शनिवार, 16 अगस्त 2014

पहली बार बना सामाजिक विमर्श का माहौल

० वरना तिरंगा फहराकर और देशभक्ति के गीत बजाकर रस्म पूरी की जाती थी
देश ने आजादी की 68 वीं सालगिरह मनाई। दिल्ली के लाल किले से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश को संबोधित किया, तो उन्होंने महज राजनीतिक और सरकारी भाषण ही नहीं दिया, बल्कि सामाजिक मुद्ददे भी उठाये। इस मौके पर पहली बार कोई प्रधानमंत्री देशवासियों से सीधे संवाद करता नजर आया। मोदी ने सांप्रदायिकता, जातिवाद और प्रांतवाद को भूलकर देश-निर्माण में लग जाने को कहा। बेटियों की सुरक्षा और गरीबी से लड़ने का मुद्दा भी उठाया। नक्सलवादियों और आतंकवादियों से कहा कि वे कंधे पर बंदूक लेकर धरती को लाल तो कर सकते हैं, उनके कंधे पर हल होगा तो धरती हरी-भरी लहलहाती नजर आएगी। मोदी ने कहा, ‘माता-पिता बेटियों पर बंधन डालते हैं, लेकिन उन्हें अपने बेटों से भी घर से बाहर निकलने पर पूछना चाहिए कि वे कहां जा रहे हैं। किसी महिला के साथ दुष्कर्म करने वाला व्यक्ति किसी का बेटा होता है। एक माता-पिता होने के नाते क्या वे अपने बेटों से पूछते हैं कि उनका बेटा कहां जा रहा है?’ मोदी के इस भाषण से पहली बार आजादी के दिन सामाजिक विमर्श का माहौल बना है। वरना तो देश भर में तिरंगा फहराकर और देशभक्ति के फिल्मी गीत बजाकर 15 अगस्त की रस्म पूरी कर ली जाती है। आजादी पर भाषण दिये जाते हैं, फ्रीडम फाइटर्स को याद किया जाता है, देश की अच्छी बातों और उपलब्धियों पर गर्व व्यक्त हो जाता है, पर यह शायद ही किसी के मन में आता है कि आजादी के मायने आखिर क्या हैं! क्या सिर्फ सरहदों तक अपना राज होना ही आजादी है? क्या अपना झंडा, अपना राष्ट्रगान, अपनी करेंसी और अपनी सरकार होना ही आजादी है? नागरिकों के लिए आजादी का मतलब क्या है? या यों कहें कि क्या होना चाहिए? अंग्रेजों से लंबे संघर्ष के बाद 15 अगस्त, 1947 को भारत आजाद हुआ था। अपनी सरकार बनी, तो देशवासियों को लगा कि अब उनका जीवन बदल जायेगा। काफी कुछ बदला भी। देश भर में स्कूल, कारखाने और अस्पताल खुले। सड़कें, रेलवे लाइनें और बांध बने। साक्षरता, बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं, औसत आयु और औसत आय बढ़ीं। श्वेत और हरित क्रांतियां हुईं। दुग्ध उत्पादों और खाद्यान्नों के लिए देश आत्मनिर्भर हो गया। सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि तमाम विविधताओं, अनेकताओं और मतभेदों के बावजूद लोकतंत्र हमारे यहां सफल रहा।
क्या हम कभी सोचते हैं अपने दायित्वों के बारे में? - क्या कभी हमारे मन में किसी गरीब बच्चे को पढ़ाने का खयाल आता है? - क्या कभी हम किसी भूखे को खाना खिलाते हैं? - क्या हमने कभी बिना किसी स्वार्थ के किसी जरूरतमंद की मदद की है? - क्या कभी शोहदों को सरेराह छेड़छाड़ करते देखकर हमारा खून खौलता है? - क्या कभी हमारे मुंह से कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ आवाज निकली है? - क्या हमने कभी दहेज लने या देने का विरोध किया है? - क्या हमने कभी किसी सरकारी दफ्तर में अपना काम जल्दी कराने के लिए रिश्वत नहीं दी है? - क्या ट्रैफिक पुलिस द्वारा पकड़े जाने पर हम कॉंस्टेबल को चंद नोट देकर बच निकलने की जुगत में नहीं रहते? - क्या हमारे मन में सिनेमाघर, बस, टिकट बुकिंग या बैंक की लाइन तोड़कर अपना काम जल्दी कराने की मंशा होती है? - क्या हम बस या ट्रेन में बच्चों-बूढ़ों-महिलाओं को अपनी सीट देते हैं? - क्या हम जरा ठहरकर, सड़क पार करते किसी नेतृहीन की मदद करते हैं? - क्या हम सड़क पर आपस में लड़ते हुए लोगों को अलग करने की कोशिश करते हैं? - क्या हमने कभी किसी को सार्वजनिक स्थान पर थूकते, कचरा फैलाते या पेशाब करते हुए देखकर टोका है? - क्या अपने से ताकतवर के सामने सिर झुकाने और अपने से कमजोर का सिर अपने सामने झुकवाने की आदत से हम बाज आये हैं? - क्या किसी घर से झगड़े की आवाज सुनकर हमने उसे सुलझाने के बारे में कभी सोचा है? - क्या कभी किसी बाल मजदूर को छुड़ाने की कोशिश की है? - क्या दूसरों का दुख दूर करने और अपनी खुशियां दूसरों में बांटने की भावना हमारे मन में कभी आयी है? - क्या हमने कभी सार्वजनिक स्थानों पर परीक्षाओं के दौरान लाउडस्पीकर बजाये जाने का विरोध किया है? - क्या अफवाहें और सांप्रदायिक तनाव फैलाने वालों का कॉलर पकड़कर हमने कभी उनसे पूछा है कि भई, ऐसा क्यों करते हो? - क्या कभी खराब साइलेंसर वाले किसी बाइकर को फटकार लगाई है? - क्या ऑटो-टैक्सी में न बैठाने वाले ड्राइवर की शिकायत कभी ट्रैफिक पुलिस से की है? ऐसे बहुत से सवाल और भी हो सकते हैं। इनके जवाब में बहुत से लोग यह भी कह सकते हैं कि यह क्या हमारा काम है? सरकार, पुलिस और अदालतें आखिर किसलिए हैं? मगर, इस सवाल के बाद यह सवाल उठना भी लाजिमी है कि इन सबके होने के बाजूद ये तमाम हालात आखिर पैदा क्यों होते हैं? इस सवाल का जवाब ऊपर के सवालों में ही छिपा है। ठीक है, तमाम जिम्मेदारी सिस्टम की है। फिर हमारे दायित्व क्या हैं? क्या समाज के लिए हमारा कोई सरोकार नहीं है? क्या हमारी यह सोच सही मानी जा सकती है कि अधिकार हमारे और कर्तव्य सिस्टम के?

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