रविवार, 17 अगस्त 2014

भारत के लिए कलंक है बालश्रम

आजाद हिंदुस्तान में गुलामी करते बच्चे
आजादी के छह दशक बाद भी बालश्रम भारत के लिए कलंक बना हुआ है। ढाबों-होटलों, ईंट-भट्टों और खेत खलिहानों से लेकर कल-कारखानों में काम कर रहे लाखों बच्चों के लिए आज आजादी के कोई मायने नहीं हैं। स्वतंत्रता दिवस पर उस दिन काम नहीं होता। लिहाजा उनकी दिहाड़ी अलग से कट जाती है। अलबत्ता कुछ बच्चों के लिए काम से निजात जरूर मिल जाती है और वे पतंग उड़ाने या 'लूटने' निकल पड़ते हैं। इनके लिए आजादी का दिन महज 'एक दिन' भर है। असल में न तो इन्हें पढ़ने की आजादी है और न खेलने की। न ही इन्हें पौष्टिक आहार नसीब है और न ही साफ-सुथरे कपड़े मिलते हैं पहनने के लिए।
कौन हैं ये बच्चे? कहां से चले आए शहरों और महानगरों में। आपने आफिस जाते समय ट्रैफिक सिग्नल पर गाडि़यों के शीशे साफ कर पैसे मांगते देखा होगा। बस, ट्रेन में गाना गाकर पैसे मांगते भी देखा हो मगर कुछ मेहनती बच्चे आपको छोटी दुकानों और ढाबों पर काम करते भी मिल जाएंगे। पूछने पर बताते हैं कि घर की मदद के लिए वे काम कर रहे हैं। पिता कम कमाते हैं तो स्कूल कैसे भेजें। मां-बाऊजी की वह मदद कर रहा है। बड़ों की सेवा करने में उसका बचपन खो रहा है। हर दिन मरता है और वह हर दिन जीता है। यह एक ऐसा गुलामी है, जो न सरकार को दिखाई देती है और न समाज को। आजादी के जश्न में चंद स्कूलों के बच्चों को शामिल कर हम मिठाई खिलाते हैं और बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। मगर नेताओं और अधिकारियों को बेघर और बालश्रम में जकड़े बच्चे नहीं दिखाई देते।
कुछ बच्चे ऐसे हैं, जिन्हें अपने मां-बाप के बारे में नहीं पता। लोगों की नजारों में ये स्ट्रीट चिल्ड्रेन या फिर लावारिस बच्चे हैं, जिन्हें लोग नफरत व हिकारत भरी नजरों से देखते हैं। आज जब देश में हर तरफ शिक्षा का प्रचार-प्रसार हो रहा हैं, तो वहीं ऐसे बच्चे शिक्षा के अधिकार से वंचित हैं। आजाद देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू का सपना था कि देश का हर बच्चा शिक्षित हो। मगर आज इन बच्चों की शिक्षा तो दूर कोई सुध लेने वाला नहीं। सड़कों से लेकर स्टेशन तक, मंदिरों के बाहर मंडरा रहे इन फटे हाल बच्चों पर सरकारी तंत्र की नजर क्यों नहीं जाती।
अपनी जीविका चलाने के लिए ये बच्चे रेड सिग्नल पर करतब दिखा कर भीख मांगते हैं, कोई अखबार बेचता है, कोई ट्रेन में झाड़ू लगाता है तो कोई छोटी-मोटी दुकानों में काम कर अपना गुजारा करता हैं। सुबह से लेकर रात तक इनका जीवन सड़क से शुरू होकर सड़क पर ही खत्म हो जाता है। ये आजाद देश के सम्य समाज का हिस्सा नहीं बन पाते। ना ही इन्हें कोई अपनाने को पहल करता है। इन्हें दो-चार रुपए देकर लोग चलता कर देते हैं। ये बच्चे बेघर हैं। इनका कोई अभिभावक नहीं। ये उन लोगों के रहमो करम पर हैं, जो इनसे अच्छा या बुरा काम करा कर अपना मतलब साधते हैं।
आंकड़ों पर नजर डालें तो चार लाख से भी ज्यादा बच्चे आजाद हिंदुस्तान में सड़कों पर अपना जीवन बिता रहे हैं। अकेले दिल्ली के आंकड़े देखें तो करीब 50 हजार बच्चे ऐसे हैं जिनके पास अपना कोई घर नहीं। सबसे बड़ी विडंबना यह हैं कि इनमें 15 से 20 फीसद लड़कियां हैं। आज जहां रेप कैपिटल बन चुकी दिल्ली में लड़कियां सुरक्षित महसूस नहीं करती, वहीं जहरा सोचिए सड़क पर रहने वाली इन लड़कियों की क्या हालत होगी? क्या ऐसे आजाद देश की कल्पना किसी ने की होगी, जहां बच्चे गुलामों जैसी जिंदगी जी रहे हैं। ऐसे ज्यादातर बच्चे चाहे वह लड़का हो या लड़की यौन हिंसा का शिकार होते हैं। आंकड़ों के मुताबिक लगभग 50 फीसद बच्चे यौन प्रताड़ना या यौन हिंसा का शिकार होते हैं। कई लड़कियों को जबरदस्ती जिस्मफरोशी में धकेल दिया जाता है।
कई बच्चे छोटी उम्र में ही घर छोड़ कर दूसरे शहर आ जाते हैं, इस उम्मीद में कि स्थिति बेहतर होगी पर होता उसका उलटा है। न तो उनके माता-पिता को फ्रिक होती है कि बच्चे कहां गए, न ही उनके पास इतने पैसे होते हैं कि उनकी खोज-खबर ले सकें। उन्हें तो यही लगता है अच्छा है अब कम पैसे में भी गुजारा होगा। फिर यही बच्चे लावारिस बच्चों की श्रेणी में आ जाते हैं। कम उम्र में ये बच्चे ऐसे काम सीखते और करते हैं जिनकी कल्पना शायद ही हम कर सकें। जुआ खेलना, चोरी करना, सिगरेट, शराब और नशीली चीजों का सेवन इनकी जिंदगी का हिस्सा हो जाता है। इन्हें न अपने कल की चिंता होती है और ना ही अपने भविष्य की। यही बच्चे बड़े होकर अपराधी बनते हैं क्योंकि इनका बचपन ही बुरा होता है। अगर आपको याद हो तो ऐसा ही किशोर दिल्ली में बहुचर्चित निर्भया कांड में शामिल था।
आजाद देश के भविष्य की बात करते हैं तो मन में एक ही ख्याल आता है कि बच्चे कल के कर्णधार बनेंगे, देश का भविष्य उज्ज्वल करेंगे। मगर जब बच्चे ही अशिक्षित और अपराधी बनने लगें, तो देश का भविष्य क्या होगा? हर पल हमारे आगे आते इन बच्चों के बारे में किसी को सोचने की फुर्सत नहीं। हम भले ही जमीन, आसमान और जल संसाधनों पर फतह हासिल कर लें पर असली फतह हमारी तभी होगी जब इन बच्चों को भी वही अधिकार और सुविधाएं मिलें, जो हम अपने बच्चों को देते हैं। इनकी उपेक्षा के बजाय समाज का हिस्सा बनाने और उनका भविष्य संवारने की जरूरत है। शिक्षा, आवास, चिकित्सा, उचित आहार और कपड़े उन्हें भी चाहिए। इसके लिए सरकार को कदम तो उठाना ही चाहिए, देश के शीर्ष उद्योगपतियों और स्वयंसेवी संगठनों को भी आगे आना चाहिए।

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