गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

ब्लॉग बतंगड़ से

भूषण को हम भगाएंगे कीचड़ उछालकर
रमाशंकर सिंह
भ्रष्टाचार से त्रस्त देश की सामान्य जनता के परित्राण के लिए अन्ना हजारे नामक एक फकीर ने दिल्ली के जंतर-मंतर चौराहे पर बैठ कर जन लोकपाल बिल के समर्थन में आमरण अनशन शुरू किया, जिसे देशव्यापी समर्थन मिला और अनशन के पांचवें दिन ही सरकार को घुटने टेकने पड़े जिसके परिणामस्वरूप सरकार ने ड्राफ्टिंग कमिटी के गठन की अधिसूचना जारी की। इस अधिसूचना में सरकार की ओर से पांच भीमकाय मंत्रियों-प्रणव मुखर्जी (वित्त मंत्री)-अध्यक्ष, पी. चिदंबरम (गृह मंत्री), वीरप्पा मोइली (विधि मंत्री), कपिल सिब्बल (मानव संसाधन एवं संचार मंत्री) तथा सलमान खुर्शीद (अल्पसंख्यक मंत्री) सदस्य- को कमिटी में नामजद किया गया और सिविल सोसायटी की ओर से जिन पांच कृशकाय लोगों को शामिल किया गया उनमें भूतपूर्व विधि मंत्री एवं सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील शांतिभूषण (सह- अध्यक्ष) उनके पुत्र प्रशांत भूषण, पूर्व जस्टिस संतोष हेगड़े, अन्ना हजारे और सामाजिक कार्यकर्ता तथा इंडिया अगेंस्ट करप्शन मूवमेंट के अगुआ अरविंद केजरीवाल सदस्य हैं।
ड्राफ्टिंग कमिटी बनाने की प्रक्रिया में अन्ना के प्रतिनिधियों की कपिल सिब्बल के साथ बातचीत के दौरान कुछेक कांग्रेसी शुभचिंतकों, मंत्रियों की ओर से जिस तरह की बयानबाजी की गई उसे मीडिया में देख-सुन कर कोई भी संवेदनशील आदमी यह सोचने पर विवश हो सकता था कि हे राम! इन्हें क्षमा कर देना क्योंकि इन निर्बुद्धों को खुद ही यह मालूम नहीं कि ये क्या और क्यों कह रहे हैं। मस्तिष्क मंथन के बाद अमृत या विषरूपी जो विचार सतह पर आया उसका लब्बोलुआब यह है कि इन भाई लोगों ने खुद को सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह की सरकार का सबसे बड़ा खैरख्वाह साबित करने की कोशिश की। मनु महाराज जो काफी दिनों तक अंतर्धान रहने के बाद राजनीतिक क्षितिज पर अचानक अवतरित हुए थे उन्होंने अपनी क्रोधातुर वाणी में कुतर्क किया कि अन्ना हजारे और उनकी टोली के लोग होते कौन हैं सरकार से अधिसूचना जारी करने की मांग करने वाले? किसने बनाया इन्हें सिविल सोसायटी का प्रतिनिधि? कुछ-कुछ इसी टोन में मैंने सूचना एवं प्रसारण मंत्री को बोलते सुना। हमेशा गंभीर और कभी-कभी हंसमुख दिखने वाली अम्बिका सोनी का वह तमतमाया चेहरा आज भी मेरी आंखों के सामने नाच-नाच जाता है। कांग्रेस के प्रवक्ताओं में मनीष तिवारी का तो जोश में होश खो देना समझ में आता है, लेकिन दिग्विजय सिंह जैसे परिपक्व और संवेदनशील नेता अन्ना और उनकी भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम को लेकर जिस तरह के बयान दे रहे हैं उससे तो यही लगता है कि 125 साल पुरानी यह राजनीतिक नाव अविश्वसनीयता के भार से दिन-ब-दिन दबती जा रही है और कभी भी डूब सकती है। नीति का एक श्लोक बरबस याद गया है जिसे पाठकों से शेयर करना मैं जरूरी मानता हूं:

परोक्षे कार्यहंतारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम्

वर्जयेतादृशं मित्रं विष कुंभं पयोमुखम्

इसका भावार्थ यह है कि पीठ पीछे काम बिगाड़ने वाले और मुंह पर ठकुर सुहाती बोलने वाले मित्र उस मटके के समान हैं जिसके घट में विष और मुख में दूध भरा हुआ है, इनसे बचना चाहिए।

अब जरा भ्रष्टाचार की लड़ाई में अन्ना का साथ देने की सोनिया गांधी और कांग्रेस की सदाशयतारूपी विवशता पर भी एक नजर डालना समीचीन होगा। जिस प्रकार का अभूतपूर्व एवं देशव्यापी जनसमर्थन अन्ना हजारे के अनशन को मिल रहा था उसे देखते हुए कांग्रेस के कर्णधारों के हाथ-पांव फूलने लगे थे। उन्हें लगा कि अगर इस समय अन्ना के आंदोलन को अधिक समय तक चलने दिया गया तो पांच राज्यों में आसन्न चुनावों में कांग्रेस की लुटिया डूब सकती है। सरकार को इस बात की भी खुफिया रिपोर्टें मिल रही थीं कि एक ओर योगी बाबा रामदेव भ्रष्टाचार के खिलाफ जनमानस को यह समझाने में सफलता प्राप्त कर रहे थे कि उनकी सभी समस्याओं का कारण भ्रष्टाचार और बेईमान नेता हैं, जिन्होंने जनता के खून-पसीने की कमाई को लूट-लूट कर विदेशी बैंकों में जमा कर रखा है, दूसरी ओर बैरागी बाबा अन्ना हजारे दिल्ली दरबार की छाती पर छोलदारी लगाकर अनशन पर बैठ गए हैं और जान देने पर आमादा हैं। इसलिए उन्होंने तात्कालिक उपाय के तौर पर अनशन को समाप्त कराने और बाद में अन्ना की टोली से तकनीकी तौर पर निपट लेने की रणनीति अपनाई। कपिल सिब्बल (परोक्षत:) दिग्विजय सिंह, मनीष तिवारी प्रत्यक्षत: और द ग्रेट फिक्सर अमर सिंह का सीडी अभियान इसी रणनीति के तहत चलाया जा रहा है। इस अभियान का उद्देश्य यह है कि नकटों की टोली के सामने नाक वाले सिविल सोसायटी के प्रतिनिधियों को टिकने न दिया जाए। थक-हार कर बेचारे आत्मसमर्पण करते हुए नैतिकता से तौबा कर लेंगे और कमिटी के सरकारी सदस्यों को अपनी पीठ थपथपाते हुए यह कहने का मौका मिल जाएगा कि 'हम तो भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में अन्ना का साथ देने को तैयार थे, लेकिन जब वे खुद ही दुम दबा कर भाग गए तो हम क्या करें?' यानी नतीजा हासिल सिफर। लोकपाल बिल का जिन्न एक बार फिर बोतल में बंद हो जाएगा और बाद में किसी सियासी लाभ के मद्दे नजर उसे दुबारा बाहर निकाला जा सकेगा।
चरित्र हनन अभियान के तहत जिस तरह कांग्रेस के कुछ हलकों से शान्ति भूषण की सम्पत्ति संबंधी बयान आ रहे हैं वे निराधार नहीं हैं। ऐसे बयानों की वजह कमिटी के गैर सरकारी सदस्यों या अन्ना-टोली की वह पहलकदमी है जिसके तहत उन्होंने पहली मीटिंग में जाने से पहले ही अपनी सम्पत्ति की घोषणा कर दी। कांग्रेस के किसी सदस्य ने न तो अब तक अपनी सम्पत्ति की घोषणा की और न ही उनका घोषणा करने का कोई विचार है। बेचारे करें भी तो कैसे, अन्ना ने सम्पत्ति घोषणा रूपी ट्रंप कार्ड इतनी जल्दी चल दिया कि उन्हें हिसाब-किताब लगाने का मौका ही नहीं मिल पाया। कैसे बताएं कि कितनी दौलत सफेद है और कितनी काली। कितनी भारत में है और कितनी की स्विस बैंक करता है रखवाली। इसलिए फिलहाल सबसे कारगर नुस्खा कांग्रेसियों को यही रास आ रहा है कि वे देश के सभी भ्रष्टाचारियों, बेईमानों को यह संदेश दें कि 'ओ बेईमान तू न तनिक भी मलाल कर/भूषण को हम भगाएंगे कीचड़ उछाल कर।'

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