो विवाह संस्था, जिस पर भारतीय समाज का तानाबाना टिका है, ध्वस्त हो जाएगी। अगर सभी स्वच्छंद रहेंगे तो परिवार जैसी जिम्मेदारी कौन उठाएगा?
क्या एक पिता अपनी बेटी के लिए अच्छा वर तलाश पाएगा? क्या एक माँ अपने बेटे के लिए अच्छी बहू ढूँढ पाएगी? क्या तब भी हम अपनी गौरवशाली परंपरा और संस्कृति का यशोगान कर पाएँगे? क्या भारत पश्चिम की नजर में उतना ही सम्माननीय रह पाएगा, जितना आज वह है?
बहरहाल, विवाह पूर्व यौन संबंध की हिमायत करने वालों को इसकी आड़ में पुरुषों की आलोचना से बाज आना चाहिए। उन्हें यह मानना चाहिए कि यह किसी भी व्यक्ति का व्यक्तिगत फैसला है। चाहे वह महिला हो या पुरुष। आधुनिकता और फैशन के नाम पर बदी को सरे आम सर उठाने की इजाजत नहीं दी जा सकती। कभी भी नहीं...।

बुधवार, 24 मार्च 2010

लिव इन रिलेशनशिप !!

नई उलझनें भी पैदा होंगी...
सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को लिव इन रिलेशनशिप को उचित ठहराते हुए कहा है कि जब दो लोग साथ रहना चाहते हैं तो इसमें क्या अपराध है। इस बाबत चुनिंदा लोगों से चर्चा की गई। जिनमें से अधिकतर का मानना है कि यह व्यक्तिगत मामला है तथा इस बाबत संबंधित लोगों को ही सोचना चाहिए। अलबत्ता लगभग सभी यह जरूर सोचते हैं कि इससे समाज प्रभावित होगा।

व्यक्तिगत मामला
सामाजिक कार्यकर्ता तपन भट्टाचार्य कहते हैं कि लिव इन रिलेशनशिप हरेक का व्यक्तिगत मामला है। लेकिन इस चलन के बढ़ने से समाज में जो परिवार नामक संस्था है, वह जरूर प्रभावित होगी। दो बालिग लोग यदि शादी के बिना एक साथ रहने या न रहने का फैसला करते हैं तो उनसे तो आप सवाल नहीं कर सकते। मगर इस दौरान उनके बच्चे होते हैं तो उनका भविष्य क्या होगा, यह एक बड़ा प्रश्न है?

भारतीय समाज में बढ़ावा नहीं मिलेगा
लिव इन रिलेशनशिप जैसी चीजों में उन लोगों की रुचि होती है जो भारतीय मूल्यों और संस्कृति में विश्वास नहीं करते हैं। युवा कवि उत्पल बनर्जी बताते हैं कि हमारी संस्कृति कुछ ऐसी है कि हम आत्मीयता के साथ परिवार बनाते हैं। जबकि इस कॉन्सेप्ट में परिवार की जिम्मेदारी या संस्कार का नामोनिशान तक नहीं होता। भारत में भी कुछ लोग इसमें रुचि रखते हैं लेकिन भारतीय समाज में इसे बहुत ज्यादा बढ़ावा नहीं मिलेगा।

कोई फर्क नहीं पड़ेगा
सामाजिक कार्यकर्ता प्रवीण गोखले कहते हैं कि लिव इन रिलेशनशिप का चलन महानगरों में ज्यादा देखने को मिल रहा है। यदि इसे मान्यता मिल गई है तो निश्चित रूप से उन युवाओं का समर्थन है जो इसमें विश्वास रखते हैं। हालाँकि मान्यता मिलने या न मिलने से बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ने वाला है। क्योंकि सही और गलत बातें समाज में पहले से ही मौजूद हैं।

बेहतर समझ के आधार पर साथ रहें
एमबीए के विद्यार्थी आशुतोष कहते हैं कि लिव इन रिलेशनशिप का फैसला सही है। क्योंकि वैसे भी अधिकतर मौकों पर यह देखने में आता है कि लोग शादी के बंधन में बँधने के बावजूद एक-दूसरे के प्रति समर्पण का भाव ज्यादा समय तक नहीं रख पाते हैं। इससे अच्छा है कि बेहतर समझ के आधार पर दो लोग साथ रहें।

अपना-अपना नजरिया
विद्यार्थी अंकुर कहते हैं कि हर व्यक्ति का अपना एक नजरिया होता है। लिव इन रिलेशनशिप का मसला भी ऐसा ही है। देश हो या विदेश न सभी लोग लिव इन रिलेशनशिप में रहते हैं और न ही सभी शादी करके रहते हैं।

मंगलवार, 23 मार्च 2010

बलिदान दिवस पर विशेष

बलिदान से पहले साथियों को अंतिम पत्र
22 मार्च 1931
साथियों,

स्वाभाविक है कि जीने की इच्छा मुझमें भी होनी चाहिए। मैं इसे छिपाना नहीं चाहता, लेकिन एक शर्त पर जिंदा रह सकता हूँ कि मैं कैद होकर या पाबंद होकर जीना नहीं चाहता।
मेरा नाम हिन्दुस्तानी क्रांति का प्रतीक बन चुका है और क्रांतिकारी दल के आदर्शों और कुर्बानियों ने मुझे बहुत ऊँचा उठा दिया है- इतना ऊँचा कि जीवित रहने की स्थिति में इससे ऊँचा मैं हर्गिज नहीं हो सकता। आज मेरी कमजोरियाँ जनता के सामने नहीं हैं। अगर मैं फाँसी से बच गया तो वे जाहिर हो जाएँगी और क्रांति का प्रतीक चिन्ह मद्धिम पड़ जाएगा या संभवतः मिट ही जाए।
लेकिन दिलेराना ढंग से हँसते-हँसते मेरे फाँसी चढ़ने की सूरत में हिन्दुस्तानी माताएँ अपने बच्चों के भगतसिंह बनने की आरजू किया करेंगी और देश की आजादी के लिए कुर्बानी देने वालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि क्रांति को रोकना साम्राज्यवाद या तमाम शैतानी शक्तियों के बूते की बात नहीं रहेगी।
हाँ, एक विचार आज भी मेरे मन में आता है कि देश और मानवता के लिए जो कुछ करने की हसरतें मेरे दिल में थीं, उनका हजारवाँ भाग भी पूरा नहीं कर सका। अगर स्वतंत्र, जिंदा रह सकता, तब शायद उन्हें पूरा करने का अवसर मिलता और मैं अपनी हसरतें पूरी कर सकता। इसके सिवाय मेरे मन में कभी कोई लालच फाँकसी से बचने का नहीं आया। मुझसे अधिक भाग्यशाली कौन होगा? आजकल मुझे स्वयं पर बहुत गर्व है। अब तो बड़ी बेताबी से अंतिम परीक्षा का इंतजार है। कामना है कि यह और नजदीक हो जाए।

आपका साथी,
भगतसिंह
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भगतसिंह के दस्तावेज उनकी पहचान हैं
23 मार्च 1931 को अँगरेज सरकार ने जनता के आक्रोश से डरकर धाँधली से आजादी के तीन महान रणबाँकुरों भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव को फाँसी के फंदे पर लटका दिया था। शहीद हो जाने पर ये नौजवान हमेशा-हमेशा के लिए भारतीय जनमानस के अविस्मयकारी बलिदानी बन गए।
दरअसल, भगतसिंह उन विरले क्रांतिकारियों में से थे, जो न केवल विदेशी हुकूमत को खदेड़ने के लिए संघर्षरत थे, बल्कि वे पूरे देश में अपनी बेमिसाल सक्रियता से आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे। भगतसिंह बेहद पढ़ाकू थे, एक अच्छे संगठक थे, पत्रकार थे और लेखक थे। जो निरंतर जनता को सच्ची आजादी का सपना दिखा रहे थे।
भगतसिंह की मानसिकता, जीवन दृष्टि और राजनीति को समझने के लिए उनके लिखे गए पत्र, लेख और दस्तावेजों का पढ़ना जरूरी है, तभी हम समझ पाएँगे कि वे आजादी के बाद एक ऐसे नए समाज का निर्माण करना चाहते थे, जो शोषण से मुक्त हो और जहाँ हर व्यक्ति खुशहाल रहे। उनकी इस बेचैनी और आजादी के लिए व्यक्तिगत कुर्बानी के जज्बे को समझने के लिए उनके पत्र पढ़ना जरूरी है। पेश है तीनों रणबाँकुरों के बलिदान दिवस 23 मार्च पर उनके पत्र के संक्षिप्त अंश-

हमें गोली से उड़ाया जाए
प्रति, 20 मार्च 1931
गवर्नर पंजाब, शिमला
महोदय,
उचित सम्मान के साथ हम नीचे लिखी बातें आपकी सेवा में रख रहे हैं- भारत की ब्रिटिश सरकार के सर्वोच्च अधिकारी वाइसराय ने एक विशेष अध्यादेश जारी करके लाहौर षड्यंत्र अभियोग की सुनवाई के लिए एक विशेष न्यायाधिकरण ट्रिब्यूनल स्थापित किया था। जिसने 7 अक्टूबर 1930 को हमें फाँसी का दंड सुनाया। हमारे विरुद्ध सबसे बड़ा आरोप यह लगाया गया है कि हमने सम्राट जॉर्ज पंचम के विरुद्ध युद्ध किया है। न्यायालय के निर्णय से दो बातें स्पष्ट हो जाती हैं-
पहली यह कि अँगरेज जाति और भारतीय जनता के मध्य एक युद्ध चल रहा है। दूसरे यह कि हमने निश्चित रूप से इस युद्ध में भाग लिया है, अतः हम युद्धबंदी हैं...। हम यह कहना चाहते हैं कि युद्ध छिड़ा हुआ है और यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी, जब तक कि शक्तिशाली व्यक्तियों ने भारतीय जनता और श्रमिकों की आय के साधनों पर अपना एकाधिकार कर रखा है...।
निश्चय ही यह युद्ध उस समय तक समाप्त नहीं होगा, जब तक कि समाज का वर्तमान ढाँचा समाप्त नहीं हो जाता। प्रत्येक वस्तु में परिवर्तन या क्रांति समाप्त नहीं हो जाती और मानवीय सृष्टि में एक नवीन युग का सूत्रपात नहीं हो जाता। ...हम आपसे केवल यह प्रार्थना करना चाहते हैं कि आपकी सरकार के ही न्यायालय के निर्णय के अनुसार हमारे विरुद्ध युद्ध जारी रखने का अभियोग है। इस स्थिति में हम युद्धबंदी हैं। अतः इस आधार पर हम आपसे माँग करते हैं कि हमारे प्रति युद्धबंदियों जैसा ही व्यवहार किया जाए और हमें फाँसी देने के बदले गोली से उड़ा दिया जाए...।
भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव
(20 मार्च 1931 को फाँसी पर लटकाए जाने से पहले सरदार भगतसिंह और उनके साथियों सुखदेव एवं राजगुरु ने पंजाब के तत्कालीन गवर्नर से माँग की थी कि उन्हें युद्धबंदी माना जाए और फाँसी पर लटकाए जाने के बजाय गोली से उड़ा दिया जाए। उनके उस पत्र का संक्षिप्त ब्योरा)

पिताजी के नाम भगतसिंह का पत्र
घर को अलविदा
पूज्य पिताजी,
नमस्ते

मेरी जिंदगी मकसदे आला (ऊँचा उद्देश्य) यानी आजादी-ए-हिन्द के असूल (सिद्धांत) के लिए वक्फ (दान) हो चुकी है। इसलिए मेरी जिंदगी में आराम और दुनियावी खाहशात (सांसारिक इच्छाएँ) वायसे कशिश (आकर्षक) नहीं है।
आपको याद होगा कि जब मैं छोटा था तो बापूजी ने मेरे यज्ञोपवीत के वक्त ऐलान किया था कि मुझे खिदमते वतन (देशसेवा) के लिए वक्फ कर दिया गया है। लिहाजा मैं उस वक्त की प्रतिज्ञा पूरी कर रहा हूँ।
उम्मीद है आप मुझे माफ फरमाएँगे

आपका ताबेदार
भगतसिंह

मिर्च-मसाला

स्टूडेंट्‍स के बीच जाएँगे रणबीर-कैटरीना
रणबीर कपूर और कैटरीना कैफ देश के प्रमुख कॉलेज में जाकर स्टूडेंट्‍स के बीच फिल्म ‘राजनीति’ का प्रचार करेंगे। ये दोनों स्टूडेंट्‍स के बीच बेहद पॉप्युलर हैं। साथ ही वे राजनीति और सिनेमा की बातें उनसे शेयर करेंगे।
इस समय फिल्म की पब्लिसिटी भी फिल्म मेकिंग जितनी महत्वपूर्ण हो गई है। प्रचार के लिए नए-नए तरीक ईजाद किए जा रहे हैं ताकि दर्शकों को थिएटर तक लाया जा सके।
प्रकाश झा की फिल्म ‘राजनीति’ संभवत: 4 जून को प्रदर्शित होगी। इस फिल्म में नाना पाटेकर, अजय देवगन, रणबीर कपूर, अर्जुन रामपाल, कैटरीना कैफ जैसे एक्टर्स हैं, लेकिन पब्लिसिटी के लिए खासतौर पर बॉलीवुड की हॉट जोड़ी रणबीर और कैटरीना को चुना गया है।
चूँकि ‘राजनीति’ फिल्म युवाओं की पसंद के नेता और युवा नेताओं की बात करती हैं, इसीलिए स्टूडेंट्‍स के बीच फिल्म का ज्यादा से ज्यादा प्रचार किया जाएगा।
‘लव सेक्स और धोखा’ शक्ति कपूर से प्रेरित!
‘लव सेक्स और धोखा’ में दिबाकर बैनर्जी ने तीन कहानियों को आपस में पिरोया है। पहली को उन्होंने नाम दिया सुपरहिट प्यार। दूसरी का टाइटल है पाप की दुकान और तीसरी है बदनाम शोहरत।
बदनाम शोहरत में उन्होंने एक ‍कलाकार का स्टिंग ऑपरेशन किया है, जो म्यूजिक वीडियो में लड़कियों को मौका देने के बदले में उनका यौन शोषण करता है।
अब दिबाकर जहाँ भी जाते हैं लोग उनसे पूछते हैं कि उन्होंने किस फिल्म स्टार को ध्यान में रखकर यह तीसरी फिल्म बनाई है। अफवाह तो यह भी है कि यह शक्ति कपूर पर आधारित है, जिनका कुछ वर्ष पूर्व स्टिंग ऑपरेशन किया गया था। हालाँकि दिबाकर इससे इंकार करते हैं।
जूनियर शाहरुख नहीं करेंगे फिल्म
शाहरुख खान ने ‘रॉ 1’ के डायरेक्टर अनुभव सिन्हा की उस माँग को ठुकरा दिया जिसमें उन्होंने कहा था कि वे संक्षिप्त भूमिका के लिए शाहरुख के बेटे आर्यन को लेना चाहते हैं।
सुपरहीरो पर आधारित इस फिल्म में एक बच्चे की संक्षिप्त भूमिका है। अनुभव की नजर आर्यन पर पड़ी और आर्यन उन्हें इस रोल के लिए उपयुक्त लगे। जब उन्होंने यह बात शाहरुख को बताई तो किंग खान ने उन्हें मना कर दिया।
सूत्रों के मुताबिक शाहरुख को इस बात पर कोई ऐतराज नहीं है कि उनका बेटा बड़ा होकर एक्टिंग को अपना करियर चुने। लेकिन वे अभी ऐसा नहीं चाहते हैं। शाहरुख का मानना है कि पूरी मीडिया का ध्यान आर्यन पर पड़ेगा जिससे आर्यन का पढ़ाई से ध्यान भंग हो सकता है।
दीपिका की ख्वाहिश पूरी हुई
शाहरुख खान के साथ ‘ओम शांति ओम’ कर चुकी दीपिका पादुकोण ने ख्वाहिश प्रकट की थी कि वे सलमान खान के साथ फिल्म करना चाहती हैं और उनकी यह ख्वाहिश पूरी हो गई है। अनीस बज्मी द्वारा निर्देशित अनाम फिल्म में सलमान और दीपिका की जोड़ी दिखाई देगी।
दीपिका ने कहा था कि वे बॉलीवुड के तमाम खानों के साथ काम करना चाहती हैं। शाहरुख और सैफ के बाद उनकी लिस्ट में अगला नाम सलमान का था। उन्होंने समय-समय पर कहा भी कि वे सल्लू की हीरोइन बनना चाहती हैं।
लगता है कि सल्लू ने उनकी बात सुन ली और अनीस बज्मी की फिल्म में नायिका का रोल दिलवा दिया। एक तरह से यह सलमान के घर की ही फिल्म है क्योंकि इसके प्रोड्यूसर अतुल अग्निहोत्री हैं जो सलमान के जीजा है।
सलमान को लेकर बतौर डायरेक्टर और प्रोड्यूसर अतुल फिल्म बना चुके हैं, लेकिन सफलता उनके हाथ नहीं लगी। सलमान उन्हें एक और मौका दे रहे हैं।

रविवार, 21 मार्च 2010

नक्सलवाद

नक्सलवाद का कडवा सच!
वर्तमान में सरकार द्वारा नक्सलियों के विरुद्ध संहारक अभियान चलाया जा रहा है, उस अभियान के मार्फत नक्लवादियों को मारकर इस समस्या से कभी भी स्थायी रूप से नहीं निपटा जा सकता, क्योंकि बीमार को मार देने से बीमारी को समाप्त नहीं किया जा सकता। यदि बीमारी के कारणों को ईमानदारी से पहचान कर, उनका ईमानदारी से उपचार करें तो नक्सलवाद क्या, किसी भी समस्या का समाधान सम्भव है, लेकिन अंग्रेजों द्वारा कुटिल उद्देश्यों की पूर्ति के लिये स्थापित आईएएस एवं आईपीएस व्यवस्था के भरोसे देश को चलाने वालों से यह आशा नहीं की जा सकती कि नक्सलवाद या किसी भी समस्या का समाधान सम्भव है! कम से कम डॉ. मनमोहन सिंह जैसे पूर्व अफसरशाह के प्रधानमन्त्री रहते तो बिल्कुल भी आशा नहीं की जा सकती।
हमारे देश में नक्सलवाद को राष्ट्रपति एवं प्रधानमन्त्री देश की सबसे बडी या आतंकवाद के समकक्ष समस्या बतला चुके हैं। अनेक लेखक भी वातानुकूलित कक्षों में बैठकर नक्सलवाद के ऊपर खूब लिख रहे हैं। राष्ट्रपति एवं प्रधानमन्त्री का बयान लिखने वालों में से अधिकतर ने नक्सल प्रभावित क्षेत्रों की वस्तुस्थिति जाकर देखना तो दूर, उन क्षेत्रों के जिला मुख्यालयों तक का दौरा नहीं किया है। अपने आप को विद्वान कहने वाले और बडे-बडे समाचार-पत्रों में बिकने वाले अनेक लेखक भी नक्सलवाद पर लिखते हुए नक्सलवाद को इस देश का खतरनाक कोढ बतला रहे हैं।
कोई भी इस समस्या की असली तस्वीर पेश करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है। या यह कहा जाये कि असल समस्या के बारे में उनको ज्ञान ही नहीं है। अनेक तो नक्सलवाद पर की असली तस्वीर पेश करने की खतरनाक यात्रा के मार्ग पर चाहकर भी नहीं चलना चाहते हैं। ऐसे में कूटनीतिक सोच एवं लोगों को मूर्ख बनाने की नीति से लिखे जाने वाले आलेख और राजनेताओं के भाषण इस समस्या को उलझाने के सिवा और कुछ भी नहीं कर रहे हैं। राजनेता एवं नौकरशाहों की तो मजबूरी है, लेकिन स्वतन्त्र लेखकों से ऐसी अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वे असल को छोडकर सत्ता के गलियारे से निकलने वाली ध्वनि की नकल करते दिखाई दें। जिन लेखकों की रोजी रोटी बडे समाचार पत्रों में झूठ को सज बनाकर लेखन करने से चलती है, उनकी विवशता तो समझ में आती हैं, लेकिन सिर्फ अपने अन्दर की आवाज को सुनकर लिखने वालों को कलम उठाने से पहले अपने आपसे पूछना चाहिये कि मैं नक्सलवाद के बारे में अपने निजी अनुभव के आधार पर कितना जानता हँू? यदि आपकी अन्तर्रात्मा से उत्तर आता है कि कुछ नहीं, तो मेहरबानी करके इस देश और समाज को गुमराह करने की कुचेष्टा नहीं करें।
नक्सवाद पर कुछ लिखने से पहले मैं विनम्रतापूर्वक कहना चाहता हूँ कि मैं किसी भी सूरत में हिंसा का पक्षधर नहीं हूँ और नक्लल प्रभावित निर्दोष लोगों के प्रति मेरी सम्पूर्ण सहानुभूति है। इसलिये इस आलेख के माध्यम से मैं हर उस व्यक्ति को सम्बोधित करना चाहता हूँ, जिन्हें इंसाफ की व्यवस्था को बनाये रखने में आस्था और विश्वास हो। जिन्हें संविधान द्वारा प्रदत्त इस मूल अधिकार (अनुच्छे-14) में विश्वास हो, जिसमें साफ तौर पर कहा गया है कि देश के प्रत्येक व्यक्ति को कानून के समक्ष समान समझा जायेगा और प्रत्येक व्यक्ति को कानून का समान संरक्षण प्रदान किया जायेगा। जिनको संवैधानिक व्यवस्था मैं आस्था और विश्वास हो, लेकिन याद रहे, केवल कागजी या दिखावटी नहीं, बल्कि जिन्हें समाज की सच्ची तस्वीर और समस्याओं के व्यावहारिक पहलुओं का भी ज्ञान हो वे ही इन बातों को समझ सकते हैं। अन्यथा इस लेख को समझना आसान या सरल नहीं होगा?
यदि उक्त पंक्तियों को लिखने में मैंने धृष्टता नहीं की है तो कृपया सबसे पहले बिना किसी पूर्वाग्रह के इस बात को समझने का प्रयास करें कि एक ओर तो कहा जाता है कि हमारे देश में लोकतन्त्र है और दूसरी ओर लोकतन्त्र के नाम पर 1947 से लगातार यहाँ के बहुसंख्यक लोगों के समक्ष चुनावों का नाटक खेला जा रहा है। यदि देश में वास्तव में ही लोकतन्त्र है तो सरकार एवं प्रशासनिक व्यवस्था में देश के सभी वर्गों का समान रूप से प्रतिनिधित्व क्यों नहीं है? सभी वर्गों के लोगों की हर क्षेत्र में समान रूप से हिस्सेदारी भी होनी चाहिये। अन्यथा तो लोकतन्त्र होने के कोई मायने ही नहीं रह जाते हैं!
कुछ कथित प्रबुद्ध लोग कहते हैं, कि इस देश में तो लोकतन्त्र नहीं, केवल भीड तन्त्र है। इस विचारधारा के लोगों से मेरा सवाल है कि यदि लोकतन्त्र नहीं, भीडतन्त्र है तो केवल दो प्रतिशत लोगों के हाथ में इस देश की सत्ता और संसाधन क्यों हैं? भीडतन्त्र का प्रभाव दिखाई क्यों नहीं देता? भीडतन्त्र के पास तो सत्ता की चाबी होती है, फिर भी भीडतन्त्र इन दो प्रतिशत लोगों को सत्ता एवं संसाधनों से बेदखल क्यों नहीं कर पा रहा है? इन सवालों के उत्तर तलाशने पर पता चलेगा कि न तो इस देश में सच्चे अर्थों में लोकतन्त्र है और न हीं इस देश की ताकत भीडतन्त्र के पास है!
उपरोक्त परिप्रेक्ष में नक्सलवाद को समझने के लिये हमें आदिवासियों के बारे में भी कुछ मौलिक बातों को समझना बहुत जरूरी है, क्योंकि अधिसंख्य लोगों द्वारा यह झूठ फैलाया जा रहा है कि केवल आदिवासी ही नक्सलवाद का संवाहक है! वर्तमान में आदिवासी की दशा, इस देश में सबसे बुरी है। इस बात को स्वयं भारत सरकार के आँकडे ही प्रमाणित करते हैं। बहुत कम लोग जानते हैं कि आजादी के बाद से आज तक आदिवासी का केवल शोषण ही शोषण किया जाता रहा है। मैं एक ऐसा कडवा सच उद्‌घाटित करने जा रहा हँू, जिसे बहुत कम लोग जानते हैं! वो यह कि आजादी के बाद से दलित नेतृत्व ने भी आदिवासी वर्ग का जमकर शोषण, अपमान एवं तिरस्कार किया है। आदिवासियों के साथ दलित नेतृत्व ने हर मार्चे पर कुटिल विभेद किया है। इसकी भी वजह है। आदिवासियों के शोषण का हथियार स्वयं सरकार ने दलित नेतृत्व के हाथ में थमा दिया है।
इस देश के संविधान में अनुसूचित जाति (दलित) एवं अनुसूचित जनजाति (आदिवासी) नाम के दो आरक्षित वर्ग प्रारम्भ से ही बनाये गये हैं। जिन्हें संक्षेप में एससी एवं एसटी कहा जाता है। यही संक्षेपीकरण सम्पूर्ण आदिवासियों का और इस देश के इंसाफ पसन्द लोगों का दुर्भाग्य है। इन एससी एवं एसटी दो संक्षेप्ताक्षरों को आजादी के बाद से आज तक इस देश के सभी राजनेताओं और नौकरशाहों ने पर्यायवाची की तरह प्रयोग किया है। इन दोनों वर्गों के उत्थान के लिये बनायी गयी नीतियों में कहीं भी इन दोनों वर्गों के लिये अलग-अलग नीति बनाने पर ध्यान नहीं दिया गया।
सरकार की कुनीतियों के चलते, एससी एवं एसटी वर्गों के कथित हितों के लिये काम करने वाले सभी संवैधानिक, सरकारी, संसदीय, गैर-सरकारी एवं समाजिक प्रकोष्ठों पर देशभर में केवल एससी के लोगों ने ऐसा कब्जा जमाया कि आदिवासियों के हित दलित नेतृत्व के यहाँ गिरवी हो गये। दलित नेतृत्व ने एससी एवं एसटी के हितों की रक्षा एवं संरक्षण के नाम पर केवल एससी के हितों का ध्यान रखा। केन्द्र या राज्यों की सरकारों द्वारा तो यह तक नहीं पूछा जाता कि एससी एवं एसटी वर्गों के अलग-अलग कितने लोगों या जातियों या समाजों का उत्थान किया गया? ०९ प्रतिशत मामलों में इन दोनों वर्गों की प्रगति रिपोर्ट भेजने वाले और उनका सत्यापन करने वाले दलित होते हैं। जिन्हें आमतौर पर इस बात से कोई सारोकार नहीं होता कि आदिवासियों के हितों का संरक्षण हो रहा है या नहीं और आदिवासियों के लिये स्वीकृत बजट दलितों के हितों पर क्यों खर्चा जा रहा है या क्यों लैप्स हो रहा है?
आदिवासियों के उत्थान की कथित योजनाओं के क्रियान्वयन के लिये ऐसे लोगों को जिम्मेदारी दी जाती रही है, जो आदिवासियों की पृष्ठभूमि को एवं आदिवासियों की समस्याओं के बारे में तो कुछ नहीं जानते, लेकिन यह अच्छी तरह से जानते हैं कि बिना कुछ किये आदिवासियों के लिये आवण्टित फण्ड को हजम कैसे किया जाता है! ऐसे ब्यूरोके्रट्‌स को दलित नेतृत्व का पूर्ण समर्थन मिलता रहा है। स्वाभाविक है कि उन्हें भी इसमें से हिस्सेदारी मिलती होगी? यहाँ यह भी स्पष्ट करना जरूरी है कि दलित नेतृत्व में सभी लोग आदिवासियों के विरोधी या दुश्मन नहीं हैं, बल्कि आम दलित तो आज भी आदिवासी के प्रति बेहद संवेदनशील है।
यही नहीं यह जानना भी जरूरी है कि एक जाति विशेष के कुछेक चालाक लोगों ने एससी एवं एसटी वर्गों की कथित एकता के नाम पर हर जगह कभी न समाप्त किया जा सकने वाला कब्जा जमा रखा है। ये लोग एससी की अन्य कमजोर (संख्याबल में) जातियों के भी शोषक हैं। आदिवासी भी प्रशासन में संख्यात्मक दृष्टि से दलितों की तुलना मे आधे से भी कम है। जिस देश में हर जाति एक राष्ट्रीय पहचान रखती हो, उस देश में एक वर्ग में बेमेल जातियों को शामिल कर देना और संवैधानिक रूप से दो भिन्न वर्गों (एससी एवं एसटी) को एक ही डण्डे से हाँकना, किस बेवकूफ की नीति है? यह तो सरकार ही बतला सकती है, लेकिन यह सही है कि आदिवासी की पृष्ठभूमि एवं जरूरत को आज तक न तो समझा गया है और न हीं इस दिशा में सार्थक पहल की जा रही है।
दूसरी ओर इस देश के केवल दो प्रतिशत लोग लच्छेदार अंग्रेजी में दिये जाने वाले तर्कों के जरिये इस देश को लूट रहे हैं और 98 प्रतिशत लोगों को मूर्ख बना रहे हैं। मुझे तो यह जानकर आश्चर्य हुआ कि इन दो प्रतिशत लोगों में हत्या जैसे जघन्य अपराध करने वालों की संख्या तुलनात्मक दृष्टि से कई गुनी है, लेकिन उनमें से किसी बिरले को ही कभी फांसी की सजा सुनाई गयी होगी? इसके पीछे भी कोई न कोई कुटिल समझ तो काम कर ही रही है। अन्यथा ऐसा कैसे सम्भव है कि अन्य 98 प्रतिशत लोगों को छोटे और कम घिनौने मामलों में भी फांसी का हार पहना कर देश के कानून की रक्षा करने का फर्ज बखूबी निभाया जाता रहा है। यदि किसी को विश्वास नहीं हो तो सूचना अधिकार कानून के तहत सुप्रीम कोर्ट से आंकडे प्राप्त करके स्वयं जाना जा सकता है कि किस-किस जाति के, कितने-कितने लोगों ने एक साथ एक से अधिक लोगों की हत्या की और उनमें से किस-किस जाति के, कितने-कितने लोगों को फांसी की सजा दी गयी और किनको चार-पाँच लोगों की बेरहमी से हत्या के बाद भी केवल उम्रकैद की सजा सुनाई गयी? आदिवासियों को सुनाई गयी सजाओं के आंकडों की संख्या देखकर तो कोई भी संवेदनशील व्यक्ति सदमाग्रस्त हो सकता है!
यही नहीं आप आँकडे निकाल कर पता कर लें कि किस जाति की महिलाओं के साथ बलात्कार अधिक होते हैं? किस जाति के लोग बलात्कार अधिक करते हैं और किस जाति की महिलाओं के साथ बलात्कार होने पर सजा दी जाती है एवं किस जाति की महिला के साथ बलात्कार होने पर मामला पुलिस के स्तर पर ही रफा-दफा कर दिया जाता है या अदालत में जाकर कोई सांकेतिक सजा के बाद समाप्त हो जाता है?
आप यह भी पता कर सकते हैं कि इस देश के दो प्रतिशत महामानवों के मामलों में प्रत्येक स्तर पर कितनी जल्दी न्याय मिलता है, जबकि शेष 98 प्रतिशत के मामलों में केवल तारीख और तारीख बस! मानव अधिकार आयोग, महिला आयोग आदि के द्वारा सुलटाये गये मामले उठा कर देखें, इनमें कितने लोगों को न्याय या मदद मिलती है? यहाँ पर भी जाति विशेष एवं महामानव होने की पहचान काम करती है। पेट्रोल पम्प एवं गैस ऐजेंसी किनको मिल रही हैं? अफसरों में जिनकी गोपनीय रिपोर्ट गलत या नकारात्मक लिखी जाती है, उनमें किस वर्ग के लोग अधिक हैं तथा नकारात्मक गोपनीय रिपोर्ट लिखने वाले कौन हैं? संघ लोक सेवा आयोग द्वारा कौनसी दैवीय प्रतिभा के चलते केवल दो प्रतिशत लोगों को पचास प्रतिशत से अधिक पदों पर चयनित किया जाता रहा है? जानबूझकर और दुराशयपूर्वक मनमानी एवं भेदभाव करने की यह फेहरिस्त बहुत लम्बी है!
ऐसी असंवेदनशील, असंवैधानिक, विभेदकारी और मनमानी प्रशासनिक व्यवस्था एवं शोषक व्यवस्था में आश्चर्य इस बात का नहीं होना चाहिये कि नक्सनवाद क्यों पनप रहा है, बल्कि आश्चर्य तो इस बात का होना चाहिये कि इतना अधिक क्रूरतापूर्ण दुर्व्यवहार होने पर भी केवल नक्लवाद ही पनप रहा है? लोग अभी भी आसानी से जिन्दा हैं? अभी भी लोग शान्ति की बात करने का साहस जुटा सकते हैं? लोगों को इतना होने पर भी लोकतन्त्र में विश्वास है?एक झूट की ओर भी पाठकों का ध्यान खींचना जरूरी है, वह यह कि नक्लवादियों के बारे में यह कु-प्रचारित किया जाता रहा है कि नक्सली केवल आदिवासी हैं! जबकि सच्चाई यह है कि हर वर्ग का, हर वह व्यक्ति जिसका शोषण हो रहा है, जिसकी आँखों के सामने उसकी माँ, बहन, बेटी और बहू की इज्जत लूटी जा रही है, नक्सलवादी बन रहा है! कल्पना करके देखें माता-पिता की आँखों के सामने उनकी 13 से 16 वर्ष की उम्र की लडकी का सामूहिक बलात्कार किया जाता है और स्थानीय पुलिस उनकी रिपोर्ट तक दर्ज नहीं करती! स्थानीय जन-प्रतिनिधि आहत परिवार को संरक्षण देने के बजाय बलात्कारियों को पनाह देते हैं! तहसीलदार से लेकर राष्ट्रपति तक गुहार करने के बाद भी कोई सुनवाई नहीं होती है। ऐसे हालात में ऐसे परिवार के माता-पिता या बलात्कारित बहनों के भाईयों को क्या करना चाहिये? इस सवाल का उत्तर इस देश के संवेदनशील और इंसाफ में आस्था एवं विश्वास रखने वाले पाठकों से अपेक्षित है।
दूसरी तस्वीर, अपराध कोई ओर (बलशाली) करता है और पुलिस द्वारा दोषी से धन लेकर या अन्य किसी दुराशय से किसी निर्दोष को फंसा दिया जाता है। बेकसूर होते हुए भी वह कई वर्षों तक जेल में सडता रहता है। इस दौरान जेल गये व्यक्ति का परिवार खेती, पशु आदि सब बर्बाद हो जाते हैं। उसकी पत्नी और, या युवा बहन या बेटी को अगवा कर लिया जाता है। या उन्हें रखैल बनाकर रख लिया जाता है। अनेक बार तो 15 से 20 वर्ष के युवाओं को ऐसे मामलों में फंसा दिया जाता है और उनकी सारी जवानी जेल में ही समाप्त हो जाती है। जब कोई सबूत नहीं मिलता है तो वर्षों बाद अदालत इन्हें रिहा कर देती है, लेकिन ऐसे लोगों का न तो कोई मान सम्मान होता है और न हीं इनके जीवन का कोई मूल्य होता है। इसलिये अकारण वर्षों जेल में रहने के उपरान्त भी इनको किसी भी प्रकार का मुआवजा मिलना तो दूर, ये लोग जानते ही नहीं कि मुआवजा है किस चिडिया का नाम!
हम सभी जानते हैं कि सरकार को गलत ठहराकर, सरकार से मुआवजा प्राप्त करना लगभग असम्भव होता है। इसीलिये सरकार से मुआवजा प्राप्त करने के लिये अदालत की शरण लेनी पडती है, जिसके लिये वकील नियुक्त करने के लिये जरूरी दौलत इनके पास होती नहीं और इस देश की कानून एवं न्याय व्यवस्था बिना किसी वकील के ऐसे निर्दोष को, निर्दोष करार देकर भी सुनना जरूरी नहीं समझती है। इसके विपरीत अनेक ऐसे मामले भी इस देश में हुए हैं, जिनमें अदालत स्वयं संज्ञान लेकर मुआवजा प्रदान करने के आदेश प्रदान करती रही हैं, लेकिन किसी अपवाद को छोडकर ऐसे आदेश केवल उक्त उल्लिखित दो प्रतिशत लोगों के पक्ष में ही जारी किये जाते हैं।
मुझे याद आता है कि एक जनहित के मामले में एक सामाजिक कार्यकर्ता ने अपने राज्य के उच्च न्यायालय को अनेक पत्र लिखे, लेकिन उन पर कोई संज्ञान नहीं लिया गया, जबकि कुछ ही दिन बाद उन पत्रों में लिखा मामला एक दैनिक में प्रकाशित हुआ और उच्च न्यायालय ने स्वयं संज्ञान लेकर उसे जनहित याचिका मानकर हाई कोर्ट के तीन वकीलों का पैनल उसकी पैरवी करने के लिये नियुक्त कर दिया। अगले दिन दैनिक में हाई कोर्ट के बारे में बडे-बडे अक्षरों में समाचार प्रकाशित हुआ और हाई कोर्ट द्वारा संज्ञान लिये जाने के पक्ष में अखबार द्वारा सदीके पढे गये। इन हालातों में अन्याय, भेदभाव और क्रूरतापूर्ण दुर्व्यवहार के चलते पनपने वाले नहीं, बल्कि जानबूझकर पनपाये जाने वाले नक्सलवाद को, जो लोग इस देश की सबसे बडी समस्या बतला रहे हैं, असल में वे स्वयं ही इस देश की सबसे बडी समस्या हैं!
जैसा कि वर्तमान में सरकार द्वारा नक्सलियों के विरुद्ध संहारक अभियान चलाया जा रहा है, उस अभियान के मार्फत नक्लवादियों को मारकर इस समस्या से कभी भी स्थायी रूप से नहीं निपटा जा सकता, क्योंकि बीमार को मार देने से बीमारी को समाप्त नहीं किया जा सकता। यदि बीमारी के कारणों को ईमानदारी से पहचान कर, उनका ईमानदारी से उपचार करें तो नक्सलवाद क्या, किसी भी समस्या का समाधान सम्भव है, लेकिन अंग्रेजों द्वारा कुटिल उद्देश्यों की पूर्ति के लिये स्थापित आईएएस एवं आईपीएस व्यवस्था के भरोसे देश को चलाने वालों से यह आशा नहीं की जा सकती कि नक्सलवाद या किसी भी समस्या का समाधान सम्भव है! कम से कम डॉ. मनमोहन सिंह जैसे पूर्व अफसरशाह के प्रधानमन्त्री रहते तो बिल्कुल भी आशा नहीं की जा सकती।

विविध

जब दिल ही टूट गया...
ब्रेकअप में खुद को बिखरने ना दें
दिल का मामला बड़ा ही अजीबो-गरीब होता है। आप यहाँ जरा से इमोशनल हुए और दिमाग से कंट्रोल हटा। इसलिए बेहतर तो यही है कि इस रोग से दूर से ही तौबा की जाए, लेकिन कमबख्त दिल कहीं लग ही गया और फिर छन्न से टूट भी गया है तो इस तरह से उसकी साज-सँभाल करें।
* टूटे दिल का बोझ मन पर न रखें। अपने इमोशन्स को बाहर निकालें। रोएँ, चिल्लाएँ, तकिए को जोर-जोर से पीटें। इससे बहुत राहत मिलेगी। मन हल्का करने के लिए अपने किसी अजीज से अपने दिल की बात कहें, उसे हमराज बनाएँ(वैसा वाला 'हमराज' नहीं जिसके कारण दिल के टुकड़े हुए हैं, वरना 'एक से भटके दूजे पर अटके' वाली नौबत आ जाएगी)। दोस्त नहीं है तो किसी फैमेली मेम्बर को इस बारे में सब कुछ बताएँ।
* जरूरी नहीं है कि आप ही पूरी तरह सही हों या पूरी तरह गलत हों। बेहतर है, अपने मन को समझाएँ कि वह बेवफा प्यार के लायक था ही नहीं। अच्छा हुआ मैरिज से पहले ही सारी असलियत सामने आ गई।
* अपना ध्यान कुछ रचनात्मक कार्यों जैसे गार्डनिंग, म्यूजिक, कुकिंग, रीडिंग, पोएट्री और स्पोर्ट्स आदि में लगाएँ।
* टूटे दिल के बोझ को हल्का करने का एक नैचुरल तरीका है कि दूर तक पैदल घूमें। अगर तैरना आता है और सुविधा है तो देर तक तैरें। कोई कॉमेडी फिल्म देखें।
* अगर कोई दोस्त शहर से बाहर कहीं दूसरी जगह रहता है तो उससे मिल आएँ।
* घर के कामों में हाथ बटाएँ।
* ध्यान बँटाने के लिए जिम ज्वॉइन करें।
* पार्लर में जाकर मसाज कराएँ, अपने कमरे या ऑफिस की जगह को साफ-सुथरा बनाएँ।
* सुबह-सुबह पार्क जाएँ, वहाँ ग्रुप बनाकर योग करने वालों से बातें करें। योग सीखें।
* जो प्रेमी आप से दूर हो गया है उसके बारे में भी अच्छी विचारधारा रखें। इससे आप में बदले की भावना और दर्द में कमी आएगी। मन का जहर घुल जाएगा।
* यह सोचें कि जो कुछ हुआ अच्छा हुआ, शायद आगे और बहुत कुछ ऐसा होता, जो और गलत होता। चलो, थोड़े में ही निपटे।
* यदि इस सबके बाद भी मन पुरानी यादों में भटकता रहे तो किसी मनोचिकित्सक से मिलें। वह आपको स्वस्थ करने में मदद करेगा।
* अगर मजबूत इरादों वाले और साहसी हैं तो लिखे हुए को पढ़े और आवश्यक सुधार कर कहीं प्रकाशित करवा लें। हो सकता है अगर रिश्तों में गलतफहमी होगी तो पढ़कर वही फिर लौट आए लाइफ में जिसके लिए आप हाल-बेहाल हुए जा रहे हैं। वह नहीं भी लौटे तो छपने की खुशी कोई कम तो नहीं?
* बार-बार यह खुद को आजमाने की गलती ना करें। जितनी जल्दी हो सके खुद को संभाल लें। खुद पर दया करना छोड़ें और हाँ खुद को दोष देना भी गलत हैं। बस, मान लें कि आपकी लाइफ में कोई उससे बेहतर आने वाला है। और दोस्तों, सच कहें तो -और भी गम हैं जमाने में मोहब्बत के सिवा। सो, बी कूल, एंजॉय दि लाइफ।
फिगर की करें फिकर
Mदेखने में आया है कि भारत के ज्यादातर युवाओं में अपने फिगर को लेकर कोई फिकर नहीं है। फास्ट फूड कल्चर के चलते वे जब 40 के पार जाएँगें तो बेडोल और बुझे-बुझे से दिखने लगेंगे। लुकिंग फेस की तो छोड़ो 50 तक आते-आते ज्यादातर तो गंभीर रोग का शिकार हो जाएँ तो कोई आश्चर्य नहीं।
जो युवा अपने फिगर की फिकर नहीं करते उन्हें पहली बात तो युवा नहीं कहना चाहिए। गुटका, पाऊच और नशे की लत के चलते ऐसे लोगों के लिए एक नाम है: हॉस्पिटल की कतार में खड़ा आदमी। क्या कहेंगे ऐसे तोंदु को?
फिगर की फिकर तो बॉलीवुड की हसिनाओं तथा रेम्प की मॉडलों को ही सताती है। फिटनेज को लेकर अब अभिनेता भी जागरूक होने लगे हैं, लेकिन भारत का आम नागरिक अभी भी इस मामले में निष्क्रिय है। हाँ कुछ युवा जिम और जॉगिंग से अपने शरीर को मेंटेन करने लगे हैं, लेकिन यह बॉडी फ्लेक्सिबल नहीं होती।
स्लीम फिगर की माँग हर क्षेत्र में बड़ गई है। ‍जीवन की सफलता भी इससे जुड़ी है। हम जीरो नहीं फिट फिगर की बात कर रहे हैं। इस फिगर के साथ प्रोटिन्स और विटामिन्स का सेवन करते रहें तो आप हर जगह आकर्षण का केंद्र बन जाएँगे। तब हम बताते हैं कि किस तरह बॉडी को अत्यधिक कष्ट दिए बगैर आप फिट रह सकते हैं।
डाइट कंट्रोल : जितना भोजन लेने की क्षमता है, उससे कुछ कम ही अर्थात सीमा के अंदर ही भोजन लें। मसालेदार भोजन बंद कर दें। कड़वा, खट्टा, तीखा, नमकीन, गरम, खट्टी भाजी, तेल, तिल, सरसों, मद्य, अंडा, मछली या अन्य मांसाहार का सेवन बंद कर दें। लहसुन और प्याज का सेवन कम ही करें।
ब्रंच या स्नेक्स : लंच और डिनर को छोड़कर ठोस आहार के बजाय आप ब्रंच और स्नेक्स में सलाद, सूप, छाछ, दही का सेवन करें। सब्जी अधपकी, रोटी पूरी पकी हो। हरी पत्तेदार सब्जी, मौसमी फल तथा फलों के रस का सेवन उपयोगी रहता है। पपीता, अमरूद और फलों का रस लिया जाए तो पाचन शक्ति बढ़ेगी।
जल थेरेपी : सुबह उठते ही दो गिलास गर्म जल छना हुआ लें और पेट की मसल्स को ऊपर-नीचे हिलाएँ। चाहें तो ताड़ासन, द्विभुज कटि चक्रासन करें। पानी अधिक पीएँ, लेकिन चाहे जहाँ का पानी न पीएँ। बोरिंग के पानी में भारीपन होता है, अत: उसे अच्छे से फिल्टर करने के बाद ही इस्तेमाल करें। भोजन करने के दौरान पानी न पीएँ तो बेहतर है। भोजन पश्‍चात एक घंटे बाद ही पानी पीएँ।
योगा टिप्स : आसनों में अंग संचालन करते हुए अंजनेय आसन, पादहस्तासन, उष्ट्रासन, भुजंगासन, परिपूर्ण नौकासन और हलासन करें। प्राणायाम में अनुलोम-विलोम और कपालभात‍ि करें।
पॉवर संकल्प : दो दिन तक स्वयं को भोजन से दूर कर दें। सिर्फ ज्यूस लें फिर तीसरे दिन से स्वल्पाहार और स्वल्पाहार से उतने भोजन पर टिक जाएँ जितने से शरीर में स्वस्थता, हलकापन तथा फिटनेस अनुभव करें। फिर कुंजल, सूत्रनेति, कपालभाति और सूर्य नमस्कार को अपनी दिनचर्या का हिस्सा बना लें। तब देखें कमाल। यह सब योग चिकित्सक की सलाह अनुसार ही करें।

सेहत की बात पढ़ाई के साथ
कॉलेज से आने के बाद तो कालोनी के दोस्तों या घर के कार्यों में ही वक्त चला जाता है, तो क्यों नहीं कॉलेज समय का ही उपयोग किया जाए। आप कहेंगे कि गुरु क्लास रूप में पढ़ने, गर्ल या बाय फ्रेंड के साथ चैट करने में ही वक्त चला जाता है तो योग कैसे करेंगे?
दोस्त! चैट करना भी तो योग ही है, क्या आपको पता नहीं है? अभी आप क्या कर रहे हो...यह आर्टिकल पढ़ रहे हो ना। यह भी तो योग है। अरे...आपको पता नहीं है क्या? हद हो गई। आप समझ रहे होंगे की मैं मजाक कर रहा हूँ। नहीं जनाब 'मजाक' करना भी योग है। छोटी-छोटी उपाय जिनसे खुशी और सेहत बढ़ती है वे सभी रिफ्रेश योगा के अंतर्गत ही तो आते हैं।

जुड़ो कॉलेज से पूर्णत:
जुड़ो मास्टर कहते हैं कि किसी ताकतवर दुश्मन से बचकर उसे परास्त करना हो तो उसके शरीर से जुड़ जाओ। दूर रहोगे तो वह आपके साथ कुछ भी कर सकता है। वैसे भी किसी से दूर रहने से आप कभी भी उसे जान नहीं सकते। योग कहता है कि यह जुड़ना और जानना अभ्यास से आता है। अभ्यास योग का एक अंग है।
जब दोस्तों या टीचर से वार्तालाप करते हैं तो दूसरे से जुड़ते हैं और जब हम पढ़ते हैं तो खुद से जुड़ते हैं और अप्रत्यक्ष रूप से दूसरों से भी जुड़ते हैं, लेकिन दूसरों से जुड़ना निर्भर करता है कि आप क्या पढ़ रहे हैं। जैसे अभी यह आलेख पढ़ रहे हैं तो आप खुद से भी जुड़े हुए हैं और मुझसे भी और क्या आपको नहीं मालूम की योग का अर्थ जोड़ना होता है। जुड़ने की कला तो योग से ही आ सकती है। आप कॉलेज में रहकर राजनीति से जुड़ना चाहते हैं या कि सच में ही कॉलेज से यह तो हम नहीं जानते, लेकिन आप किसी से भी जुड़ें जमके जुड़ें।
खुलकर चैट करें : गपशप या कोई बातचीत कुछ भी करें उस करने में संवाद (Dialogue) नहीं है तो व्यर्थ की बकवास या बहस बनकर ही रह जाएगी। हम दिनभर में हजारों तरह की बात सोचते और सैंकड़ों तरह की बात बोलते हैं। अब आप सोचे की आप क्या बोलते और क्या सोचते हैं। कितना कचरा और कितना हेल्दी या यौगिक।
फ्री माइंड से पढ़ें : सवाल यह उठता है कि माइंड फ्री कैसे रहेगा। सिम्पल...हँसी, मजाक और गपशप को ही महत्व दें। फिर पढ़ाई का क्या होगा? सिम्पल...यदि दिनभर में 100 बातें करते हैं तो 15 बातें वह करें जो टीचर ने पढ़ाई है वह भी मजा लेकर ‍की जा सकती है। अब आप पूछेंगे कि जब बात ही करना है ‍तो फिर फ्री माइंड से पढ़ने की बात क्यों करते हैं। सिम्पल....जो बातचीत की है उसको कंफर्म करने के लिए किताब खोलकर देखने में क्या बुराई है? टेंशन लेकर पढ़ोंगे तो मेरे जैसे लेखक ही बन पाओगे...इससे ज्यादा कुछ नहीं। पड़ाकू ही श्रेष्ठ लड़ाकू होता है किसी भी मोर्चे का।
कॉलेज में प्यार : ज्यादातर छात्र 'प्यार' के सपने देखते हैं, कल्पनाओं का पहाड़ बना लेते हैं। उनमें से कुछ भावुक हो जाते हैं, कुछ फ्रस्टेड, कुछ देह शोषण करके अलग हट जाते हैं और कुछ तो शादी करके शेटल हो जाते हैं। आप क्या करते हैं हमें नहीं मालूम। किसी लड़के या लड़की के दिल को छेड़ना आजकल तो पहले से कहीं ज्यादा भयानक हो चला है, इसीलिए हम कहते हैं कि यौगिक प्रेम से नाता जोड़ें और मुक्ति पाएँ।
*इतना सब कैसे होगा और इसमें योग की बातें तो आपने कही ही नहीं?
1.ध्यान करें : पढ़ते या सुनते वक्त आपका ध्यान तो अक्सर कहीं ओर ही होता है। कोई बात नहीं, ध्यान को एकाग्र करने की जरूरत भी नहीं है। एकाग्रता का अर्थ ध्यान होता भी नहीं। चित्त को एकाग्र करना ध्यान है भी नहीं। मेडीटेशन या कांसट्रेशन ध्यान नहीं होता। ध्यान तो जागरण (wakening) है। वर्तमान में जीना ध्यान है। हमारा मन या तो अतीत या भविष्य के बारे में सोचता है, वर्तमान की कौन चिंता करता है। वर्तमान को कौन इंजाय करता है।
हम आपको एक योगा टिप्स देते हैं। क्लास रूप, कैम्पस या केंटिग में गौर से छात्र और छात्राओं को देंखे। ध्यान दें की कौन-कौन ध्यान से जी रहा है और कौन बेहोशी में मर रहा है। एक सप्ताह बाद आपको सभी रोबेट नजर आएँगे। क्या आप भी रोबेट हैं?
हमें पता ही नहीं चलता कि शरीर है और वह भी धरती पर है। दुनिया से इतना घबरा गए है या परेशान हो गए हैं कि खुद को भी भुल गए। याद करना है...सिम्पल...ध्यान दें कि कितना अतीत और भविष्य में गमन करता है आपका मन या दिमाग। अभी आपको वर्तमान में होशो-हवाश में रहने की ताकत नहीं मालूम है ना दोस्त, इसीलिए व्यर्थ के सवाल खड़े होते हैं। हाँ, प्राणायाम से भी ध्यान घटित होने लगता है। विपश्यना ध्यान का नाम तो आपने सुना ही होगा। ध्यान की तो 150 से 200 विधियाँ होती है, लेकिन विधि को ध्यान मत समझ लेना। अरे यार दिमाग का ऑपरेशन करने की 'विधि' कोई 'दिमाग' होती है क्या? विधि अलग और दिमाग अलग।
2. अंग-संचालन : अंग-संचालन का नाम नहीं सुना। सूक्ष्म व्यायाम का नाम सुना है? नहीं, अरे यार फिर क्या एरोबिक्स का नाम सुना है। यह सब कुछ अंग संचालन ही तो है। अंग संचालन की सारी स्टेप बताने के लिए तो एक अलग आलेख लिखना होगा तो क्यों नहीं आप झटपट समझ लेते हैं कि गर्दन को दाएँ-बाएँ, ऊपर-नीचे और गोलगोल घुमाना ही तो अंग संचालन का हिस्सा है। बस इसी तरह हाथ, पैर, आँखों की पुतलियाँ, पलकें, अँगुलियाँ, मुँह, कमर और पेट को गपशप करते हुए लय में घुमाते रहें। हाँ, दाँत, कान, नाक और बालों को भी घुमाया जा सकता है, लेकिन किसी योग टीचर से सीखकर।

प्रेम को योग कहें या रोग?
कुछ लोगों के लिए प्रेम योग होता है और कुछ लोगों के लिए रोग। देखने में आया है कि ज्यादातर लोगों के लिए तो प्रेम रोग ही बन जाता है और वह भी ऐसा असाध्य रोग जिसकी दवा खोजना मुश्किल ही है।प्रेम योग होता है या रोग इन दोनों के पक्ष में तर्क जुटाएँ जा सकते हैं, लेकिन असल में तो प्रेम योग ही माना जाता रहा है। वर्तमान युग में कौन करता है नि:स्वार्थ प्रेम। यह तो सब किताबी बातें हैं, इसीलिए तो प्रेम कभी भी योग नहीं रोग बन जाता है।
ज्ञानीजन कहते हैं कि कामवासना से संवेदना और संवेदना से प्रेमयोग की ओर बढ़ों। आप जिससे भी प्रेम करते हैं और यदि उसे पाने की चाहत रखते हैं या उसके प्रति आपके मन में कामवासना का भाव उठता है तो फिर प्रेम कहाँ हुआ? या तो कामवासना है या फिर चाहत तो यह दोनों छोड़कर प्रेम की ओर सिर्फ एक कदम बढ़ाओ। फीजिकल एट्रेक्शन को जानवरों में भी होता है।
*प्रेम रोगी : 'पागल प्रेमी' या 'दीवाना प्रेमी' नाम तो आपने सुना ही होगा। इस तरह के प्रेमियों के कारनामे भी अखबारों की सुर्खियाँ बनते हैं। कोई अपने हाथ पर प्रेमिका का नाम गुदवा लेता है तो कोई प्रेम में जान भी दे देता है। कितने पागल होंगे वे लोग जो खून से पत्र लिखते हैं।
इससे भी भयानक यह कि जब ‍कोई प्रेमिका उसका साथ छोड़कर चली जाती है तो फिर वो उसका कत्ल तक कर देते हैं अब आप ही सोचे क्या यह प्रेम था। प्रेम में हत्या और आत्महत्या के किस्से हम सुनते आए हैं। यह सब किस्से उन लोगों के हैं जो यह तो कामवासना से भरे रहते हैं या फिर चाहत से चिपक जाते हैं। इन्हें प्रेम रोगी भी कहना प्रेम शब्द का अपमान होगा।
*प्रेम योग : एक दर्शनिक ने कहा कि नि:स्वार्थ प्रेम परमात्मा की प्रार्थना की तरह होता है ऐसा कहने से शायद आप समझे क्या फिलॉसफी की बात करते हो, तो मैं यहाँ कहना चाहूँगा कि प्रेम करना या होना सबसे बड़ा स्वार्थ है। जो व्यक्ति स्वयं से प्रेम करता है वहीं दूसरों से प्रेम कर सकता है और दूसरों से प्रेम करने में भी स्वार्थ ही होता है, क्योंकि दूसरा जब यह जानता है कि कोई हमें प्रेम करता है तो हमें यह जानकर खुशी होती है कि उसके मन में हमारे प्रति अच्छी भावना है। हम दूसरों को खुश रखने में ज्यादा खुश होते हैं।
प्रेम का संबंध स्वतंत्रता और सहयोग से है- चाहत या कामवासना से नहीं। लेकिन विश्व के प्रत्येक व्यक्ति की परिभाषा प्रेम के मामले में अलग-अलग हो सकती है। हम यहाँ आध्यात्मिक प्रेम की बात नहीं करते हम तो सिर्फ आप से पूछते हैं कि यदि आप किसी से प्रेम करते हैं तो आप उसे प्रत्येक स्थिति में सुखी ही रखना या देखना चाहेंगे।
*कैसे बनें प्रेम योगी : और भी कई नाम लिए जा सकते हैं किंतु प्रमुख रूप से शिव, नारद और कृष्ण ये लोग प्रेम योगी थे। योग की विशेषता तो शुद्ध और पवित्र प्रेम में ही है। इस प्रेम का वर्णन नहीं किया जा सकता यह अनुभूति की बात है। पहले तो स्वयं से ही प्रेम करना सीखें। फिर दूसरों को समझे अपने भाव और विचारों का अर्थात वह भी उसी दुख और सुख में जी रहा है जिस में तुम।
*स्वयं का सामना : दूसरों को जब भी देंखे तो यह समझें कि यह मैं ही हूँ। बस इस भाव को गहराने दें। मोह, राग, विरह, लगाव, मिलन या चाहत से भिन्न यह प्रेम आपके भीतर सकारात्मक ऊर्जा का विकास तो करेगा ही साथ ही आप लोगों से इस तरह मिलना शुरू करेंगे जैसे कि स्वयं से ही मिल रहे हों। यही सफलता का राज भी है।