शनिवार, 28 मई 2011

उपयोगी सामग्री

कैंसर को हराकर मशरूम हुआ दुनिया में मशहूर!!
प्रकृति हमें जीवन और समृद्धि तो देती ही है पर साथ ही बीमार होने पर हमें उससे छुटकारा भी दिलाती है। आयुर्वेद और प्राकृतिक चिकित्सा, होम्योपेथिक...आदि चिकित्सा पद्धतियां तो पूरी तरह से प्रकृति और उसके अंगों की सहायता से ही रोगी को रोग से छुटकारा दिलाती है। यह बात एक बार फिर से साबित की स्वादिष्ट मशरूम ने। जी हां मशरूम ने....
हाल ही में अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिकों ने अपने शोध के आधार पर दावा किया है कि प्रोस्टेट कैंसर को मिटाने में एशियाई क्षेत्रों में प्रयुक्त चिकित्सकीय मशरूम बेहद कारगर है। क्वींसलैंड यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नालॉजी के वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि तुर्की टेल मशरूम प्रयोगशाला में चूहों में प्रोस्टेट कैंसर को विकसित होने से दबाने में 100 फीसदी कारगर सिद्ध हुआ है।
यह शोध -पीएल ओएस वन- जर्नल में प्रकाशित हुआ है।
तुर्की टेल मशरूम में मिलने वाले तत्व पॉलीसेकैरोपेप्टाइड के बारे में पता चला है कि यह चूहों में प्रोस्टेट कैंसर स्टेम कोशिकाओं को निशाना बनाते हुए ट्यूमर बनने की संभावना को कम करता है। निश्चित ही यह शोध इस बीमारी से लडऩे में अहम् कदम साबित हो सकता है। इसकी प्रयोग की एक खाशियत यह भी रही कि इससे ट्यूमर का विकास तो पूरी तरह से रुक ही जाता है साथ ही इसका कोई नकारात्मक प्रभाव यानी साइट इफेक्ट भी नहीं होता।

शादी में क्यों निभाई जाती है संगीत की रस्म?
शादी में मंगलगीत गाए जाते हैं संगीत की रस्म निभाई जाती है जिसमें घर के सभी सदस्य आनंद और उल्लास के साथ भाग लेते हैं। दरअसल इसका कारण यह है कि संगीत आंनद आपस में गहरा ताल्लुक है। संगीत के बगैर किसी भी प्रकार के सेलीबे्रशन की सफलता अधूरी ही मानी जाती है। ढ़ोल, नगाड़े और शहनाई संगीत के पारंपरिक साधन हैं। इनका प्रयोग हमारे यहां बड़े प्राचीन समय से होता आ रहा है।
इसके अंतर्गत पहले घर की महिलाएं मंगलगीत गाती थी और इस कार्यक्रम में ही ढोल बजाकर गीत गाती थी। सतीजी व शिव की शादी हो राम सीताजी का स्वयंवर सभी में महिलाओं द्वारा मंगलगीत गाए जाने का वर्णन मिलता है धीरे-धीरे इस क्रिया को परंपरा के रूप में शामिल कर लिया गया। हम देखते हैं कि भगवान शिव के पास भी अपना डमरु था, जो कि तांडव करते समय वे स्वयं ही बजाते भी थे।
जीवन युद्ध और ढ़ोल- संगीत के अन्य वाद्य यंत्रों की बजाय ढ़ोल की अपनी अलग ही खासियतें होती हैं। मन में उत्साह, साहस और जोश जगाने में ढ़ोल का बड़ा ही आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ता है। तभी तो पुराने समय में युद्ध का प्रारंभ भी ढ़ोल-नगाड़ों से ही होता था। ढ़ोल से निकलने वाली ध्वनि तरंगें योद्धओं को जोश और साहस से भर देती थीं।

रानी ने क्यों दिया मुसीबत से बचाने वाले को ही शाप?
दमयन्ती जब कुछ शांत हुई। व्याध ने पूछा सुन्दरी तुम कौन हो? किस कष्ट में पड़कर किस उद्देश्य से तुम यहां आई हो? दमयन्ती की सुन्दरता, बोल-चाल और मनोहरता देखकर व्याध मोहित हो गया। वह दमयंती से मीठी-मीठी बातें करके उसे अपने बस में करने की
कोशिश करने लगा। दमयन्ती उसके मन के भाव समझ गई। दमयंती ने उसके बलात्कार करने की चेष्टा को बहुत रोकना चाहा लेकिन जब वह किसी प्रकार नहीं माना तो उसने शाप दे दिया कि मैंने राजा नल के अलावा किसी और का चिंतन कभी नहीं किया हो तो यह व्याध मरकर गिर पड़े। दमयंती के इतना कहते ही व्याध के प्राण पखेरू उड़ गए। व्याध के मर जाने के बाद दमयंती एक निर्जन और भयंकर वन में जा पहुंची।
राजा नल का पता पूछती हुई वह उत्तर की ओर बढऩे लगी। तीन दिन रात दिन रात बीत जाने के बाद दमयंती ने देखा कि सामने ही एक बहुत सुन्दर तपोवन है। जहां बहुत से ऋषि निवास करते हैं। उसने आश्रम में जाकर बड़ी नम्रता के साथ प्रणाम किया और हाथ जोड़कर खड़ी हो गई। ऋषियों को प्रणाम किया। ऋषियों ने दमयन्ती का सत्कार किया और उसे बैठने को कहा- दमयन्ती ने एक भद्र स्त्री के समान सभी के हालचाल पूछे।
फिर ऋषियों ने पूछा आप कौन है तब दमयंती ने अपना पूरा परिचय दिया और अपनी सारी कहानी ऋषियों को सुनाई। तब सारे तपस्वी उसे आर्शीवाद देते हैं कि थोड़े ही समय में निषध के राजा को उनका राज्य वापस मिल जाएगा। उसके शत्रु भयभीत होंगे व मित्र प्रसन्न होंगे और कुटुंबी आनंदित होंगे। इतना कहकर सभी ऋषि अंर्तध्यान हो गए।

पाण्डवों को कृष्ण क्यों पसंद करते थे?
पं.विजयशंकर मेहता
उद्धवजी ने कहा-भगवन देवर्षि नारदजी ने आपको यह सलाह दी है कि फुफेरे भाई पाण्डवों के राजसूय यज्ञ में सम्मिलित होकर उनकी सहायता करनी चाहिए। उनका यह कथन ठीक ही है और साथ ही यह भी ठीक है कि शरणागतों की रक्षा अवश्यकर्तव्य है। पाण्डवों के यज्ञ और शरणागतों की रक्षा दोनों कामों के लिए जरासन्ध को जीतना आवश्यक है।
प्रभो! जरासन्ध का वध स्वयं ही बहुत से प्रयोजन सिद्ध कर देगा। बंदी नरपतियों के पुण्य परिणाम से अथवा जरासन्ध के पाप-परिणाम से सच्चिदानंद स्वरूप श्रीकृष्ण! आप भी तो इस समय राजसूय यज्ञ का होना ही पसंद करते हैं। इसलिए पहले आप वहीं पधारिए।
उद्धवजी की यह सलाह सब प्रकार से हितकर और निर्दोष थी। देवर्षि नारद, यदुवंश के बड़े-बूढ़े और स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ने भी उनकी बात का समर्थन किया। अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्ण ने वसुदेव आदि गुरुजनों से अनुमति लेकर दारुक, जैत्र आदि सेवकों को इन्द्रप्रस्थ जाने की तैयारी करने के लिए आज्ञा दी।
हस्तिनापुर जाना -भगवान् को सूचना मिली और भगवान बहुत दुखी हो गए। सूचना यह थी कि कौरवों ने छल से पाण्डवों को लाक्ष्यागृह में भेजा और पांडव और कुंती जलकर मर गए। यह सूचना जब कृष्णजी को मिली तो कृष्णजी बहुत चिंतित हो गए, लेकिन उनको विश्वास नहीं हुआ। कुछ उदास भी हुए।
पाण्डव भगवान् को क्यों पसंद थे समझ लें। कर्म करने से अनुभव होता है। पवित्र कर्म से धर्ममय अनुभव होते हैं।
श्रीकृष्ण संकेत देते हैं कि अध्यात्म शक्ति की जागृति, प्रत्यक् चेतना छिगम् अर्थात् अन्तर्गुरु ईश्वर की चेतन सत्ता का प्रत्यक्ष अनुभव। साधन (कर्म) के तीन स्तर होते हैं। प्रथम स्तर पर साधक अपने कत्र्तत्याभिमान से युक्त रहता है। (मैं साधन कर रहा हूं, कर्म कर रहा हूं, सेवा कर रहा हूं आदि) दूसरे स्तर पर ईश्वर की शरण में रहता है और अपनी प्रगति को ईश्वर की अनुकम्पा के अधीन अनुभव करता है। तीसरे स्तर पर ब्रम्हभाव में रत रहता हुआ जीवन सफल करता है।

जिगरी दोस्त नशे में अंधे ही नहीं मूर्ख भी बन गए!!
यह शिकायत कइयों की रहती है कि जी-तोड़ मेहनत करने और हर कोशिश आजमाने के बाद भी हमें सफलता क्यों नहीं मिल पाती? ऐसा कई बार होता है कि सारी की सारी मेहनत बेकार चली जाती है। समस्या की असलियत को जानने के लिय जब हम गहराई में जाकर बारीकी से खोजबीन करते हैं तब पता चलता है कि मेहनत बेकार इसलिये हुई क्योंकि वह गलत दिशा में बगैर सोचे-समझे की गई थी। इस बात को आसानी से समझने के लिये आइये चलते हैं एक रोचक घटना की ओर...
दो जिगरी दोस्त चांदनी रात का मजा लूटने के लिये नदी किनारे जा पहुंचे। जमकर शराब की चुस्कियां ली और जब नशे में धुत हो गए तो खूब नाच-गाना हुआ। कभी किशोर कुमार बन जाते तो कभी माइकल जेक्शन, शराब की मदहोंशी ने शर्म-संकोच की सारी हदें मिटा दी थीं। नाच गाने से जब मन भर गया तो उनके मन में नदी की सैर करने का सुन्दर खयाल आया। दोनों परम मित्र एक-दूसरे के गले में हाथ डालकर लडख़ड़ाते हुए पैरों से नदी के किनारे बंधी नाव की ओर चल दिये। नशे की मदहोंसी में थे, पूरे शुरूर में थे उतावली में सीधे कूद कर नाव में सवार हो गए। जल्दबाजी में इतना भी होंश नहीं रहा कि नाव जिस रस्सी से किनारे से बंधी है उसे खोला ही नहीं है। दोनों ने जल्दी-जल्दी नाव में रखे चप्पू उठाए और लगे चप्पुओं को चलाने। नशे की मदहोंशी को चांदनी रात की खूबसूरती ने और भी बढ़ा दिया था। सोचने-समझने की दिमागी क्षमता को नशे के थपेड़ों में कभी का बहा चुके थे। नाव आगे बढ़ भी रही है या नहीं इस बात को दोनों में से किसी को ध्यान ही नहीं रहा। बस लगे हैं चप्पुओं को चलाने में।
दोनों ने जमकर शराब गटकी थी इसलिये जल्दी होंश लोटने के का सवाल ही नहीं था। चप्पू चलाते-चलाते सारी रात गुजर गई। सवेरा होने को था, एक मित्र जो थोड़ा अधिक समझदार था बोला-लगता है हम किनारे से कुछ ज्यादा ही दूर निकल आए हैं अब लौट चलना चाहिये। सवेरा होने लगा था उजाले में नदी का खूबसूरत किनारा साफ नजर आ रहा था। जब पीछे मुड़ कर दोनों ने देखा तो दिमाग में कुछ ठनका, सारी बात समझ में आने लगी। पता चल गया कि सारी रात नाव तो किनारे से ही बंधी रही है, जल्दी में रस्सी को खोलना भूल गए थे। रात भर चप्पू चलाने की बेवकूफी भरी मेहनत के बारे में सोच कर मन ही मन शर्मिंदगी भी हुई और हंसी भी खूब आई। दोनों की मिलीभगत से हुई इस मूर्खतापूर्ण घटना को किसी से न कहने का पक्का वादा करके एक दूसरे को विदा देकर अगली बार किसी अच्छी जगह पर पार्टी करने की सलाह करके अपने घरों को चल गए।
इस कहानी को पढ़कर उन शराबी मित्रों को कोई भी आसानी से मूर्ख कह देगा लेकिन ऐसा जाने-अनजाने हम सभी के साथ होता रहता है। हम मेहनत तो खूब करते हैं लेकिन कामवासना, गुस्सा, आलस्य, लालच.. जैसी जाने कितनी ही रस्सियां हमारे पैरों से बंधी रहती हैं और मौत को सामने देखकर हमें समझ में आता है कि सारी दोड़-धूप बैकार ही चली गई आखिर हम पहुंचे तो कहीं भी नहीं। नशे भी कई तरह के होते हैं, कुछ नजर आते हैं लेकिन अधिक घातक नशों को तो इंसान कभी देख भी नहीं पाता।
www.bhaskar.com

शुक्रवार, 27 मई 2011

अपनी आमदानी का उपयोग ऐसे करें...

पं. विजयशंकर मेहता
अपने लिए तो सभी कमाते हैं, पर हमारी कुछ कमाई ऐसी होना चाहिए जो सेवा के रूप में बदल सके। आजकल सेवा भी हथियार बना ली गई है। धंधा बना ली गई थी यहां तक तो ठीक था, लेकिन अब शस्त्र के रूप में सेवा और खतरनाक हो जाती है।
जो दुनियादारी के सेवक हैं, यह अक्सर ऐसे ही काम करते हैं। कोई सेवक कहता है कि मैं हिन्दू धर्म को संगठित करना चाहता हूं। कोई कह रहा है मैं इस्लाम की सेवा करना चाहता हूं। कोई ईसा की सेवा में घूम रहा है। नेता कह रहे हैं कि हम देश की सेवा कर रहे हैं। यह सब समाजसेवा तो हो सकती है, लेकिन इससे भीतर परमात्मा पैदा नहीं होता।
जब चित्त में ईश्वर या कोई परम शक्ति होती है तो सेवा का रूप बदल जाता है। हिन्दू धर्म के साधु-संतों की, इस्लाम के ठेकेदारों की, क्रिश्चनिटी के पादरियों की और हमारे राष्ट्र के नेताओं की सेवा के ऐसे परिणाम नहीं आते, जैसे आज धर्म के नाम पर मिल रहे हैं। इसलिए सेवा के ईश्वर वाले स्वरूप को समझना होगा। अभी सेवा चित्त के आनंद से वंचित है। परमात्मा का एक स्वरूप है सत्य।
ईमानदारी से देखा जाए तो चाहे धर्म हो या राजधर्म, जो लोग सेवा का दावा कर रहे हैं उनके भीतर से सत्य गायब है। धर्म का चोला ओढ़ लें यहां तक तो ठीक है, अब तो लोगों ने भगवान का ही चोला ओढ़ लिया है। वेष के भीतर से जब विचार समाज में फिंकता है तो लोग सिर्फ झेलने का काम करते हैं। वे यह समझ नहीं पाते कि सत्य कहां है। इसलिए दूसरे जो कर रहे हैं उनसे सावधान रहें और हमें जो करना है उसके प्रति ईमानदार रहें। लगातार प्रयास करें कि भीतर परमात्मा जागे और तब बाहर हमारे हाथ से सेवा के कर्म हों।
www.bhaskar.com

सहायता और प्रार्थना का यह नियम है....

पं.विजयशंकर मेहता
आप स्वयं जगदीश्वर हैं और आपने जगत् में अपने ज्ञान, बल आदि कलाओं के साथ इसलिए अवतार ग्रहण किया है कि संतों की रक्षा करें और दुष्टों को दण्ड दें। ऐसी अवस्था में प्रभो! जरासन्ध आदि कोई दूसरे राजा आपकी इच्छा और आज्ञा के विपरित हमें कैसे कष्ट दे रहे हैं, यह बात हमारी समझ में नहीं आती।
आपने 18 बार जरासन्ध से युद्ध किया और सत्रह बार उसका मान मर्दन करके उसे छोड़ दिया, परन्तु एक-बार उसने आपको जीत लिया। हम जानते हैं कि आपकी शक्ति, आपका बल-पौरुष अनन्त है। मनुष्यों का सा आचरण करते हुए आपने हारने का अभिनय किया, परन्तु इसी से उसका घमंड बढ़ गया है। हे अजित! अब वह यह जानकर हम लोगों को और भी सताता है कि हम आपके भक्त हैं, आपकी प्रजा हैं।
अब आपकी जैसी इच्छा हो वैसा कीजिए।
यह सहायता और प्रार्थना का नियम है, जिससे आप सहायता मांग रहे हैं, उसके सामथ्र्य की भी थाह आपको होनी चाहिए। परमात्मा असीम शक्तिशाली हैं, हम उनसे सहायता मांगते हैं तो यह भाव भी होना चाहिए कि हम आपकी शक्ति जानते हैं, आप हमें इस संकट से बचा सकते हैं।दूत ने कहा - भगवन जरासन्ध के बंदी नरपतियों ने इस प्रकार आपसे प्रार्थना की है। वे आपके चरणकमलों की शरण में हैं और आपका दर्शन चाहते हैं। आप कृपा करके उन दीनों का कल्याण कीजिए।

प्यार की एक अनोखी दास्तान

एक बड़ी सुन्दर लाइन है जो सच्चे स्नेह और प्यार की ताकत को बयान करती है। वो पंक्ति कुछ इस तरह है कि -जाकर जापर सत्य सनहू, सो ताहि मिलहिं न कछु संदेहू , यानी जिस भी किसी का किसी के प्रति सच्चा प्यार होगा, तो उसका उससे मिलन होकर रहेगा।
कई प्रेम कहानियां अधूरी रह जाती हैं, लेकिन इसका अर्थ नहीं कि वे समाप्त ही हो गईं हैं। अगर आपका प्यार सच्चा है तो एक न एक दिन आपको जरूर मिलता है। पुराणों में ऐसी ही एक प्रेम कहानी है राजा नल और दयमंती की। तो आइये चलते हैं उस अमर प्रेम कथा की ओर.........
एक बार राजा नल अपने भाई से जुए में अपना सब कुछ हार गए। उनके भाई ने उन्हें राज्य से बाहर कर दिया। नल और दयंमती जगह जगह भटकते फिरे। एक रात राजा नल चुपचाप कहीं चले गए। साथ उन्होने दयमंती के लिए एक संदेश छोड़ा जिसमें लिखा था कि तुम अपने पिता के पास चली जाना मेरा लौटना निश्चित नहीं हैं। दयमंती इस घटना से बहुत दुखी हुई उसने राजा नल को ढ़ूढऩे का बड़ा प्रयत्न किया लेकिन राजा नल उसे कहीं नहीं मिले। दुखी मन से दयंमती अपने पिता के घर चली गई।
लेकिन दयमंती का प्रेम नल के लिए कम नहीं हुआ। और वह नल के लौटने का इंतजार करने लगी। राजा नल अपना भेष बदलकर इधर उधर काम कर अपना गुजारा करने लगे। बहुत दिनों बाद दयमंती को उसकी दासियों ने बताया कि राज्य में एक आदमी है जो पासे के खेल का महारथी है। दयमंती समझ गई कि वह व्यक्ति कोई और नहीं राजा नल ही है। वह तुरंत उस जगह गई जहां नल रुके हुए थे लेकिन नल ने दयमंती को पहचानने से मना कर दिया लेकिन दयमंती ने अपने सच्चे प्रेम के बल पर राजा नल से उगलवा ही लिया कि वही राजा नल है। फिर दोनों ने मिलकर अपना राज पाट वापस हासिल कर लिया। कथा कहती है कि आपका समय कैसा भी हो अगर आपका प्याार सच्चा है तो आपके साथी को आपके वापस लौटा ही लाता है। www.bhaskar.com

क्या हुआ जब स्वयंवर में पहुंच गए परशुराम?

उसी मौके पर शिवजी के धनुष का टूटने की बात सुनकर उस जगह परशुरामजी भी आए। उन्हें देखकर सब राजा सकुचा गए। परशुरामजी का भयानक वेष देखकर सब राजा डर गए व्याकुल होकर उठ खड़े हुए। परशुरामजी हित समझकर भी सहज ही जिसकी ओर देख लेते हैं, वह समझता है मानो मेरी आयु पूरी हो गई। फिर जनकजी ने आकर प्रणाम किया और सीताजी ने भी उन्हें नमन किया।
परशुरामजी ने सीताजी को अर्शीवाद दिया। फिर विश्वामित्रजी आकर मिले और उन्होंने दोनों भाइयों को उनके चरण छूने को कहा। दोनों को परशुरामजी ने आशीर्वाद दिया। फिर सब देखकर, जानते हुए भी उन्होंने राजा जनक से पूछा कहो यह इतनी भीड़ कैसी है? उनके मन में क्रोध छा गया।
जिस कारण सब राजा आए थे। राजा जनक ने सब बात उन्हें विस्तार से बताई। बहुत गुस्से में आकर वे बोले- मुर्ख जनक बता धनुष किसने तोड़ा? उसे शीघ्र दिखा, नहीं तो आज जहां तक तेरा राज्य है, वहां तक की पृथ्वी उलट दूंगा। राजा को बहुत डर लगा, जिसके कारण वे उत्तर नहीं दे पा रहे थे। सीताजी की माताजी भी मन में पछता रही थी कि विधाता ने बनी बनाई बात बिगाड़ दी।
तब श्रीरामजी सभी को डरा हुआ देखकर बोले- शिवजी के धनुष को तोडऩे वाला आपका ही कोई दास होगा। क्या आज्ञा है, मुझसे क्यों नहीं कहते? यह सुनकर परशुरामजी गुस्से में बोले सेवक वह है जो सेवक का काम करे। शत्रु का काम करके तो लड़ाई ही करना चाहिए। जिसने शिवजी का धनुष तोड़ा है वह मेरा दुश्मन है। तब लक्ष्मणजी मुस्कुराए और परशुरामजी का अपमान करते हुए बोले- हमने आज तक बहुत से धनुष तोड़े। आपने ऐसा क्रोध कभी नहीं किया। इसी धनुष पर इतनी ममता किस कारण से है? यह सुनकर भृगुवंश की ध्वजास्वरूप परशुरामजी क्रोधित होकर कहने लगे।क्रमश

लाइलाज कैंसर का भी काल है यह पौधा!!!

तुलसी का पौधा कितना अनमोल है, यह इसी बात से पता चल जाता है कि इसे गुणों को देखकर इसे भगवान की तरह पूजा जाता है।
यूं तो आज हर आदमी को किसी न किसी बीमारी ने अपने कब्जे में कर रखा है। लेकिन कैंसर एक ऐसी बीमारी है जो लाइलाज कही जाती है।
अभी तक इस बीमारी का कोई परमानेंट इलाज नहीं है। आज यह बीमारी तेजी से फैल रही है। वैसे तो कैंसर का कोई परमानेंट इलाज नहीं है लेकिन फिर भी आर्युवेद ने तुलसी को कैंसर से लडऩे का एक बड़ा तरीका बताया है।
आर्युवेद में बताया गया है कि तुलसी की पत्तियों के रोजाना प्रयोग से केंसर से लड़ा जा सकता है। और इसके लगातार प्रयोग से कैंसर खत्म भी हो सकता है।
- कैंसर की प्रारम्भिक अवस्था में रोगी अगर तुलसी के बीस पत्ते थोड़ा कुचलकर रोज पानी के साथ निगले तो इसे जड़ से खत्म भी किया जा सकता है।
-तुलसी के बीस पच्चीस पत्ते पीसकर एक बड़ी कटोरी दही या एक गिलास छाछ में मथकर सुबह और शाम पीएं कैंसर रोग में बहुत फायदेमंद होता है।
केंसर मरीज के लिए विशेष आहार
अंगूर का रस, अनार का रस, पेठे का रस, नारियल का पानी, जौ का पानी, छाछ, मेथी का रस, आंवला, लहसुन, नीम की पत्तियां, बथुआ, गाजर, टमाटर, पत्तागोभी, पालक और नारियल का पानी।

ऐसा क्यों

गुरुवार के दिन घर की सफाई नहीं की जाती?
हमारे बढ़े-बूजुर्गों द्वारा बनाई गई सारी परंपराओं और रीति-रिवाजों के पीछे एक सुनिश्वित वैज्ञानिक कारण है। किसी बात को पूरा का पूरा समाज यूं ही नहीं मानने लग जाता। हर मान्यता के पीछे कोई ना कोई धार्मिक या वैज्ञानिक कारण जरूर होता है। ऐसी ही एक परंपरा गुरुवार के दिन सफाई ना करने की। इससे जुड़ी हमारे शास्त्रों में विष्णु भगवान की एक कहानी है
जिसके अनुसार एक राजा जो कि विष्णु भगवान का भक्त था उसने गुरुवार के दिन अपने महल की साफ-सफाई करवा दी और जाले झड़वा दिए। जबकि कहानी के अनुसार उस दिन विष्णुजी लक्ष्मीजी सहित उसके महल में आने वाले थे। वैसे उस राजा को उस दिन विष्णु भगवान की पूजा करनी चाहिए थी। उनकी आराधना और आवाह्न करना चाहिए था।
लेकिन ऐसा कुछ नहीं करते हुए बल्कि उल्टा राजा ने उनके आने से पहले पूरे महल में सफाई काम फैला दिया। जब विष्णु भगवान लक्ष्मीजी के साथ उसके महल में पहुंचे तो धूल व जाले देखकर लक्ष्मीजी रूष्ट हो गई और वहां से चली गई और विष्णुजी ने जब देखा कि लक्ष्मीजी रूठ कर जा रही हैं तो वे भी वहां से चल दिए और उस राजा को शाप दे दिया कि आज से तुम लक्ष्मीविहिन रहोगे और गुरूवार के दिन जो भी घर में साफ-सफाई करेगा उसके घर में कभी लक्ष्मी निवास नहीं करेगी। इसी कहानी के कारण ऐसी मान्यता है कि गुरुवार के दिन घर की सफाई नहीं करना चाहिए।

...और मगर ने रानी को निगलने के लिए जकड़ लिया

थोड़ी देर बाद जब राजा नल का हृदय शांत हुआ ,तब वे फिर धर्मशाला में इधर-उधर घूमने लगे और सोचने लगे कि अब तक दमयन्ती परदे में रहती थी, इसे कोई छू भी नहीं सकता था। आज यह अनाथ के समान आधा वस्त्र पहने धूल में सो रही है। यह मेरे बिना दुखी होकर वन में कैसे रहेगी? मैं तुम्हे छोड़कर जा रहा हूं सभी देवता तुम्हारी रक्षा करें। उस समय राजा नल का दिल दुख के मारे टुकड़े- टुकड़े हुआ जा रहा था।
शरीर में कलियुग का प्रवेश होने के कारण उनकी बुद्धि नष्ट हो गई थी। इसीलिए वे अपनी पत्नी को वन में अकेली छोड़कर वहां से चले गए। जब दमयंती की नींद टूटी, तब उसने देखा कि राजा नल वहां नहीं है। यह देखकर वे चौंक गई और राजा नल को पुकारने लगी।
जब दमयंती को राजा नल बहुत देर तक नहीं दिखाई पड़ें तो वे विलाप करने लगी। वे भटकती हुई जंगल के बीच जा पहुंची। वहां अजगर दमयंती को निगलने लगा। दमयंती मदद के लिए चिल्लाने लगी तो एक व्याध के कान में पड़ी। वह उधर ही घूम रहा था। वह वहां दौड़कर आया और यह देखकर दमयंती को अजगर निगल रहा है। अपने तेज शस्त्र से उसने अजगर का मुंह चीर डाला। उसने दमयन्ती को छुड़ाकर नहलाया, आश्वासन देकर भोजन करवाया।

मंगलवार, 17 मई 2011

जीवन का सफर किसके भरोसे करें पूरा...

पं. विजयशंकर मेहता
अपनी जीवन यात्रा अपने ही भरोसे पूरी की जाए। यदि सहारे की आवश्यकता पड़े तो परमात्मा का लिया जाए। सहयोग संसार से लिया जा सकता है, पर इसके भरोसे न रहें। संसार के भरोसे ही अपना काम चला लेंगे यह सोचना नासमझी है, लेकिन केवल अपने ही दम पर सारे काम निकाल लेंगे, यह सोच मूर्खता है।
इसलिए सहयोग सबका लेना है लेकिन अपनी मौलिकता को समाप्त नहीं करना है। इसके लिए अपने भीतर के साहस को लगातार बढ़ाते रहें। अपने जीवन का संचालन दूसरों के हाथ न सौंपें। हमारे ऋषिमुनियों ने एक बहुत अच्छी परंपरा सौंपी है और वह है ईश्वर का साकार रूप तथा निराकार स्वरूप। कुछ लोग साकार को मानते हैं।
उनके लिए मूर्ति जीवंत है और कुछ निराकार पर टिके हुए हैं। पर कुल मिलाकर दोनों ही अपने से अलग तथा ऊपर किसी और को महत्वपूर्ण मानकर स्वीकार जरूर कर रहे हैं। जो लोग परमात्मा को आकार मानते हैं, मूर्ति में सबकुछ देखते हैं वह भी धीरे-धीरे मूर्ति के भीतर उतरकर उसी निराकार को पकड़ लेते हैं जिसे कुछ लोग मूर्ति के बाहर ढूंढ रहे होते हैं। भगवान के ये दोनों स्वरूप हमारे लिए एक भरोसा बन जाते हैं।
वह दिख रहे हैं तो भी हैं और नहीं दिख रहे हैं तो भी हैं। यहीं से हमारा साहस अंगड़ाई लेने लगता है। जीवन में किसी भी रूप में परमात्मा की अनुभूति हमें कल्पनाओं के संसार से बाहर निकालती है। भगवान की यह अनुभूति यथार्थ का धरातल है। व्यर्थ के सपने बुनकर जो अनर्थ हम जीवन में कर लेते हैं, परमात्मा के ये रूप हमें इससे मुक्त कराते हैं। क्योंकि हर रूप के पीछे एक अवतार कथा है।
अवतार का जीवन हमारे लिए दर्पण बन जाता है। आइने में देखो, उस परमशक्ति पर भरोसा करो और यहीं से खुद का भरोसा मजबूत करो।

स्वयंबर

दमयन्ती ने कैसे पहचाना असली राजा नल को?
स्वयंवर की घड़ी आई। राजा भीमक ने सभी को बुलवाया। शुभ मुहूर्त में स्वयंवर रखा। सब राजा अपने-अपने निवास स्थान से आकर स्वयंवर में यथास्थान बैठ गए। तभी दमयन्ती वहां आई। सभी राजाओं का परिचय दिया जाने लगा। दमयन्ती एक-एक को देखकर आगे बढऩे लगी। आगे एक ही स्थान पर नल के समान ही वेषभुषा वाले पांच राजकुमार खड़े दिखाई दिए। यह देखकर दमयन्ती को संदेह हो गया, वह जिसकी और देखती उन्हें सिर्फ राजा नल ही दिखाई देते। इसलिए विचार करने लगी कि मैं देवताओं को कैसे पहचानूं और ये राजा है यह कैसे जानूं? उसे बड़ा दुख हुआ। अन्त में दमयन्ती ने यही निश्चय किया कि देवताओं की शरण में जाना ही उचित है। हाथ जोड़कर प्रणामपूर्वक स्तुति करने लगी। देवताओं हंसों के मुंह से नल का वर्णन सुनकर मैंने उन्हें पतिरूपण से वरण कर लिया है।
मैंने नल की आराधना के लिए ही यह व्रत शुरू कर लिया है। आप लोग अपना रूप प्रकट कर दें, जिससे में राजा नल को पहचान लूं। देवताओं ने दमयन्ती की बात सुनकर उसके दृढ़-निश्चय को देखकर उन्होंने उसे ऐसी शक्ति दी जिससे वह देवता और मनुष्य में अंतर कर सके। दमयन्ती ने देखा कि शरीर पर पसीना नहीं है। पलके गिरती नहीं हैं। माला कुम्हलाई नहीं है। शरीर स्थिर है। शरीर पर धूल व पसीना भी नहीं है। दमयन्ती ने इन लक्षणों को देखकर ही राजा नल को पहचान लिया।

पूर्णिमा पर क्या और क्यों करना चाहिए?

कहते हैं किसी भी माह की पूर्णिमा को दान करने से इसका बहुत ज्यादा फल मिलता है। आखिर पूर्णिमा को ही दान क्यों किया जाए? इसके पीछे क्या कारण और दर्शन है? कौन सी बात है जो पूर्णिमा को इतना खास बनाती है? पूर्णिमा पर नदियों में स्नान के बाद दान का महत्व क्यों है? इस परंपरा के पीछे दार्शनिक कारण भी और वैज्ञानिक भी। पूर्णिमा पर नदियों में स्नान और फिर उसके बाद दान, दोनों अलग-अलग विषय है। स्नान सीधे हमारे स्वास्थ्य से जुड़ा और दान हमारे व्यवहार से।
पूर्णिमा पर चंद्रमा की रोशनी सबसे ज्यादा होती है। इससे कई ऐसी किरणें निकलती हैं जो नदियों के पानी, वनस्पति और भूमि पर औषधीय प्रभाव डालती हैं। इसलिए पूर्णिमा पर नदियों में स्नान करने से उस औषधीय जल का प्रभाव हम पर भी होता है, जिससे हमें स्वास्थ्यगत फायदा होता है। नदी में स्नान के बाद दान का महत्व इसलिए है कि चंद्रमा मन का अधिपति होता है।
चंद्रमा की किरणों से युक्त जल में स्नान करने से मन को शांति और निर्मलता आती है। दान का महत्व इसीलिए रखा गया है क्योंकि जब हम शांत और निर्मल होते हैं तो ऐसे समय अच्छे कार्य करने चाहिए ताकि हमारे व्यक्तित्व का विकास हो। दान करने से मन पर सद्भाव और प्रेम जैसी भावनाओं का प्रभाव बढ़ता है। इससे हमारे व्यक्तित्व का सकारात्मक विकास होता है।

कहानी

एक शहादत ऐसी भी!
सुरेंद्र शर्मा
चमनपुर पर घोर संकट आ गया था। शत्रु सेना ने चारों ओर से उसे घेर लिया था। किसी भी समय हमला हो सकता था। इस मुसीबत का सामना करने के लिए सेना तैयार नहीं थी। समय बहुत कम था। राजा तिमनपाल ने सेनापतियों और मंत्रियों की एक बैठक बुलाई। संकट से निपटने के लिए विचार-विमर्श किया जाने लगा।
सभी को असमंजस में पड़ा देखकर वृद्ध और सेवानिवृत सेनापति बोल पड़े, ‘चमनपुर की रक्षा मैं अकेले करुंगा।’
‘आप निश्चित हो जाइए, महाराज’, सेवानिवृत सेनापति महायायन आत्मविश्वास से बोले और उठकर बाहर चले गए।
शत्रु सेना गांवों और नगरों को रौंदती हुई दो दिन बाद चमनपुर के एकदम नज़दीक आ गई। एक दिन शत्रु सेना ने आसपास घूमते हुए वृद्ध महायायन को पकड़ लिया और अपने राजा के सामने पेश किया।
‘यह कौन है?’ राजा ने प्रश्न किया। ‘हुज़ूर, यह हमारे पड़ाव के आसपास घूम रहा था। शायद यह शत्रु का जासूस है’, सेनापति ने जवाब दिया। ‘नहीं’, महायायन गरजकर बोले। ‘मैं जासूस नहीं हूं बल्कि चमनपुर का सैनिक हूं। तुम चमनपुर को उजाड़ नहीं सकते। उसपर हमले का विचार छोड़ दो।’
‘यदि हम विचार न छोड़ें तो?’ शत्रु राजा ने ठहाका मारकर प्रश्न किया।
‘तब तुम्हें मेरी लाश पर से गुज़रना होगा’ वृद्ध ने दृढ़ता से कहा।
तभी शत्रु राजा को एक मज़ाक सूझा। ‘हम चमनपुर पर हमले का विचार त्याग सकते हैं, लेकिन हमारी एक शर्त है।’
‘तुम्हें नदी में डुबकी लगानी होगी। जितनी देर तुम्हारा सिर पानी में डूबा रहेगा, मैं आक्रमण नहीं करूंगा। लेकिन जैसे ही तुम्हारा सिर पानी से बाहर आया तो मेरी सेना कूच कर देगी।’ शत्रु राजा ने ठहाका मारकर कहा। वृद्ध महायायन गम्भीर थे। कुछ देर विचार कर वह बोले, ‘मुझे शर्त मंज़ूर है।’
भद्रावती नदी के तट पर भारी भीड़ थी। एक और शत्रु सेना कूच की तैयारी के साथ खड़ी थी, दूसरी और चमनपुर की जनता। महायायन नदी में कूद पड़े।
समय बीतता गया। एक घंटा हो गया पर महायायन का सिर पानी से ऊपर न आया। शत्रु राजा को संदेह हुआ कि बूढ़ा पानी के अंदर तैर कर भाग तो नहीं गया। उसने गोताखोर पानी में उतारे।
कुछ देर में वे एक लाश को निकाल लाए। वह लाश महायायन की ही थी। ‘महाराज’ गोताखोरों ने कहा, ‘इसने नदी के तल में एक चट्टान को हाथों से जकड़ रखा था। बड़ी मुश्किल से हम इसे चट्टान से अलग कर पाए।’
गोताखोरों का जवाब सुनकर शत्रु राजा सन्न रह गया। उस का दिल पिघल गया और वह हमला किए बगैर ही वापस लौट गया। दूसरे तट से महायायन की जय-जयकार गूंजने लगी।
www.bhaskar.com

लोककथाः

चिड़ा-चिड़िया की कहानी
देवेश सिंगी
एक चिड़िया के जोड़े को अंडे देने के लिए घोंसला बनाना था। उन्होंने एक बूढ़े साधू से पूछकर उसकी लम्बी दाढ़ी में अपना घोंसला बनाया और उसमें दो अंडे दिए। एक शाम को चिड़िया अंडे सेने लगी थी और चिड़ा चिड़िया के लिए खाने की तलाश में गया। एक बड़ा-सा सुंदर कमल का फूल देखकर वह उसपर बैठकर उसका मीठा रस चूसने लगा। तभी आकाश काला होने लगा, रात घिरी और कमल बंद हो गया। चिड़ा भी उसमें बंद हो गया। वह जब घोंसले पर वापस नहीं आया, तो चिड़िया समझी कि वह उसे छोड़कर कहीं ओर चला गया है।
दूसरे दिन सुबह जब कमल फिर से खिला तो चिड़ा हांफता-कांपता हुआ वापस घोंसले में पहुंचा। चिड़िया बहुत नाराज़ थी। चिड़े ने लाख समझाया कि वह किस तरह कमल के अंदर बंद हो गया था। परंतु चिड़िया मानने को तैयार नहीं थी। चिड़ा चतुर था बोला, ‘मैं सौगंध खाकर कहता हूं कि यदि मैं झूठ बोल रहा हूं तो अभी इसी समय इस बूढ़े साधू का सिर कटकर धरती पर गिर जाए।’ साधू ने सुना तो वह गुस्सा हो गया। उसने उन्हें अपनी दाढ़ी में घोंसला बनाने की जगह दी और वह उसी के मरने की बात कह रहा है। उसने उसी समय घोंसला अपनी दाढ़ी में से निकाला और दूर एक घाटी में फेंक दिया। घोंसला घनी लम्बी घास पर जा गिरा। चिड़ा चिड़ी दोनों घबराए। लड़ना भूलकर वे उड़कर अंडों के पास गए। अंडे सुरक्षित देखकर उनकी जान में जान आई।
कुछ समय बाद अंडे फूटे और उसमें से प्यारे से बच्चे निकलकर चीं-चीं करने लगे। वे दोनों खुश थे परंतु एक दिन कुछ लोग घाटी में आए और सफाई करने के लिए घास में आग लगा दी। बच्चे बहुत छोटे-छोटे थे। उनके तो पंख भी नहीं निकले थे। दोनों क्या करें? आग लगातार पास आ रही थी। चिड़िया ने कहा, ‘मैं बच्चों के ऊपर और तुम नीचे रहो। हम अपने बच्चों के साथ ही मरेंगे। मैं पहले मरुंगी।’
परंतु चिड़ा नहीं माना, ‘नहीं, मैं ऊपर रहता हूं, तुम नीचे रहो। पहले मैं मरुंगा।’ अंत में यही तय हुआ कि चिड़ा ऊपर रहेगा। आग के नज़दीक आते ही चिड़ा फुर्ती से उड़ गया। आग ने घोंसले को जला दिया। चिड़िया और बच्चे मर गए। चिड़िया मर कर दूसरे जन्म एक राजा के यहां पैदा हुई परंतु उसे यह याद रहा कि कैसे धोखा देकर चिड़ा उन्हें मरने के लिए छोड़कर उड़ गया था। वह दुनिया के हर आदमी से इतनी नाराज़ थी कि वह किसी से बोलती भी न थी। चिड़ा भी कुछ समय बाद मर कर एक आदमी के रूप में पैदा हुआ। राजा ने घोषणा कर रखी थी, जो राजकुमारी को बात करना सिखा देगा वह उसका विवाह भी उससे कर देगा।
एक नवयुवक ने घोषणा सुनी। वह एक शोवा (बहुत बुद्धिमान व्यक्ति जिसे सभी कुछ मालूम होता है) के पास गया और उसकी मदद मांगी। शोवा चिड़िया के जलने वाली बात जानता था। उसने कहा, ‘तुम्हें याद है कि जब घाटी की बड़ी-बड़ी घास में आग लगी थी तब तुम चिड़िया और बच्चों को जलने के लिए छोड़कर उड़ गए थे। तुम वहां जाओ राजा के समाने तुम उसे चिड़ा-चिड़िया की वही कहानी सुनाना परंतु ध्यान रखना, यह कहने के बजाय कि तुम चिड़िया और बच्चों को जलता छोड़ कर उड़ गए थे, कहना कि चिड़िया घोसले के ऊपर थी और वह तुम्हें व बच्चों को जलने के लिए छोड़कर उड़ गई थी।’
वह नवयुवक राजा को साथ लेकर राजकुमारी के पास गया। और अपनी कहानी सुनाने लगा। बहुत समय पहले एक सुंदर चिड़िया का जोड़ा था। वे एक दूसरे को बहुत चाहते थे। उन्होंने मिलकर एक बूढ़े साधू की लम्बी दाढ़ी में घोंसला बनाया परंतु किसी बात पर गुस्सा होकर साधू ने घोंसला निकालकर घाटी की बड़ी-बड़ी घास पर फेंक दिया। कुछ लोगों ने घाटी की घास में आग लगा दी तो चिड़े ने चिड़िया से कहा मैं ऊपर रहता हूं तुम नीचे रहो। हम बच्चों के साथ ही मरेंगे। परंतु चिड़िया नहीं मानी। और उसने खुद ऊपर रहने की ज़िद की। परंतु जब आग पास आई तो वह फुर्र से उड़ गई। बेचारा चिड़ा बच्चों के साथ जलकर मर गया। राजकुमारी युवक के इस झूठ को सहन न कर सकी। वह गुस्से से लाल होकर चिल्ला पड़ी, ‘झूठ, बिलकुल झूठ। तेरी बात बिलकुल झूठ है। ऊपर चिड़ा था और वह धोखा देकर उड़ गया था।’
‘नहीं राजकुमारी जी, सच्चाई यही है कि चिड़िया ऊपर थी और मरने से डरकर उड़ गई थी।’ युवक ने फिर कहा।
वे दोनों ‘कौन बचा, कौन जला’ पर बहस करने लगे। दोनों अपनी-अपनी बात पर अड़े हुए थे। राजा चकित होकर उन्हें देख रहा था। अंत में उसने उन्हें रोककर कहा, ‘नौजवान, तुम्हारी इस चिड़ा-चिड़ी की कहानी का कुछ-कुछ मतलब मैं समझ गया हूं। लगता है तुमने जानबूझकर चिड़िया को धोखा दिया था परंतु तुम राजकुमारी को बुलवाने में सफल रहे हो अत: वादे के अनुसार मैं राजकुमारी का विवाह तुमसे करता हूं। इस बार उसे धोखा मत देना।’
युवक ने मुस्कुराकर राजकुमारी की ओर देखा। फिर दोनों का विवाह हो गया।
www.bhaskar.com

कहानी

स्वर्ग का चाचा
Bhaskar
बहुत पहले की बात है। धरती पर दो सालों तक बिलकुल वर्षा नहीं हुई। अकाल पड़ गया।
अपने तालाब को सूखता देख कर मेढ़क मेंढक को चिंता हुई। उसने सोचा, अगर ऐसा रहा तो वह भूखा मर जाएगा। उसने सोचा कि इस अकाल के बारे स्वर्ग में जाकर वहां के राजा को बताया जाए।
साहस कर मेंढक अकेला ही स्वर्ग की ओर चल पड़ा। राह में उसे मधुमक्खियों का एक झुंड मिला। मक्खियों के पूछने पर उसने बताया कि भूखे मरने से अच्छा है कि कुछ किया जाए। मक्खियों का हाल भी अच्छा नहीं था। जब फूल ही नहीं रहे तो उन्हें शहद कहां से मिलता। वे भी मेंढक के साथ चल दीं।
आगे जाने पर उन्हें एक मुर्गा मिला। मुर्गा बहुत उदास था। जब फसल ही नहीं हुई, तो उसे दाने कहां से मिलते। उसे खाने को कीड़े भी नहीं मिल रहे थे। इसलिए मुर्गा भी उनके साथ चल दिया।
अभी वे सब थोड़ा ही आगे गए थे कि एक खूंखार शेर मिल गया। वह भी बहुत दुखी था। उसे खाने को जानवर नहीं मिल रहे थे। उनकी बातें सुन शेर भी उनके साथ हो लिया।
कई दिनों तक चलने के बाद वे स्वर्ग में पहुंचे। मेंढक ने अपने सभी साथियों को राजा के महल के बाहर ही रुकने को कहा। उसने कहा कि पहले वह भीतर जाकर देख आए कि राजा कहां है।
मेंढक उछलता हुआ महल के भीतर चला गया। कई कमरों में से होता हुआ वह राजा तक पहुंच ही गया। राजा अपने कमरे में बैठा परियों के साथ बातें कर रहा था। मेंढक को क्रोध आ गया। उसने लम्बी छलांग लगाई और उनके बीच पहुंच गया। परियां एकदम चुप हो गईं। राजा को एक छोटे से मेंढक की करतूत देख गुस्सा आ गया।
‘पागल जीव! तुमने हमारे बीच आने का साहस कैसे किया?’ राजा चिल्लाया। परंतु मेंढक बिलकुल नहीं डरा। उसे तो धरती पर भी भूख से मरना था। जब मौत साफ दिखाई दे तो हर कोई निडर हो जाता है।
राजा फिर चीखा। पहरेदार भागे आए ताकि मेंढक को पकड़ कर महल से बाहर निकाल दें। मगर इधर-उधर उछलता मेंढक उनकी पकड़ में नहीं आ रहा था। मेंढक ने मधुमक्खियों को आवाज दी। वे सब भी अंदर आ गईं। वे सब पहरेदारों के चेहरों पर डंक मारने लगीं। उनसे बचने के लिए सभी पहरेदार भाग गए।
राजा हैरान था। तब उसने तूफान के देवता को बुलाया। पर मुर्गे ने शोर मचाया और पंख फड़फड़ा कर उसे भी भगा दिया। तब राजा ने अपने कुत्तों को बुलाया। उनके लिए भूखा खूंखार शेर पहले से ही तैयार बैठा था।
अब राजा ने डर कर मेंढक की ओर देखा। मेंढक ने कहा, ‘महाराज! हम तो आपके पास प्रार्थना करने आए थे। धरती पर अकाल पड़ा हुआ है। हमें वर्षा चाहिए।’
राजा ने उससे पीछा छुड़ाने के लिए कहा, ‘अच्छा चाचा! वर्षा को भेज देता हूं।’
जब वे सब साथी धरती पर वापस आए तो वर्षा भी उनके साथ थी। इसलिए वियतनाम में मेंढक को ‘स्वर्ग का चाचा’ कह कर पुकारा जाता है। लोगों को जब मेंढक की आवाज़ सुनाई देती है वे कहते हैं, ‘चाचा आ गया तो वर्षा भी आती होगी।’