गुरुवार, 14 अगस्त 2014

अपराधी की उम्र कोई मुद्दा नहीं

केंद्र सरकार ने 'किशोर न्याय (बाल संरक्षण और देखभाल) अधिनियम 2000' यानी जुवेनाइल जस्टिस एक्ट में बदलाव को मंजूरी देकर इस संबंध में पिछले कुछ समय से चल रही बहस को एक निश्चित मुकाम पर पहुंचाने की कोशिश की है। संशोधित कानून के मुताबिक अब हत्या और बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों में लिप्त 16 से 18 साल के किशोरों पर मुकदमा चलाने के फैसले का हक जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड को दिया जाएगा। बोर्ड ही तय करेगा कि मुकदमा उसके यहां चलेगा या सामान्य अदालत में। केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा मंजूर इस प्रस्तावित संशोधन से स्पष्ट है कि उसने नाबालिगों की उम्र सीमा घटाने की मांग नहीं मानी है और साथ ही यह भी स्पष्ट कर दिया है कि कानूनी प्रावधानों के तहत किसी मुकदमे में जघन्य अपराध में संलिप्त किसी किशोर या नाबालिग को किसी भी हालत में फांसी या उम्रकैद की सजा नहीं दी जाएगी।
इसमें कोई दो राय नहीं कि सरकार ने संशोधित कानून के प्रस्ताव को मंजूरी देते वक्त किशोर न्याय की मूल अवधारणा और विधिशास्त्र के स्थापित सिद्धांतों को ध्यान रखा है यानी उसने अपराध की गंभीरता को आधार बनाकर अधकचरी आपराधिक मानसिकता को संपूर्ण मानते हुए किशोरावस्था की उम्र घटा देने को न्यायसम्मत नहीं माना है। मौजूदा कानून में सरकार जो बदलाव करने जा रही है उससे संभावित अपराधियों में सजा का खौफ पैदा करने में तो मदद मिल सकती है, लेकिन इसे समस्या का अंतिम समाधान नहीं माना जा सकता। सवाल है कि इस संशोधित कानून के मसौदे के मंजूरी देने से पहले सरकार ने क्या इस बात की भी समीक्षा कि 'किशोर न्याय अधिनियम, 2000' में क्या कमी रह गई थी? हकीकत यह है कि कानून में कमी नहीं थी, बल्कि संबंधित कानून के अधिकतर प्रावधानों को लागू ही नहीं किया जा सका। इस कानून के बन जाने के 13 वर्ष बाद भी पुलिस, अभियोजन पक्ष, वकीलों, दंडाधिकारियों और अदालतों को कानून के प्रावधानों की पर्याप्त जानकारी नहीं है। किशोरों के विरुद्ध दर्ज हो रहे लगभग तीन-चौथाई मुकदमे ऐसे हैं, जो दर्ज ही नहीं होने चाहिए थे। किशोरों की दो-तिहाई गिरफ्तारियां गैरकानूनी हैं। किशोरों को सरकारी संरक्षण में रखने के लिए कानून में बताई गई व्यवस्था कहीं भी उपलब्ध नहीं है। इस कानून के लगभग 80 प्रतिशत प्रावधान देश में लागू ही नहीं हो पाए हैं। फिर यह समझ से परे है कि पुराना कानून बदलकर सरकार नया कानून लाने का फैसला क्यों कर लिया? दिल्ली में चलती बस में हुई सामूहिक बलात्कार की बर्बर घटना में जब एक किशोर को भी दोषी पाया गया, तभी से यह मांग हो रही थी कि गंभीर अपराधों में लिप्त होने पर सजा दिलाने के लिए बालिग मानने की उम्र घटाई जानी चाहिए। इस मसले पर पिछले साल सुप्रीम कोर्ट में याचिका भी दायर की गई थी। मगर मौजूदा कानूनों के तहत अदालत ने नाबालिगों की उम्र में कोई फेरबदल करने से इंकार कर दिया था। समाजशास्त्रियों और बच्चों या किशोरों के लिए काम करने वाले स्वयंसेवी संगठनों ने भी कानून में बदलाव करने के मसले पर असहमति जताई और इस समस्या की बुनियादी वजहों पर गौर करने पर जोर दिया। इन संगठनों ने यह कहकर उम्र घटाने का विरोध किया कि इससे उन बच्चों के सुधार का रास्ता बंद हो जाएगा, जो अपनी सामाजिक परिस्थितियों के कारण या मजबूरीवश अपराध के रास्ते पर चल पड़ते हैं। लेकिन आंकड़ों का हवाला देते हुए कई हलकों से बलात्कार और हत्या जैसे अपराधों के मामले में नाबालिगों की उम्र से संबंधित कानून बदलने की मांग की जा रही थी। ऐसी मांग करने वालों की दलील थी कि अब नाबालिगों का व्यवहार भी आम अपराधियों जैसा होने लगा है, वे भी खतरनाक अपराध में लिप्त होने लगे हैं।निर्भया कांड में सबसे ज्यादा क्रूरता भी एक नाबालिग ने ही दिखाई थी, पर जुवेनाइल जस्टिस एक्ट का लाभ उठाकर वह सस्ते में छूट गया। इन दो परस्पर विपरीत विचारों के बीच का एक मत यह रहा कि क्यों न अपराध की प्रकृति के आधार पर सजा तय हो। अगर अपराध गंभीर है तो किशोर आरोपी को सामान्य अपराधी के तौर पर देखा जाए।निर्भया बलात्कार और हत्याकांड के बाद उपजे जनाक्रोश को ध्यान में रखते हुए केंद्र की तत्कालीन यूपीए सरकार ने न्यायमूर्ति जेएस वर्मा की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया था। समिति को स्त्री-विरोधी अपराधों से संबंधित कानूनी प्रावधानों को और कठोर बनाने के उपाय सुझाने का जिम्मा दिया गया था।इस समिति की रिपोर्ट के आधार पर भारतीय दंड संहिता के संबंधित प्रावधानों में परिवर्तन भी किए गए। वर्मा समिति के समक्ष एक अहम प्रश्न यह भी था कि क्या किशोरावस्था की उम्र को 18 से घटाकर 16 वर्ष किया जाना चाहिए?बहुत विचार-विमर्श के बाद समिति ने किशोरावस्था की उम्र 18 वर्ष ही रखने का सुझाव दिया था। इसी मुद्दे को लेकर सुप्रीम कोर्ट में कोई आधा दर्जन याचिकाएं भी दायर की गई थीं, जिनमें किशोरावस्था की अधिकतम उम्र 16 वर्ष करने की गुहार लगाई गई थी।सुप्रीम कोर्ट के तीन न्यायाधीशों की एक खंडपीठ ने इन सभी याचिकाओं को एकसाथ सुनते हुए किशोरावस्था की उम्र को पुनः परिभाषित करने से इंकार कर दिया था। खंडपीठ ने कहा था कि किशोर न्याय अधिनियम, 2000 के प्रावधान अंतरराष्ट्रीय मानकों को ध्यान में रख कर बनाए गए तर्कसंगत प्रावधान है जिनमें फिलहाल हस्तक्षेप करने की जरूरत नहीं है। दरअसल, किशोरावस्था की अधिकतम सीमा 18 वर्ष निर्धारित करते समय बाल-मनोवैज्ञानिकों और व्यवहार-विशेषज्ञों की राय को आधार बनाया गया था।सुप्रीम कोर्ट का मत था कि 18 वर्ष तक की आयु वाले किशोरों को सुधारकर उन्हें समाज की मुख्यधारा में लाने की बहुत गुंजाइश बाकी रहती है। निर्भया कांड जैसे गंभीर अपराधों को रोकने की पृष्ठभूमि में किशोरावस्था की उम्र कम किए जाने की दलील को सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने यह कह कर नकार दिया था कि इस प्रकार के गंभीर अपराध ऐसे घटित हो रहे कुल संगीन अपराधों की संख्या के मुकाबले बहुत कम है और अपवादस्वरूप ही सामने आते हैं। अपवादों को आधार बनाकर सामान्य कानून में परिवर्तन करना विधिशास्त्र के स्थापित सिद्धांतों के विपरीत होगा।नून बनाने वालों ने कानून लागू करने वालों से कभी यह पूछने की जहमत उठाई कि अब तक जिला मुख्यालयों पर किशोर अपराधियों को रखने के लिए 'निरीक्षण गृह,' 'सुरक्षित स्थान,' 'बाल भवन,' और देखभाल के बाद रखने के लिए कानूनसम्मत मुकम्मल व्यवस्था क्यों उपलब्ध नहीं है।सामुदायिक सेवा, परामर्श केंद्र और किशोरों की सजा से संबंधित अन्य साधन अभी तक क्यों विकसित नहीं हो पाए हैं? कितने प्रतिशत किशोर बार-बार अपराधों में शामिल हो रहे हैं और क्यों? राज्य का संरक्षण पाने के हकदार कितने बच्चों को सरकारी संरक्षण में रखने के उचित साधन राज्यों के पास है?दरअसल, हमें यह समझ लेना चाहिए कि अगर कानून पूर्ण रूप से लागू ही नहीं होंगे तो उनमें बार-बार संशोधन के पैबंद लगाने से कोई फायदा नहीं होने वाला है।दरअसल, मीडिया में जब भी किसी किशोर द्वारा गंभीर अपराध करने की खबर आती है, जनमत न्यायमूर्ति वर्मा समिति की रिपोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था को मानने से इंकार करता नजर आता है।जनता का तर्क होता है कि संगीन अपराधों में किशोरों की भागीदारी लगातार बढ़ती जा रही है, लिहाजा समय आ गया है कि किशोरावस्था की आयु-सीमा घटाकर उन्हें उचित दंड देने की व्यवस्था की जाए।मीडिया का एक तबका भी जनमत की इस मांग को बगैर सोचे-समझे तूल देने लगता है। कानून में कोई भी परिवर्तन करने से पहले यह नहीं भूलना चाहिए कि जनता की राय हमेशा तर्कसंगत और न्यायसम्मत नहीं होती।जनता की राय को कानून और न्याय की कसौटी पर परखना प्रशासनिक व्यवस्था की जिम्मेदारी होती है।निर्णय लेते समय उसी जनमत को महत्व दिया जाना चाहिए, जो प्रगतिशील और विवेकपूर्ण हो और सामुदायिक विकास और मानवता के सामूहिक मापदंडों पर खरा उतरता हो।वरना भीड़तंत्र जनमत का अपहरण करके लोकतंत्र को मजबूरी की जंजीरों में जकड़ लेगा और तालिबानी और खाप पंचायतों वाली मानसिकता न्यायिक व्यवस्था का हिस्सा बनने लगेगी। इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने की जरूरत है। >

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