शनिवार, 27 नवंबर 2010

ज़रा सोचें

आखिर यह रफ्तार क्यों

उस दिन गाड़ी चलाते हुए डर लगने लगा था। कम भीड़-भाड़ वाली सड़क पर पीछे से आ रही एक कार लगभ
ग 100 की स्पीड से बहुत सी गाडि़यों को बायीं ओर से क्रॉस करती हुई आगे एक टर्न पर अपना बैलेंस खो बैठी और फुटपाथ से जा टकराई। शुक्र है कि कार चलाने वाले युवक को मामूली चोट आई और पास के अस्पताल से ही उसकी मरहम-पट्टी भी हो गई। लेकिन गाड़ी की जो दशा थी उसके लिए युवक का जवाब था- बीमा कंपनी देख लेगी।
ऐसे दृश्य अक्सर हमें देखने-सुनने को मिल जाते हैं। जिस दुर्घटना की बात मैं कर रहा हूं, उसमें तीन गाडि़यां और भी आपस में टकराई। क्या इसे फिल्मी दृश्य मानकर भूल जाना चाहिए? मैं उन युवकों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं रख सकता जो अपने वाहन की, चाहे वह कार हो या बाइक, आवश्यकतानुसार स्पीड पर नियंत्रण नहीं रख सकते। उनसे बात करो तो जवाब मिलता है कि एक लाख की बाइक पर चींटी सी चाल चलने में मजा नहीं आता। ऐसे ही बड़ी और लंबी गाड़ी की शान का अर्थ तेज गति माना जाता है। मेरी समझ में यह नहीं आता कि दस लाख की गाड़ी चलाने वालों को दस सेकंड रुकना भी भारी क्यों लगता है? वह क्यों अगले दस मिनट के बारे में नहीं सोचते? सड़क पर चलने वाले दस लोगों के बारे में भी वह क्यों नहीं सोचते? लगता है नोएडा, गुड़गांव और दिल्ली में खुली सड़कों और हाई-वे पर स्टंट करने वाले युवकों को न तो अपने जीवन से प्यार है न ही अपने परिवार के सदस्यों की चिंता।
युवावस्था में जोश रहता है, जीवन के प्रति उमंग और उत्साह रहता है। हो सकता है इसकी अभिव्यक्ति युवा तेज गति से गाड़ी चलाकर करते हों। लेकिन इसमें कई बार वे अति कर डालते हैं और जीवन को दांव पर लगा देते हैं। पर क्या इसके लिए हम सब भी जिम्मेदार नहीं हैं? जीवन में इस तेज गति का जो नशा उनमें दिख रहा है, वह समाज की ही देन है। वे अपने घर और परिवार में देख रहे हैं कि किस तरह की आतुरता हर किसी में समाई हुई है। महानगरों में खासतौर से यह बात है। एक तो इन शहरों का स्वरूप ही ऐसा है कि जीवन में अपने आप भागदौड़ आ जाती है। लेकिन हम व्यावहारिक वजहों से ही दौड़धूप नहीं कर रहे, गति हमारे जेहन में समा चुकी है। लोग जल्दी से जल्दी सब कुछ पाना चाहते हैं। किसी को रातोंरात समृद्धि चाहिए किसी को प्रसिद्धि चाहिए। एक युवा यह सब अपने तरीके से ग्रहण कर रहा होता है। वह रफ्तार को ही जीवन का निर्णायक तत्व मान लेता है। धीमा चलना उसके लिए पिछड़ेपन का पर्याय बन जाता है। सड़क पर पिछड़ने को वह जीवन में असफलता के रूप में देखने लग जाता है। दिक्कत यह है कि हम युवाओं से संवाद भी नहीं कर रहे हैं। नई पीढ़ी को हम गंभीरता से समझा नहीं पा रहे कि रफ्तार सफलता की अनिवार्य शर्त नहीं है। तेज चलने से ही सब कुछ नहीं हासिल हो जाता।

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