मंगलवार, 15 जून 2010

कमाल की दुनिया

‘मेरे दिल में है इक बात..’
पी.एल.संतोषी, यानी आज के ख्यातनाम फिल्मकार राजकुमार संतोषी के पिता, अपने दौर के कामयाब लेखक, निर्देशक और गीतकार थे। उनका कमाल यह था कि लोग फिल्म भले याद न रख पाए हों, पर उनके गीत कभी नहीं भूल पाएंगे..

ये जो फिल्मी दुनिया है न, बड़े कमाल की दुनिया है। बहुत सारी बातें तो हम लोग यहीं बैठ कर कर चुके हैं। आपने कुछ और भी सुन रखी होंगी। मतलब कमाल है। कभी अर्श पर तो कभी फर्श पर। और कभी-कभी तो उससे भी बदतर।

अब जैसे मैं एक लेखक-निर्देशक-गीतकार के लिखे गीत सुनते-सुनते कई दिन से तैयारी कर रहा था कि अपन लोग बैठ कर किसी दिन इनकी बात करेंगे। गीत ऐसे कि जिन्हें सुन-सुनकर आज भी मन में रोमांच पैदा होता है। चेहरे पर मुस्कान आ जाती है। कभी-कभी सीधे दिल और गीत का रिश्ता बन जाता है। इससे बड़ी सफलता और क्या हो सकती है कि पचासों साल बाद भी नई-पुरानी पीढ़ी इन गीतों को गुनगुना रही है।

वह अपने दौर का एक ऐसा कामयाब फिल्मसाज था, जिसकी फिल्मों में सिनेमा घरों की टिकट खिड़की पर दौलत की बरसात हुई, लेकिन एक दिन उसे ख़ुद दिवालिया होना पड़ा। जिसने जमाने को अपने हुनर से दीवाना बना दिया था, एक दिन ख़ुद दीवाना बनकर अपनी ख़ुदी को नीलाम कर बैठा।

आखि़र ऐसा कैसे और क्यों हुआ? इससे पहले कि हम इस सवाल के जवाब की तलाश में निकलें, जरा इन महाशय के कुछ ख़ूबसूरत नग्मे न सुन लें। मुझे यकीन है इनसे आगे के सफर के लिए एक ख़ुशगवार रास्ता बन जाएगा।

‘आना मेरी जान-2, संडे के संडे’ (चितलकर-शमशाद बेगम), ‘जवानी की रेल चली जाए रे’ (गीता राय (दत्त), चितलकर-लता), और ‘मार कटारी मर जाना, वे अंखियां किसी से मिलाना ना’(अमीरबाई कर्नाटकी- फिल्म- शहनाई 1947), ‘किस्मत हमारे साथ है, जलने वाले जला करें’ (खिड़की 48), ‘जब दिल को सताए ग़म-2, छेड़ सखी सरगम’, (लता-सरस्वती राणो) ‘कोई किसी का दीवाना न बने’ (लता), और ‘बाप भला ना भैया, भैया सबसे भला रुपैया’ (सरगम- 1950), ‘जो दिल को सताए, रुलाए, जलाए, ऐसी मोहब्बत से हम बाज आए’ और ‘महफिल में जल उठी शमा परवाने के लिए / प्रीत बनी है दुनिया में जल जाने के लिए’ (लता- निराला-50), ‘तुम क्या जानो, तुम्हारी याद में, हम कितना रोए’, (लता- शिनशिनाकी बूबलाबू-52), ‘अच्छा होता जो दिल में तू आया न होता / हाय रुलाना था गर’ ‘हम पंछी एक डाल के’ (रफी-आशा), ‘लो छुप गया चंद, बहे हवा मंद-मंद’ (आशा भोंसले) और ‘एक से भले दो, दो से भले चार, मंजिल अपनी दूर है, रस्ता करना पार’ (हम पंछी एक डाल के -57), ‘ओ नींद न मुझको आए, दिल मेरा घबराए, चुपके-चुपके कोई आ के, सोया प्यार जगाए’, ‘कोई आ जाए-2, बिगड़ी तक़दीर बना जाए’ और ‘मेरे दिल में है इक बात, कह दो तो भला क्या है’ (सम्राट चंद्रगुप्त -58)।

सच कहिए, आया न मजा? ख़ैर, आप में से कई लोग तो अब तक जान ही गए होंगे कि हम लोग आज बात करेंगे पी.एल.संतोषी की। अपने दौर के बेहद कामयाब लेखक, निर्देशक और गीतकार। आज के प्रसिद्ध फिल्मकार राजकुमार संतोषी के पिता।
आया बसंत सखी..

संतोषी की कहानी शुरू होती है मध्यप्रदेश की संस्कारधानी जबलपुर से। 7 अगस्त 1916 को जन्म के समय संतोषी को परिवार से नाम मिला प्यारेलाल श्रीवास्तव। सिर्फ हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद ही अपने जीवन की सबसे बड़ी परीक्षा देने निकल पड़े बंबई की तरफ।

बीसवीं सदी का यह एक ऐसा दौर था, जब गूंगे सिनेमा ने नया-नया बोलना सीखा था। इसके बोलने में जादू था। ऐसा जादू जिसकी जद में छोटे-बड़े, अमीर-ग़रीब सब आ चुके थे। संतोषी की मंजिल भी यही थी। वे फिल्मों में अभिनय के साथ लेखक, गीतकार, निर्देशक, निर्माता सब कुछ बनना चाहते थे। उनके सौभाग्य से बंबई में उन्हें नरगिस की मां जद्दन बाई का साथ मिल गया। वे उनके निजी सहायक बन गए।

जद्दन बाई कुछ अरसा पहले ही कलकत्ता छोड़कर बंबई आई थीं। गाने-बजाने का काम छोड़कर फिल्में बनाने और अपने साथ अपनी नन्ही सी बेटी नरगिस, जिसका नाम उस व़क्त था बेबी फातिमा था, का भविष्य बनाने। जद्दन बाई के घर मुल्क के बड़े-बड़े लेखकों, शायरों और हर तरह के फनकारों की महफिलें लगभग हर शाम जमती थीं।

फिल्में भी बन रही थीं। इन्ही में से एक फिल्म ‘मोती का हार’(1937) में संतोषी को भी एक छोटी भूमिका मिल गई। इस फिल्म का संगीत, निर्माण, निर्देशन सब कुछ जद्दन बाई का ही था। फिल्म में नरगिस ने बेबी रानी के नाम से बाल कलाकार की भूमिका निभाई थी और संतोषी ने अभिनय के साथ फिल्म के कुछ गीत भी लिखे थे।

एक गीत था ‘मन के वासी, मन में आओ / मेरे हृदय की वीणा पर ऐसा गीत सुनाओ’ और दूसरा ‘ऐसा बाग़ लगाया, फूलों में जिसके छुपकर, ये मेरा मन मुस्काया’।

इसी साल जद्दन बाई की ही एक और फिल्म ‘जीवन स्वप्न’ के चार गीतों के गीतकार के रूप में संतोषी का नाम मिलता है। इसके बाद वे रणजीत मूवीटोन पहुंच गए। यहां से वे बॉम्बे टाकीज की फिल्मों में गीत लिखने पहुंच गए।

1942 में रिलीज हुई बॉम्बे टाकीज की फिल्म ‘बसंत’ के लिए लिखे संतोषी के गीतों ने उस दौर में धूम मचा दी। महान बांसुरी वादक पन्नालाल घोष (पर्दे के पीछे से अनिल बिस्वास भी साथ में) के गीतों ने भारी धूम मचाई। पारुल घोष और साथियों के गाए ‘तुमको मुबारक हो ऊंचे महल ये/ हमको तो प्यारी, हमारी गलियां’, ‘कांटा लागो रे साजनवा, मोसे राह चली न जाय’, ‘आया बसंत सखी, बिरहा का अंत सखी’ जैसे गीत आज भी संगीत रसिकों के लिए कर्णामृत का काम करते हैं।

1946 में पहली बार वे निर्देशक-गीतकार के रूप में सामने आए। फिल्म थी ‘हम एक हैं’। इस फिल्म की ख़ास बात यह है कि इसी फिल्म से देव आनंद, अभिनेता रहमान और अभिनेत्री रेहाना पहली बार पर्दे पर आए थे। इस फिल्म की दूसरी ख़ास बात है गुरु दत्त, जो इस फिल्म में बतौर निर्देशक सतोषी के पांचवें सहायक थे और साथ ही फिल्म की कोरियोग्राफी मतलब नृत्य निर्देशन भी उन्होंने ही किया था।

1947 में फिल्मिस्तान के लिए बनाई ‘शहनाई’ तो सुपरहिट साबित हुई। इसके गीत-संगीत (सी.रामचंद्र और संतोषी) ने तो संगीत का एक नया ट्रेंड ही चालू कर दिया। संतोषी के इन हिट गीतों में बहुत ही चलताऊ शब्दों की भरमार थी, लेकिन उस दौर के साथ इन गीतों का ऐसा तादात्म्य पैदा हुआ कि लोगों में उनका असर आज भी ख़त्म नहीं हुआ है।

‘आना मेरी जान संडे के संडे’ तो आज भी बहुत लोकप्रिय है। इस गीत की एक और मजेदार बात यह है कि फिल्म ‘शहनाई’ में यह गीत हास्य अभिनेता महमूद के पिता मुमताज अली पर फिल्माया गया है। इसमें वे चार्ली चैप्लिन वाली मुद्राओं में इस गीत को गाते हुए दिखाई देते हैं।

इस फिल्म के 21 साल बाद 1968 में महमूद पर अपने पिता की तरह ही चार्ली चैप्लिन वाले अंदाज में इसी गीत से प्रेरित होकर रची गई सिचुएशन और शब्दों वाला गीत फिल्माया गया है। फिल्म ‘औलाद’ में मन्ना डे-आशा भोंसले का गाया ‘जोड़ी हमारी, जमेगा कैसे जानी’ सुनकर देखें। वही हिंदी-इंगलिश की खिचड़ी, वही मुहावरा। ‘तुमको भी मुश्किल, मुझे भी परेशानी / बात मानो संैया बन जाओ, हिंदुस्तानी’। उधर असल गीत में है ‘मैं धरम करम की नारी / तू नीच विदेसी अभिचारी’।

महमूद और उनके ख़ानदान से संतोषी का बड़ा मजबूत रिश्ता रहा है। संतोषी की फिल्मों में अक्सर मुमताज अली दिखाई दे जाते थे और महमूद ख़ुद उस व़क्त उनके ड्राइवर थे। महमूद की जिंदगी पर संतोषी का हर अच्छा-बुरा असर बाद में दिखाई भी दिया। जिसकी कभी और बात करेंगे।

अभी तो इतना और तो बता ही सकता हूं न कि महमूद ने इस गीत की ही तरह एक और गीत, बल्कि पूरी फिल्म संतोषी के गीत से प्रभावित होकर क्रिएट की। फिल्म ‘सरगम’(50) में संतोषी ने लिखा था ‘बाप भला न भैया, भैया सबसे भला रुपैया’।

महमूद ने 26 साल बाद अपनी फिल्म ‘सबसे बड़ा रुपैया’ में ख़ुद ही गाया ‘ना बीवी न बच्चा, ना बाप बड़ा ना भैया/ द होल थिंग इज दैट कि भैया, सबसे बड़ा रुपैया’। इसके 30 साल बाद इसी गीत को आज के दौर के कामयाब संगीतकार विशाल-शेखर ने उठाकर अपनी फिल्म ‘ब्लफ मास्टर’ में नए सिरे से सजाकर इस्तेमाल किया और इसे अभिषेक बच्चन पर फिल्माया गया है।

इसी तरह अगर आप थोड़ा सा और याद करें, तो आपको याद आएगा कि फिल्म ‘प्यार किए जा’ (66) में महमूद एक जगह अपने डायलॉग में पिता (ओमप्रकाश) से कहता है कि वह एक नहीं अनेक प्रोडक्शन कंपनीज खोलेगा। इनके नाम होंगे ‘हा-हा प्रोडक्शन, हो-हो प्रोडक्शन, ही-ही प्रोडक्शन। संतोषी ने 1955 में इस नाम की एक फिल्म बनाई थी।

ख़ैर तो किस्सा कोताह यह कि शहनाई के पीछे-पीछे ‘खिड़की’ (48), ‘सरगम’ (50) जैसी हिट फिल्में बनाकर संतोषी ने बाजार में अपना सिक्का जमा लिया। निर्माता उसे फिल्में बनाने और गीत लिखने के लिए मुंहमांगे पैसे देते और संतोषी? वे उस पैसे में आग लगा देते। कैसे? अभी दो मिनट बाद बताता हूं। पहले जरा बतौर निर्देशक उनकी कुछ और फिल्मों को याद कर लें।

‘अपनी छाया’ (50),‘छम छमा छम’(52), शिनशिनाकी बूबलाबू’ (52), चालीस बाबा एक चोर (53), ‘सबसे बड़ा रुपैया’ (55), ‘हा-हा,ही-ही,हू-हू’ (55), ‘हम पंछी एक डाल के’ (57), ‘गरमा गरम’(57), ‘पहली रात’(59), ‘नई मां’(60), ‘बरसात की रात’(60), ‘ऑपेरा हाऊस’ (61), ‘हॉलीडे इन बॉम्बे’ (63), ‘दिल ही तो है’(64), ‘क़व्वाली की रात’ (64) और आखि़र में ‘रूप रुपैया’ (68)। इन फिल्मों में से कुछ में उनके और कुछ में अन्य गीतकारों के गीत थे। पटकथा और संवाद लेखक के तौर पर भी उनकी कई फिल्में हैं।

1941 की अशोक कुमार की ‘झूला’ में शाहिद लतीफ और ज्ञान मुखर्जी के साथ मिलकर पटकथा और संवाद लिखे, तो ‘स्टेशन मास्टर’ (42) की कहानी। इस फिल्म में उन्होंने नौशाद के साथ गीत भी लिखे हैं। बतौर संवाद लेखक मुझे उनकी एक उल्लेखनीय फिल्म और याद आती है- राजश्री पिक्चर्स की 1973 की फिल्म ‘सौदागर’। अमिताभ बच्चन और नूतन की इस फिल्म में अगर आपको याद हों तो कुछ अच्छे संवाद थे।

और..
कहने को बहुत कुछ और है। अभी तो सिर्फ कामयाबी के सफर की बात हुई है। नाकामी का दौर अभी बाकी है। उस तबाही की कहानी बाकी है, जिसमें संतोषी अपनी पहली फिल्म की हीरोइन रेहाना की मोहब्बत में ख़ुद को बरबाद कर लेता है। साथ ही संतोषी की भाषा-शैली पर भी तो बात करनी है।

सो करेंगे यह सब अगले हफ्ते। तो बस, अब मैं चला। एक जरूरी काम है। अब आपसे क्या छुपाना। प्यारेलाल संतोषी का कोई फोटो नहीं मिल रहा। यह एक भी बहुत मुश्किल से मिला है। सो बस एक और फोटो ढूंढ़ता हूं अगली बार के लिए। अब इसमें मेहनत-वेहनत की क्या बात है। ये तो आपस की बात है जी। और आपस में तो ऐसा करना ही चाहिए। बल्कि मौका ढूंढ़ के करना चाहिए। सो करता हूं। मतलब चला हूं। जय जय।

कोई टिप्पणी नहीं: