सोमवार, 19 अप्रैल 2010

साहित्य

हीरे का सेट
डॉ. वर्मा की मिसेज इस बार मिलीं तो जेवरों से और अधिक लदी थीं, जैसे किसी जौहरी की दुकान में, शो केश में खडी मॉडल, जेवरों का विज्ञापन कर रही हो। इस बार उनके गले में, मोतियों का नया हार, कान में मोतियों के बडे-बडे बुंदे झूल रहे थे। मैंने पूछा, मिसेज वर्मा, इतना सुंदर सेट कहां से लिया? ये सेट तो इन्होंने मुझे हैदराबाद से लाकर दिया है। अच्छा! आपके जन्मदिन का तोहफा है। नहीं, नहीं, ये तो मस्तिष्क-ज्वर का उपहार है, जबसे यह बुखार फैला है, हमने कई चीजें लेलीं, ये तो कह रहे थे, कि यदि ये मस्तिष्क-ज्वर एक महीने और टिक जाये, तो मुझे हीरे का सेट देंगे।

छब्बीस इंच की काली साइकिल
जब भी कार को गैराज में पार्क करने के लिए या कहीं ले जाने के लिए मैं गैराज में जाता हूं तो मेरी निगाह साइकिल पर टिक जाती है। बच्चों का शोरगुल, दफ्तर जाने की जल्दी के चलते मैं अक्सर साइकिल पर सरसरी निगाह फेंकता हूं और नजरंदाज करके निकल जाता हूं। शायद यह भी मेरी एक आदत ही बन गई है। कभी-कभी मुझे लगता है कि यह साइकिल आम साइकिलों जैसी नहीं है, बल्कि अगर मैं कहूं कि यह खास साइकिल से भी कोई ऊपर के दर्जे की है तो गलत नहीं होगा। हालांकि साइकिल के दोनों पहियों में से हवा बिल्कुल निकल चुकी है और उसके पहिए रिम के साथ चिपक चुके हैं और कहीं-कहीं से रबर फट भी गया है। रिम को जंग लगा हुआ है और ब्रेक लैदर शहीद हो चुके हैं पर काठी पर हरे रंग का कवर साइकिल को आज भी जवान और तरोताजा बनाने में सहायक है। उसकी घंटी की टनटन की गूंज से ऐसा लगता है जैसे आज भी दिल उसमें तेजी से धडकता हो। कई सालों से साइकिल ऐसे ही इसतरह खडी होने के कारण गतिहीन जरूर हो गई है, इसके बावजूद एक खास किस्म की पहचान बना कर इस गैराज में खडी है। कई बार मैं सोचता हूं कि साइकिल को ध्यान से देखूं मगर कामकाज का बोझ ज्यादा होने के कारण ऐसा नहीं कर पा रहा हूं। .. बच्चों के पेपर खत्म हो गए हैं और वे अपनी मां के साथ ननिहाल गए हुए हैं। आज इतवार का दिन है। सुबह के सात बजने वालेहैं। मैंने अपने नौकर शामलाल को चाय बना कर गैराज में लाने के लिए कह दिया है। सिगरेट और लाइटर को गाउन की जेब में डालकर मैं सीधा गैराज की तरफ बढ गया और जाते ही शटर ऊपर उठा दिया। गाडी में बैठ कर मैंने सिगरेट सुलगायी और खिडकी का शीशा नीचे करके स्टीरियो ऑन कर दिया। कुछ समय के बाद शामलाल चाय ले कर आ गया। जैसे ही शामलाल ने हाथ में चाय का कप पकडाया तो मैंने उसे कहा, कोई मिलने के लिए आए तो उसे कह देना कि मैं घर पर नहीं। .. और कहते-कहते मैंने अपना मोबाइल फोन साइलेंट पर लगा दिया। चाय हाथ में पकड कर सिगरेट के कश खींचने लगा और जोर से धुआं साइकिल की चेन पर मारा तो मेरी नजर साइकिल की चेन पर अटक गई। साइकिल की चेन पर लगी ग्रीस पर पता नहीं कितनी मिट्टी पड चुकी थी। चेन की तरफ देखते-देखते मुझे एकदम बापू की याद आ गई। मुझे ऐसे लगा जैसे बापू अब भी साइकिल को ग्रीस दे रहे हैं। जैसे ही मैंने चेन से नजरें उठाई तो मेरा ध्यान अचानक साइकिल की फ्रेम पर गया तो मुझे अपना बचपन याद आने लग पडा। मुझे और मेरे कई दोस्तों को यही साइकिल चलाते देखकर बापू खुश होते थे। खुशी में बापू एक दिन बता रहे थे, जब मैंने नयी-नयी साइकिल खरीदी थी तो दूर-दूर से लोग साइकिल देखने आये थे। इससे भी मजे की बात यह है कि वह कहते थे कि मास्टर ने काले रंग की घोडी खरीदी है जो घास नहीं खाती। शुरू-शुरू में मुझे लगता था कि बापू तगडी गप्पे हांकते हैं और मुझे हंसी भी आती और विश्वास भी नहीं होता था, क्योंकि यह बात मेरी कल्पना से बाहर थी। पर यह मेरा भ्रम था जो बहुत जल्द ही टूट गया, जब बापू के किसी विद्यार्थी ने विदेश से टीवी भेजा तो सारे मुहल्ले वाले हमारे घर टीवी देखने आते और तरह-तरह की अजीबो-गरीब बातें करते। मुझे अच्छी तरह से याद है कि टीवी में पहली फिल्म पाकीजा दिखाई जानी थी। हमारा बरामदा और खुला आंगन लोगों से खचाखच भर गया था। फिल्म में एक जगह गाडी का सीन था। पूरी स्क्रीन पर गाडी छा गई थी। एक हट्टा-कट्टा नौजवान गाडी को अपनी तरफ आते देख कर डर से बाहर भाग गया था। ऐसी कई घटनाएं देखकर मुझे बापू के काले रंग की घोडी वाली बात ठीक लगनी शुरू हो गई थी। फिर एकदम मेरा ध्यान साइकिल की हैंडल पर गया तो मुझे याद आया हैंडल पर लटकता झोला, झोले में एक डायरी, स्कूल का हाजिरी रजिस्टर, कुछ किताबें और एक छोटा-सा गोल डंडा। डंडे का ख्याल आते ही मेरी आंखों के सामने बापू का गुस्सैल चेहरा घूमना शुरू हो गया। मुझे याद आया बापू अक्सर कहते थे, बिगडियां-तिगडियां दा डंडा पीर है। मैंने कई बार बापू से कहा था, .. या तो इस साइकिल को फेंक दो या किसी कबाडी को बेच दें। दुनिया इतनी तरक्की कर चुकी है और आपका वजूद इस पुरानी टूटी हुई साइकिल में ही अटक कर रह गया है.. अपने साथी मोहन सिंह की तरफ देखो। आटोमेटिक गियरों वाले स्कूटर पर स्कूल जाने लग पडे हैं। बापू समय तेजी से बदल रहा है पर आप हैं कि वहीं खडे हैं। आपको पता है कि बदलाव कुदरत का नियम है और हम लोग तो इंसान हैं। हममें बदलाव बहुत जरूरी है। बदलाव के बिना हम अधूरे हैं, अकेले हैं। जीते-जी उस फल की तरह हैं जो पककर गल रहा है.. सड रहा है..। मेरी इस बात पर बापू अक्सर चुप रहते थे और कई बार मेरी यह बात दोहराने पर एक दिन बापू ने कहा था, पुत्तर मैं तुम्हारी बात से सहमत हूं कि बदलाव आना जरूरी है और हम सब लोग चाहते भी हैं पर जहां मोह होता है.. प्यार होता है.. वे इन सब बदलावों से दूर होता है और कुदरत के नियमों को तोडता है। प्यार अमर है.. प्यार अजर है.. प्यार आत्मा है.. प्यार परमात्मा है, प्यार में कोई बदलाव नहीं होता.. प्यार कभी नहीं मरता.. प्यार पर कोई नियम लागू नहीं होता। बापू ने अपनी बात को खुद ही काट दिया और कहा, यही प्यार है। पहले भी वही था और अब भी वही है.. प्यार सदा बना रहता है। इसीलिए प्यार आत्मा है.. प्यार परमात्मा है। परमात्मा कभी नहीं मरता.. मतलब प्यार कभी नहीं मरता.. इसीलिए इसका कोई नियम नहीं.. कोई चेंज नहीं। बापू कहते-कहते भावुकता की सारी हदें फलांग गए थे। उस दिन के बाद मैंने बापू को साइकिल के बारे में कुछ भी कहना बंद कर दिया था। अचानक मैं हडबडा उठा जब सिगरेट का हल्का-सा सेंक मेरी उंगली पर लगा। पर मुझे एक बात अब भी समझ नहीं आई कि रिटायरमेंट के बाद जैसे ही बापू ने साइकिल छोडी तो उन्होंने खाट पकड ली थी। आज मेरे बच्चे और पत्नी बार-बार मुझे साइकिल बाहर फेंकने के लिए या कबाडी को बेचने के लिए कहते हैं। आज मैं साइकिल को बाहर भी फेंक सकता हूं.. कबाडी को भी बेंच सकता हूं.. पर आज यह सब करने में असमर्थ हूं.. मेरा हौसला भी नहीं पडता.. शायद मैं.. बदलाव.. मुझे लगा जैसे मेरे ऊपर आज कुदरत का कोई नियम लागू नहीं हो रहा और मैं जल्दी से गाडी से निकलकर बाहर खुली हवा में आ जाता हूं।
गुंइयां
सीमेंट से बनी पानी की बडी सी टंकी में दोनों उतरे थे। उन्हें रगडकर टंकी साफ करनी थी। फिर टंकी की नाली में ठूंसकर लगाए कपडे को निकालना था ताकि टंकी का बासी गंदा पानी निकल जाए और पाइप लगाकर टंकी धोकर कपडा फिर से ठूंस देना था। फिर उन्हें टंकी से निकल आना था ताकि टंकी भर जाए। टंकी में भरे पानी से दिन भर का सारा काम चलता। उन दिनों की बात है जब पाइप में खूब मोटी धार से पानी आता था।

दोनों पानी में उतरे तो लगे खेलने। खूब मजा आ रहा था। खूब छपाछप किया। खूब एक दूसरे पर पानी उलीचा। जब काफी देर हो गई तो लडकी की मां चिल्लाई, अरे कितनी देर लगा रहे हो, जल्दी साफ करके बाहर निकलो। पानी चला गया तो टंकी नहीं भरेगी। फिर टापते रहना पूरे दिन पानी को।

दोनों के कान में जूं न रेंगी। दोनों मजे में पानी से खेलते रहे। टंकी की नाली में ठूंसा कपडा न निकाला। थोडी देर में मां कोई काम निपटाकर आई और देखा कि अभी तक टंकी साफ नहीं हुई है तो फिर जोर से बोली, निकलते हो तुम लोग या डंडा लाऊं?

इस बार लगा कि बाहर न निकले तो खैर नहीं। नाली का कपडा निकाल दिया। मटमैला गंदा पानी हरहराकर बाहर बह चला। दोनों ने मिलकर टंकी का फर्श और दीवारें खूब रगडकर धोई। पाइप की धार से सारी गन्दगी नाली के बाहर निकाल दी। नाली में कपडा फिर से ठूंस कर लगा दिया और कूदकर टंकी से बाहर आ गए। टंकी में पाइप से पानी भरने लगा।

दोनों बच्चे केवल कच्छा पहने थे। सर्दियां अभी गई नहीं थीं। पानी में रहने के कारण उनकी अंगुलियां ठिठुर गई थीं। दोनों कांप रहे थे। दोनों तौलिए से रगड-रगडकर सिर पोंछने लगे। एक ही तौलिए से पोंछ रहे थे अत: छीना झपटी होने लगी। लडका तौलिया लेकर भागा। लडकी उसके पीछे भागी। लडकी ने लडके के हाथ से तौलिया झपट लिया। लडका कैसे सहन करता मगर उपाय क्या था? उपाय था। लडके ने लडकी के बाल पकडकर खींचे। लडकी दर्द से चिल्ला पडी। लडके ने बाल नहीं छोडे। मां को आती देख लडकी ने लडके को धमकाया, बता दूं? उसने कोई बात सोची न थी बताने के लिए, बस डराने के लिए कह दिया।

मैं भी मामी को बता दूं कल वाली बात? लडके ने पलटवार किया।

कौन सी बात? लडकी सशंकित थी। वही कल वाली बात। लडके को मजा आ रहा था। कौन सी बात? बात मां के कान तक पहुंच गई थी। उनके कान खडे हो गए। दोनों बच्चे सिटपिटा गए। मामी वहीं कमर पर हाथ रखकर खडी हो गई। कौन सी बात? उन्होंने सख्त आवाज में पूछा। दोनों चुप।

बताओ कौन सी बात है? मामी चीखीं। उन्होंने तमतमाते हुए पास पडा डंडा उठा लिया।

बताती है या लगाऊं? उनकी आवाज फटने लगी।

क्या हुआ भाभी? ननद भाभी की तेज आवाज सुनकर हाथ की सलाइयां वहीं छोडकर कमरे से निकल आई।

अपनी मां को सामने पा लडका उसके पीछे जा छिपा। वह अपनी मां के पीछे से डरी हुई लडकी और गुस्से से भरी हुई, डंडा उठाए मामी को देख रहा था।

बताती है या जड दूं चार? मां ने फिर धमकी दी। अरे छोडो भाभी बच्ची है। ननद ने भाभी को रोकना चाहा।

बीबी तुम बीच में मत बोलो।

उन्होंने एक डंडा सडाक से लडकी को जडते हुए फिर पूछा, बोलती क्यों नहीं?

ननद ने डंडा रोकने की कोशिश करते हुए कहा, क्या कर रही हो भाभी। भाभी कहां सुनती। उन्हें लडकी की हिम्मत पर उबाल आ रहा था। इस छटांक भर की लडकी की इतनी हिम्मत कि वे कुछ पूछें और यह जवाब न दे। उन्होंने एक और डंडा जमा दिया। बोलती है या और लगाऊं? मानो अब तक पूछ-पूछ कर लगा रही हों।

जबसे बीबी आई हैं यह लडकी बहुत सिर चढ गई है। मगर यह बात उन्होंने केवल मन में सोची कही नहीं।

ननद ने फिर बचाने की, हाथ से डंडा लेने की कोशिश की, अरे भाभी लडकी के कहीं ठांव कुठांव लग गई तो।

लगती है तो लगे। मगर मैं इसकी हेकडी भुला कर रहूंगी। उन्होंने गुस्से में फनफनाते हुए हाथ का डंडा फेंककर लडकी को दो तमाचे एक पर एक जड दिए।

लडकी वहीं जमीन पर बैठ गई। लडका अपनी मां के पीछे से अब भी देख रहा था। वह रोने लगा। उसे समझ नहीं आ रहा था मामी क्या पूछ रहीं हैं और ये क्या बताने जा रही है।

कल डॉक्टर डॉक्टर खेलते हुए जो उन लोगों ने किया था, मां को अगर वह बता दे तो मां चंडी बन जाएंगी। उसका खून पी जाएंगी। उसे जान से मार डालेगी। लडकी सोच रही थी। छ: साल की वीनू को अपनी जान बहुत प्यारी है। वह मरना नहीं चाहती है।

एक बार शाम को फूटे हुए गुब्बारे को वह फुला रही थी। गुब्बारा सटक गया। सीधे गले में चला गया था। सबने कहा अब वह मर जाएगी। सारी रात उसे डर लगता रहा। उसे लगा कि वह मर रही है। जब सुबह तक वह नहीं मरी तो उसकी जान में जान आई। उसे मरने से बहुत डर लगता है। बचपन में उसे घर के लोग जब तब चिढाते थे। कहते, वीनू मर जाएगी। तो वह उलटकर सदा कहती, नहीं वीनू जिन्नी। मां हलक में हाथ डालकर बात निकलवाना जानती हैं। जब तक निकलवा नहीं लेंगी पीछा नहीं छोडेंगी। पर वीनू अपनी गुंइयां की बात किसी को कैसे बता सकती है। वह किसी को कुछ नहीं बताएगी।

मां शायद थक गई थीं या फिर उन्हें कोई जरूरी काम याद आ गया था- मत बता मुझे, आने दे तेरे पिताजी को बताती हूं उन्हें। वे ही तेरे मुंह से बोल फुटवाएंगे।

ननद कमरे में चली गई। बबलू लडकी के पास आकर चुपचाप खडा हो गया। वह अभी भी डरा हुआ था, क्या बताने वाली थी तू? कुछ नहीं रे! चल छत पर डॉक्टर डॉक्टर खेलते हैं। लडकी ने लडके का हाथ पकडा और दोनों छत पर चल दिए।

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