गुरुवार, 14 जुलाई 2011

कई महिलाओं का साथ चाहते हैं पुरुष

आमतौर पर पत्‍नी को चिट करने वाले पतियों के बारे में कहा जाता है कि उन्‍हें घर में प्‍यार नहीं मिलता इसलिए वे विवाहेत्‍तर संबंध बनाते हैं।
लेकिन हाल ही में जेन हेव्लिकेक के नेतृत्व में चार्ल्स विश्वविद्यालय के एक दल द्वारा किए गए अध्ययन में पाया कि पुरुष के भटकाव पर इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता की वह अपने संबंधों में खुश और संतुष्ट है या नहीं।
वे सुखी विवाहित जीवन जीते हुए भी विवाहेत्‍तर संबंध बनाते हैं क्‍योंकि वे साथी के तौर पर कई महिलाओं का साथ चाहते हैं। जबकि महिलाओं के साथ ऐसा बहुत कम होता है।
महिलाओं के मुकाबले पुरुषों के संबंध सेक्स से ज्यादा प्रेरित होते हैं। वे संबंधों के मामलों में विभिन्‍नता चाहते हैं और इसी से प्रेरित होकर ऐसे कदम उठाते हैं।

पुरुष महिलाओं में क्या ढूंढते हैं ?

बदलते समय के साथ पुरुषों के पसंद में भी काफी बदलाव आया है। हाल ही में हुए सर्वे में पुरुषों के पसंद के बारे में बड़ा खुलासा हुआ है।
ऑनलाइन हुए सर्वे में पता चला है कि स्‍क्रीन पर जीरो फिगर भले अच्‍छा लगता है लेकिन जब निजी जिंदगी की बात आती है तो पुरुषों को मांसल देह वाली महिलाएं ज्यादा भाती हैं।
जब मर्दों के आसपास कोई नहीं होता, तो महिलाओं के बारे में उनकी क्या जिज्ञासाएं होती हैं। यह जानने के लिए रिसर्चर्स ने विभिन्‍न देशों के 1 अरब से ज्‍यादा पुरुषों पर शोध किया।
रिसर्चर ने पाया कि पुरुषों को महिलाओं के सेक्‍सी पैर बहुत पसंद है साथ ही पतली की बजाए भरे बदन वाली महिलाएं ज्यादा पसंद आती हैं।
जबकि महिलाएं पुरुषों में सेक्‍स अपील से ज्‍यादा रोमांस पसंद करती हैं। उन्‍हें रोमांटिक पुरुष काफी पसंद आते हैं।

आज की लड़कियों को चाहिए कुछ इस तरह के पति

अगर आप एक अच्छी जीवनसाथी की तलाश में हैं तो शायद आपको अपना जॉब बदलना पड़ सकता है क्योंकि हाल ही में एक सर्वे में यह बात सामने आई है कि महिलाएं ऐसे व्यक्ति से शादी करना चाहती हैं। जिसकी न सिर्फ सैलरी ज्यादा हो बल्कि एक अच्छे ओहदे पर भी हो।
ब्रिटिश वेबसाइट मैच डॉट कॉम ने हाल ही में सर्वे कर यह खुलासा किया है कि महिलाएं आज भी पद और पैसे के प्रति आकर्षित होती हैं। शोधकर्ता केट टेलर का कहना है कि जीवनसाथी के रूप में मैनेजर के पद पर कार्यरत पुरुष महिलाओं की पहली पसंद हैं। दूसरे नंबर पर डॉक्टर , तीसरे नंबर पर वकील, शिक्षक और बिजनेस मैन चौथे और पांचवे नंबर पर है।
साथ ही ऐसे लोगों के कुवांरे रह जाने की आशंका है जो लाइब्रेरियन, फूल व्यवसायी, दमकलकर्मी, सेल्समैन या ड्राइवर की नौकरी करते हैं।
महिलाओं का कहना है कि एक मैनेजर पति ज्यादा समझदार, समर्पित और महत्वकांक्षी होता है। इसके साथ ही सप्ताह में 5 दिन 9 से 5 बजे की नौकरी और सप्ता‍ह में दो दिन की छुट्टी भी महिलाओं को ऐसे पुरुषों के प्रति आकर्षित करती है।
मैनेजेर के अलावा महिलाएं डॉक्टर से शादी करना पसंद करती हैं क्योंकि डॉक्टर अपने परिवार का बेहतर ख्याल रख सकता है। महिलाओं को अपने परिवार तथा रिश्तेरदारों के सेहत की चिंता नहीं होती है। इसके साथ ही डॉक्टर अमीर और जिम्मेदार भी होते हैं। वकीलों के तार्किक क्षमता के कारण अपना दिल दे बैठती हैं।

सिर्फ किस नहीं है महिलाओं की प्राथमिकता

रिश्तों के मामले में पुरुषों को ज्यादा बोल्ड समझा जाता है लेकिन बदले समय के साथ महिलाओं की सोच में भी काफी बदलाव आया है। हाल ही में इंडियाना यूनि‍वर्सिटी के शोधकर्ताओं ने खुलासा किया है कि पुरूष आलिंगन और चुंबन को ज्यादा पसंद करते हैं। वहीं दूसरी ओर महिलाएं सेक्स के प्रति ज्यादा उत्सुक रहती हैं।
शोधकर्ताओं ने पांच देशों के एक हजार से अधिक दंपतियों पर अध्ययन किया। शोध में पाया गया कि रिश्ते के शुरूआती 15 वर्ष में महिलाएं बच्चों के पालन पोषण में व्यस्त रहने के कारण ज्यादा भावनात्मक होती हैं ।
इस दौर में वे बच्चों की परवरिश और घर की देखभाल में व्यस्त रहती हैं लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता जाता है उनके ऊपर दबाव कम होता जाता है।
महिलाओं को अपने संबंधों के बारे में सोचने के लिए ज्यादा समय मिलता है। वे अपने पार्टनर के साथ ज्यादा समय बिताती हैं और सेक्स के प्रति ज्यादा उत्सुक रहती हैं। उम्र के इस दौर में सेक्स उनकी प्राथमिकता होती है।
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सोमवार, 20 जून 2011

सिनेमा में स्त्री : स्त्री होने की दुविधा और दावेदारी

वह एक हिंदुस्तानी औरत थी जो चाह रही थी कि उसके दुख, दर्द और उसकी विपत्तियों को पहचाना जाए। कोई उसके माथे का बुखार महसूस कर पाए। कोई उसे सुने। कोई यह समझ सके कि वह बहुत थकी है। उसे थोड़ी-सी अपनी जगह चाहिए । जितना उसका पैर दुख रहा है, उतना ही उसका माथा और उतना ही उसका मन। वह भारतीय मर्दवाद के बीहड़ों में घूमती रही थी - बदहवास और लहूलुहान। उसने तीन चार मदोर्ं को जाना लेकिन वे सारे ही उसे रौंदना चाहते थे। यह सब ‘भूमिका’ (1977) नाम की फिल्म की नायिका के साथ होता है। फिल्म में एक जगह कहा भी जाता है कि सब कुछ बदलता है लेकिन मर्द नहीं बदलता।

कहना पड़ेगा कि अगर कोई एक कथा फिल्म भारतीय स्त्री के दुख, दुविधा और दावेदारी को आमूल तरीके से सामने ला पाती है तो वह है ‘भूमिका’ जिसे श्याम बेनेगल ने 1977 में ‘अंकुर’, ‘निशांत’, ‘मंथन’ के बाद चौथी फिल्म के तौर पर निर्देशित किया था। वह एक स्त्री की आत्मकथा पर आधारित फिल्म थी।

अभिनेत्री हंसा वाडकर की आत्मकथा। बस हुआ यह कि श्याम बेनेगल की फिल्म में हंसा उषा में बदल गई। लेकिन हुआ यह भी कि हंसा और उषा भारतीय स्त्री की जीवनी में बदलती गईं। आत्मकथा कथा में बदल गई। हंसा वाडकर मराठी सिनेमा में चौथे दशक में एक महत्वपूर्ण अदाकारा के तौर पर जानी-पहचानी गईं। मराठी थियेटर और अपने फिल्मी सफर के दौरान उन्होंने जो देखा जाना उसे उन्होंने अपनी आत्मकथा में कह दिया, जो उन्होंने अरुण साधु की मदद से लिखी। आत्मकथा का नाम उन्होंने 1959 की अपनी एक फिल्म के नाम पर रखा - ‘सुनो जो कहूंगी’। और सबने इस कहानी को बहुत मर्म और अवधान के साथ सुना।

यह एक स्त्री के कांटों पर चलने की कहानी थी। एक औरत के बार-बार हतप्रभ होने का वृत्तांत। बार-बार ठगे जाने की कराह। यह एक स्त्री की कहानी थी जिसकी नींद उड़ी हुई है, जो उनींदी है और जो ठौर की तलाश में है। जो नीमहोशी में चली जा रही है। यह मदोर्ं की दुनिया में एक स्त्री का भटकाव था जहां बार बार मोहभंग होता था। स्वप्न टूटता था। उषा ने कलाओं को साधा था - गाने और अभिनय और नृत्य की कलाएं। लेकिन मदोर्ं से निपटने की कला उसे नहीं आती थी। यह उसकी त्रासदी है। लेकिन यह तो भारतीय स्त्री की त्रासदी भी है। तो ‘भूमिका’ एक दस्तावेज है।

‘भूमिका’ में उषा की भूमिका स्मिता पाटिल ने निभाई - बिना किसी विवाद के स्मिता पाटिल हिंदी सिनेमा की सबसे बड़ी अभिनेत्री हैं और ‘भूमिका’ शायद उनकी सबसे अच्छी फिल्म है। उषा के तौर पर स्मिता फिल्म का केंद्रीय पात्र थीं लेकिन जैसा कि कहा गया है समस्या भी वही थीं। कहना यह है कि स्त्री होना दूसरे दर्जे की नागरिकता का आरोपण और वरण दोनों है और इस अनंतरता को स्मिता ने क्या ही खूबी से निभाया ।

उषा कमजोर और काइयां केशव देहलवी (अमोल पालेकर) से शादी करती है जो अधिकारवाद का लिजलिजापन है। वह कितना भी टेढ़ा-मेढा क्यों न हो, अपनी स्त्री को वह अंगूठे के नीचे रखना जानता है। श्याम बेनेगल केशव के जरिए कहना भी यही चाहते हैं कि पुरुष का मूल गुण यह है कि वह पुरुष है, जिसका यह मायने भी है कि वह स्त्री की नियति का नियंत्रक है।

उर्वशी उर्फ उषा इस कैद को स्वीकार नहीं करना चाहती। वह दांपत्य का किला ढहाती है लेकिन तब वह और निष्कवच हो जाती है। कहां है स्वातं˜य। परंपरा, बाजार और सामंत में से किसी एक का वरण उसे करना ही होगा। लेकिन यह इसलिए भी तो है कि वह मदोर्ं के बनाए विकल्पों में से किसी एक का चुनाव कर रही है। अनंत नाग, कुलभूषण खरबंदा, नसीरुद्दीन शाह, अमरीश पुरी के तौर पर पुरुष चरित्रों की एक कतार है जो स्मिता को अपने-अपने तरीकों से रौंदने को तैयार है। कोई सामंत है तो कोई तिÊारती।

संबंध उसे स्वतंत्र नहीं करता, बंधुआ बनाता है। वह साथी को पुकारती है तो मिलता है जेलर। वह एक बंधनमुक्त यूटोपिया चाहती है लेकिन बदलती है वह माल में। श्याम बेनेगल स्त्री के सब कुछ खोने की दास्तान को एक स्त्री की जीवनी के ज़रिये कहते हैं। वे पुरुष के सत्तात्मक मन की जांच काफी हद तक नारीवादी औज़ारों से करते हैं। फिल्म में फैले अंधेरे में वह मर्दवाद के चूहेपन पर लगातार अपनी जासूसी टॉर्च की रौशनी फेंकते रहते हैं। तो होता यह है कि पुरुष का बौनापन छिपाए नहीं छिपता और इस सबके बीच स्त्री के अपराजेय होने की हंसी जब-तब सुनाई देती रहती है - उसकी अपनी सतत चीखों के बीच।
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शनिवार, 28 मई 2011

उपयोगी सामग्री

कैंसर को हराकर मशरूम हुआ दुनिया में मशहूर!!
प्रकृति हमें जीवन और समृद्धि तो देती ही है पर साथ ही बीमार होने पर हमें उससे छुटकारा भी दिलाती है। आयुर्वेद और प्राकृतिक चिकित्सा, होम्योपेथिक...आदि चिकित्सा पद्धतियां तो पूरी तरह से प्रकृति और उसके अंगों की सहायता से ही रोगी को रोग से छुटकारा दिलाती है। यह बात एक बार फिर से साबित की स्वादिष्ट मशरूम ने। जी हां मशरूम ने....
हाल ही में अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिकों ने अपने शोध के आधार पर दावा किया है कि प्रोस्टेट कैंसर को मिटाने में एशियाई क्षेत्रों में प्रयुक्त चिकित्सकीय मशरूम बेहद कारगर है। क्वींसलैंड यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नालॉजी के वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि तुर्की टेल मशरूम प्रयोगशाला में चूहों में प्रोस्टेट कैंसर को विकसित होने से दबाने में 100 फीसदी कारगर सिद्ध हुआ है।
यह शोध -पीएल ओएस वन- जर्नल में प्रकाशित हुआ है।
तुर्की टेल मशरूम में मिलने वाले तत्व पॉलीसेकैरोपेप्टाइड के बारे में पता चला है कि यह चूहों में प्रोस्टेट कैंसर स्टेम कोशिकाओं को निशाना बनाते हुए ट्यूमर बनने की संभावना को कम करता है। निश्चित ही यह शोध इस बीमारी से लडऩे में अहम् कदम साबित हो सकता है। इसकी प्रयोग की एक खाशियत यह भी रही कि इससे ट्यूमर का विकास तो पूरी तरह से रुक ही जाता है साथ ही इसका कोई नकारात्मक प्रभाव यानी साइट इफेक्ट भी नहीं होता।

शादी में क्यों निभाई जाती है संगीत की रस्म?
शादी में मंगलगीत गाए जाते हैं संगीत की रस्म निभाई जाती है जिसमें घर के सभी सदस्य आनंद और उल्लास के साथ भाग लेते हैं। दरअसल इसका कारण यह है कि संगीत आंनद आपस में गहरा ताल्लुक है। संगीत के बगैर किसी भी प्रकार के सेलीबे्रशन की सफलता अधूरी ही मानी जाती है। ढ़ोल, नगाड़े और शहनाई संगीत के पारंपरिक साधन हैं। इनका प्रयोग हमारे यहां बड़े प्राचीन समय से होता आ रहा है।
इसके अंतर्गत पहले घर की महिलाएं मंगलगीत गाती थी और इस कार्यक्रम में ही ढोल बजाकर गीत गाती थी। सतीजी व शिव की शादी हो राम सीताजी का स्वयंवर सभी में महिलाओं द्वारा मंगलगीत गाए जाने का वर्णन मिलता है धीरे-धीरे इस क्रिया को परंपरा के रूप में शामिल कर लिया गया। हम देखते हैं कि भगवान शिव के पास भी अपना डमरु था, जो कि तांडव करते समय वे स्वयं ही बजाते भी थे।
जीवन युद्ध और ढ़ोल- संगीत के अन्य वाद्य यंत्रों की बजाय ढ़ोल की अपनी अलग ही खासियतें होती हैं। मन में उत्साह, साहस और जोश जगाने में ढ़ोल का बड़ा ही आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ता है। तभी तो पुराने समय में युद्ध का प्रारंभ भी ढ़ोल-नगाड़ों से ही होता था। ढ़ोल से निकलने वाली ध्वनि तरंगें योद्धओं को जोश और साहस से भर देती थीं।

रानी ने क्यों दिया मुसीबत से बचाने वाले को ही शाप?
दमयन्ती जब कुछ शांत हुई। व्याध ने पूछा सुन्दरी तुम कौन हो? किस कष्ट में पड़कर किस उद्देश्य से तुम यहां आई हो? दमयन्ती की सुन्दरता, बोल-चाल और मनोहरता देखकर व्याध मोहित हो गया। वह दमयंती से मीठी-मीठी बातें करके उसे अपने बस में करने की
कोशिश करने लगा। दमयन्ती उसके मन के भाव समझ गई। दमयंती ने उसके बलात्कार करने की चेष्टा को बहुत रोकना चाहा लेकिन जब वह किसी प्रकार नहीं माना तो उसने शाप दे दिया कि मैंने राजा नल के अलावा किसी और का चिंतन कभी नहीं किया हो तो यह व्याध मरकर गिर पड़े। दमयंती के इतना कहते ही व्याध के प्राण पखेरू उड़ गए। व्याध के मर जाने के बाद दमयंती एक निर्जन और भयंकर वन में जा पहुंची।
राजा नल का पता पूछती हुई वह उत्तर की ओर बढऩे लगी। तीन दिन रात दिन रात बीत जाने के बाद दमयंती ने देखा कि सामने ही एक बहुत सुन्दर तपोवन है। जहां बहुत से ऋषि निवास करते हैं। उसने आश्रम में जाकर बड़ी नम्रता के साथ प्रणाम किया और हाथ जोड़कर खड़ी हो गई। ऋषियों को प्रणाम किया। ऋषियों ने दमयन्ती का सत्कार किया और उसे बैठने को कहा- दमयन्ती ने एक भद्र स्त्री के समान सभी के हालचाल पूछे।
फिर ऋषियों ने पूछा आप कौन है तब दमयंती ने अपना पूरा परिचय दिया और अपनी सारी कहानी ऋषियों को सुनाई। तब सारे तपस्वी उसे आर्शीवाद देते हैं कि थोड़े ही समय में निषध के राजा को उनका राज्य वापस मिल जाएगा। उसके शत्रु भयभीत होंगे व मित्र प्रसन्न होंगे और कुटुंबी आनंदित होंगे। इतना कहकर सभी ऋषि अंर्तध्यान हो गए।

पाण्डवों को कृष्ण क्यों पसंद करते थे?
पं.विजयशंकर मेहता
उद्धवजी ने कहा-भगवन देवर्षि नारदजी ने आपको यह सलाह दी है कि फुफेरे भाई पाण्डवों के राजसूय यज्ञ में सम्मिलित होकर उनकी सहायता करनी चाहिए। उनका यह कथन ठीक ही है और साथ ही यह भी ठीक है कि शरणागतों की रक्षा अवश्यकर्तव्य है। पाण्डवों के यज्ञ और शरणागतों की रक्षा दोनों कामों के लिए जरासन्ध को जीतना आवश्यक है।
प्रभो! जरासन्ध का वध स्वयं ही बहुत से प्रयोजन सिद्ध कर देगा। बंदी नरपतियों के पुण्य परिणाम से अथवा जरासन्ध के पाप-परिणाम से सच्चिदानंद स्वरूप श्रीकृष्ण! आप भी तो इस समय राजसूय यज्ञ का होना ही पसंद करते हैं। इसलिए पहले आप वहीं पधारिए।
उद्धवजी की यह सलाह सब प्रकार से हितकर और निर्दोष थी। देवर्षि नारद, यदुवंश के बड़े-बूढ़े और स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ने भी उनकी बात का समर्थन किया। अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्ण ने वसुदेव आदि गुरुजनों से अनुमति लेकर दारुक, जैत्र आदि सेवकों को इन्द्रप्रस्थ जाने की तैयारी करने के लिए आज्ञा दी।
हस्तिनापुर जाना -भगवान् को सूचना मिली और भगवान बहुत दुखी हो गए। सूचना यह थी कि कौरवों ने छल से पाण्डवों को लाक्ष्यागृह में भेजा और पांडव और कुंती जलकर मर गए। यह सूचना जब कृष्णजी को मिली तो कृष्णजी बहुत चिंतित हो गए, लेकिन उनको विश्वास नहीं हुआ। कुछ उदास भी हुए।
पाण्डव भगवान् को क्यों पसंद थे समझ लें। कर्म करने से अनुभव होता है। पवित्र कर्म से धर्ममय अनुभव होते हैं।
श्रीकृष्ण संकेत देते हैं कि अध्यात्म शक्ति की जागृति, प्रत्यक् चेतना छिगम् अर्थात् अन्तर्गुरु ईश्वर की चेतन सत्ता का प्रत्यक्ष अनुभव। साधन (कर्म) के तीन स्तर होते हैं। प्रथम स्तर पर साधक अपने कत्र्तत्याभिमान से युक्त रहता है। (मैं साधन कर रहा हूं, कर्म कर रहा हूं, सेवा कर रहा हूं आदि) दूसरे स्तर पर ईश्वर की शरण में रहता है और अपनी प्रगति को ईश्वर की अनुकम्पा के अधीन अनुभव करता है। तीसरे स्तर पर ब्रम्हभाव में रत रहता हुआ जीवन सफल करता है।

जिगरी दोस्त नशे में अंधे ही नहीं मूर्ख भी बन गए!!
यह शिकायत कइयों की रहती है कि जी-तोड़ मेहनत करने और हर कोशिश आजमाने के बाद भी हमें सफलता क्यों नहीं मिल पाती? ऐसा कई बार होता है कि सारी की सारी मेहनत बेकार चली जाती है। समस्या की असलियत को जानने के लिय जब हम गहराई में जाकर बारीकी से खोजबीन करते हैं तब पता चलता है कि मेहनत बेकार इसलिये हुई क्योंकि वह गलत दिशा में बगैर सोचे-समझे की गई थी। इस बात को आसानी से समझने के लिये आइये चलते हैं एक रोचक घटना की ओर...
दो जिगरी दोस्त चांदनी रात का मजा लूटने के लिये नदी किनारे जा पहुंचे। जमकर शराब की चुस्कियां ली और जब नशे में धुत हो गए तो खूब नाच-गाना हुआ। कभी किशोर कुमार बन जाते तो कभी माइकल जेक्शन, शराब की मदहोंशी ने शर्म-संकोच की सारी हदें मिटा दी थीं। नाच गाने से जब मन भर गया तो उनके मन में नदी की सैर करने का सुन्दर खयाल आया। दोनों परम मित्र एक-दूसरे के गले में हाथ डालकर लडख़ड़ाते हुए पैरों से नदी के किनारे बंधी नाव की ओर चल दिये। नशे की मदहोंसी में थे, पूरे शुरूर में थे उतावली में सीधे कूद कर नाव में सवार हो गए। जल्दबाजी में इतना भी होंश नहीं रहा कि नाव जिस रस्सी से किनारे से बंधी है उसे खोला ही नहीं है। दोनों ने जल्दी-जल्दी नाव में रखे चप्पू उठाए और लगे चप्पुओं को चलाने। नशे की मदहोंशी को चांदनी रात की खूबसूरती ने और भी बढ़ा दिया था। सोचने-समझने की दिमागी क्षमता को नशे के थपेड़ों में कभी का बहा चुके थे। नाव आगे बढ़ भी रही है या नहीं इस बात को दोनों में से किसी को ध्यान ही नहीं रहा। बस लगे हैं चप्पुओं को चलाने में।
दोनों ने जमकर शराब गटकी थी इसलिये जल्दी होंश लोटने के का सवाल ही नहीं था। चप्पू चलाते-चलाते सारी रात गुजर गई। सवेरा होने को था, एक मित्र जो थोड़ा अधिक समझदार था बोला-लगता है हम किनारे से कुछ ज्यादा ही दूर निकल आए हैं अब लौट चलना चाहिये। सवेरा होने लगा था उजाले में नदी का खूबसूरत किनारा साफ नजर आ रहा था। जब पीछे मुड़ कर दोनों ने देखा तो दिमाग में कुछ ठनका, सारी बात समझ में आने लगी। पता चल गया कि सारी रात नाव तो किनारे से ही बंधी रही है, जल्दी में रस्सी को खोलना भूल गए थे। रात भर चप्पू चलाने की बेवकूफी भरी मेहनत के बारे में सोच कर मन ही मन शर्मिंदगी भी हुई और हंसी भी खूब आई। दोनों की मिलीभगत से हुई इस मूर्खतापूर्ण घटना को किसी से न कहने का पक्का वादा करके एक दूसरे को विदा देकर अगली बार किसी अच्छी जगह पर पार्टी करने की सलाह करके अपने घरों को चल गए।
इस कहानी को पढ़कर उन शराबी मित्रों को कोई भी आसानी से मूर्ख कह देगा लेकिन ऐसा जाने-अनजाने हम सभी के साथ होता रहता है। हम मेहनत तो खूब करते हैं लेकिन कामवासना, गुस्सा, आलस्य, लालच.. जैसी जाने कितनी ही रस्सियां हमारे पैरों से बंधी रहती हैं और मौत को सामने देखकर हमें समझ में आता है कि सारी दोड़-धूप बैकार ही चली गई आखिर हम पहुंचे तो कहीं भी नहीं। नशे भी कई तरह के होते हैं, कुछ नजर आते हैं लेकिन अधिक घातक नशों को तो इंसान कभी देख भी नहीं पाता।
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शुक्रवार, 27 मई 2011

अपनी आमदानी का उपयोग ऐसे करें...

पं. विजयशंकर मेहता
अपने लिए तो सभी कमाते हैं, पर हमारी कुछ कमाई ऐसी होना चाहिए जो सेवा के रूप में बदल सके। आजकल सेवा भी हथियार बना ली गई है। धंधा बना ली गई थी यहां तक तो ठीक था, लेकिन अब शस्त्र के रूप में सेवा और खतरनाक हो जाती है।
जो दुनियादारी के सेवक हैं, यह अक्सर ऐसे ही काम करते हैं। कोई सेवक कहता है कि मैं हिन्दू धर्म को संगठित करना चाहता हूं। कोई कह रहा है मैं इस्लाम की सेवा करना चाहता हूं। कोई ईसा की सेवा में घूम रहा है। नेता कह रहे हैं कि हम देश की सेवा कर रहे हैं। यह सब समाजसेवा तो हो सकती है, लेकिन इससे भीतर परमात्मा पैदा नहीं होता।
जब चित्त में ईश्वर या कोई परम शक्ति होती है तो सेवा का रूप बदल जाता है। हिन्दू धर्म के साधु-संतों की, इस्लाम के ठेकेदारों की, क्रिश्चनिटी के पादरियों की और हमारे राष्ट्र के नेताओं की सेवा के ऐसे परिणाम नहीं आते, जैसे आज धर्म के नाम पर मिल रहे हैं। इसलिए सेवा के ईश्वर वाले स्वरूप को समझना होगा। अभी सेवा चित्त के आनंद से वंचित है। परमात्मा का एक स्वरूप है सत्य।
ईमानदारी से देखा जाए तो चाहे धर्म हो या राजधर्म, जो लोग सेवा का दावा कर रहे हैं उनके भीतर से सत्य गायब है। धर्म का चोला ओढ़ लें यहां तक तो ठीक है, अब तो लोगों ने भगवान का ही चोला ओढ़ लिया है। वेष के भीतर से जब विचार समाज में फिंकता है तो लोग सिर्फ झेलने का काम करते हैं। वे यह समझ नहीं पाते कि सत्य कहां है। इसलिए दूसरे जो कर रहे हैं उनसे सावधान रहें और हमें जो करना है उसके प्रति ईमानदार रहें। लगातार प्रयास करें कि भीतर परमात्मा जागे और तब बाहर हमारे हाथ से सेवा के कर्म हों।
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सहायता और प्रार्थना का यह नियम है....

पं.विजयशंकर मेहता
आप स्वयं जगदीश्वर हैं और आपने जगत् में अपने ज्ञान, बल आदि कलाओं के साथ इसलिए अवतार ग्रहण किया है कि संतों की रक्षा करें और दुष्टों को दण्ड दें। ऐसी अवस्था में प्रभो! जरासन्ध आदि कोई दूसरे राजा आपकी इच्छा और आज्ञा के विपरित हमें कैसे कष्ट दे रहे हैं, यह बात हमारी समझ में नहीं आती।
आपने 18 बार जरासन्ध से युद्ध किया और सत्रह बार उसका मान मर्दन करके उसे छोड़ दिया, परन्तु एक-बार उसने आपको जीत लिया। हम जानते हैं कि आपकी शक्ति, आपका बल-पौरुष अनन्त है। मनुष्यों का सा आचरण करते हुए आपने हारने का अभिनय किया, परन्तु इसी से उसका घमंड बढ़ गया है। हे अजित! अब वह यह जानकर हम लोगों को और भी सताता है कि हम आपके भक्त हैं, आपकी प्रजा हैं।
अब आपकी जैसी इच्छा हो वैसा कीजिए।
यह सहायता और प्रार्थना का नियम है, जिससे आप सहायता मांग रहे हैं, उसके सामथ्र्य की भी थाह आपको होनी चाहिए। परमात्मा असीम शक्तिशाली हैं, हम उनसे सहायता मांगते हैं तो यह भाव भी होना चाहिए कि हम आपकी शक्ति जानते हैं, आप हमें इस संकट से बचा सकते हैं।दूत ने कहा - भगवन जरासन्ध के बंदी नरपतियों ने इस प्रकार आपसे प्रार्थना की है। वे आपके चरणकमलों की शरण में हैं और आपका दर्शन चाहते हैं। आप कृपा करके उन दीनों का कल्याण कीजिए।

प्यार की एक अनोखी दास्तान

एक बड़ी सुन्दर लाइन है जो सच्चे स्नेह और प्यार की ताकत को बयान करती है। वो पंक्ति कुछ इस तरह है कि -जाकर जापर सत्य सनहू, सो ताहि मिलहिं न कछु संदेहू , यानी जिस भी किसी का किसी के प्रति सच्चा प्यार होगा, तो उसका उससे मिलन होकर रहेगा।
कई प्रेम कहानियां अधूरी रह जाती हैं, लेकिन इसका अर्थ नहीं कि वे समाप्त ही हो गईं हैं। अगर आपका प्यार सच्चा है तो एक न एक दिन आपको जरूर मिलता है। पुराणों में ऐसी ही एक प्रेम कहानी है राजा नल और दयमंती की। तो आइये चलते हैं उस अमर प्रेम कथा की ओर.........
एक बार राजा नल अपने भाई से जुए में अपना सब कुछ हार गए। उनके भाई ने उन्हें राज्य से बाहर कर दिया। नल और दयंमती जगह जगह भटकते फिरे। एक रात राजा नल चुपचाप कहीं चले गए। साथ उन्होने दयमंती के लिए एक संदेश छोड़ा जिसमें लिखा था कि तुम अपने पिता के पास चली जाना मेरा लौटना निश्चित नहीं हैं। दयमंती इस घटना से बहुत दुखी हुई उसने राजा नल को ढ़ूढऩे का बड़ा प्रयत्न किया लेकिन राजा नल उसे कहीं नहीं मिले। दुखी मन से दयंमती अपने पिता के घर चली गई।
लेकिन दयमंती का प्रेम नल के लिए कम नहीं हुआ। और वह नल के लौटने का इंतजार करने लगी। राजा नल अपना भेष बदलकर इधर उधर काम कर अपना गुजारा करने लगे। बहुत दिनों बाद दयमंती को उसकी दासियों ने बताया कि राज्य में एक आदमी है जो पासे के खेल का महारथी है। दयमंती समझ गई कि वह व्यक्ति कोई और नहीं राजा नल ही है। वह तुरंत उस जगह गई जहां नल रुके हुए थे लेकिन नल ने दयमंती को पहचानने से मना कर दिया लेकिन दयमंती ने अपने सच्चे प्रेम के बल पर राजा नल से उगलवा ही लिया कि वही राजा नल है। फिर दोनों ने मिलकर अपना राज पाट वापस हासिल कर लिया। कथा कहती है कि आपका समय कैसा भी हो अगर आपका प्याार सच्चा है तो आपके साथी को आपके वापस लौटा ही लाता है। www.bhaskar.com

क्या हुआ जब स्वयंवर में पहुंच गए परशुराम?

उसी मौके पर शिवजी के धनुष का टूटने की बात सुनकर उस जगह परशुरामजी भी आए। उन्हें देखकर सब राजा सकुचा गए। परशुरामजी का भयानक वेष देखकर सब राजा डर गए व्याकुल होकर उठ खड़े हुए। परशुरामजी हित समझकर भी सहज ही जिसकी ओर देख लेते हैं, वह समझता है मानो मेरी आयु पूरी हो गई। फिर जनकजी ने आकर प्रणाम किया और सीताजी ने भी उन्हें नमन किया।
परशुरामजी ने सीताजी को अर्शीवाद दिया। फिर विश्वामित्रजी आकर मिले और उन्होंने दोनों भाइयों को उनके चरण छूने को कहा। दोनों को परशुरामजी ने आशीर्वाद दिया। फिर सब देखकर, जानते हुए भी उन्होंने राजा जनक से पूछा कहो यह इतनी भीड़ कैसी है? उनके मन में क्रोध छा गया।
जिस कारण सब राजा आए थे। राजा जनक ने सब बात उन्हें विस्तार से बताई। बहुत गुस्से में आकर वे बोले- मुर्ख जनक बता धनुष किसने तोड़ा? उसे शीघ्र दिखा, नहीं तो आज जहां तक तेरा राज्य है, वहां तक की पृथ्वी उलट दूंगा। राजा को बहुत डर लगा, जिसके कारण वे उत्तर नहीं दे पा रहे थे। सीताजी की माताजी भी मन में पछता रही थी कि विधाता ने बनी बनाई बात बिगाड़ दी।
तब श्रीरामजी सभी को डरा हुआ देखकर बोले- शिवजी के धनुष को तोडऩे वाला आपका ही कोई दास होगा। क्या आज्ञा है, मुझसे क्यों नहीं कहते? यह सुनकर परशुरामजी गुस्से में बोले सेवक वह है जो सेवक का काम करे। शत्रु का काम करके तो लड़ाई ही करना चाहिए। जिसने शिवजी का धनुष तोड़ा है वह मेरा दुश्मन है। तब लक्ष्मणजी मुस्कुराए और परशुरामजी का अपमान करते हुए बोले- हमने आज तक बहुत से धनुष तोड़े। आपने ऐसा क्रोध कभी नहीं किया। इसी धनुष पर इतनी ममता किस कारण से है? यह सुनकर भृगुवंश की ध्वजास्वरूप परशुरामजी क्रोधित होकर कहने लगे।क्रमश

लाइलाज कैंसर का भी काल है यह पौधा!!!

तुलसी का पौधा कितना अनमोल है, यह इसी बात से पता चल जाता है कि इसे गुणों को देखकर इसे भगवान की तरह पूजा जाता है।
यूं तो आज हर आदमी को किसी न किसी बीमारी ने अपने कब्जे में कर रखा है। लेकिन कैंसर एक ऐसी बीमारी है जो लाइलाज कही जाती है।
अभी तक इस बीमारी का कोई परमानेंट इलाज नहीं है। आज यह बीमारी तेजी से फैल रही है। वैसे तो कैंसर का कोई परमानेंट इलाज नहीं है लेकिन फिर भी आर्युवेद ने तुलसी को कैंसर से लडऩे का एक बड़ा तरीका बताया है।
आर्युवेद में बताया गया है कि तुलसी की पत्तियों के रोजाना प्रयोग से केंसर से लड़ा जा सकता है। और इसके लगातार प्रयोग से कैंसर खत्म भी हो सकता है।
- कैंसर की प्रारम्भिक अवस्था में रोगी अगर तुलसी के बीस पत्ते थोड़ा कुचलकर रोज पानी के साथ निगले तो इसे जड़ से खत्म भी किया जा सकता है।
-तुलसी के बीस पच्चीस पत्ते पीसकर एक बड़ी कटोरी दही या एक गिलास छाछ में मथकर सुबह और शाम पीएं कैंसर रोग में बहुत फायदेमंद होता है।
केंसर मरीज के लिए विशेष आहार
अंगूर का रस, अनार का रस, पेठे का रस, नारियल का पानी, जौ का पानी, छाछ, मेथी का रस, आंवला, लहसुन, नीम की पत्तियां, बथुआ, गाजर, टमाटर, पत्तागोभी, पालक और नारियल का पानी।

ऐसा क्यों

गुरुवार के दिन घर की सफाई नहीं की जाती?
हमारे बढ़े-बूजुर्गों द्वारा बनाई गई सारी परंपराओं और रीति-रिवाजों के पीछे एक सुनिश्वित वैज्ञानिक कारण है। किसी बात को पूरा का पूरा समाज यूं ही नहीं मानने लग जाता। हर मान्यता के पीछे कोई ना कोई धार्मिक या वैज्ञानिक कारण जरूर होता है। ऐसी ही एक परंपरा गुरुवार के दिन सफाई ना करने की। इससे जुड़ी हमारे शास्त्रों में विष्णु भगवान की एक कहानी है
जिसके अनुसार एक राजा जो कि विष्णु भगवान का भक्त था उसने गुरुवार के दिन अपने महल की साफ-सफाई करवा दी और जाले झड़वा दिए। जबकि कहानी के अनुसार उस दिन विष्णुजी लक्ष्मीजी सहित उसके महल में आने वाले थे। वैसे उस राजा को उस दिन विष्णु भगवान की पूजा करनी चाहिए थी। उनकी आराधना और आवाह्न करना चाहिए था।
लेकिन ऐसा कुछ नहीं करते हुए बल्कि उल्टा राजा ने उनके आने से पहले पूरे महल में सफाई काम फैला दिया। जब विष्णु भगवान लक्ष्मीजी के साथ उसके महल में पहुंचे तो धूल व जाले देखकर लक्ष्मीजी रूष्ट हो गई और वहां से चली गई और विष्णुजी ने जब देखा कि लक्ष्मीजी रूठ कर जा रही हैं तो वे भी वहां से चल दिए और उस राजा को शाप दे दिया कि आज से तुम लक्ष्मीविहिन रहोगे और गुरूवार के दिन जो भी घर में साफ-सफाई करेगा उसके घर में कभी लक्ष्मी निवास नहीं करेगी। इसी कहानी के कारण ऐसी मान्यता है कि गुरुवार के दिन घर की सफाई नहीं करना चाहिए।

...और मगर ने रानी को निगलने के लिए जकड़ लिया

थोड़ी देर बाद जब राजा नल का हृदय शांत हुआ ,तब वे फिर धर्मशाला में इधर-उधर घूमने लगे और सोचने लगे कि अब तक दमयन्ती परदे में रहती थी, इसे कोई छू भी नहीं सकता था। आज यह अनाथ के समान आधा वस्त्र पहने धूल में सो रही है। यह मेरे बिना दुखी होकर वन में कैसे रहेगी? मैं तुम्हे छोड़कर जा रहा हूं सभी देवता तुम्हारी रक्षा करें। उस समय राजा नल का दिल दुख के मारे टुकड़े- टुकड़े हुआ जा रहा था।
शरीर में कलियुग का प्रवेश होने के कारण उनकी बुद्धि नष्ट हो गई थी। इसीलिए वे अपनी पत्नी को वन में अकेली छोड़कर वहां से चले गए। जब दमयंती की नींद टूटी, तब उसने देखा कि राजा नल वहां नहीं है। यह देखकर वे चौंक गई और राजा नल को पुकारने लगी।
जब दमयंती को राजा नल बहुत देर तक नहीं दिखाई पड़ें तो वे विलाप करने लगी। वे भटकती हुई जंगल के बीच जा पहुंची। वहां अजगर दमयंती को निगलने लगा। दमयंती मदद के लिए चिल्लाने लगी तो एक व्याध के कान में पड़ी। वह उधर ही घूम रहा था। वह वहां दौड़कर आया और यह देखकर दमयंती को अजगर निगल रहा है। अपने तेज शस्त्र से उसने अजगर का मुंह चीर डाला। उसने दमयन्ती को छुड़ाकर नहलाया, आश्वासन देकर भोजन करवाया।

मंगलवार, 17 मई 2011

जीवन का सफर किसके भरोसे करें पूरा...

पं. विजयशंकर मेहता
अपनी जीवन यात्रा अपने ही भरोसे पूरी की जाए। यदि सहारे की आवश्यकता पड़े तो परमात्मा का लिया जाए। सहयोग संसार से लिया जा सकता है, पर इसके भरोसे न रहें। संसार के भरोसे ही अपना काम चला लेंगे यह सोचना नासमझी है, लेकिन केवल अपने ही दम पर सारे काम निकाल लेंगे, यह सोच मूर्खता है।
इसलिए सहयोग सबका लेना है लेकिन अपनी मौलिकता को समाप्त नहीं करना है। इसके लिए अपने भीतर के साहस को लगातार बढ़ाते रहें। अपने जीवन का संचालन दूसरों के हाथ न सौंपें। हमारे ऋषिमुनियों ने एक बहुत अच्छी परंपरा सौंपी है और वह है ईश्वर का साकार रूप तथा निराकार स्वरूप। कुछ लोग साकार को मानते हैं।
उनके लिए मूर्ति जीवंत है और कुछ निराकार पर टिके हुए हैं। पर कुल मिलाकर दोनों ही अपने से अलग तथा ऊपर किसी और को महत्वपूर्ण मानकर स्वीकार जरूर कर रहे हैं। जो लोग परमात्मा को आकार मानते हैं, मूर्ति में सबकुछ देखते हैं वह भी धीरे-धीरे मूर्ति के भीतर उतरकर उसी निराकार को पकड़ लेते हैं जिसे कुछ लोग मूर्ति के बाहर ढूंढ रहे होते हैं। भगवान के ये दोनों स्वरूप हमारे लिए एक भरोसा बन जाते हैं।
वह दिख रहे हैं तो भी हैं और नहीं दिख रहे हैं तो भी हैं। यहीं से हमारा साहस अंगड़ाई लेने लगता है। जीवन में किसी भी रूप में परमात्मा की अनुभूति हमें कल्पनाओं के संसार से बाहर निकालती है। भगवान की यह अनुभूति यथार्थ का धरातल है। व्यर्थ के सपने बुनकर जो अनर्थ हम जीवन में कर लेते हैं, परमात्मा के ये रूप हमें इससे मुक्त कराते हैं। क्योंकि हर रूप के पीछे एक अवतार कथा है।
अवतार का जीवन हमारे लिए दर्पण बन जाता है। आइने में देखो, उस परमशक्ति पर भरोसा करो और यहीं से खुद का भरोसा मजबूत करो।

स्वयंबर

दमयन्ती ने कैसे पहचाना असली राजा नल को?
स्वयंवर की घड़ी आई। राजा भीमक ने सभी को बुलवाया। शुभ मुहूर्त में स्वयंवर रखा। सब राजा अपने-अपने निवास स्थान से आकर स्वयंवर में यथास्थान बैठ गए। तभी दमयन्ती वहां आई। सभी राजाओं का परिचय दिया जाने लगा। दमयन्ती एक-एक को देखकर आगे बढऩे लगी। आगे एक ही स्थान पर नल के समान ही वेषभुषा वाले पांच राजकुमार खड़े दिखाई दिए। यह देखकर दमयन्ती को संदेह हो गया, वह जिसकी और देखती उन्हें सिर्फ राजा नल ही दिखाई देते। इसलिए विचार करने लगी कि मैं देवताओं को कैसे पहचानूं और ये राजा है यह कैसे जानूं? उसे बड़ा दुख हुआ। अन्त में दमयन्ती ने यही निश्चय किया कि देवताओं की शरण में जाना ही उचित है। हाथ जोड़कर प्रणामपूर्वक स्तुति करने लगी। देवताओं हंसों के मुंह से नल का वर्णन सुनकर मैंने उन्हें पतिरूपण से वरण कर लिया है।
मैंने नल की आराधना के लिए ही यह व्रत शुरू कर लिया है। आप लोग अपना रूप प्रकट कर दें, जिससे में राजा नल को पहचान लूं। देवताओं ने दमयन्ती की बात सुनकर उसके दृढ़-निश्चय को देखकर उन्होंने उसे ऐसी शक्ति दी जिससे वह देवता और मनुष्य में अंतर कर सके। दमयन्ती ने देखा कि शरीर पर पसीना नहीं है। पलके गिरती नहीं हैं। माला कुम्हलाई नहीं है। शरीर स्थिर है। शरीर पर धूल व पसीना भी नहीं है। दमयन्ती ने इन लक्षणों को देखकर ही राजा नल को पहचान लिया।

पूर्णिमा पर क्या और क्यों करना चाहिए?

कहते हैं किसी भी माह की पूर्णिमा को दान करने से इसका बहुत ज्यादा फल मिलता है। आखिर पूर्णिमा को ही दान क्यों किया जाए? इसके पीछे क्या कारण और दर्शन है? कौन सी बात है जो पूर्णिमा को इतना खास बनाती है? पूर्णिमा पर नदियों में स्नान के बाद दान का महत्व क्यों है? इस परंपरा के पीछे दार्शनिक कारण भी और वैज्ञानिक भी। पूर्णिमा पर नदियों में स्नान और फिर उसके बाद दान, दोनों अलग-अलग विषय है। स्नान सीधे हमारे स्वास्थ्य से जुड़ा और दान हमारे व्यवहार से।
पूर्णिमा पर चंद्रमा की रोशनी सबसे ज्यादा होती है। इससे कई ऐसी किरणें निकलती हैं जो नदियों के पानी, वनस्पति और भूमि पर औषधीय प्रभाव डालती हैं। इसलिए पूर्णिमा पर नदियों में स्नान करने से उस औषधीय जल का प्रभाव हम पर भी होता है, जिससे हमें स्वास्थ्यगत फायदा होता है। नदी में स्नान के बाद दान का महत्व इसलिए है कि चंद्रमा मन का अधिपति होता है।
चंद्रमा की किरणों से युक्त जल में स्नान करने से मन को शांति और निर्मलता आती है। दान का महत्व इसीलिए रखा गया है क्योंकि जब हम शांत और निर्मल होते हैं तो ऐसे समय अच्छे कार्य करने चाहिए ताकि हमारे व्यक्तित्व का विकास हो। दान करने से मन पर सद्भाव और प्रेम जैसी भावनाओं का प्रभाव बढ़ता है। इससे हमारे व्यक्तित्व का सकारात्मक विकास होता है।

कहानी

एक शहादत ऐसी भी!
सुरेंद्र शर्मा
चमनपुर पर घोर संकट आ गया था। शत्रु सेना ने चारों ओर से उसे घेर लिया था। किसी भी समय हमला हो सकता था। इस मुसीबत का सामना करने के लिए सेना तैयार नहीं थी। समय बहुत कम था। राजा तिमनपाल ने सेनापतियों और मंत्रियों की एक बैठक बुलाई। संकट से निपटने के लिए विचार-विमर्श किया जाने लगा।
सभी को असमंजस में पड़ा देखकर वृद्ध और सेवानिवृत सेनापति बोल पड़े, ‘चमनपुर की रक्षा मैं अकेले करुंगा।’
‘आप निश्चित हो जाइए, महाराज’, सेवानिवृत सेनापति महायायन आत्मविश्वास से बोले और उठकर बाहर चले गए।
शत्रु सेना गांवों और नगरों को रौंदती हुई दो दिन बाद चमनपुर के एकदम नज़दीक आ गई। एक दिन शत्रु सेना ने आसपास घूमते हुए वृद्ध महायायन को पकड़ लिया और अपने राजा के सामने पेश किया।
‘यह कौन है?’ राजा ने प्रश्न किया। ‘हुज़ूर, यह हमारे पड़ाव के आसपास घूम रहा था। शायद यह शत्रु का जासूस है’, सेनापति ने जवाब दिया। ‘नहीं’, महायायन गरजकर बोले। ‘मैं जासूस नहीं हूं बल्कि चमनपुर का सैनिक हूं। तुम चमनपुर को उजाड़ नहीं सकते। उसपर हमले का विचार छोड़ दो।’
‘यदि हम विचार न छोड़ें तो?’ शत्रु राजा ने ठहाका मारकर प्रश्न किया।
‘तब तुम्हें मेरी लाश पर से गुज़रना होगा’ वृद्ध ने दृढ़ता से कहा।
तभी शत्रु राजा को एक मज़ाक सूझा। ‘हम चमनपुर पर हमले का विचार त्याग सकते हैं, लेकिन हमारी एक शर्त है।’
‘तुम्हें नदी में डुबकी लगानी होगी। जितनी देर तुम्हारा सिर पानी में डूबा रहेगा, मैं आक्रमण नहीं करूंगा। लेकिन जैसे ही तुम्हारा सिर पानी से बाहर आया तो मेरी सेना कूच कर देगी।’ शत्रु राजा ने ठहाका मारकर कहा। वृद्ध महायायन गम्भीर थे। कुछ देर विचार कर वह बोले, ‘मुझे शर्त मंज़ूर है।’
भद्रावती नदी के तट पर भारी भीड़ थी। एक और शत्रु सेना कूच की तैयारी के साथ खड़ी थी, दूसरी और चमनपुर की जनता। महायायन नदी में कूद पड़े।
समय बीतता गया। एक घंटा हो गया पर महायायन का सिर पानी से ऊपर न आया। शत्रु राजा को संदेह हुआ कि बूढ़ा पानी के अंदर तैर कर भाग तो नहीं गया। उसने गोताखोर पानी में उतारे।
कुछ देर में वे एक लाश को निकाल लाए। वह लाश महायायन की ही थी। ‘महाराज’ गोताखोरों ने कहा, ‘इसने नदी के तल में एक चट्टान को हाथों से जकड़ रखा था। बड़ी मुश्किल से हम इसे चट्टान से अलग कर पाए।’
गोताखोरों का जवाब सुनकर शत्रु राजा सन्न रह गया। उस का दिल पिघल गया और वह हमला किए बगैर ही वापस लौट गया। दूसरे तट से महायायन की जय-जयकार गूंजने लगी।
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लोककथाः

चिड़ा-चिड़िया की कहानी
देवेश सिंगी
एक चिड़िया के जोड़े को अंडे देने के लिए घोंसला बनाना था। उन्होंने एक बूढ़े साधू से पूछकर उसकी लम्बी दाढ़ी में अपना घोंसला बनाया और उसमें दो अंडे दिए। एक शाम को चिड़िया अंडे सेने लगी थी और चिड़ा चिड़िया के लिए खाने की तलाश में गया। एक बड़ा-सा सुंदर कमल का फूल देखकर वह उसपर बैठकर उसका मीठा रस चूसने लगा। तभी आकाश काला होने लगा, रात घिरी और कमल बंद हो गया। चिड़ा भी उसमें बंद हो गया। वह जब घोंसले पर वापस नहीं आया, तो चिड़िया समझी कि वह उसे छोड़कर कहीं ओर चला गया है।
दूसरे दिन सुबह जब कमल फिर से खिला तो चिड़ा हांफता-कांपता हुआ वापस घोंसले में पहुंचा। चिड़िया बहुत नाराज़ थी। चिड़े ने लाख समझाया कि वह किस तरह कमल के अंदर बंद हो गया था। परंतु चिड़िया मानने को तैयार नहीं थी। चिड़ा चतुर था बोला, ‘मैं सौगंध खाकर कहता हूं कि यदि मैं झूठ बोल रहा हूं तो अभी इसी समय इस बूढ़े साधू का सिर कटकर धरती पर गिर जाए।’ साधू ने सुना तो वह गुस्सा हो गया। उसने उन्हें अपनी दाढ़ी में घोंसला बनाने की जगह दी और वह उसी के मरने की बात कह रहा है। उसने उसी समय घोंसला अपनी दाढ़ी में से निकाला और दूर एक घाटी में फेंक दिया। घोंसला घनी लम्बी घास पर जा गिरा। चिड़ा चिड़ी दोनों घबराए। लड़ना भूलकर वे उड़कर अंडों के पास गए। अंडे सुरक्षित देखकर उनकी जान में जान आई।
कुछ समय बाद अंडे फूटे और उसमें से प्यारे से बच्चे निकलकर चीं-चीं करने लगे। वे दोनों खुश थे परंतु एक दिन कुछ लोग घाटी में आए और सफाई करने के लिए घास में आग लगा दी। बच्चे बहुत छोटे-छोटे थे। उनके तो पंख भी नहीं निकले थे। दोनों क्या करें? आग लगातार पास आ रही थी। चिड़िया ने कहा, ‘मैं बच्चों के ऊपर और तुम नीचे रहो। हम अपने बच्चों के साथ ही मरेंगे। मैं पहले मरुंगी।’
परंतु चिड़ा नहीं माना, ‘नहीं, मैं ऊपर रहता हूं, तुम नीचे रहो। पहले मैं मरुंगा।’ अंत में यही तय हुआ कि चिड़ा ऊपर रहेगा। आग के नज़दीक आते ही चिड़ा फुर्ती से उड़ गया। आग ने घोंसले को जला दिया। चिड़िया और बच्चे मर गए। चिड़िया मर कर दूसरे जन्म एक राजा के यहां पैदा हुई परंतु उसे यह याद रहा कि कैसे धोखा देकर चिड़ा उन्हें मरने के लिए छोड़कर उड़ गया था। वह दुनिया के हर आदमी से इतनी नाराज़ थी कि वह किसी से बोलती भी न थी। चिड़ा भी कुछ समय बाद मर कर एक आदमी के रूप में पैदा हुआ। राजा ने घोषणा कर रखी थी, जो राजकुमारी को बात करना सिखा देगा वह उसका विवाह भी उससे कर देगा।
एक नवयुवक ने घोषणा सुनी। वह एक शोवा (बहुत बुद्धिमान व्यक्ति जिसे सभी कुछ मालूम होता है) के पास गया और उसकी मदद मांगी। शोवा चिड़िया के जलने वाली बात जानता था। उसने कहा, ‘तुम्हें याद है कि जब घाटी की बड़ी-बड़ी घास में आग लगी थी तब तुम चिड़िया और बच्चों को जलने के लिए छोड़कर उड़ गए थे। तुम वहां जाओ राजा के समाने तुम उसे चिड़ा-चिड़िया की वही कहानी सुनाना परंतु ध्यान रखना, यह कहने के बजाय कि तुम चिड़िया और बच्चों को जलता छोड़ कर उड़ गए थे, कहना कि चिड़िया घोसले के ऊपर थी और वह तुम्हें व बच्चों को जलने के लिए छोड़कर उड़ गई थी।’
वह नवयुवक राजा को साथ लेकर राजकुमारी के पास गया। और अपनी कहानी सुनाने लगा। बहुत समय पहले एक सुंदर चिड़िया का जोड़ा था। वे एक दूसरे को बहुत चाहते थे। उन्होंने मिलकर एक बूढ़े साधू की लम्बी दाढ़ी में घोंसला बनाया परंतु किसी बात पर गुस्सा होकर साधू ने घोंसला निकालकर घाटी की बड़ी-बड़ी घास पर फेंक दिया। कुछ लोगों ने घाटी की घास में आग लगा दी तो चिड़े ने चिड़िया से कहा मैं ऊपर रहता हूं तुम नीचे रहो। हम बच्चों के साथ ही मरेंगे। परंतु चिड़िया नहीं मानी। और उसने खुद ऊपर रहने की ज़िद की। परंतु जब आग पास आई तो वह फुर्र से उड़ गई। बेचारा चिड़ा बच्चों के साथ जलकर मर गया। राजकुमारी युवक के इस झूठ को सहन न कर सकी। वह गुस्से से लाल होकर चिल्ला पड़ी, ‘झूठ, बिलकुल झूठ। तेरी बात बिलकुल झूठ है। ऊपर चिड़ा था और वह धोखा देकर उड़ गया था।’
‘नहीं राजकुमारी जी, सच्चाई यही है कि चिड़िया ऊपर थी और मरने से डरकर उड़ गई थी।’ युवक ने फिर कहा।
वे दोनों ‘कौन बचा, कौन जला’ पर बहस करने लगे। दोनों अपनी-अपनी बात पर अड़े हुए थे। राजा चकित होकर उन्हें देख रहा था। अंत में उसने उन्हें रोककर कहा, ‘नौजवान, तुम्हारी इस चिड़ा-चिड़ी की कहानी का कुछ-कुछ मतलब मैं समझ गया हूं। लगता है तुमने जानबूझकर चिड़िया को धोखा दिया था परंतु तुम राजकुमारी को बुलवाने में सफल रहे हो अत: वादे के अनुसार मैं राजकुमारी का विवाह तुमसे करता हूं। इस बार उसे धोखा मत देना।’
युवक ने मुस्कुराकर राजकुमारी की ओर देखा। फिर दोनों का विवाह हो गया।
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कहानी

स्वर्ग का चाचा
Bhaskar
बहुत पहले की बात है। धरती पर दो सालों तक बिलकुल वर्षा नहीं हुई। अकाल पड़ गया।
अपने तालाब को सूखता देख कर मेढ़क मेंढक को चिंता हुई। उसने सोचा, अगर ऐसा रहा तो वह भूखा मर जाएगा। उसने सोचा कि इस अकाल के बारे स्वर्ग में जाकर वहां के राजा को बताया जाए।
साहस कर मेंढक अकेला ही स्वर्ग की ओर चल पड़ा। राह में उसे मधुमक्खियों का एक झुंड मिला। मक्खियों के पूछने पर उसने बताया कि भूखे मरने से अच्छा है कि कुछ किया जाए। मक्खियों का हाल भी अच्छा नहीं था। जब फूल ही नहीं रहे तो उन्हें शहद कहां से मिलता। वे भी मेंढक के साथ चल दीं।
आगे जाने पर उन्हें एक मुर्गा मिला। मुर्गा बहुत उदास था। जब फसल ही नहीं हुई, तो उसे दाने कहां से मिलते। उसे खाने को कीड़े भी नहीं मिल रहे थे। इसलिए मुर्गा भी उनके साथ चल दिया।
अभी वे सब थोड़ा ही आगे गए थे कि एक खूंखार शेर मिल गया। वह भी बहुत दुखी था। उसे खाने को जानवर नहीं मिल रहे थे। उनकी बातें सुन शेर भी उनके साथ हो लिया।
कई दिनों तक चलने के बाद वे स्वर्ग में पहुंचे। मेंढक ने अपने सभी साथियों को राजा के महल के बाहर ही रुकने को कहा। उसने कहा कि पहले वह भीतर जाकर देख आए कि राजा कहां है।
मेंढक उछलता हुआ महल के भीतर चला गया। कई कमरों में से होता हुआ वह राजा तक पहुंच ही गया। राजा अपने कमरे में बैठा परियों के साथ बातें कर रहा था। मेंढक को क्रोध आ गया। उसने लम्बी छलांग लगाई और उनके बीच पहुंच गया। परियां एकदम चुप हो गईं। राजा को एक छोटे से मेंढक की करतूत देख गुस्सा आ गया।
‘पागल जीव! तुमने हमारे बीच आने का साहस कैसे किया?’ राजा चिल्लाया। परंतु मेंढक बिलकुल नहीं डरा। उसे तो धरती पर भी भूख से मरना था। जब मौत साफ दिखाई दे तो हर कोई निडर हो जाता है।
राजा फिर चीखा। पहरेदार भागे आए ताकि मेंढक को पकड़ कर महल से बाहर निकाल दें। मगर इधर-उधर उछलता मेंढक उनकी पकड़ में नहीं आ रहा था। मेंढक ने मधुमक्खियों को आवाज दी। वे सब भी अंदर आ गईं। वे सब पहरेदारों के चेहरों पर डंक मारने लगीं। उनसे बचने के लिए सभी पहरेदार भाग गए।
राजा हैरान था। तब उसने तूफान के देवता को बुलाया। पर मुर्गे ने शोर मचाया और पंख फड़फड़ा कर उसे भी भगा दिया। तब राजा ने अपने कुत्तों को बुलाया। उनके लिए भूखा खूंखार शेर पहले से ही तैयार बैठा था।
अब राजा ने डर कर मेंढक की ओर देखा। मेंढक ने कहा, ‘महाराज! हम तो आपके पास प्रार्थना करने आए थे। धरती पर अकाल पड़ा हुआ है। हमें वर्षा चाहिए।’
राजा ने उससे पीछा छुड़ाने के लिए कहा, ‘अच्छा चाचा! वर्षा को भेज देता हूं।’
जब वे सब साथी धरती पर वापस आए तो वर्षा भी उनके साथ थी। इसलिए वियतनाम में मेंढक को ‘स्वर्ग का चाचा’ कह कर पुकारा जाता है। लोगों को जब मेंढक की आवाज़ सुनाई देती है वे कहते हैं, ‘चाचा आ गया तो वर्षा भी आती होगी।’

गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

ब्लॉग बतंगड़ से

भूषण को हम भगाएंगे कीचड़ उछालकर
रमाशंकर सिंह
भ्रष्टाचार से त्रस्त देश की सामान्य जनता के परित्राण के लिए अन्ना हजारे नामक एक फकीर ने दिल्ली के जंतर-मंतर चौराहे पर बैठ कर जन लोकपाल बिल के समर्थन में आमरण अनशन शुरू किया, जिसे देशव्यापी समर्थन मिला और अनशन के पांचवें दिन ही सरकार को घुटने टेकने पड़े जिसके परिणामस्वरूप सरकार ने ड्राफ्टिंग कमिटी के गठन की अधिसूचना जारी की। इस अधिसूचना में सरकार की ओर से पांच भीमकाय मंत्रियों-प्रणव मुखर्जी (वित्त मंत्री)-अध्यक्ष, पी. चिदंबरम (गृह मंत्री), वीरप्पा मोइली (विधि मंत्री), कपिल सिब्बल (मानव संसाधन एवं संचार मंत्री) तथा सलमान खुर्शीद (अल्पसंख्यक मंत्री) सदस्य- को कमिटी में नामजद किया गया और सिविल सोसायटी की ओर से जिन पांच कृशकाय लोगों को शामिल किया गया उनमें भूतपूर्व विधि मंत्री एवं सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील शांतिभूषण (सह- अध्यक्ष) उनके पुत्र प्रशांत भूषण, पूर्व जस्टिस संतोष हेगड़े, अन्ना हजारे और सामाजिक कार्यकर्ता तथा इंडिया अगेंस्ट करप्शन मूवमेंट के अगुआ अरविंद केजरीवाल सदस्य हैं।
ड्राफ्टिंग कमिटी बनाने की प्रक्रिया में अन्ना के प्रतिनिधियों की कपिल सिब्बल के साथ बातचीत के दौरान कुछेक कांग्रेसी शुभचिंतकों, मंत्रियों की ओर से जिस तरह की बयानबाजी की गई उसे मीडिया में देख-सुन कर कोई भी संवेदनशील आदमी यह सोचने पर विवश हो सकता था कि हे राम! इन्हें क्षमा कर देना क्योंकि इन निर्बुद्धों को खुद ही यह मालूम नहीं कि ये क्या और क्यों कह रहे हैं। मस्तिष्क मंथन के बाद अमृत या विषरूपी जो विचार सतह पर आया उसका लब्बोलुआब यह है कि इन भाई लोगों ने खुद को सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह की सरकार का सबसे बड़ा खैरख्वाह साबित करने की कोशिश की। मनु महाराज जो काफी दिनों तक अंतर्धान रहने के बाद राजनीतिक क्षितिज पर अचानक अवतरित हुए थे उन्होंने अपनी क्रोधातुर वाणी में कुतर्क किया कि अन्ना हजारे और उनकी टोली के लोग होते कौन हैं सरकार से अधिसूचना जारी करने की मांग करने वाले? किसने बनाया इन्हें सिविल सोसायटी का प्रतिनिधि? कुछ-कुछ इसी टोन में मैंने सूचना एवं प्रसारण मंत्री को बोलते सुना। हमेशा गंभीर और कभी-कभी हंसमुख दिखने वाली अम्बिका सोनी का वह तमतमाया चेहरा आज भी मेरी आंखों के सामने नाच-नाच जाता है। कांग्रेस के प्रवक्ताओं में मनीष तिवारी का तो जोश में होश खो देना समझ में आता है, लेकिन दिग्विजय सिंह जैसे परिपक्व और संवेदनशील नेता अन्ना और उनकी भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम को लेकर जिस तरह के बयान दे रहे हैं उससे तो यही लगता है कि 125 साल पुरानी यह राजनीतिक नाव अविश्वसनीयता के भार से दिन-ब-दिन दबती जा रही है और कभी भी डूब सकती है। नीति का एक श्लोक बरबस याद गया है जिसे पाठकों से शेयर करना मैं जरूरी मानता हूं:

परोक्षे कार्यहंतारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम्

वर्जयेतादृशं मित्रं विष कुंभं पयोमुखम्

इसका भावार्थ यह है कि पीठ पीछे काम बिगाड़ने वाले और मुंह पर ठकुर सुहाती बोलने वाले मित्र उस मटके के समान हैं जिसके घट में विष और मुख में दूध भरा हुआ है, इनसे बचना चाहिए।

अब जरा भ्रष्टाचार की लड़ाई में अन्ना का साथ देने की सोनिया गांधी और कांग्रेस की सदाशयतारूपी विवशता पर भी एक नजर डालना समीचीन होगा। जिस प्रकार का अभूतपूर्व एवं देशव्यापी जनसमर्थन अन्ना हजारे के अनशन को मिल रहा था उसे देखते हुए कांग्रेस के कर्णधारों के हाथ-पांव फूलने लगे थे। उन्हें लगा कि अगर इस समय अन्ना के आंदोलन को अधिक समय तक चलने दिया गया तो पांच राज्यों में आसन्न चुनावों में कांग्रेस की लुटिया डूब सकती है। सरकार को इस बात की भी खुफिया रिपोर्टें मिल रही थीं कि एक ओर योगी बाबा रामदेव भ्रष्टाचार के खिलाफ जनमानस को यह समझाने में सफलता प्राप्त कर रहे थे कि उनकी सभी समस्याओं का कारण भ्रष्टाचार और बेईमान नेता हैं, जिन्होंने जनता के खून-पसीने की कमाई को लूट-लूट कर विदेशी बैंकों में जमा कर रखा है, दूसरी ओर बैरागी बाबा अन्ना हजारे दिल्ली दरबार की छाती पर छोलदारी लगाकर अनशन पर बैठ गए हैं और जान देने पर आमादा हैं। इसलिए उन्होंने तात्कालिक उपाय के तौर पर अनशन को समाप्त कराने और बाद में अन्ना की टोली से तकनीकी तौर पर निपट लेने की रणनीति अपनाई। कपिल सिब्बल (परोक्षत:) दिग्विजय सिंह, मनीष तिवारी प्रत्यक्षत: और द ग्रेट फिक्सर अमर सिंह का सीडी अभियान इसी रणनीति के तहत चलाया जा रहा है। इस अभियान का उद्देश्य यह है कि नकटों की टोली के सामने नाक वाले सिविल सोसायटी के प्रतिनिधियों को टिकने न दिया जाए। थक-हार कर बेचारे आत्मसमर्पण करते हुए नैतिकता से तौबा कर लेंगे और कमिटी के सरकारी सदस्यों को अपनी पीठ थपथपाते हुए यह कहने का मौका मिल जाएगा कि 'हम तो भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में अन्ना का साथ देने को तैयार थे, लेकिन जब वे खुद ही दुम दबा कर भाग गए तो हम क्या करें?' यानी नतीजा हासिल सिफर। लोकपाल बिल का जिन्न एक बार फिर बोतल में बंद हो जाएगा और बाद में किसी सियासी लाभ के मद्दे नजर उसे दुबारा बाहर निकाला जा सकेगा।
चरित्र हनन अभियान के तहत जिस तरह कांग्रेस के कुछ हलकों से शान्ति भूषण की सम्पत्ति संबंधी बयान आ रहे हैं वे निराधार नहीं हैं। ऐसे बयानों की वजह कमिटी के गैर सरकारी सदस्यों या अन्ना-टोली की वह पहलकदमी है जिसके तहत उन्होंने पहली मीटिंग में जाने से पहले ही अपनी सम्पत्ति की घोषणा कर दी। कांग्रेस के किसी सदस्य ने न तो अब तक अपनी सम्पत्ति की घोषणा की और न ही उनका घोषणा करने का कोई विचार है। बेचारे करें भी तो कैसे, अन्ना ने सम्पत्ति घोषणा रूपी ट्रंप कार्ड इतनी जल्दी चल दिया कि उन्हें हिसाब-किताब लगाने का मौका ही नहीं मिल पाया। कैसे बताएं कि कितनी दौलत सफेद है और कितनी काली। कितनी भारत में है और कितनी की स्विस बैंक करता है रखवाली। इसलिए फिलहाल सबसे कारगर नुस्खा कांग्रेसियों को यही रास आ रहा है कि वे देश के सभी भ्रष्टाचारियों, बेईमानों को यह संदेश दें कि 'ओ बेईमान तू न तनिक भी मलाल कर/भूषण को हम भगाएंगे कीचड़ उछाल कर।'

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

भव्य शादी करने से पहले जरा सोचिए!

- वि‍शाखा दत्त
करीबी सहेली ने अपने घर का एक किस्सा सुनायाः उसके मौसाजी बैंक में साधारण-सी नौकरी करते थे। उन्होंने अपनी बेटी को बड़े लाड़-प्यार से पाला। जब उसकी शादी का वक्त आया तो बरसों से मन में संजोए सपने को साकार करने के लिए बड़ी 'धूमधाम' से लोन लेकर शादी की।

कुछ दिनों बाद वे इतने बीमार हो गए कि समय पूर्व रिटायरमेंट लेकर नौकरी छोड़ना पड़ी। पीएफ का आधा पैसा बीमारी के इलाज में लग गया। शादी की धूमधाम के लिए लिया लोन उनके लिए अब तक मुसीबत बना हुआ है। इस किस्से को सुन स्मृतियों में सुप्त एक विवाह समारोह बरबस ही याद आ गया।
6 माह पहले मेरे एक रिश्तेदार के बेटे ने आर्थिक संपन्नता के बावजूद अपनी शादी बहुत ही सादे तरीके से की। शादी में करीबी रिश्तेदारों के बीच फेरे की रस्म हुई। महँगे परिधानों, आभूषणों, रोशनी से जगमगाते मैरिज हॉल के बिना घर पर ही हुए एक सादा समारोह को देखकर मन को बहुत सुकून मिला।
वर निकासी न होने के कारण न तो ट्रैफिक जाम हुआ, न शादियों के आठ दिन पहले से शुरू होने वाले गीत-संगीत से पड़ोसी को परेशानी और न ही रिसेप्शन में भरी की भरी थालियों में छोड़ी गई जूठन से भोजन की बर्बादी हुई। साथ ही यह शादी पर्यावरण हितैषी भी लगी, क्योंकि उसमें डिस्पोजेबल का इस्तेमाल भी सीमित मात्रा में ही हुआ था। मन में पूरे समय यही विचार आता रहा कि काश देश में इस ढंग से शादियाँ करने का चलन बढ़े!
कुछ दिनों पूर्व एक राजनेता के बेटे को उपहार में हेलिकॉप्टर मिला और यह भव्य शादी अखबारों की सुर्खियों में छाई रही। भारत में अक्सर उद्योगपतियों, राजनेताओं और प्रसिद्घ व्यक्तियों की शादियाँ चर्चा का विषय बनती हैं। इन भव्य शादियों में करोड़ों रुपए शानो-शौकत और दिखावे पर पानी की तरह बहाए जाते हैं।
शादियों की भव्यता अब संपन्न परिवारों तक ही सीमित नहीं रही, बल्कि यह मध्यमवर्गीय परिवारों तक भी पहँच चुकी है। फिर भले ही इस भव्यता के शामियाने 'लोन' लेकर खड़े किए गए हों या फिर जिंदगीभर मेहनत से की गई गाढ़ी कमाई से।

भारत एक उत्सवप्रिय देश है। लोग दिल खोलकर उत्सवों में पैसा खर्च करते हैं, फिर चाहे वह उत्सव नवरात्रि का हो या शादी। इन भव्य शदियों की भव्यता दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। ये उस देश की सचाई है, जहाँ आज भी लाखों लोग भूखे पेट सोते हैं और कइयों को सिर्फ एक वक्त भोजन करके गुजारा करना पड़ता है, देश का आम आदमी आज भी आधारभूत सुविधाओं के लिए संघर्षरत है।
अब देश के युवाओं के लिए यह बात विचारणीय है कि शादियों पर इस तरह की फिजूलखर्ची कितनी जायज है? कुछ लोगों का मत है कि शादी जीवन में एक बार होती है तो कंजूसी क्यों की जाए! धूमधाम से शादी के फेर में ही लड़की के माता-पिता जिन्दगीभर कष्ट उठाते हैं।
सोचिए, गर शादियाँ सादगीपूर्वक होने लगें तो लोग बेटियों को भी बोझ नहीं समझेंगे। जन्म से ही उन्हें बेटी की शादी में होने वाले खर्च की चिंता नहीं सताएगी। इससे कन्या भ्रूण हत्याओं में भी कमी आएगी। युवाओं को चाहिए कि वे अपनी शादियों के भव्य तमाशे में पैसा बहाने की अपेक्षा समझदारी से पैसा खर्च करें। इसके लिए अपने माता-पिता से भी इस बात पर विचार करें। शादी में बेवजह दिखावे पर पैसा बर्बाद करने से तो बेहतर है कि किसी जरूरतमंद की मदद कर दी जाए।
शादी-ब्याह के मामले में लोग सोचते हैं कि अगर साधारण रूप से शादी कर दी तो समाज के लोग बातें बनाएँगे या इससे उनकी प्रतिष्ठा कम हो जाएगी। प्रतिष्ठा की चिंता किए बगैर आप अच्छे कार्य की पहल तो कीजिए, फिर समाज वाले भी आपका अनुकरण करने लगेंगे।
आप चाहें तो शादी के कुछ ऐसे नए रिवाज भी शुरू कर सकते हैं, जैसे संपन्न नवदंपति एक जरूरतमंद को पढ़ाई या प्रोफेशनल कोर्स करवाने में मदद करें, किसी को रोजगार मुहैया करवाएँ।
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ऐसे बुलबुलों से बचके रहना...

दीपाली एक पढ़ी-लिखी गृहिणी हैं, लेकिन उसकी हर समय बुराई करने की बहुत खराब आदत है। वह न माहौल देखती है, न ही समय, बस, शुरू हो जाती है। कभी उसका निशाना उसकी सासूजी होती हैं तो कभी देवरानी या ननद। एक बार शुरू होने पर तो उसको रोकना बड़ा मुश्किल हो जाता है।
सामने वाला टॉपिक चेंज भी करे तो थोड़ी देर बाद घूम-फिरके वह वहीं पहुँच जाती है। निंदापुराण उसका पसंदीदा विषय है। इसने इतना दिया, उसने उतना लिया जैसी फिजूल बातों में वह अपना समय तो बर्बाद करती ही है, दूसरों का भी मूड चौपट कर देती है।
आप नजर दौड़ाएँगी तो आसपास ही कई दीपाली मिल जाएँगी आपको। कई लोग सबको केवल टेंशन ही बाँटते रहते हैं। कई लोगों को तो इतना भी होश नहीं रहता कि हम कहाँ बैठे हैं? वे तो बस शुरू हो जाते हैं। ऐसे लोगों से लोग फिर कन्नाी काटने लगते हैं।
चाहे होटल का वेटर हो या वॉचमैन, घर के सेवक हों या आपके अधीन काम करने वाला, आपको सबसे अदब से बात करनी चाहिए, गुरूर से नहीं। आखिर हर इंसान का आत्मसम्मान होता है, अगर आपको सबके दिल में जगह बनानी है तो अपने अंदाजे बयाँ को रोचक बनाइए।
आपकी 'बॉडी लैंग्वेज' तो सलीकेदार हो ही, आपका लहजा भी लाजवाब होना चाहिए। कई लोग शिकायतों का पिटारा लिए घूमते हैं, अगर किसी से शिकायत है भी तो तीसरे आदमी से शिकायत करने से समाधान तो शायद ही निकले, बल्कि समस्या के बढ़ने के पूरे आसार नजर आते हैं। जिससे भी परेशानी हो उसी से बात करके उसे सुलझाया जाए तो बेहतर है। कई लोग सीधी बात करते ही नहीं हैं, वे घुमा-फिराके बात करने में माहिर होते हैं। आइए, कुछ इसी तरह के लोगों के बारे में जानते हैं।
दुःखियारे लोगः ये लोग उदासी की चादर ओढ़े, बिलकुल ठंडे किस्म के होते हैं। उनसे कोई गर्मजोशी से भी मिले तो भी उनके चेहरे पर न मुस्कराहट होती है, न उत्साह। वे किसी को हँसते हुए भी देखते हैं तो घूर-घूर के, मानो वे कोई गुनाह कर रहे हों।
व्यंग्यबाण चलाने वालेः इन लोगों से भी सावधान रहने की जरूरत है। वे एक तीर से दो निशाने साध लेते हैं। ताना मारने में तो ये लोग निपुण होते हैं। वर्षों की इकट्ठी सड़ी-गली बातें भी इनके दिमाग में तरोताजा होती हैं। मजाक की आड़ में ये कुछ भी कह जाते हैं, चाहे सामने वाले को कितना भी दुःख हो।
बहसबाजः बात-बात में बहस करने पे उतारू लोग भी तर्क-कुतर्क देकर सबसे उलझते रहते हैं।
बातूनीः ऐसे लोग सामने वाले को बोलने का मौका नहीं देते। ये लोग भी अपनी बातों का आकर्षण खो देते हैं। उनकी बातों को फिर कोई तवज्जो नहीं देता। इतनी वाचालता भाषा का स्तर भी गिरा देती है।
अपशब्दों का प्रयोग करने वालेः बात-बात पर गालियाँ देना इनका शगल होता है। इस तरह बात करके वे यह जताना चाहते हैं कि हममें बहुत नजदीकी रिश्ता है या घनिष्ठता है, लेकिन ये उनकी गलतफहमी होती है। गलत भाषा इस्तेमाल करने से रिश्ते की घनिष्ठता या आत्मीयता हर्गिज सिद्ध नहीं होती। ध्यान रखिए आपके दिल में सामने वाले के लिए कितना प्यार और सम्मान है, वह तो आपकी बातों से अंदाज लगाया जाएगा। आप किस तहजीब के साथ पेश आते हैं, इसी से आपके संस्कारों का पता चलता है।
स्वार्थी किस्म के लोगः ये भी हमेशा अपना मतलब पूरा करने की फिराक में होते हैं। लच्छेदार बातों का जादू चलाकर वे अपना फायदा उठा लेते हैं।
गॉसिप में डूबे-डूबेः इस किस्म के लोग भी बड़े फुर्सती होते हैं। दूसरों की जिन्दगी में बिना किसी कारण के झाँकना इनका शगल होता है। मुँह पर लच्छेदार व मीठी-मीठी बातें करने में इनका कोई सानी नहीं है। आपके पीछे ये आपका भी मजाक बना सकते हैं।
झूठी शान दिखाने वालेः अपनी हैसियत को बढ़ा-चढ़ाकर बताने के लिए ऐसे लोग झूठ का सहारा लेते हैं। कहीं से कोई चीज ५०० रु. की लाएँगे तो १००० रु. की बताने में उन्हें कोई हिचकिचाहट नहीं होती। शुरुआत में तो लोगों पर प्रभाव जमाने में ये माहिर होते हैं, लेकिन धीरे-धीरे लोग उन्हें जान जाते हैं।
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बुधवार, 19 जनवरी 2011

छत्तीसगढ़ की खबरें

वैज्ञानिक फॉर्मूले से बचाएंगे वन भैंसे की नस्ल

रायपुर.छत्तीसगढ़ के राजकीय पशु वन भैंसा (वाइल्ड बफेलो) की खत्म हो रही नस्ल ने वन विभाग की चिंता बढ़ा दी है। उदंती अभयारण्य में मौजूद सात वन भैंसों में से सिर्फ एक मादा है और गर्भधारण के दोनों ही बार इसने नर को जन्म दिया है। ऐसे में अब उम्मीदें वैज्ञानिक फॉमरूले पर टिक गई हैं। विभाग ने इनकी वंश वृद्धि के लिए कृत्रिम गर्भाधान की योजना बनाई है।
वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट आफ इंडिया (डब्लूटीआई) ने कृत्रिम गर्भाधान के सिस्टम का खाका बना लिया है। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय से हरी झंडी मिलने के बाद इसे अमल में लाया जाएगा।
राज्य के रिजर्व फॉरेस्ट उदंती में विचरण करने वाले वन भैंसे देश की इकलौती विशुद्ध नस्ल हैं। दूसरे अभयारण्यों में उनकी नस्ल बिगड़ चुकी है। यही वजह है कि डब्लूटीआई यहां के वन भैंसों की नस्ल को लेकर ज्यादा चिंतित है।
एकमात्र मादा के स्वास्थ्य ने बढ़ाई चिंता
एकमात्र मादा वन भैंसा के स्वास्थ्य की देखभाल के साथ-साथ सुरक्षित गर्भधारण करवाना वन विभाग के लिए बड़ी चुनौती है। इसे सुरक्षा देने के लिए उसे पिछले दो साल से बाड़े में रखा गया है। उसके लिए उदंती में पौने दो एकड़ में बाड़ा बनाया गया है। उसी बाड़े में नर भी है।
बाड़े में ही दो बार मां बनने के दौरान मादा वन भैंसा ने नर को जन्म दिया। अफसर इस बात को लेकर आशान्वित नहीं है कि तीसरी बार भी वह मादा वनभैंसा को जन्म देगी। अब उन्हें उसके स्वास्थ्य भी चिंता सताने लगी है। इस कारण भी वंश वृद्धि के लिए वैज्ञानिक तकनीक आजमाने का निर्णय लिया गया है।
शुद्धता पर नहीं पड़ेगा असर
डब्लूटीआई के छत्तीसगढ़ प्रभारी डा. राजेंद्र मिश्रा का कहना है कि वन भैंसों की नस्ल बढ़ाने के लिए यह फॉमरूला अपनाना जरूरी है। इसके जरिये पैदा होने वाली नस्ल बिलकुल शुद्ध होगी।
ऐसे बढ़ाया जाएगा वंश
उदंती में बाड़ के घेरे में बंद मादा वनभैंसा के अंडाणु को नर वनभैंसे के स्पर्म में मिलाया जाएगा। उसे पालतू मादा वन भैंसे में प्रविष्ट करवाकर गर्भधारण कराने के प्रयास होंगे। विशेषज्ञों के अनुसार 10-12 पालतू मादा वनभैंसों में यही फॉमरूला अपनाने से कोई न कोई मादा वनभैंसा को जन्म देगी। तीन-चार मादा वनभैंसों के जन्म के बाद नस्ल बढ़ाने में दिक्कत नहीं होगी।
उदंती में बाड़ के घेरे में बंद मादा वनभैंसा के अंडाणु को नर वनभैंसे के स्पर्म में मिलाया जाएगा। उसे पालतू मादा वन भैंसे में प्रविष्ट करवाकर गर्भधारण कराने के प्रयास होंगे। विशेषज्ञों के अनुसार 10-12 पालतू मादा वनभैंसों में यही फॉमरूला अपनाने से कोई न कोई मादा वनभैंसा को जन्म देगी। तीन-चार मादा वनभैंसों के जन्म के बाद नस्ल बढ़ाने में दिक्कत नहीं होगी।
"अभी पूरी योजना प्रारंभिक स्तर पर है। विशेषज्ञों से रायशुमारी के बाद इसका प्रोजेक्ट तैयार किया गया है। वन मंत्रालय से मंजूरी के बाद ही इस दिशा में आगे कदम उठाया जाएगा।"
-राकेश चतुर्वेदी, फील्ड डायरेक्टर वाइल्ड लाइफ

इंद्रावती राष्ट्रीय उद्यान में तलाशे जाएंगे बाघ
जगदलपुर/रायपुर.बीजापुर जिले के इंद्रावती राष्ट्रीय उद्यान में बाघ के होने के प्रमाण मिले हैं। वहीं इस टाइगर रिजर्व में बड़ी संख्या में चीतल, नीलगाय व कोटरी सहित वनभैंसे के होने की भी जानकारी सामने आई है।

नेशनल पार्क में माओवादी गतिविधियों के चलते बाहरी लोगों की आमदरफ्त न के बराबर होने और घास के मैदान की अधिकता से यहां की परिस्थितियां जंगली जानवरों के रहने के अनुकूल बताई गई है। हाल ही में भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद के एडीजी राकेश डोगरा और नेशनल बोर्ड आफ वाईल्डलाइफ की सदस्य प्रेरणा बिंद्रा ने भी इस इलाके का दौरा किया। उन्हें बड़ी संख्या में जंगली जानवरों के मल और उनके पैरों के निशान दिखे हैं।
अनुकूल हैं घास के मैदान :
सीएफ वाइल्डलाइफ अरूण पांडे ने बताया कि अभयारण्य में घास के कई जंगल उपस्थित है। अब तक नौ स्थानों पर घास के मैदान मिले हैं, जो कई सौ हेक्टेयर में फैले हैं। इनमें इड़ेपल्ली, ताड़मेंड्री, सालेपल्ली, पिल्लूर, सागमेटा, पिनगुंडा, मुचनेर, गुंडापुरी और नेती काकले शामिल हैं। इन जंगलों में नीलगाय व चीतल के गोबर एक ही स्थान पर पाए गए हैं।
इनकी विशेषता होती है कि ये जानवर एक ही जगह पर आकर मलत्याग करते हैं। जिससे यहां गोबर का ढेर लग जाता है। ये घास के मैदान दरअसल शेर के लिए किचन का काम करते हैं। यहां शेर शिकार करने आता है और भोजन लेकर चला जाता है।
बैलों का शिकार किया, बाघ होने का प्रमाण
अभयारण्य में बाघ की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए ताड़मेंड्री इलाके को प्रमुख रूप से चुना गया है। यहां ग्रामीणों ने बाघ द्वारा बैलों को मारने की शिकायत की थी। जिसके बाद इस इलाके में इसके प्रमाण भी मिले हैं। अब ऐसे स्थान पर ऑप्टिकल कैमरे लगाए जा रहे हैं जहां जंगली जानवर पानी पीने के लिए पहुंचते हैं।
इसके अलावा सेंड्रा इलाके के अन्नापुर और मट्टीमारका क्षेत्र में कैमरे लगाए जाने की योजना है। यह कार्य शीघ्र ही पूरा कर लिया जाएगा जिसके बाद जंगली जानवरों की उपस्थिति के साथ ही उनकी गणना में भी आसानी होगी।

अब खनकेगा 150 रुपए का सिक्का


देश में पहली बार 150 रुपए कीमत का सिक्का जारी किया गया है। गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की 150वीं जयंती वर्ष के मौके पर भारत सरकार ने यह सिक्का जारी किया है।
भारतीय स्टेट बैंक के विपणन कार्यपालक सुरेश शुक्ला ने बताया कोलकाता स्थित टकसाल द्वारा विशेष श्रंखला के तहत जारी 150 रुपए का सिक्का 40 मिलीमीटर व्यास का है और इसका वजन 35 ग्राम है।
चांदी,तांबा,निकेल और जिंक धातुओं के मिश्रण से निर्मित सिक्के में दातें (सिरेशन) की संख्या 200 है। इसी प्रकार 5 रुपए कीमत का टैगोर स्मृति विशेष श्रंखला सिक्का भी जारी किया गया है। इसका वजन 6 ग्राम और व्यास 23 मिलीमीटर है। इसमें 100 दातें हैं। यह सिक्का तांबा, निकेल एवं जिंक धातुओं के मिश्रण से बनाया गया है।
ये सिक्के भी होंगे जारी
इसी वर्ष भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना के 75 वर्ष पूर्ण होने पर 75 रुपए का विशेष सिक्का जारी किया जाएगा। कॉमनवेल्थ गेम्स की स्मृति में भी 100 रुपए का सिक्का जारी किया जा रहा है। इसी तरह इस साल देश में पहली बार 10 रुपए का पॉलीमर नोट लाया जा रहा है।

जहां बच्चे नहीं जानते पिता का नाम

सांवरडा गांव : बाड़मेर
गांव : बाड़मेर जिला का सांवरडा गांव
क्यों चर्चा में : यहां बच्चे अपने पिता का नाम तक नहीं जानते
कारण : नगरवधुओं का गांव है
कुल परिवारों की संख्या : 70
जीं हां बात आश्चर्यजनक लेकिन बाड़ेमेर जिले के सांवरडा गांव की कहानी तो यहीं कहती है। जब आप इस गांव में जाएंगे तो आपको यहां एक प्राथमिक स्कूल मिलेगा और यहां पढ़ने वाले बच्चे अपने पिता का नाम नहीं जानते। और कुछ सालों बाद इनकों जो मार्कशीट मिलेगी उस पर भी इनके पिता का नाम नहीं होगा क्योंकि स्कूल में भी इनकी पहचान इनकी माता के नाम पर ही दर्ज है। गांव में 70 परिवारों के करीब 45 बच्चों की जिंदगी का एक कड़वा सच है और ये बच्चे नहीं जानते कि वो पापा कहकर किसे बुलाएं।
दरअसल इस गांव में देह व्यापार में लिप्त एक जाति विशेष के लगभग सत्तर परिवार यहां रहते हैं इस बस्ती में देह व्यापार में लिप्त महिलाएं और उनके बच्चें निवास करते है।इन बच्चों को कभी पिता का नाम नहीं मिलता और ये बच्चे अपनी माताओं के नाम से ही जाने जाते है।
सत्तर परिवारों के इस गांव में 132 नगर वधुएं है और करीब 45 बच्चें है। इस गांव में प्राथमिक स्तर का एक विद्यालय है जिसमें इनके बच्चें शिक्षा ग्रहण करते है।

रविवार, 16 जनवरी 2011

छत्तीसगढ़ की खबरें

चाय-नाश्ते’ का पैसा दो तब होता है रजिस्ट्रेशन
राजधानी स्थित स्टेट फार्मेसी काउंसिल के कार्यालय में प्रदेशभर से रजिस्ट्रेशन और नवीनीकरण के लिए आने वाले छात्रों को लूटा जा रहा है। इन बेरोजगारों से दफ्तर के बाबू चाय-नाश्ते के नाम पर खुलेआम पैसा मांगते हैं। इसकी जानकारी जिम्मेदारों को भी है, लेकिन वे कार्रवाई के बदले बहाने कर रहे हैं।

डीबी स्टार टीम ने स्टिंग ऑपरेशन में गीतांजली नगर स्थित छत्तीसगढ़ स्टेट फार्मेसी काउंसिल के दफ्तर में खुलेआम चल रही घूसखोरी को पकड़ा है। यहां रोजाना प्रदेशभर से डी. फार्मेसी और बी. फार्मेसी के सैकड़ों छात्र रोजगार के लिए जरूरी रजिस्ट्रेशन व नवीनीकरण करवाने आते हैं। स्टिंग में सामने आया कि यहां शासन द्वारा निर्धारित फीस की रसीद देकर चाय-नाश्ते के नाम पर 500 से 1000 रुपए तक अधिक लिए जा रहे हैं। इनके द्वारा नया रजिस्ट्रेशन करवाने आए छात्रों से ही ज्यादा पैसों की मांग की जाती है। हद तो यह है कि यहां आने वाले छात्र व पालक जब तक बाबुओं (तृतीय और चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी) को चढ़ावा नहीं चढ़ाते तब तक उनका काम अटकाकर ही रखा जाता है। इसके अलावा जल्द काम करवाने के नाम पर भी छात्रों और पालकों से अधिक पैसे ऐंठे जा रहे हैं।

इस तरह किया खुलासा
मिली शिकायत पर डीबी स्टार टीम 10 जनवरी 2011 को छत्तीसगढ़ स्टेट फार्मेसी काउंसिल के रजिस्ट्रार कार्यालय में पहुंची। इस दौरान रिपोर्टर अपने छोटे भाई को डी.फार्मा डिप्लोमाधारी बताकर रजिस्ट्रेशन करवाने की जानकारी ली। यहां बैठकर छात्रों से उगाही कर रहे बाबुओं ने पहले 100 रुपए का फॉर्म खरीदने को कहा। जब कर्मचारियों से पूछा गया कि कब तक काम हो जाएगा तो उन्होंने कहा फॉर्म के साथ पैसा लेकर आ जाना सब तुरंत हो जाएगा। कितना पैसा पूछा तो बोले, उसी समय बताएंगे। इस पूरी प्रक्रिया के दौरान टीम ने देखा कि कर्मचारियों का रैकेट छात्रों से निर्धारित 300-350 शुल्क लेने के अलावा चाय-नाश्ते के लिए दोगुना पैसा तक ले लेते हैं।
पकड़े न जाएं इसलिए कर रखे हैं इंतजाम
बाबुओं ने पकड़े न जाने के लिए पुख्ता इंतजाम कर रखे हैं। वे छात्र के अंदर आते ही दरवाजा बंद कर देते हैं। छात्र या तो अकेले या अपने पालक के साथ ही अंदर जा सकता है। इस पर डीबी स्टार टीम ने कुछ छात्रों को हिडन वीडियो कैमरा देकर अंदर भेजा। इस दौरान हुई रिकॉर्डेड बातचीत..

?कर्मचारी- किसका नवीनीकरण करवाने आए हो, वह खुद क्यों नहीं आई?
—मेरी बहन का है, वह कॉलेज गई है इसलिए मैं ही आ गया हूं। उसके दस्तावेज के साथ मैं हस्ताक्षर के मिलान के लिए ड्राइविंग लाइसेंस और पैन कार्ड लेकर आया हूं।
?चलो इस बार तो करे दे रहा हूं पर दोबारा ऐसा नहीं चलेगा, तुम्हारी बहन को ही आना पड़ेगा?
—ठीक है सर।
(इसी दौरान वहां बैठे अनिरुद्ध नामक कर्मचारी ने युवक द्वारा निर्धारित फीस 300 रुपए दिए जाने के बाद चाय-नाश्ते के लिए और पैसे मांगे..)
—सर, अभी तो इतना ही लाया हूं। वैसे भी रजिस्ट्रेशन के समय तो आपने जितना मांगा था, उतना दिया ही। अब और क्या लेंगे।
अलाव से जल गईं दो बच्चियां
कवर्धा/रायपुर। शहर से 30 किमी दूर रानीदहरा गांव में दो बच्चियों की जलने से मौत हो गई, जबकि उनके दादा गंभीर रूप से झुलस गए। घटना के समय तीनों झोपड़ी में सो रहे थे। 60 वर्षीय लामू अपने खलिहान के पास बनी झोपड़ी में शुक्रवार रात सोने जा रहे थे।
उनकी पौत्री चार वर्षीय सीमा और 10 साल की श्यामवती भी साथ सोने चली गईं। ठंड से बचने के लिए लामू ने झोपड़ी के पास ही अलाव जला रखा था। 11 बजे के करीब अचानक झोपड़ी में आग लग गई। लामू किसी तरह बाहर निकला और आसपास के लोगों को आवाज लगाई। जब तक लोग आग बुझाने पहुंचे, दोनों बच्चियां दम तोड़ चुकी थीं। वहीं लामू की स्थिति चिंताजनक है। बोड़ला टीआई यूके वर्मा ने घटना की पुष्टि करते हुए बताया कि जलने से ही बच्चियों की मौत हुई है।
सौतेली थीं दोनों बच्चियां
मृत दोनों बच्चियां सौतेली बहनें थीं। पिता सुक्कलराम मेरावी ने दोनों बच्चियों को अपने पास ही रखा था।

सोमवार, 3 जनवरी 2011

बिछुड़े प्यार को भूल जाना बेहतर

- मानसी
NDहेलो दोस्तो! जब आप कोई पाठ याद करना चाहें तो कितनी मुश्किल होती है। बार-बार उसे दुहराना। थोड़ा समय बीतने पर फिर उसे याद करके चेक करना कि कहीं आप उसे भूल तो नहीं गए। याद रखने के लिए कई तरीके ईजाद किए गए हैं। कोई किसी रूखे-सूखे जवाब को तुकबंदी बनाकर याद करने की कोशिश करता है तो कोई बार-बार लिखकर या फिर तारीखों को अपनी निजी तारीखों से जोड़कर याद करता है।
आप किसी को भी थोड़ा-ज्यादा काम बता दें वह कुछ न कुछ भूल ही जाता है। दफ्तरों में भी लोग न जाने कितनी डायरी, कितने प्लैनर इसी काम के लिए भरते रहते हैं। फिर भी अपनों का जन्मदिन, शादी की सालगिरह आदि याद रखना आसान नहीं लगता है तो मोबाइल में रिमाइंडर लगाते हैं। ये सारे जतन बस इसलिए किए जाते हैं कि आप भूलें न।
पर उस समय आप हैरान रह जाते हैं जब एक मामूली सी, छोटी-सी बात भूलना चाहें और हजार कोशिश के बावजूद आप उसे भूल न पाएँ। उन बातों को जिसे आपको याद करने के लिए कोई प्रयास नहीं करना पड़ा पर उसे भुला पाना असंभव लग रहा हो। आप के लिए उस पीड़ा को बयान करना मुश्किल हो जाता है जब अनचाही यादें आ-आकर आपको बताती हैं कि आप उन्हें भूल नहीं पाओगे।
ऐसी ही यादों को पूरी तरह भूल जाना चाहते हैं महेश (बदला हुआ नाम)। महेश का प्यार टूटे दो वर्ष हो गए हैं पर अभी तक महेश एक पल के लिए भी अपनी दोस्त को नहीं भूल पाए हैं। महेश से अलग होने के बाद उनकी दोस्त ने एक बार भी पलट कर नहीं देखा। न कभी मिलने या बात करने की कोशिश की। दोनों के पहचान वालों के सामने भी कोई जिक्र नहीं छेड़ा। अलग होने के बाद ऐसी खामोश हुई मानो उसे जानती ही नहीं।
इधर महेश हैं कि अब भी उसका इंतजार कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि उनके गम से निजात और खुशी की वजह केवल उनकी दोस्त है, जो बस एक बार फिर मिल जाए।
महेश जी, आपको अपने-आप से भी शिकायत है कि वह इतनी बेदर्द है फिर भी आप उसे जी जान से चाहते हैं। दरअसल, यह आपका पहला प्यार था इसलिए आप हजार गिले-शिकवे के बाद भी वहीं अपना सुकून व मंजिल महसूस करते हैं। इस प्यार की तुलना करने के लिए आपके पास दूसरा कोई अनुभव भी नहीं है। आप लोगों के बीच क्यों झगड़ा हुआ, क्यों आप लोग अलग हुए, किस प्रकार का मन-मुटाव या गलतफहमी हुई इसके बारे में आपने कुछ नहीं लिखा है। पर, दो वर्ष तक उसे याद करके उदास होने से यह बात तो तय है कि आप में एक प्रकार का गहरा कमिटमेंट है और साथ ही शिकायतों को नजरअंदाज कर माफ करने की क्षमता भी है।
ऐसा मुमकिन नहीं है कि आपकी ये खूबियाँ आपकी दोस्त की नजरों से ओझल होंगी। आपके एकतरफा चाहत की बात भी उन तक पहुँचती होगी। आपके इंतजार की खबरें भी उन्हें मिलती होंगी। इसके बावजूद वह आपसे कोई संवाद नहीं रखना चाहती हैं तो इसका सीधा सा मतलब है कि वह इस अध्याय को बंद कर देना चाहती है। दो साल का अरसा बहुत बड़ा समय होता है। नाराजगी की बर्फ इस बीच पिघल जानी चाहिए थी।
ऐसा नहीं हुआ है तो इसका एक ही मतलब है कि वह अब कभी नहीं लौटेंगी। इसलिए किसी चमत्कार का इंतजार करना बेकार है। आप में सबसे अच्छी बात यह है कि आप जीवन जीना चाहते हैं, खुश रहना चाहते हैं। आपने लिखा, आपको दूसरा कोई और भाता नहीं है। शायद इसकी वजह यह हो कि आप अपनी दोस्त को गलत न समझते हों।
इसका एक ही मतलब है कि वह अब कभी नहीं लौटेंगी। इसलिए किसी चमत्कार का इंतजार करना बेकार है। आप में सबसे अच्छी बात यह है कि आप जीवन जीना चाहते हैं, खुश रहना चाहते हैं।हो सकता है, इस अलगाव की वजह के पीछे आप हों और उन्होंने आपकी इस भूल को आपकी तमाम खूबियों पर भारी माना। आप नौकरी करते हैं इसलिए आप व्यस्त रह सकते हैं। फिलहाल आप अपनी नौकरी यानी जिम्मेदारियों से प्यार करना शुरू कर दें। यदि आपकी कोई हॉबी हो जिसे आपने अभी तक ज्यादा समय नहीं दिया है तो उसे समय दें।
व्यायाम करें अपनी सेहत के बारे में सोचें। रोज सुबह टहलें और खाने-पीने में सुधार करें। फल-सब्जी, अंकुरित अनाज खाएँ। चाय-कॉफी कम कर दें। अपने पहनावे पर ध्यान दें। अच्छे स्टाइलिश कपड़े खरीदें। खुद को सँवारने-सजाने पर समय लगाएँ। सबसे अहम आप हैं। अपने आप से प्यार करें। दुनिया- जहाँ की खबरें देखें और अपना ज्ञान बढ़ाएँ। अपने कॅरिअर में आगे बढ़ने की सोचें।
यदि आपने ये सब पूरी लगन और गंभीरता से किया तो आपका व्यक्तित्व ही कुछ और हो जाएगा। आपको अपनी दोस्त की यादों से न केवल मुक्ति मिलेगी बल्कि आप अपने दम पर खुश होना सीख जाएँगे। जब आप अपने आपको सराहेंगे और दूसरे भी आपकी तारीफ करेंगे तो आपके खयालों में सोच के केंद्र बिंदु में आप होंगे।
दूसरी छवि गायब होती जाएगी और वह दिन दूर नहीं होगा जब आप फिर किसी और से भी प्यार या शादी की स्थिति में होंगे। आप नए अनुभव से डरते हैं क्योंकि आप हर समय, अपनी दोस्त से उसकी तुलना करते रहते हैं। अभी आप किसी प्रेम-प्रेमिका के बारे में न सोचें। कुछ दिन अकेले रहकर अपने-आप पर ध्यान दें, सब कुछ ठीक हो जाएगा।

बेवफाई हुई हाईटेक

प्यार और विश्वास हाइटेक हुआ हो या नहीं, बेवफाई जरूर इन दिनों हाइटेक हो गई है। वर्चुअल दुनिया विवाहेतर रिश्तों की राह सुगम बना रही है। जो सुविधाएँ दूरियों को कम करने के लिए जानी जाती हैं, वे ही अब रिश्तों में दूरियाँ बढ़ाने में भी योगदान कर रही हैं।
आशिमा (नाम परिवर्तित) की जिंदगी दफ्तर, घर और पति के बीच करीब-करीब इसी प्राथमिकता क्रम से चल रही थी, या कहें भागी जा रही थी। शादी को पाँच साल होने आए थे और आशिमा तथा उसका पति अश्विन अपना-अपना करियर बनाने में व्यस्त थे। सुबह से लेकर देर रात तक की व्यस्त दिनचर्या में उनके लिए एक-दूसरे के लिए समय निकालना बहुत मुश्किल था।
आशिमा एक दि‍न यह देखकर दंग रह गई कि अश्विन के मोबाइल में 'एस' नाम से सेव किए गए किसी नंबर से आए मैसेजेस का अंबार लगा था... और इन मैसेजेस के कंटेंट ने अश्विन के प्रति आशिमा के विश्वास को तार-तार कर दिया।
'एस' जो भी थी, वह अश्विन को लगातार आत्मीय, उत्तेजक यहाँ तक कि कामुक प्रकृति के संदेश भेज रही थी... और अश्विन की ओर से भी उसे वैसे ही बल्कि उससे भी दो कदम आगे के मैसेज जा रहे थे! उस दिन आशिमा ने खुद को हाइटेक बेवफाई के शिकार लोगों की बढ़ती फेहरिस्त में पाया।
NDनए मौके, नई सुविधाएँ
बेवफाई का सिलसिला यूँ तो उतना ही पुराना है जितना कि प्यार का लेकिन इन दिनों बेवफाई के लिए नए 'मौके', नई 'सुविधाएँ' उपलब्ध हैं। जिस टेक्नोलॉजी ने शहरों, देशों और महाद्वीपों की दूरियाँ समाप्त कर लोगों को पास लाने का काम किया है, वही टेक्नोलॉजी रिश्तों में दूरियाँ लाने में भी सहयोग करती देखी जा रही है।
मोबाइल के अलावा ईमेल, इंटरनेट के चैट रूम, स्काइप आदि ने बेवफाई के मौकों को नए आयाम दिए हैं। आज की युवा पीढ़ी टेक्नो-सैवी तो है ही, गला-काट प्रतिस्पर्धा और करियर बनाने की होड़ में वह अक्सर व्यक्तिगत भावनात्मक संबंध बनाने और निभाने में खुद को नाकाम होता पाती है।
जीवन के इस अहम पहलू के खालीपन को भरने के लिए नए जमाने के गैजेट्स उसे बड़ा सहारा देते हैं। अश्विन का जिस लड़की से अफेयर चल रहा था, उससे वह मिला तो था केवल दो-एक बार काम के सिलसिले में की गई यात्राओं के दौरान लेकिन फोन पर दोनों का अफेयर लगातार चला आ रहा था।
परंपरागत रूप से तब बेवफाई की गई मानी जाती है जब दंपत्ति में से कोई एक किसी और के साथ दैहिक संबंध बना ले या इस दिशा में बढ़े। आज इसकी परिभाषा बदल गई है। मूल मुद्दा है अपने पार्टनर के विश्वास को तोड़ना।
चाहे रिश्ता कितना ही लांग डिस्टेंस क्यों न हो, भले ही दूरियों के कारण या अवसरों की अनुपलब्धता के चलते दैहिक संबंध न बन पाए हों और न ही उनके बनने की संभावना हो लेकिन यदि आपने अपने पार्टनर का विश्वास तोड़ा है तो आपने बेवफाई की है।
सामान्य मित्रता की हद को लांघते हुए स्थापित किया गया कोई भी रिश्ता, भले ही वह वास्तविक न होकर 'वर्चुअल' हो, बेवफाई की जद में आता है। मैरिज काउंसलर बताते हैं कि यही वर्चुअल बेवफाई इन दिनों खास तौर पर महानगरों में बढ़ती हुई देखी जा रही है।

छुपने के रास्ते, बचने का तरीका
टेक्नोलॉजी न केवल शारीरिक उपस्थिति के बिना विवाहेतर संबंधों को बनाने की सुविधा दे रही है, बल्कि अपनी करतूतों को छुपाने के भी रास्ते उपलब्ध करा रही है। मोबाइल के कॉल लॉग और मैसेजेस को डिलीट कर अपने साथी से अपनी कारगुजारियाँ छुपाई जा सकती हैं।
नेट पर अपने परिचितों से बचकर, अपनी पहचान बदलकर चैटिंग की जा सकती है। सोश्यल नेटवर्किंग साइट्स गुमनाम रहकर अफेयर चलाने के लिए खुला मैदान मुहैया कराती हैं।
सौजन्य से - तरंग, नई दुनि‍या

रविवार, 2 जनवरी 2011

छत्तीसगढ़ की खास खबरें

फर्जी हस्ताक्षर कर दी 79 को सरकारी नौकरी
छत्तीसगढ़ के पंचायत विभाग में नौकरी देने के नाम पर बड़ा फर्जीवाड़ा सामने आया है। इसमें विभाग के पुराने संचालक के हस्ताक्षर कर 79 लोगों की नियुक्ति और पदस्थापना के आदेश जारी कर दिए गए। महत्वपूर्ण बात यह है कि उक्त संचालक का तबादला 20 सितंबर को हो गया था, जबकि आदेश 8 दिसंबर की तारीख पर जारी किए गए हैं।
इस मामले में शनिवार को रायपुर के गोलबाजार थाने में रिपोर्ट दर्ज करा दी गई है। पंचायत विभाग के पूर्व संचालक जीएस धनंजय के हस्ताक्षर से राज्य के विभिन्न जिलों में सहायक आंतरिक लेखा परीक्षण एवं करारोपण अधिकारी के पद 79 लोगों की नियुक्ति की गई। इससे संबंधित फाइल जब पंचायत मंत्री रामविचार नेताम के पास गई तो उन्हें संदेह हुआ क्योंकि धनंजय का तबादला तो अक्टूबर माह में ही हो गया था। श्री नेताम ने विभाग के अफसरों को पूरे मामले की पड़ताल करने के आदेश दिए। उसके बाद आदेश की जांच की गई तो फर्जीवाड़ा सामने आ गया।
सामान्य प्रशासन विभाग के आदेश के अनुसार जीएस धनंजय के स्थान पर 20 सितंबर को बीएस अनंत को पंचायत का संचालक बनाया गया था। उसके बाद 26 नवंबर से आलोक अवस्थी विभाग के संचालक हैं। इसकी पूरी जानकारी मंत्री श्री नेताम को दी गई तो उन्होंने इस मामले में दोषी लोगों के खिलाफ कार्रवाई करने के निर्देश दिए। उसके बाद गोलबाजार थाने में लिखित में मामले की शिकायत की गई।

नौकरी के नाम पर उगाही का शक
अनुमान है कि इस खेल में लिप्त लोगों ने बेरोजगारों को नौकरी देने के नाम पर उगाही की होगी। जिन लोगों की नियुक्ति और पदस्थापना की गई है, उनमें से कोई भी विभाग का पुराना कर्मचारी नहीं है। इस कारण यह माना जा रहा है कि यह बेरोजगारों से ठगी का बड़ा मामला है।
जीएस धनंजय के नाम से पूर्व में जारी आदेश के उस हिस्से की फोटोकापी की गई जहां उनके हस्ताक्षर हैं। इसमें फोटोकापी में डेट बदलकर फिर नई फोटोकापी की गई जिसमें 8 दिसंबर की तारीख डाली गई।
फर्जी नियुक्ति पत्र के आधार पर किसी को नौकरी पर नहीं रखने के आदेश सभी जिलों में जारी कर दिए गए हैं। इसके अलावा सभी जिलांे में कलेक्टर और एसपी को भी ऐसे लोगों के सामने आने पर सीधे कानूनी कार्रवाई के लिए पत्र लिखा गया है।
आलोक अवस्थी, संचालक, पंचायत विभाग

बेघरों को मिला रैन बसेरा
बिलासपुर शहर में रहने वाले आवासहीन भिखारियों को मूलभूत सुविधाएं मुहैय्या कराने की संवेदनशील पहल करते हुए जिला प्रशासन द्वारा उन्हें रैन बसेरा उपलब्ध कराया गया है।
राज्य कीर स्थापना की दसवीं वर्षगांठ पर जिला प्रशासन द्वारा संवेदनशील पहल करते हुए रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड, फुटपाथ पर जीवन गुजारने वाले गरीबों को ठंड, बरसात के मौसम में एक सुरक्षित ठिकाना उपलब्ध कराने के लिए अधिकारियों की एक टीम गठित कर सर्वे कराया गया।
टीम ने रात में 10 बजे से 12 बजे तक शहर में भ्रमण कर ऐसे लोगों को चिन्हित किया तथा 18 वर्ष से कम तथा 18 से 50 वर्ष और 50 वर्ष से उपर के निराश्रित लोगों की पृथक-पृथक सूची तैयार की। ऐसे व्यक्तियों में 174 पुरुष और 94 महिलाएं तथा 18 वर्ष तक के 27 बच्चे शामिल किए गए।
इन व्यक्तियों के लिए विभिन्न सामाजिक संगठनों के सहयोग से अस्थाई रूप से रैन बसेरा की व्यवस्था की गई तथा उन्हें ठंड से बचाने के लिए कंबल वितरित किया गया। रैनबसेरा में रहने वाले लोगों को प्रतिदिन भोजन की व्यवस्था भी इन्ही संगठनों के सहयोग से की जा रही है।

शतरंज खिलाड़ी ने लगाया अनाचार का आरोप
बिलासपुर शादी के मारपीट करने पर अंतरराष्ट्रीय शतरंज खिलाड़ी महिला ने खिलाड़ी पति पर बलात्कार का आरोप लगाते हुए पुलिस से शिकायत की है। कोनी पुलिस ने खिलाड़ी के खिलाफ जुर्म दर्ज कर लिया है।
कोनी कृष्ण विहार निवासी पीड़ित महिला की शिकायत के मुताबिक 6 माह पूर्व विदेश में अंतरराष्ट्रीय शतरंज स्पर्धा के दौरान झारखंड में रेलवे में पदस्थ शतरंज खिलाड़ी इमरान हुसैन से उसकी मुलाकात हुई।
इस दौरान दोनों के बीच प्रेम संबंध स्थापित हो गया। महिला का कहना है कि दोनों ने मर्जी से शादी भी कर ली। इसके बाद वह वापस आ गई और इमरान झारखंड चला गया। महिला के मुताबिक 28 दिसंबर को इमरान कोनी आया था।
इस दौरान उसके घर के सामने इमरान ने उससे मारपीट की थी। महिला दो माह से गर्भवती है। मारपीट की घटना के बाद महिला ने कोनी थाने में इमरान पर बलात्कार का आरोप लगाते हुए रिपोर्ट दर्ज कराई है। पुलिस ने जुर्म दर्ज कर लिया है।

अंकों के आधार पर जाने जाते हैं गांव
डीएनके प्रोजेक्ट के तहत बंगलादेश से विस्थापित बंग परिवारों को पखांजूर क्षेत्र में बसाया गया। तत्कालिक व्यवस्था के तहत गांवों का नामकरण अंकों के आधार पर कर दिया गया। 1986 में जब प्रोजेक्ट समाप्त कर राज्य शासन को स्थानांतरित किया तो राज्य शासन द्वारा इन गांवों का नामकरण किया गया लेकिन इतने वर्षों बाद भी गांवों का नाम प्रचलन में नहीं आ पाया है। आज भी अधिकांश लोग अपने या दुसरे गांवों को डीएनके के दौरान आबंटित अंकों के आधार पर ही जानते है।
1962 में क्षेत्र में विस्थापित बंग परिवारों को पुर्नवास कराने हेतु डीएनके प्रोजेक्ट की शुरूआत केंद्र शासन द्वारा की गई। 1972 तक डीएनके द्वारा नए गांव बसाए जाते रहे। इस तरह पीवी 1 से पीवी 133 तक कुल 133 गांव बसाए गए और क्रम से इन्हें नंबर दिया जाता रहा। कुछ गांव को अपवाद स्वरूप छोड़ दिया जाए तो सारे गांव क्रम से ही बसाए गए जिसकी शुरूआत कापसी क्षेत्र के पीवी 1 परलकोट गांव से 1 से हुई और अंत बांदे क्षेत्र में हुआ। इन अंको का सर्वाधिक फायदा यह है कि इससे उस गांव की भौगोलिक स्थिति जान सकते है कि यह गांव पखांजूर, कापसी या बांदे किस क्षेत्र में है। अंकनुमा गांव का नाम लोगों की जुबान पर कुछ ऐसा चढ़ा की राज्य शासन द्वारा दिए गए नाम प्रचलन में नही आ पा रहे है। प्रशासनिक कार्यों में अब राज्य शासन द्वारा आबंटित गांव का नाम जरूर लिखा जाता है किंतु उसके उस अंक भी लिख दिए जाते है। जब से ग्राम पंचायत व्यवस्था राज्य शासन ने लागू की है तब से पंचायत मुख्यालय का नाम जरूर लोगों द्वारा लिया जाने लगा है लेकिन आश्रित ग्राम आज भी अंकों के आधार पर ही जानेे जाते है।

शुरू होने से पहले ही बंद कॉल सेंटर
रायपुर.स्कूल में शिक्षक देर से आते हैं? पढ़ाई नहीं हो रही? कक्षा में बैठने के लिए जगह नहीं है? ऐसी शिकायतें टेलीफोन के माध्यम से सुनने के लिए शिक्षा संचालनालय में खोला जा रहा काल सेंटर खुलने के पहले ही ध्वस्त हो गया।
ऐसी योजना थी कि बच्चों के माता-पिता टोल फ्री नंबर पर फोन करके स्कूल से संबंधित सभी तरह की शिकायतें सीधे मुख्यालय में कर सकें। टोल फ्री नंबर इसलिए रखा गया ताकि कोई भी कहीं से भी फोन करें, उन्हें उसका शुल्क अदा न करना पड़े।
काल सेंटर के लिए मुख्यालय के एक बड़े कक्ष को खाली कराया गया। वहां 20 से ज्यादा कंप्यूटर लगाए गए। बीएसएनल से टोल फ्री नंबर के लिए संपर्क किया गया। साल भर की फीस के रुप में 68 हजार रुपए अदा किए गए।
काल सेंटर संचालित करने के लिए आफिस में स्टाफ नहीं था। अफसरों ने वित्त विभाग से चार आपरेटरों के नए पद मांगे। वित्त में प्रस्ताव भेजने के बाद क्या हुआ यह बात किसी को नहीं मालूम लेकिन विभागीय अधिकारियों की कवायद यहीं तक सीमित रही। नतीजन काल सेंटर का फामरूला अस्तित्व में आने के पहले ही ध्वस्त हो गया।
काल सेंटर के जरिए स्कूलों में पढ़ाई का स्तर सुधारने में खासी मदद मिल सकती थी। काल सेंटर अस्तित्व में आने के बाद प्रत्येक स्कूल के बाहर टोल फ्री नंबर बड़े-बड़े बोर्ड पर चस्पा करना तय किया गया।
ताकि स्कूली बच्चों के पालक आसानी से नंबर देख सकें। उसके बाद स्कूल में शिक्षकों के गायब रहने पर या पढ़ाई न होने पर बच्चों के पालक टोल फ्री नंबर के जरिये सीधे मुख्यालय में शिकायत कर सकते थे।
अभी दूर-दराज के इलाकों की शिकायतें महीनों मुख्यालय नहीं पहुंच पाती। यह मुख्यालय से संपर्क करने का सीधा साधन हो सकता था। इसके जरिये आला अफसरों को यह मालूम हो पाता कि कौन से स्कूल में पढ़ाई नहीं हो रही है। ऐसी दशा में उस समस्या का जल्द से जल्द निदान हो सकता था।
एक नजर में
> शासन ने योजना पर खर्च किए 3 लाख 75 हजार।
> कंप्यूटर और इनवर्टर खरीदा गया।
> बीएसएनएल के छह कनेक्शन लिए गए।
> मुख्यालय में कंप्यूटर लगाकर बकायता सिस्टम आन किया गया।
> पूरी तैयारी और रुपयों की हुई बरबारी।
> 2008-09 में बनी थी योजना।
> दिसंबर 2009 में पूरा सेटअप किया था तैयार।
"काल सेंटर क्यों बंद हैं? इस बारे में मुझे जानकारी नहीं है। जांच करवाई जाएगी।
अगर कोई तकनीकी दिक्कत है तो उसे दूर करने के प्रयास होंगे।"

संगीत के बीच होगा इलाज, गूंजेंगे सभी धर्मो के मंत्र
प्रदेश के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल में अब मरीजों का इलाज संगीत के बीच किया जाएगा। यहां म्यूजिक सिस्टम लगाया जा रहा है जिससे मंत्र, गुरुबाणी व कुरान की आयतें गूंजेंगी।
पूरे अस्पताल में 350 माइक्रो स्पीकर लगाए जाएंगे। योजना को जनवरी में होने वाली स्वशासी समिति की बैठक में मंजूरी दी जाएगी। म्यूजिक सिस्टम लगने के बाद अपनी बारी का इंतजार कर रहे मरीजों को बोर नहीं होना पड़ेगा। इस पूरे सिस्टम पर पांच लाख लागत आएगी।
मधुर संगीत कई बीमारियों के इलाज में मददगार होता है। इसी बात के मद्देनजर अस्पताल प्रबंधन ने म्यूजिक सिस्टम लगाने का निर्णय लिया है। यह ओपीडी, आईपीडी, अधीक्षक, सहायक अधीक्षक व सीएमओ कार्यालय में लगेगा। ऑपरेशन थिएटर में भी म्यूजिक सिस्टम लगाने की योजना है।
माइक्रो स्पीकर के संचालन के लिए अधीक्षक कार्यालय व ओपीडी गेट के सामने मे आई हेल्प यू काउंटर के पास कंट्रोल रूम बनेगा। दोनों स्थानों से सभी माइक्रो स्पीकर संचालित होंगे।
माइक्रो स्पीकर से किसी भी समय टू वे बात की जा सकेगी। यह सिस्टम 24 घंटे काम करेगा। आपातकाल में माइक्रो स्पीकर काफी मददगार होंगे। उदाहरण के लिए अधीक्षक कार्यालय से एक साथ कैजुअल्टी व दूसरे वार्ड में बात की जा सकेगी।
किसी डॉक्टर को बुलाना हो तो फोन करने के बजाय माइक्रो स्पीकर के माध्यम से बुलाया जा सकता है। कोई मरीज गंभीर है तो संबंधित डॉक्टर को तत्काल बुलाया जा सकेगा। कंट्रोल रूम से जो बात होगी वह सभी माइक्रो स्पीकर में गूंजेगी।
कई बार फोन लाइन इंगेज रहने के कारण संबंधित डॉक्टर या अन्य व्यक्ति से तत्काल बात नहीं हो पाती। ऐसे में माइक्रो स्पीकर की भूमिका महत्वपूर्ण होगी। प्रबंधन आपातकाल में डॉक्टरों को लाने के लिए चार पहिया वाहन की व्यवस्था पहले ही कर चुका है।
खाली समय में माइक्रो स्पीकर से विभिन्न धर्मो के मंत्र गूंजेंगे। गायत्री मंत्र के अलावा गुरुबाणी व कुरान की आयतें गूंजेंगी। साउंड इतना रहेगा जिससे दूसरों के काम में बाधा न पहुंचे।
प्रबंधन इस बात पर विशेष ध्यान देगा कि म्यूजिक सिस्टम से बहुद्देशीय कार्य लिया जाए। जानकारों के अनुसार मंत्रोच्चर मन को शांति देने वाला होती है। ऐसे में मरीज को दर्द में भी सुकून के दो पल मिलेंगे।
"लगभग पांच लाख रुपए की लागत से अस्पताल में 350 माइक्रो स्पीकर लगाए जाएंगे। दो कंट्रोल रूम के जरिए इसका संचालन होगा। जनवरी में मेडिकल कॉलेज में स्वशासी समिति की होने वाली बैठक में इसे मंजूरी मिलने की संभावना है। म्यूजिक सिस्टम आपातकाल में काफी मददगार होगा।"
डॉ. सुनील गुप्ता, सहायक अधीक्षक आंबेडकर अस्पताल

शनिवार, 1 जनवरी 2011

आलेख-1

खुशियाँ ढूँढिए अपने अन्दर!
हम चारों ओर खुशियों की तलाश में भटकते हुए सारा समय व्यर्थ कर देते हैं जबकि खुशी तो हमारे मन में ही बसी होती है। बस जरूरत होती है तो उसे बाहर निकालने की व दूसरों के साथ उन्हें बाँटने की।
खुशियाँ आपके दर पर खुद दस्तक नहीं देतीं। यह तो ईश्वर की तरफ से हरेक को दिया गया अनमोल उपहार है। पर अपने भीतर छिपे इस खजाने को स्वयं आपको खोजना होगा और इसे खोजने के लिए आपके पास कई उपाय हैं। स्वयं को हमेशा ऊँची नजर से देखना और अपने भीतर अपनी प्रतिष्ठा स्वयं बनाए रखने का प्रयास करना हमारी जीवन शैली को बेहतर बनाए रखने के लिए सर्वाधिक जरूरी है।
इसका अर्थ यह है कि आप अपने भीतर की शक्ति और अपनी कमजोरियों दोनों को स्वीकारें और स्वयं को हमेशा दूसरों के मुकाबले बराबरी का दर्जा देते हुए भी अपने भीतर उस ऊर्जा के स्रोत को पहचानकर निखारें, जो आपको दूसरों से अलग और विलक्षण बनाती है। शोध बताते हैं कि व्यायाम करने से हमारे शरीर में रक्त संचार नियमित होता है और हमारा शरीर अपने भीतर एक नई ताजगी और चेतना महसूस करता है। शरीर की यह ऊर्जा चमत्कारिक रूप से हमारे मस्तिष्क को प्रभावित करती है।
जीवन में जो बाँटेंगे, बदले में वही आपको वापस मिलेगा। इसलिए जब कभी आपको अपने भीतर एकाकीपन महसूस हो, अपने खालीपन को दूसरों के बीच भरने का प्रयास करें। इसी क्रम में किसी जरूरतमंद की मदद, किसी अस्पताल में रोगियों को दी गई सांत्वना की हल्की-सी थपकी आपके चेहरे की मुस्कान का कारण बन जाए तो कोई आश्चर्य नहीं। चीजों को दार्शनिक अंदाज से देखने और जिंदगी को बहते पानी की तरह मानने वाले लोग अपने जीवन को अधिक आनंदित बना पाने में सफल होते हैं।
एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि हममें से प्रत्येक को अपने जीवन को अपनी तरह से जीने की जिम्मेदारी समझनी चाहिए। मनोवैज्ञानिक भी मानते हैं कि यदि एक बार हम निर्णय ले सकें कि हममें परिस्थितियों को बदलने की क्षमता है तो हमारे आसपास का परिवेश सचमुच बदल सकता है।
खुश रहने के लिए सबसे अहम पहलू यह है कि हमें सबसे पहले अपने आपसे अपनी पहचान कायम करनी होगी। हमारे पास जितना है, उसे स्वीकार करना हमारी संतुष्टि के लिए जरूरी है। जो नहीं है, उसे लेकर पीड़ा और संताप का अनुभव करते रहना हमें मानसिक रूप से बीमार बनाताहै। ईश्वर का दिया हमारे पास बहुत कुछ है- यह दृष्टिकोण हमारी प्रसन्नता की कुंजी है।
यूँ तो जीवन उतार-चढ़ावों से भरा है, परंतु आपका आपसी साहचर्य आपके जीवन की खुशियों का केंद्रबिंदु है। अपने साथी के साथ भरोसे और प्रेम का व्यवहार और एक-दूसरे के प्रति समझ आपको निराशा के घने अंधकार से बाहर निकाल सकती है। इसलिए अपने और अपने करीबी को समझने का प्रयास अवश्य करें।
प्रशंसा करना हमारे व्यक्तित्व का सबसे खूबसूरत पहलू है। पर यह काम सभी नहीं कर पाते। यह भी एक कला है, जो धीरे-धीरे ही पैदा होती है। दूसरों की तारीफ करने में हम प्रायः कंजूस हो जाते हैं। आप अपने आसपास के हर अच्छे काम की दिल खोलकर प्रशंसा करें। आप पाएँगे कि दूसरों के चेहरे पर आई मुस्कान आपको ताजगी से भर देती है।
याद रखिए कि घर हमारे जीवन का वह कोना है, जहाँ हम स्वर्ग-सा सुख महसूस करते हैं। इसलिए अपने घर को अपनी तरह से आरामदायक बनाएँ। कभी-कभी उसमें किया गया थोड़ा-सा परिवर्तन चाहे वह पलंग का कोई कोना हो, दीवार पर टँगी कोई तस्वीर या ताजे फूलों कागुलदस्ता, आपकी प्रसन्नता का कारण बन सकता है। इसके अलावा रंग भी हमारे जीवन को प्रभावित करते हैं। हर रंग का अपना एक महत्व होता है। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि नारंगी या केसरिया रंग हमारे विश्वास को बढ़ाता है। हमारी नकारात्मक सोच को अपने भीतर समेटकर हमें प्रफुल्लित और उत्साहित बनाए रखता है।
किसी भी प्रसन्नचित व्यक्ति के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण है कि वह हमेशा अपना दृष्टिकोण आशावादी रखे। मनोचिकित्सकों का मानना है कि प्रसन्नता सिर्फ इस बात पर प्राप्त की जा सकती है, यदि हम अपने भीतर दोहराएँ कि हम प्रसन्न स्वभाव के व्यक्ति हैं और हमें हमेशा खुश रहना है। इस तरह की कल्पना करने पर हमारा मस्तिष्क इस संदेश को और इन्हीं भावों को अपने भीतर ग्रहण कर लेता है और हमारे शरीर के स्नायु तंत्रों को भी इसी तरह के निर्देश देता है, तब कल्पना में की गई आपकी धारणा वास्तविक रूप से आपको आनंदित बनाए रख सकती है।

परंपरा की जान है रस्‍में

आज भले ही जमाना बदला, लोगों के विचार बदले, लेकिन नहीं बदला तो वो शादी-विवाह में देवर द्वारा भाभी से चुहलबाजी करना, साली द्वारा जीजा से पैसों के लिए जिद करना, समधी द्वारा समधन से मजाक करना। अनेक रस्मों व रिवाजों के माध्यम से ये वैवाहिक समारोह अंजाम पर पहुँचते हैं, जिसमें वरपक्ष की खुशी व कन्या के अपने बाबुल से विग्रह की पीड़ा अनेक परंपराओं में सिमटती चली आती हैं। यही परंपराएँ दो पक्षों के गंठबंधन को मजबूती प्रदान करती हैं, उन्हें रिश्तों की डोर में बाँधे रखती हैं।
शगुन से शुरुआत
शादी तय होते ही नेग और दस्तूरों की शुरुआत हो जाती है। लड़की वाले ल़ड़के वालों के यहाँ फलदान लेकर जाते हैं तो शगुन के रूप में ससुराल वाले अपनी होने वाली बहु की ओली भरते हैं। इन रस्मों से शुरू हुआ दस्तूरों का सिलसिला विवाह पूर्ण होने के बाद भी कई दिनों तक चलता रहता है।
नई दुल्हन के घर आने पर कुछ घरों में भगवान की कथा की जाती है, तो नवविवाहिता को सुहाग की शुभकामनाएँ देने के लिए सुहागलों का आयोजन भी होता है।
जरूरी है बड़ों का आशीर्वाद
भारतीय परंपरा रही है कि बिना रिश्तेदारों और समाज के लोगों के आशीर्वाद के कोई शुभ कार्य पूरा नहीं होता। तो जब विवाह के रीति-रिवाज की बात हो तो भला हम अपनों के आशीर्वाद को कैसे भूल सकते हैं। नवयुगल को आशीर्वाद देने के लिए भी शादी में कई रस्में हैं।
जैसे कुछ घरों में फेरों के समय दूल्हा-दुल्हन के पाँव पूजे जाते हैं तो ज्यादातर लोग प्रीतिभोज में अपने करीबियों को न्यौता देकर उनका आशीर्वाद लेते हैं। इतना ही नहीं नवेली के घर में आते ही बहु की मुँह दिखाई की रस्म भी बड़ों का आशीष लेने का ही एक माध्यम है।
न खले अकेलापन
जब नई बहू अपने ससुराल आती है तो उसके लिए सभी कुछ नया होता है। नया माहौल, नए लोगों के साथ नये रीति-रिवाज। नई दुल्हन को नई जगह पर अकेलापन न खले इसी उद्देश्य से विवाह पश्चात भी ससुराल में कई छोटी-छोटी रस्में की जाती हैं, जैसे अंगूठी ढूँढना, बहू का नाम रखना और गीत-संगीत होना। जो भी रीति-रिवाज हैं उनका परिवार को जोड़े रखने में बहुत महत्व है। आजकल लोग नहीं मानते तभी घरों में वो अपनापन नहीं रह गया है।
शुभ होते हैं रीति-रिवाज
सदियों से चले आ रहे विवाह के ये रीति-रिवाज शुभ शगुन माने जाते हैं। ऐसा कहा जाता है कि इन रस्मों से गुजरने के बाद ही विवाह संपूर्ण होता है। सविता तिवारी का मानना है कि हमारे बड़े बुजुर्गों ने जो हमारी शादी के वक्त रीति-रिवाज बताए थे, वही हम आज भी निभा रहे हैं। शगुन के रूप में की जाने वाली इन रस्मों के पीछे कई वैज्ञानिक और कई पौराणिक महत्व छिपे हुए हैं।
हल्दी बिना शादी अधूरी
चाहे कोई भी समाज हो या वर्ग, ज्यादातर लोगों में विवाह के समय हल्दी और तेल की रस्म बहुत महत्वपूर्ण है। कहीं सात सुहागनें दूल्हा-दुल्हन को हल्दी लगाती हैं, तो कहीं सात कुंवरियाँ हल्दी तेल की रस्म को पूरा करती हैं। राधा दुबे के अनुसार स्थान बदल जाते हैं। परिवेश बदल जाता है।
भाषा बोली में भी अंतर हो सकता है, लेकिन विवाह के रीति-रिवाज सभी जगह लगभग समान होते हैं। जैसे सगाई, फलदान, लगुन, हल्दी, तेल, कंगन, मंडप, मातृका पूजन, फेरे और उसके बाद बहू का द्वारचार, ये कुछ ऐसी रस्में हैं जो अमूमन हर घर और समाज में की जाती हैं। हो सकता है तरीकों में कुछ थोड़ा-बहुत अंतर जरूर हो।
आया है थोड़ा बदलाव
आजकल लोगों की व्यस्तताएँ इतनी बढ़ गई हैं कि हर काम की जल्दी रहती है। यही वजह है कि शादी ब्याह जैसे काम भी जल्दी में पूरे कर लिए जाते हैं। इन व्यस्तताओं के चलते विवाह के रीति-रिवाजों में थोड़ा बदलाव आ गया है। लोगों की मानसिकता में भी अंतर आया है।
यही कारण है कि अब शादियों के भी शॉर्ट-कट होने लगे हैं। पहले जहाँ शादियों में सप्ताह भर लगता था अब वह दो-तीन दिनों में ही हो जाती हैं।
सौजन्य से - नईदुनि‍या