शुक्रवार, 21 मई 2010

सामयिक

पंडिताई में भी महिलाओं ने दी पुरुषों को चुनौती

हिंदू धार्मिक परंपरा में हर महत्वपूर्ण कार्य पूजा से ही आरंभ होता है और उसी से संपन्न। सदियों से पुरुष पंडित ही धार्मिक अनुष्ठानों को कराते रहे हैं लेकिन अब परंपरा को तोड़ महिला पंडित भी इस क्षेत्र में कदम बढ़ा रही हैं।
पुणे की प्रदन्या पाटिल 11 वीं मंजिल पर एक आलीशान फ्लैट में रहतीं हैं। उन्होंने अपने लिविंग रूम में देवी-देवताओं की मूर्तियाँ सजा रखी हैं। अगरबत्तियाँ जल रहीं हैं और उनकी सुगंध पूरे घर में फैली है। प्रदन्या गृह प्रवेश पूजा की तैयारी में लगी हैं।

हम किसी से कम नहीं : 35 साल की प्रदन्या ने परंपरा को तोड़ते हुए पूजा के लिए एक महिला पंडित को घर बुलाया। वह कहती हैं कि महिला पंडित पुरुष पंडित से बेहतर हैं। उनके मुताबिक, 'मेरी भाभी के घर में हाल ही में गृह प्रवेश की पूजा की गई। पंडित को 5 घंटे लगे इसे पूरा करने में। मैंने देखा कि महिला पंडित पूजा को कहीं जल्दी खत्म कर देती हैं, कभी तो बस एक घंटे में ही। मेरे सभी रिश्तेदार, यहाँ तक कि मेरे पिताजी भी अब सिर्फ महिला पंडितों को घर बुलाते हैं। इसके अलावा मैंने अकसर यह महसूस किया है कि महिला पंडित मंत्र और श्‍लोकों का मतलब समझाती हैं। वह इमानदारी से अपना काम करतीं हैं।'

थोड़ी देर बाद चित्रा लेले भी पूजा के वक्त प्रदन्या को मंत्र और रीति रिवाज़ों का मतलब बता रही हैं। 41 साल की चित्रा लेले ने रंगीन साड़ी पहन रखी है। सफेद धोती पहन कर पूजा करने वाले आम पुरुष पंडितों से चित्रा बहुत अलग दिख रहीं हैं। चित्रा शादीशुदा हैं और उनकी एक बेटी हैं। वह बताती हैं कि संस्कृत और हिंदी में रुचि होने के कारण उन्हें पंडित का काम सीखने की प्रेरणा मिली।

चित्रा बतातीं हैं कि आजकल की युवा पीढ़ी बहुत ही व्यस्त है। वे बहुत सारा वक्त कंप्यूटर के सामने बिताते हैं। ऐसे में वे किसी धार्मिक अनुष्ठान में 5 घंटे नहीं बैठना चाहते हैं। हमारे तरीके से हम पूजा के जरूरी हिस्सों को उन्हें एक घंटे में समझा देते हैं। हम उन्हें पूजा में शामिल भी करते हैं, यह उन्हें बहुत पसंद आता है और वह इसमें हिस्सा भी लेते हैं।

परंपरा को चुनौती : जाहिर सी बात है कि चित्रा लेले जैसी महिलाएँ पंडितों को लेकर परंपरागत सोच को चुनौती दे रही हैं। पुणे के ध्यानप्रबोधिनी केंद्र में चित्रा ने प्रशिक्षण पाया। इस केंद्र का भवन शहर के पुराने हिस्से में है। इस वक्त वहाँ 20 से भी ज्यादा महिलाएँ एक वर्षीय कोर्स में भाग ले रहीं हैं। इनमें सभी जातियों की महिलाएँ हैं। ज्यादातर की उम्र 40 से 65 के बीच है।

आर्या जोशी इन महिलाओं को पढ़ाती हैं। वह कहती हैं कि मुझे इस बात की बहुत खुशी होती है कि जिन महिलाओं ने हमसे प्रशिक्षण लिया है वे बहार जाकर अपना काम आत्मविश्वास से करती हैं, जो वे करती हैं वह मेरे हिसाब से पुरानी परंपराओं और आधुनिकता का मेलमिलाप है।

आर्या जोशी इस बात पर जोर देती हैं कि महिलाएँ सिर्फ घरों में पूजा संपन्न करतीं हैं, मंदिरों में नहीं। अंतिम संस्कार भी महिला पंडित नहीं कराती हैं। अब तक उन्हें सिर्फ बड़े शहरों में खासकर मुंबई या पुणे में स्वीकार किया गया है। ग्रामीण इलाकों में उन्हें मान्यता मिलना अब तक संभव नहीं लगता। आर्या जोशी का मानना है कि हिंदू धर्म में महिलाओँ को हमेशा से पूजा संपन्न करने का अधिकार रहा है। प्राचीन धार्मिक पांडुलिपियों में भी इसका उल्लेख मिलता है। लेकिन फिर पुरुषों ने हस्तक्षेप करने की कोशिश की और कहा कि पंडित पुरुष ही हो सकते हैं और उनका संबंध भी एक विशेष जाति से होना चाहिए। तब से यही परंपरा चलती आ रही है।

वह कहती हैं कि लोग महिला पंडितों की कल्पना नहीं कर सकते हैं। वे नहीं समझ पाते कि यह एक पुरानी परंपरा है जो 5000 साल से चली आ रही है। यह रूढ़ीवादी सोच है। करीब एक चौथाई लोग महिला पंडितों को कभी स्वीकार नहीं करेंगे। लेकिन मुझे लगता है कि यह सब समय के साथ बदलता जाएगा, इसी का अब इंतजार है।

लेकिन पुणे में आम लोगों से पूछा जाए कि उनकी महिला पंडितों को लेकर क्या राय है, तो मिली जुली राय सामने आती है। एक पुरुष का कहना है कि मुझे नहीं लगता कि महिलाओं को पूजा कराने का अधिकार मिलना चाहिए। यह अधिकार सिर्फ पुरुषों का होना चाहिए क्योंकि यह हमारी संस्कृति में कहा गया है। हमेशा से ऐसा होता आया है। वहीं एक अन्य व्यक्ति की राय है कि मुझे कोई समस्या नहीं है अगर महिला पंडित हो। लेकिन उन्हें अपनी शारिरिक बाधाओं के बारे में सोचना है। मासिक धर्म में उन्हें कतई कोई पूजा नहीं करानी चाहिए, क्योंकि वह पवित्र नहीं हैं। कुछ लोगों को इस बात पर खुशी है कि महिलाएँ ऐसा काम कर रहीं हैं।

विरोध का सामना : आर्या जोशी बताती है कि उन्हें सबसे ज़्यादा का सामना विरोध पुरुष पंडितों की ओर ही करना पड़ता है। उन्होंने कहा कि बात यह है कि जो पंडित परंपरागत रूप से अपना काम करते आए हैं, वे डरे हुए हैं। उन्हें लगता है कि उनकी आमदनी कम हो जाएगी। पूजा कराना पुरुष प्रधान काम है और इसलिए वे महिला पंडितों की सख्त आलोचना करते हैं।

आलोचना आनंद पंधारपुरे भी करते हैं। 40 साल के आनंद 20 साल से पंडिताई कर रहे हैं और छोटी उम्र से ही पिता ने उन्हें यह काम सिखाना शुरू कर दिया था। उनके मुताबिक पंडित बनने के लिए 7 - 8 साल तक विशेष विद्यालयों में धार्मिक पढ़ाई करनी चाहिए। वह कहते हैं कि महिलाएँ हफ्ते में दो बार क्लास में पढ़ाई करने के लिए जाती हैं। लेकिन इसके साथ वह हिंदू धर्म की पृष्टभूमि नहीं समझ सकती हैं और न ही उनका ज्ञान बहुत गहरा होगा। जिस तरह से वे पूजा कराती हैं, मै तो इसे मनोरंजन मानूँगा। इनमें कोई धार्मिक गंभीरता नहीं हैं। एक तरह यह लोगों को बुद्धू बनाने वाली बात है। यह हमारे पंडित होने का अपमान है।

आनंद पंधारपुरे का यह भी मानना है कि पंडितों को महिला पंडितों से डरने की कोई जरूरत नहीं है। वह कहते हैं कि महिलाएँ ज्यादातर 40 साल की उम्र के बाद ही पंडित बनती हैं। खासकर जब उनके बच्चे बड़े हो जाते हैं और जब उन्हें कोई और काम नहीं रह जाता। मुझे नहीं लगता है कि महिलाओं को ऐसा करना चाहिए क्योंकि पंडित का काम कोई पार्ट टाइम काम या कोई शौक नहीं है। इसके साथ एक बहुत ही बड़ी जिम्मेदारी भी जुडी है। इसलिए हम पुरुष पंडितों के लिए यह जीवनभर सीखने की प्रक्रिया है। सच कहूँ, मै तो महिलाओं के पंडित बनने के मुद्दे को ज्यादा गंभीरता से लेता ही नहीं हूँ। क्योंकि उनकी संख्या बहुत ही कम है।

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