बुधवार, 24 नवंबर 2010

आलेख

‘मेरी दुनिया भी बदली है’
सब यही कहते हैं कि लड़की की ज़िंदगी में शादी एक बहुत बड़ा बदलाव ला देती है। लेकिन कभी लड़के से कोई पूछता है कि उसे क्या महसूस होता है? चूंकि उसका घर नहीं बदला, नाम नहीं बदला, परिवेश वही रहा, उसके रहन-सहन में कोई नज़र आने वाला परिवर्तन नहीं दिखा, तो क्या कुछ नहीं बदला? या सिर्फ सिंदूर लगाने से ही परिवर्तन देखे और समझे जा सकते हैं? चलिए, दूल्हे के मन में झांककर देखते हैं कि वहां क्या खलबली मची है। उसका एक अलिखा खत पढ़ते हैं, जिसमें सदियों से अबोली बातों का अच्छा-खासा सिलसिला दिख रहा है। यह बातें लड़की के देखे जाने वाले दिन से ही शुरू हो गई थीं-
‘पिछले हफ्ते जिस लड़की को हमने देखा, उसकी उम्र तो बहुत कम थी। पर सबने मुझे चुप करा दिया, यह कहके कि तुमको यह सब नहीं देखना। जो पूछना हो, वो पूछ लो। मुझे फर्क पड़ता है। हमारी उम्र में बहुत फासला होगा, तो सोच-समझ में भी अंतर आएगा। तब निबाह करने को भी मुझसे ही कहेंगे। खुद के किए का दोष तब मेरे सिर मढ़ दिया जाएगा। लड़की की पढ़ाई का भी ऐसा ही असर है। पर अभी इनकी नज़र सिर्फ खूबसूरती पर जा रही है। खैर, आज जिसे मिला, वह मुझे बातचीत से ठीक लगी। लेकिन उसे ज्यादा सवाल नहीं पूछने दिए गए। क्यों?
वह पूछती, तो हमारे बीच ऐतबार बनता। मुझे लगता कि मेरी खूबियां या कमियां उसके लिए मायने रखती हैं। और अब तो शादी की तारीख भी पक्की हो गई है। मैं अपनी होने वाली पत्नी से बातें करता हूं। उसे जानने लगा हूं, पर हर पल एक अनजानी असुरक्षा बनी रहती है। क्या मैं उसकी उम्मीदों पर खरा उतर पाऊंगा? वह तो बताती है कि उसके लिए काफी तैयारियां शुरू हो गई हैं, कभी-कभी हिचकते हुए पूछ लेती है कि हमारे घर में उसके लिए क्या कुछ किया जा रहा है। दबी ज़ुबान से पसंद-नापसंद भी बता जाती है, मुझे अच्छा ही लगता है। पर मेरे लिए कहां कुछ हो रहा है, नहीं समझ पाता। उल्टे मैं तो कहूंगा कि एक सांस्कृतिक अंतर्विरोध की स्थिति है। मेरे भाई-बहन, माता-पिता, दोस्त तक यही मानकर चल रहे हैं कि मैं बस कुछ ही दिनों में बदल जाऊंगा। उन्हें समय नहीं दूंगा, पैसे नहीं दूंगा, उनका ध्यान नहीं रखूंगा, यहां तक कि उनकी तरफ नज़र डालना भी कम हो जाएगा।
वहीं उसका फोन आता है, तो कहती है ‘शाम तो हमारी होगी न। हफ्ते में एक दिन तो हम साथ में घूमने जा सकते हैं न!!’ संतुलन तो अभी से गड़बड़ाने लगा है। एकाएक मैं महत्वपूर्ण हो उठा हूं या यह परिवर्तन सबको असुरक्षित बना रहा है? मेरे परिवार में तो वंशावली साफ है, पिता-मां बड़े, भाई-बहन छोटे। इनके लिए मेरे दायित्व और स्नेह की अपनी डोरियां हैं। अब एक रिश्ता समानता का बनने वाला है, उससे निबाह का तरीका क्या चुनूं कि इन वंशानुगत रिश्तों पर फर्क न पड़े? अपनी उलझनें किसे बताऊं?
शादी के समय अजीब स्थितियां हुईं। मैं काम करूं, तो कहते कि बड़ा बढ़-चढ़कर अपनी शादी में काम कर रहा है। न करूं, तो कहते, ज़िम्मेदारी कब सीखोगे। घर में रहता, तो कहते कि घर में रहना सीख रहे हो? बाहर जाऊं, तो कहते आज देख लो इन्हें, कल से तो दिखाई ही कम देंगे।
घर से विरासत से जुड़ा हूं और पत्नी से वचनों से। टूटन का डर, दरकने का खतरा मेरे हर कदम को डिगाने पर आमादा है। और मैं अपनी शादी की खुशी में नाच रहा हूं। नाचने को कहा गया है। शादी की रस्मों में भी डर साफ झलक रहा था। ‘जीजाजी को आज घेर लो, बाद में पैसे नहीं देंगे’- जैसी बातें साफ सुनाई देती रहीं। अब घर में आ गए हैं। मुझे खुद झिझक होती है अपने ही कमरे में जाने में। मैं सजग रहता हूं। नापा-तौला जो जा रहा है मुझे। क्या बदल गया मुझमें, सब यही समझने में लगे रहते हैं। पगफेरे के बाद पत्नी को लेने गया, तो भी इसी फिक्र में रहा। वहां सारे लोग मेरे खाने की थाली में क्या है, कितना है, क्या खाया, कैसे खाया, इस सब की नापजोख तक में लगे रहे।
‘क्या मिला, कितना मिला’- यह सवाल भी लाज़िमी से हैं। इनकी प्रतिक्रिया बड़ी आरोपों भरी है। ‘बस, इतना ही दिया नेग में?’ ‘अरे वाह, बहुत सारा मिल गया तुझे तो।’ मानो, किसी और की जेब कतर ली हो मैंने।घर से बाहर कदम निकालता हूं, तो कहा जाता है ‘पत्नी का ख्याल नहीं है क्या?’ न जाऊं, तो कहते हैं कि ‘औरतों की तरह घर में ही घुसा रहता है।’ पत्नी से बातें करना या घरवालों को समय देना, मैं बाज़ीगर की तरह बहुत नाजुक-सी रस्सी पर झूलता रहता हूं।

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