शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010

वामा

सुख-दुख दोनों है खास
बादशाह अकबर के दरबार के नवरत्नों में बीरबल का अलग स्थान था। बादशाह कैसा भी प्रश्न पूछते, बीरबल सही व सटीक उत्तर देकर उनकी जिज्ञासा शांत कर देते। एक बार उन्होंने कहा, कुछ ऐसा लिखो जिससे खुशी के वक्त पढ़ें तो गम याद आ जाए और गम के वक्त पढ़ें तो खुशी के पल याद आएँ। बीरबल ने कुछ देर सोचा, फिर कागज पर यह वाक्य लिखकर बादशाह को दिया- यह वक्त गुजर जाएगा। सच! इन चार शब्दों के वाक्य में जीवन की कितनी बड़ी सच्चाई छुपी है।
सभी जानते हैं कि सुख-दुख जीवन के दो पहलू हैं जिनका क्रमानुसार आना-जाना लगा ही रहता है। किंतु हम सब कुछ जानते-समझते हुए भी दोनों ही वक्त अपनी भावनाओं-संवेदनाओं पर नियंत्रण नहीं रख पाते। जब खुशियों के पल हमारी झोली में होते हैं तो उस समय हम स्वयं में ही इतने मग्न हो जाते हैं कि क्या अच्छा क्या बुरा, इस पर कभी विचार नहीं करते हैं।
अपनी किस्मत व भाग्य पर इठलाते हुए अन्य की तुलना में श्रेष्ठ समझते हैं और अहंकारवश कुछ ऐसे कार्य तक कर देते हैं जिनसे स्वयं का हित और दूसरे का अहित हो सकता है। इस क्षणिक सुख को स्थायी मानते हुए ही जीने लगते हैं और वास्तव में यही सोच अपना लेते हैं कि अब हमें क्या चाहिए, सब कुछ तो मिल गया। बस! एक इसी भ्रांति के कारण स्वयं को उतने योग्य व सफल साबित नहीं कर पाते जितना कि कर सकते थे।
इसी तरह दुःखद घड़ी में भी अपना आपा खो बेसुध होकर सब भूल जाते हैं। छोटे-से छोटे दुःख तक में धैर्य-संयम नहीं रख पाते। बुद्धि-विवेक व आत्मबल होने के बावजूद स्वयं को इतना दयनीय, असहाय व बेचारा महसूस करते हैं कि आत्मसम्मान, स्वाभिमान तक से समझौता कर लेते हैं। यही कारण है कि सब कुछ होते हुए भी उम्रभर अयोग्य-असफल होने लगते हैं।
कहने का सार यह है कि जो भी छोटी-सी जिंदगी हमें मिली है उसमें सुख व दुख दोनों ही से हमारा वास्ता होगा, यही शाश्वत सत्य है। इस सच को हम जितनी जल्दी स्वीकार कर लेंगे उतना ही हमारे लिए अच्छा रहेगा, क्योंकि फिर ऐसा समय आने पर हम अपने संवेगों पर काबू कर उन्हें स्थिर रख सकेंगे।
ये हैं ...अघोषित सेलिब्रिटीज
यह आलेख समर्पित हैं उन महिलाओं को जो कोई सेलेब्रिटी या सार्वजनिक क्षेत्रों की नामी महिला नहीं हैं। न ही अपने क्षेत्र-विशेष से बाहर उन्हें कोई जानता है। किंतु अपने जैसे परिवेश में रहने वाली महिलाओं के लिए वे किसी रोल मॉडल से कम भी नहीं, जिन सितारा महिलाओं के फोटो और उपलब्धियों से सामान्यतः अखबार के पन्नो भरे रहते हैं, टीवी चैनल पर जो जगमगाती हैं उनसे उन्नीस नहीं हैं ये ग्रामीण 'रोल मॉडल'।
गरीबी और पुरातनवादी, मानसिकता में गले-गले तक धँसी महिलाओं के लिए ये 'रोल मॉडल' यथार्थ के अधिक निकट हैं, क्योंकि इनका निजी जीवन भी संघर्षों, काँटों से भरा हुआ रहा है। बड़े आश्चर्य की बात है कि अभावों एवं विपरीत परिस्थितियों से जूझकर आगे बढ़ने वाली इन महिलाओं की व्यक्तिगत उपलब्धियाँ, जो समाज के लिए अनुकरणीय हैं व क्रांतिकारी हैं, किसी महिला संगठन, मंच या स्त्री-जगत के पैरोकारों को नजर नहीं आती?
महिला दिवस पर इस बार भी जगह-जगह सम्मान समारोह हुए, कार्यशालाएँ आयोजित हुईं। इन कार्यक्रमों में लगभग वे ही महिलाएँ सहभागिता करतीं व सम्मानित होती नजर आईं जो उच्च शिक्षित तबके से होने के साथ ही ठोस आर्थिक पृष्ठभूमि से संबंधित थीं। किसी एक-आध कार्यक्रम में ही ऐसी महिलाएँ दिखाई दीं, जो कठोर परिस्थितियों, आर्थिक अभावों व कुरीतियों की जंजीरें तोड़कर आगे बढ़ी हों।
बाकी तो सम्मान देने वाली व सम्मानित होने वाली ज्यादातर महिलाएँ या तो क्षेत्रीय नेताओं की पत्नियाँ या रिश्तेदार थीं या किसी उच्चाधिकारी की या फिर प्रतिष्ठित व्यापारी की पत्नी या रिश्तेदार। आश्चर्य की बात तो यह है कि सम्मान देने या लेने वाली उक्त कई महिलाएँ स्वयं भी अनेक कुरीतियों, रूढ़ियों व अंधविश्वासों से घिरी होने व घरेलू हिंसा की कम जानकारी रखने के बावजूद महिला-संगठनों की अग्रणी मानी जाती हैं। तो क्या ये सब ही आम महिलाओं के उत्थान व सशक्तीकरण के प्रयोजन हेतु वास्तविक प्रयास हैं?
यदि उक्त संगठन, मंच वाकई महिला हितैषी हैं तो वे महिलाएँ अभी तक उपेक्षा की शिकार क्यों हैं जिन्होंने व्यक्तिगत स्तर पर आधारभूत समस्याओं से जूझते हुए अपने परिवार, जाति-समाज की ठेठ परंपराओं की बेड़ियों को लाँघकर सफलता प्राप्त की और समाज की दबी-कुचली महिलाओं के लिए उदाहरण बनीं?
एक और नजारा हमारे देश में आम है। पंचायतीराज व्यवस्था में आरक्षण के कारण पंचायतों व स्थानीय निकायों में महिलाओं की संख्या में भले ही वृद्धि हो गई हो लेकिन अपने अधिकारों की न तो उन्हें जानकारी होती है और न स्वरुचि से वे कुछ कर पाती हैं। अधिकांश मामलों में वे स्वयं निर्णय नहीं ले पातीं और अपने पति के हाथों रबर-स्टैम्प बनी रहती हैं।
कद्दावर पुरुष नेताओं को स्थानीय व क्षेत्रीय राजनीति में जब अपने लिए कोई स्थान नजर नहीं आता तो वे अपनी पत्नी को ढाल बनाकर अपना हित साधते रहते हैं।
आर्थिक रूप से सुदृढ़ कई महिलाएँ जिन्हें पारिवारिक व सामाजिक मामलों की भले ही अधिक समझ-बूझ न हो, उन्हें महिला परामर्श केंद्रों में सलाहकार बना दिया जाता है। इन परिस्थितियों में जो महिलाएँ ग्रामीण व अर्द्धशहरी क्षेत्रों से बहुत निम्न स्तर से उठकर अपने संघर्ष व साहस के दम पर चुनौतियों का मुकाबला करते हुए आगे बढ़ती हैं उनका हौसला अक्सर दरकिनार कर दिया जाता है।
खेती-बाड़ी और मजदूरी कर अपने बच्चों को पढ़ाने वाली महिलाएँ, दूसरों के घरों में कामकाज कर स्वयं को शिक्षित करने वाली, अपने शराबी-जुआरी पति से मार खाने की बजाय स्वयं के दम पर आगे बढ़ने वाली, अस्वस्थ परंपराओं, कुरीतियों और सड़े-गले रीति-रिवाजों से विद्रोह कर स्वयं की एक अलग पहचान स्थापित करने वाली और अभावग्रस्तता के बावजूद अपने कदमों को पीछे नहीं हटाने वाली, सामान्य ग्रामीण या निचले वर्ग की महिला समाचार-पत्रों की सुर्खी कम क्यों बनती है?
आम महिलाओं को अपनी लड़ाई खुद लड़नी होती है अभावों से, स्वयं के परिवार से यहाँ तक कि स्वयं के पति से भी। उनकी छोटी-मोटी उपलब्धियाँ क्या सिर्फ इसलिए मूल्यांकन या सम्मान के योग्य नहीं क्योंकि वे 'सेलिब्रिटी' नहीं हैं और एक क्षेत्र विशेष तक सीमित हैं? ऐसी महिलाओं के साहस व हौसलों को नमन है जो जूझकर आगे बढ़ी हों। क्या वे सम्मान की हकदार नहीं हैं?

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