शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

विचार-मंथन

क्या हमारी संवेदनाएँ भोथरी हैं?

जितना गुस्सा नक्सलियों की कायराना करतूत पर नहीं आया, खून में उससे कहीं ज्यादा उबाल मीडिया में इस खबर के हश्र को देख कर आया। नक्सलियों के हाथों हमारे जवान मारे गए और मीडिया वालों के हाथों उनका दोबारा खून हुआ।
जो तवज्जो सानिया और शोएब की शादी को मिली, उसने राष्ट्र की प्राथमिकताओं और बेहतर समाज के निर्माण से जुड़े उत्तरदायित्व का सरेआम कत्ल किया है। अगर अखबारों के चंद टिमटिमाते दीयों ने मोर्चा नहीं संभाला होता तो मीडिया वालों को अपने ही खून से सनी लाशों की शिनाख्त करना मुश्किल हो जाता।
क्या तमाशा है, जब इस भीषणतम नक्सली हमले की खबर ब्रेक हुई तो लगातार ये जानने की इच्छा थी कि आखिर हुआ क्या है, क्यों है, कैसे है, लेकिन जो चैनल बदलो उस पर या तो सानिया और शोएब नजर आ रहे थे या फिर आईपीएल या फिर सास-बहू ! पहले लगा कि खबर आ ही नहीं पा रही होगी, लेकिन ऐसा था नहीं। खबर थी, सबके पास थी।
लेकिन उसे जिस तरह से दिखाया जा रहा था उसे देख कर लग रहा था जैसे सानिया और शोएब के निकाह के मेलोड्रामा के बीच में कोई फिलर चल रहा हो। जब ये सिलसिला देर रात तक भी चला और अगले दिन भी, और अगले दिन के अखबारों ने जब इस बड़ी खबर के बाद भी सानिया और शोएब के लिए पहले पन्नों पर जगह निकाल ही ली तो मीडिया के बारे में खुद को दिलासा देने की सारी कोशिशों ने हाथ टेक दिए।
मन को बहुत समझाया था, कि नहीं-नहीं ऐसा नहीं है, देखना सब ठीक हो जाएगा, सानिया और शोएब तो यों ही हाशिए पर चले जाएँगे लेकिन हुआ ठीक उल्टा। शोएब-आयशा (ये सारे नाम लिखने में भी हाथ दुख रहे हैं), के तलाक की ब्रेकिंग न्यूज सभी के हाथ लग गई और फिर बेचारे जवान हाशिए पर चले गए।
सानिया और शोएब ने हैदराबाद में जिस आइस्क्रीम पार्लर में देर रात आइस्क्रीम खाई, उसके मालिक का इंटरव्यू भी दिखाया गया। रिपोर्टर ने उस आइस्क्रीम तक को चखा, जो फ्लेवर उन्होंने ऑर्डर किया था! हाँ देर रात को तलाक की सनसनी कम हुई, तो नक्सली घटना पर कुछ पैनल डिस्कशन जरूर करवा दिए गए।
क्या वाकई हमारी संवेदनाएँ इतनी भोथरी हो गई हैं? और ये सब इस नाम पर किया जा रहा है कि दर्शक इसे देखना चाहते हैं, पाठक इसे पढ़ना चाहते हैं! क्या वाकई ऐसा है? किसने जेहमत उठाई है यह जानने की कि वाकई लोग क्या पसंद कर रहे हैं?
टीआरपी की तो अब बात ही करना बेमानी है। ये कितना झूठा और गढ़ा हुआ है, इस पर हजारों बार लिखा जा चुका है। फिर भी इसे ढाल बनाया जा रहा है तो केवल उनके फायदे के लिए जिन्होंने षड्यंत्रपूर्वक इसे रचा है। इस पाखंड की पोल तो तभी खुलेगी, जब दर्शक और पाठक इसे बुरी तरह नकार देंगे।
बहरहाल, अगर हम ये मान भी लें कि वाकई आप वो ही दिखा रहे हैं जो लोग देखना और पढ़ना चाहते हैं तो फिर केवल इतने पर ही क्यों रुकना? लोग तो और भी बहुत कुछ देखना चाहते हैं। सारे कानून और सामाजिक मान्यताओं का तिलिस्म तोड़ कर रोज बस नंगी तस्वीरें और ग्लैमरस खबरें ही दिखाओ। ये सब मुखौटे ओढ़ने की क्या जरूरत?
जो लोग आईपीएल का स्कोर जानने के लिए उतावले हुए जा रहे हैं, आखिर उन्हें जवानों की मौत का स्कोर दिखाने की जिम्मेदारी किसकी है? अँगरेजों के राज को अपनी नियति मान चुकी जनता को जगाने की जिम्मेदारी आखिर किसने निभाई थी?
इस हमले में दरअसल नक्सलियों से एक बड़ी चूक हो गई। वे हमला करने से पहले हमारे टीवी चैनल वालों को बताना भूल गए। नहीं तो 26/11 की तरह लाइव कवरेज भी हो जाता और उन्हें पब्लिसिटी भी मिल जाती। आखिर हमें हो क्या गया है? क्या हम सबने अफीम खा रखी है?
अब तो वैसे भी अलग से नशा करने की जरूरत ही नहीं है। आईपीएल की कोकेन, सानिया-शोएब की हेरोइन और फैशन वीक की चरस है न, हमें हमेशा मदमस्त बनाए रखने के लिए !
बात ये भी नहीं है कि हम ऐसी कोई घटना हो जाने पर खूब मातम मनाएँ या हमेशा स्यापा ही करते रहें। जिंदगी में मनोरंजन की अपनी जगह है लेकिन हम यदि चटनी को ही मुख्य भोजन बना लें तो उससे होने वाली बदहजमी पूरे समाज की सेहत बिगाड़ देगी।
अगर इस तरह की घटनाएँ भी हमें स्तब्ध नहीं कर पाती हैं, हमारी संवेदनाओं को नहीं झकझोर पाती हैं तो फिर हम इंसान ही नहीं रह जाएँगे। तो जो लोग रोबोट हो जाना स्वीकार चुके हैं वे अपने सोफे से चिपके रहें और इस सब मनोरंजन को अपने ऊपर से बह जाने दें और जिनमें इंसान ही बने रहने की जिद कायम है वे उन 76 जवानों को पूरी ईमानदारी से सलाम करने के साथ ही इस बहते मनोरंजन में से अपना सिर निकालकर कुछ तो आवाज उठाएँ।

मुनाफे का भूत

आत्मा ही परमात्मा है और आत्मा के बिना शरीर का कोई महत्व नहीं हो सकता लेकिन धंधे, मुनाफे और मनोरंजन के चक्कर में क्रिकेट की आत्मा को पीट-पीट कर खत्म किया जा रहा है।
NDवास्तव में भूत का कोई अस्तित्व नहीं होता। बस, दिल-दिमाग को भ्रमित कर भटकाने की प्रक्रिया को भूत समझा-कहा जा सकता है। भटकाने वाला ऐसा ही भूत भारत में क्रिकेट के मठाधीशों के दिल-दिमाग पर चढ़ गया है और वे खेल को ही नहीं, पूरे देश को मायावी जाल में भटका रहे हैं।
भारत के खेल मंत्री मनोहरसिंह गिल कोई गँवार राजनेता नहीं हैं। वे जिंदगी भर प्रशासनिक अनुभव पाने के साथ निष्पक्ष निर्वाचन आयोग के कर्ता-धर्ता रहे हैं। केंद्र सरकार में उद्योग सचिव रहने के कारण वे धंधे का खेल भी अच्छी तरह समझते हैं।
सबसे बड़ी बात यह है कि वे स्वयं क्रिकेट के अच्छे खिलाड़ी रहे हैं और इस खेल के प्रति उनका कोई दुराग्रह नहीं हो सकता। इसलिए इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) के संबंध में खुलकर की गई उनकी टिप्पणियों को गंभीरता से लिया जाना चाहिए।
गिल साहब ने हाल ही में देश को समझाने की कोशिश की है कि आईपीएल तो बस धंधा है और भारत के लिए गौरवशाली खेल माने जाने वाले क्रिकेट की असली गरिमा और परंपरा से इसका कोई लेना-देना नहीं है। यह तमाशा क्रिकेट की आत्मा को नुकसान पहुँचा रहा है।
क्रिकेट को केवल मनोरंजन और धंधे की तरह इस्तेमाल किए जाने ने गेंदबाजों और बल्लेबाजों का संतुलन ही बिगाड़ दिया है। धंधा करने वाले डेढ़ घंटे के 20 ओवरों को कभी 5 या कभी 1 ओवर तक सीमित कर क्रिकेट का सत्यानाश ही कर देंगे।
निश्चित रूप से भारत में क्रिकेट का गौरवशाली इतिहास रहा है। श्रेष्ठतम खिलाड़ियों के बल पर भारत ने दुनिया के दिग्गज ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड, दक्षिण अफ्रीका के छक्के छुड़ा दिए हैं। महानगरों से सुदूर गाँवों तक क्रिकेट खेल के रूप में बेहद लोकप्रिय हुआ है।
पिछले 40 वर्षों की प्रिंट पत्रकारिता के इतिहास में भी क्रिकेट विशेषांक सबसे अधिक बिके और पढ़े गए। पत्र-पत्रिकाओं ने क्रिकेट को प्रतिष्ठित किया। इलेक्ट्रॉनिक संचार माध्यमों की क्रांति के बाद पिछले वर्षों के दौरान टीवी के समाचार चैनलों ने इसकी लोकप्रियता बढ़ाई।
फिर टीवी के खेल चैनलों की चमक में बढ़ोतरी हुई। उदार अर्थव्यवस्था ने विदेशी कंपनियों को भी क्रिकेट से लाभ कमाने के अच्छे अवसर दे दिए। दूसरी तरफ भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड का कारोबार बढ़ने के साथ चालाक राजनीतिज्ञों और धंधेबाजों ने क्रिकेट में जमकर घोटाले किए। घोटाले करने वालों के बीच घमासान जारी रहा और कुछ चतुर धंधेबाजों ने आईपीएल का नया जाल बिछा दिया। उन्हें खेल से नहीं, मनोरंजन के धंधे से अरबों रुपयों के मुनाफे की चिंता है।
देश के भोले-भाले लोगों को संभवतः पता ही नहीं होगा कि आईपीएल उद्योग का कारोबार लगभग 1800 अरब रुपयों का है। अकेले सोनी टीवी ने एक सीजन में आईपीएल मैचों के साथ विज्ञापन के जरिए करीब 700 करोड़ रुपए कमाए।
मैदान में गेंद उछलने या बल्ला उठाने के 10 सेकंड के दृश्य पर 5 लाख रुपए की कमाई। दुनिया का कोई उद्योगपति किसी भी उद्योग-धंधे से कुछ सेकंड और मिनटों में इस गति से कमाई नहीं कर सकता है।
मैदान में आईपीएल का एक मैच देखने आने वाले दर्शकों से आयोजक अभी 15 से 20 करोड़ रुपए कमा लेते हैं और उम्मीद है कि यह राशि जल्द ही 40 करोड़ रुपए हो जाएगी। मैच के प्रायोजक 17 से 20 करोड़ रुपए लगा देते हैं। सिनेमा हॉल में मैच दिखाने से आईपीएल का आयोजक 330 करोड़ रुपए कमाएगा। इंटरनेट पर खेल की प्रस्तुति पर लगभग 315 करोड़ रुपए की आमदनी करेगा।
सिने अवॉर्ड की तरह आईपीएल अवॉर्ड, रॉक स्टार जैसे प्रदर्शनों से 100 करोड़ रुपए की कमाई होगी। यही कारण है कि उद्योगपति, व्यापारी, फिल्मी सितारे आईपीएल के कारोबार में अग्रणी हो गए हैं।
यह ग्लैमर का बड़ा तड़का है। फिल्मी अभिनेता-अभिनेत्री महीनों अभिनय करके एक फिल्म से पूरे साल में 10 से 15 करोड़ रुपए कमा सकते हैं, लेकिन आईपीएल मैच से तो साल में दो-तीन सौ करोड़ रुपए कमाने की गुंजाइश बन गई है।
खुद को न नाचना है, न गाना है और न ही पसीना बहाना है। किराए पर लिए गए क्रिकेट खिलाड़ियों से मैदान में बस शो करवाते हुए तालियाँ बजाकर पार्टियाँ करना है।
क्रिकेट के अंतरराष्ट्रीय नियम-कानून और खेल के अपने मानदंड रहे हैं। लेकिन भारतीय ठेकेदारों ने सबको ताक पर रखकर तोड़े-मरोड़े अपने नियम तय कर दिए हैं। मैदान की बाउंड्री लाइन तक छोटी कर दी है। मंगूस बल्ले का प्रचलन चला दिया है।

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