शनिवार, 1 जनवरी 2011

परंपरा की जान है रस्‍में

आज भले ही जमाना बदला, लोगों के विचार बदले, लेकिन नहीं बदला तो वो शादी-विवाह में देवर द्वारा भाभी से चुहलबाजी करना, साली द्वारा जीजा से पैसों के लिए जिद करना, समधी द्वारा समधन से मजाक करना। अनेक रस्मों व रिवाजों के माध्यम से ये वैवाहिक समारोह अंजाम पर पहुँचते हैं, जिसमें वरपक्ष की खुशी व कन्या के अपने बाबुल से विग्रह की पीड़ा अनेक परंपराओं में सिमटती चली आती हैं। यही परंपराएँ दो पक्षों के गंठबंधन को मजबूती प्रदान करती हैं, उन्हें रिश्तों की डोर में बाँधे रखती हैं।
शगुन से शुरुआत
शादी तय होते ही नेग और दस्तूरों की शुरुआत हो जाती है। लड़की वाले ल़ड़के वालों के यहाँ फलदान लेकर जाते हैं तो शगुन के रूप में ससुराल वाले अपनी होने वाली बहु की ओली भरते हैं। इन रस्मों से शुरू हुआ दस्तूरों का सिलसिला विवाह पूर्ण होने के बाद भी कई दिनों तक चलता रहता है।
नई दुल्हन के घर आने पर कुछ घरों में भगवान की कथा की जाती है, तो नवविवाहिता को सुहाग की शुभकामनाएँ देने के लिए सुहागलों का आयोजन भी होता है।
जरूरी है बड़ों का आशीर्वाद
भारतीय परंपरा रही है कि बिना रिश्तेदारों और समाज के लोगों के आशीर्वाद के कोई शुभ कार्य पूरा नहीं होता। तो जब विवाह के रीति-रिवाज की बात हो तो भला हम अपनों के आशीर्वाद को कैसे भूल सकते हैं। नवयुगल को आशीर्वाद देने के लिए भी शादी में कई रस्में हैं।
जैसे कुछ घरों में फेरों के समय दूल्हा-दुल्हन के पाँव पूजे जाते हैं तो ज्यादातर लोग प्रीतिभोज में अपने करीबियों को न्यौता देकर उनका आशीर्वाद लेते हैं। इतना ही नहीं नवेली के घर में आते ही बहु की मुँह दिखाई की रस्म भी बड़ों का आशीष लेने का ही एक माध्यम है।
न खले अकेलापन
जब नई बहू अपने ससुराल आती है तो उसके लिए सभी कुछ नया होता है। नया माहौल, नए लोगों के साथ नये रीति-रिवाज। नई दुल्हन को नई जगह पर अकेलापन न खले इसी उद्देश्य से विवाह पश्चात भी ससुराल में कई छोटी-छोटी रस्में की जाती हैं, जैसे अंगूठी ढूँढना, बहू का नाम रखना और गीत-संगीत होना। जो भी रीति-रिवाज हैं उनका परिवार को जोड़े रखने में बहुत महत्व है। आजकल लोग नहीं मानते तभी घरों में वो अपनापन नहीं रह गया है।
शुभ होते हैं रीति-रिवाज
सदियों से चले आ रहे विवाह के ये रीति-रिवाज शुभ शगुन माने जाते हैं। ऐसा कहा जाता है कि इन रस्मों से गुजरने के बाद ही विवाह संपूर्ण होता है। सविता तिवारी का मानना है कि हमारे बड़े बुजुर्गों ने जो हमारी शादी के वक्त रीति-रिवाज बताए थे, वही हम आज भी निभा रहे हैं। शगुन के रूप में की जाने वाली इन रस्मों के पीछे कई वैज्ञानिक और कई पौराणिक महत्व छिपे हुए हैं।
हल्दी बिना शादी अधूरी
चाहे कोई भी समाज हो या वर्ग, ज्यादातर लोगों में विवाह के समय हल्दी और तेल की रस्म बहुत महत्वपूर्ण है। कहीं सात सुहागनें दूल्हा-दुल्हन को हल्दी लगाती हैं, तो कहीं सात कुंवरियाँ हल्दी तेल की रस्म को पूरा करती हैं। राधा दुबे के अनुसार स्थान बदल जाते हैं। परिवेश बदल जाता है।
भाषा बोली में भी अंतर हो सकता है, लेकिन विवाह के रीति-रिवाज सभी जगह लगभग समान होते हैं। जैसे सगाई, फलदान, लगुन, हल्दी, तेल, कंगन, मंडप, मातृका पूजन, फेरे और उसके बाद बहू का द्वारचार, ये कुछ ऐसी रस्में हैं जो अमूमन हर घर और समाज में की जाती हैं। हो सकता है तरीकों में कुछ थोड़ा-बहुत अंतर जरूर हो।
आया है थोड़ा बदलाव
आजकल लोगों की व्यस्तताएँ इतनी बढ़ गई हैं कि हर काम की जल्दी रहती है। यही वजह है कि शादी ब्याह जैसे काम भी जल्दी में पूरे कर लिए जाते हैं। इन व्यस्तताओं के चलते विवाह के रीति-रिवाजों में थोड़ा बदलाव आ गया है। लोगों की मानसिकता में भी अंतर आया है।
यही कारण है कि अब शादियों के भी शॉर्ट-कट होने लगे हैं। पहले जहाँ शादियों में सप्ताह भर लगता था अब वह दो-तीन दिनों में ही हो जाती हैं।
सौजन्य से - नईदुनि‍या

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