गुरुवार, 28 अगस्त 2014

मजबूत इरादा

लेखक - अरुण कुमार बंछोर
जीवन को सुंदर ढंग से जीने की कला तो कोई विक्की से सीखे। ऐसा भी नहीं कि रजना से शादी के बाद उसने जिंदगी को सुंदर मोड दिया हो। अच्छी जीवनसंगिनी मिलने से पहले भी वह जिंदादिल इंसान था। मगर शादी के बाद खुशियां बढ गई। चलो कहीं बाहर चलते हैं। दिन भर तुम घर में और मैं दफ्तर में.., शाम तो हम दोनों साथ बिताएं, दफ्तर से लौटते ही विक्की ने रंजना से कहा। रंजना ने नौकरी नहीं की। वह दिन भर घर के कामों में व्यस्त रहती और विकी के घर लौटने की प्रतीक्षा करतीहै। शाम की उदासी मुझे भाती नहीं, जी चाहता है उदासी को चुरा कर इसमें खुशियां भर दूं.., रंजना को बांहों में लेते हुए विक्की ने कहा । अरे कुछ तो ख्याल करो ,दरवाजा खुला है। वैसे भी शाम में उदासी कहां होती है! इसमें चाहे जितने रंग भर दो, यह निखरती जाती है.., बांहों की कैद से निकलते हुए रंजना चहकी। शाम की दीवानगी में डूबे विक्की को देखकर रंजना का मन कभी-कभी अतीत में गोते लगाने लगता। लेकिन यादों को झटक कर वह वर्तमान में लौट आती। स्मृति-पटल की दस्तक को अनसुना करना भी उसकी विवशता है। दरिया किनारे की वह शाम जब वह राजेश के साथ घूमती वहां आ गई थी। ..रंजना फिर अतीत में खो गई। अर्थशास्त्र विभाग के ऑनर्स के विद्यार्थियों ने महानदी पर पिकनिक मनाने का प्रोग्राम बनाया था। लडकियां कुछ डर रही थीं पर लडके उत्साहित थे। महानदी पार करने में तो देर हो जाएगी, मुझे डर लगता है, कामिनी ने कहा। पूरी नदी थोडे ही पार करेंगे। नदी जहां सूख जाती है, वहां रेत भरी जमीन होती है, उसे ही दियारा कहते हैं। वहीं सभी पिकनिक मनाने जाते हैं, रमेश ने लडकियों को समझाया। लहराती नदी को सभी नाव से झुक-झुक कर छू रहे थे। रायपुर यूनिवर्सिटी के विद्यार्थियों की उमंग देख कर महानदी भी मचल उठी थी। ऐसे चुप रहकर भला पिकनिक मनाते हैं? नाव पर नाच नहीं सकते तो क्या, गा तो सकते हैं, राजेश ने कहा तो सभी ने एक स्वर में सहमति जताई। गाने का सिलसिला चल पड़ा तो फिर रेत पर पहुंचकर ही रुका। इनके शोर से इठलाती नदी छल-छल करती ताल से ताल मिलाने लगी। अंतिम वर्ष होने के कारण सभी अपनी जुदाई के दर्द को नदी में बहा देना चाहते थे। अचानक रंजना की नजर राजेश से मिली जो अपलक उसे निहार रहा था। कुछ घबरा कर रंजना ने पलकें झुका लीं। कुछ देर वह यूं ही इधर-उधर देखती रही, लेकिन चोर नजरों से उसने देखा तो राजेश अभी भी उसे ही निहार रहा था। रेत पर पहुंचकर पहले कुछ लडकों ने चादर बिछाई तो कुछ ने खाना बनाने की तैयारियां शुरू कर दीं। लडकियों ने भी साथ दिया। लडके सूखी लकडियां ले आए। सबने मिल कर खाना बनाया। खाना लाजवाब था या फिर संग का स्वाद मीठा था। खाने के बाद अंत्याक्षरी शुरू हुई। लडकों और लडकियों के अलग-अलग ग्रुप बने। एक से बढ कर एक नए और पुराने फिल्मी गाने सबने अपने-अपने स्मृति-कोष से निकाले। दोनों समूहों ने मिल कर समां बांध दिया। प्रोफेसर भी दो समूहों में बंट गए। युवाओं के सुर में सुर मिला कर वे भी युवावस्था के दिनों में जा पहुंचे। चलो अब दियारा किनारे घूमा जाए। फिर भला ये दिन कहां लौटेंगे! हां, हां, सभी चलते हैं, कामिनी ने कहा। शाम होने से पहले लौटना भी है, इसीलिए जल्दी चलना होगा, विपुल ने कहा। भाई, हम लोग तो यहीं गपशप करेंगे। तुम लोग जाओ लेकिन जल्दी लौट आना क्योंकि शाम तक लौटना भी है.., प्रोफेसर गुप्ता ने दरी पर लेटते हुए कहा। मुझे तो सोच कर ही भय लगता है कि वह दिन दूर नहीं, जब नदी हमसे रूठ कर दूर चली जाएगी। फिर रेत ही रेट रहेगा। आज हम नाव से यहां तक पहुंचे हैं फिर रेत का महत्व कम हो जाएगा। किनारे से ही लोग रेट को देखेंगे, और नदी का जल कहीं दूर दिखाई देगा, एक साथी दार्शनिक भाव से बोल उठा। मस्ती चल ही रही थी कि अचानक जोरों से रेत भरी आंधी आ गई। संभलने का मौका भी नहीं मिला। रेत ने सबकी आंखों पर हमला बोल दिया था। आंखें बंद किए सभी तेज आंधी में पत्ते की तरह इधर-उधर दौडने लगे। किसी को यह होश नहीं था कि कौन किस दिशा में दौड रहा है। आंखों में रेत भरी थी, लेकिन सभी चीख रहे थे। रंजना ने दुपट्टे से अपना सिर ढका था। उसने सोचा भी नहीं था आंधी इस वेग से आएगी। वह भी किसी दिशा में भाग रही थी या रेत की आंधी उसे बहा ले जा रही थी। आंखें खोल नहीं सकती थी। आंधी के शोर में किसी दोस्त की आवाज भी नहीं सुनाई दे रही थी। भय से उसके हाथ-पांव कांपने लगे। कंठ सूख गया। थक गई तो किसी तरह एक ही जगह पर बैठ गई और मुंह छिपा लिया। एकाएक जैसे ही महसूस हुआ कि वह दूर आ गई है और अकेली है, सब्र का बांध टूट गया और वह जोरों से फूट कर रोने लगी। काफी देर बाद आंधी का वेग कम हुआ, पर रंजना इतनी डरी हुई थी कि आंखें नहीं खोल पा रही थी। थोडी देर बाद एकाएक उसे अपने कंधे पर किसी पुरुष के हाथों का स्पर्श महसूस हुआ। वह भय से चीख उठी। डरो नहीं रंजना, मैं हूं- राजेश। देखो सभी इधर-उधर भागे हैं। एक-दूसरे को ढूंढ रहे हैं.., राजेश ने उसके पास बैठते हुए कहा। आंधी कम हो रही है, थोडी देर में पूरी थम जाएगी तो सभी आ जाएंगे, राजेश ने उसे आश्वस्त करते हुए कहा। रंजना की सिसकियां और बढ गई। उसका पूरा शरीर कांप रहा था। यह देख कर राजेश ने उसे अपनी बांहों का सहारा दिया। उस अशांत माहौल में इतना बडा संबल पाकर रंजना उससे लिपट गई। एकाएक वह घटा जो दोनों ने कभी सोचा भी नहीं था। आंधी और भय ने उन्हें इतना करीब ला दिया। रंजना घबराओ नहीं, मैं तुम्हारे साथ हूं, राजेश ने उसे सीने से लगाते हुए कहा। बांहों का कसाव बढता गया। सांसें आपस में टकराने लगीं। मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूं रंजना, तुम्हें हमेशा करीब देखना चाहता हूं, अधीरता से राजेश ने कहा। राजेश की बांहों की जकडन में रंजना बेसुध सी हो गई थी। प्रेम का एहसास जन्म ले चुका था। भावनाएं शब्दों में बदलतीं, तभी कुछ जोडी कदमों की आहट ने उन्हें छिटका दिया। राजेश .. रंजना.. कहां हो तुम लोग? आवाजों ने रंजना की सुधि लौटा दी थी। उसकी आंखों में अब रेत के साथ ही शर्म की लाली भी थी। काफी देर बाद उसने आंखें खोलीं और भरपूर नजरों से राजेश को देखा। राजेश की आंखें बोल रहीं थीं कि यह शाम उसे हमेशा याद रहेगी। रंजना को याद आया कैसे क्लास में भी अकसर राजेश उसे निहारता रहता था। आज वह कितनी अजीब सी स्थिति में उसकी बांहों में समा गई थी। आंधी खत्म हो गई थी और दोनों के मन में एक असीम शांति थी। लडके-लडकियों का एक झुंड पास आ गया था..। विदाई के पल सभी के लिए मुश्किल हो रहे थे और लौटते हुए सभी खामोश थे। दरवाजे की घंटी बजते ही रंजना की विचार-तंद्रा टूटी। किसी काम से बाहर गए विक्की लौट गए थे। दरवाजा खुलते ही बोले, रंजना, चलो.. जल्दी तैयार हो जाओ, आज ट्रेन से आरंग घूमने चलते हैं। इतने दिनों से हम दिल्ली में हैं लेकिन ट्रेन में एक ही बार बैठे हैं, विक्की ने कहा। पहले चाय पी लो। फिर तैयारी करना, रंजना ने किचन में जाते हुए कहा। आज संडे है, शायद भीड कम हो, कमरे में जाते हुए विक्की ने कहा। संडे होने के बावजूद पार्किग में कहीं जगह नहीं मिली। अंत में कार पार्किग के बाहर छोड कर वे ट्रेन की ओर बढने लगे। हवा तेज थी। रंजना का आंचल लहरा रहा था। बालों की लट बार-बार चेहरे पर आकर परेशान कर रही थी। इन्हें खुला ही छोड दो न! तुम्हारे खुले बाल अच्छे लगते हैं, विक्की ने पीछे से क्लचर हटा कर उसके बाल खोल दिए। ट्रेन से शहर कुछ ज्यादा ही खूबसूरत दिख रहा था। लोटस टेंपल, इस्कॉन को उन्होंने चमकती रोशनी में देखा। उसने अपने बालों को समेटना चाहा तो विक्की ने रोक दिया। रंजना एक बार फिर यादों में खो गई। वर्षो पहले राजेश की कही बात उसे याद आने लगी, खुले बालों में तुम बहुत अच्छी लगती हो रंजना , बालों से रेत झाडते हुए राजेश ने उससे कहा था। आज उसे बार-बार राजेश क्यों याद आ रहा है! लौटते वक्त उन्हें बैठने की जगह नहीं मिली तो खडे रहे। भीड नहीं थी, फिर भी विक्की ने हिदायत दी, उतरते समय आराम से उतरना, हडबडाना नहीं। अचानक रंजना को महसूस हुआ कि कोई शख्स उसे अपलक निहार रहा है। ध्यान बंटने से वह लडखडा गई। तभी विक्की ने उसे थाम लिया। रंजना के मन में उत्सुकता जाग उठी कि वह व्यक्ति आखिर है कौन? उसने अस्त-व्यस्त हो आई साडी को चुपके से ठीक किया और खुले उलझे बालों को हाथ से सुलझाने की चेष्टा की। बातें करते-करते विक्की कुछ दूर हुआ तो वह शख्स फिर दिखा। पांच मिनट में हमारा स्टेशन आने वाला है, विक्की ने उसे परेशान देख कर कहा। इस बार रंजना ने भी उस व्यक्ति को ध्यान से देखा। मस्तिष्क पर जोर नहीं देना पडा। उम्र की परतें इंसान पर जम जाती हों, लेकिन चेहरे के हाव-भाव तो वही रहते हैं। सामने बैठा इंसान वही था, जिसने उस दिन अपनी बांहों का सहारा दिया था। रंजना को उसकी सांसों की गंध महसूस होने लगी। पहचान के भाव आते ही दोनों ओर से एक मुसकान झलकी। रंजना की आंखों में पहचान की झलक देख राजेश सीट से उठने लगा। उसने सोचा, रंजना से मिल ले। रंजना भी क्षण भर आगे बढी। रंजना स्टेशन आ गया है। धीरे-धीरे बाहर निकलना, कहता हुआ विक्की बाहर निकला। पीछे-पीछे रंजना भी गई। बाहर जाकर वह मुडी तो दरवाजे पर राजेश खडा था। तभी दरवाजा बंद हो गया। आगे देख कर चलो वर्ना गिर जाओगी, विक्की ने रंजना का हाथ थाम लिया। अनजाने में कही गई विक्की की बात रंजना को ठीक लगी। अतीत उसके वर्तमान को डिगा सकता है। मेरे हाथ थामे रहो और आराम से चलो। इतनी नर्वस क्यों हो जाती हो? विक्की ने उसे सहारा देते हुए कहा। दोनों चलते रहे। ट्रेन शायद कुछ स्टेशन आगे बढ चुकी होगी। इस शाम ने रंजना के शांत मन में उथल-पुथल मचा दी थी। लेकिन जो आंधी अचानक जीवन में आई वह अब थम भी चुकी थी। वह मजबूती से विक्की का हाथ थाम उसके साथ आगे बढती गई। अब जीवन में शांती थी..। एल -297 , न्यू सुभाष नगर ,भोपाल (मप्र) (बिना अनुमति के प्रकाशित ना करे)

मंगलवार, 26 अगस्त 2014

मुलाकात

एक और अमृता

वर्ष 2006 में मिस अर्थ रह चुकी अमृता पटकी ‘हाइड एंड सीक’ के जरिये बॉलीवुड में अपनी शुरुआत की है। पेश है अमृता से बातचीत :
‘हाइड एंड सीक’ के लिए आपका चुनाव कैसे हुआ?निर्माता अपूर्व लखिया ने करीब एक दर्जन लड़कियों का ऑडीशन लिया, जिसमें से मैं एक थी। मैं चुन ली गई।
फिल्म ''हाइड एंड सीक'' के बारे में बताइए?
''हाइड एंड सीक'' एक रहस्यमय फ़िल्म है। शौन अरान्हा द्वारा निर्देशित इस फिल्म की कहानी 6 दोस्तों पर आधारित है। जब वे बच्चे थे तब क्रिसमस की ठंडी रात को एक खेल खेल रहे होते हैं। अभि, ओम, जयदीप, इमरान, गुनिता और ज्योतिका को बिल्कुल भी उम्मीद नहीं की थी कि क्रिसमस की वो रात और खेल उनकी जिंदगी हमेशा के लिए बदल देगा। फिल्म में मेरे साथ पूरब कोहली, मृणालिनी शर्मा, समीर कोचर, अयाज खान, अर्जन बाजवा भी हैं।

सुना है आप ''हाइड एंड सीक'' की शूटिंग के दौरान बेहोश हो गई थी। क्या यह सच है?
उस समय अहामदाबाद में बहुत गर्मी थी। इतनी गर्मी में शूटिंग करने की वजह से मैं बेहोश हो गई।

किस तरह की फिल्में करना चाहती हैं?सभी तरह की फिल्मों में मैं काम करना चाहती हूँ, चाहे वो हास्य हो, लव स्टोरी हो या गंभीर कहानी हो।

खाली समय में क्या करती हैं?
मुझे किताबें पढ़ना व संगीत सुनना अच्छा लगता है।

जीवन जीने का नाम है

किसी भी कार्य की सफलता उस पर की गई मेहनत पर निर्भर करती है। यह ध्यान रखना चाहिए कि सफलता कोई पेड़ पर लगने वाला फल नहीं है जिसे पेड़ पर चढ़ गए और तोड़ लिया। यह समझना चाहिए कि जीवन भगवान का दिया हुआ सबसे अमूल्य उपहार है। किसी को भी जीवन से हार मानकर नहीं बैठना चाहिए। जब एक रास्ता बंद होता है तो दूसरे हजारों रास्ते खुल जाते हैं। सफलता और असफलता तो जीवन रूपी रेल के स्टेशन हैं। जिस प्रकार गुरु द्रोण की परीक्षा में अर्जुन को सिर्फ अपना लक्ष्य मछली की आंख नजर आ रही थी, उसी प्रकार सिर्फ अपना लक्ष्य नजर आना चाहिए। जब एक रास्ता मिल जाए तो उस पर मेहनत शुरू कर देनी चाहिए। गर ईमानदारी, कड़ी मेहनत, लगन से उस दिशा में आगे बढ़ें तो उन्हें अपनी मंजिल तो मिलनी ही है। सफलता का कोई शॉर्टकर्ट रास्ता नहीं होता। सफलता की कुंजी सिर्फ कड़ी मेहनत होती है। याद रखें- - असफलता मिलने पर उसे जीवन पर हावी न होने दें। - सकारात्मता बढ़ाने के लिए अच्छी मनोरंजक व ज्ञानवर्धक पुस्तकें पढ़ें। - ऐसे लोगों से मिले जिन्होंने अपने क्षेत्र में सफलता हासिल की है। - हमेशा अपने को व्यस्त रखें क्योंकि खाली दिमान शैतान का घर होता है। - हल्का संगीत सुने, इससे नकारात्मक विचार मन में नहीं आएंगे। - परिवार के साथ समय व्यतीत करें क्योंकि इससे आपको मानसिक संबल मिलता है। - आसपास की प्रकृति को निहारें, पक्षियों का चहचहाना सुनें, क्योंकि प्रकृति जीवन से संघर्ष की शिक्षा देती।

सोमवार, 25 अगस्त 2014

मुख्यमंत्रियों की हूटिंग शुभ संकेत नहीं

पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सभाओं में कुछ राज्यों के मुख्यमंत्रियों के खिलाफ हुई हूटिंग से जो परिस्थितियां बनी हैं वह देश के संघीय ढांचे को नुकसान पहुंचा रही हैं। केंद्र-राज्य संबंधों में खटास की बातें पहले भी सामने आती रही हैं लेकिन 'हूटिंग' के चलते संघर्ष की स्थिति बनना खतरनाक है। इस मुद्दे को लेकर राजनीति भी गर्मा गयी है क्योंकि अभी तक हूटिंग उन्हीं राज्यों में हुई है जहां कि जल्द ही चुनाव होने वाले हैं। विपक्ष के निशाने पर सीधे प्रधानमंत्री हैं तो सत्तारुढ़ दल हूटिंग का कारण जनता की स्थानीय नेताओं से नाराजगी बता रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गत सप्ताह कैथल में हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपिन्दर सिंह हुड्डा के साथ एक सरकारी कार्यक्रम के दौरान मंच साझा किया। इस दौरान हुड्डा जब बोलने लगे तो लोगों ने उनके खिलाफ हूटिंग की। इस बात से नाराज हुड्डा ने आरोप लगाया कि यह सब भाजपा के इशारे पर उनका अपमान करने के लिए किया गया। साथ ही उन्होंने भविष्य में प्रधानमंत्री के साथ मंच साझा करने से इंकार कर दिया। इसके साथ ही कांग्रेस ने अपने सभी मुख्यमंत्रियों को सतर्क रहने का निर्देश जारी करते हुए सामान्य प्रोटोकाल का पालन करने और प्रधानमंत्री के साथ मंच साझा नहीं करने का निर्देश जारी कर दिया। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने नागपुर मेट्रो के शिलान्यास कार्यक्रम में प्रधानमंत्री के साथ मंच साझा नहीं करने का ऐलान कर दिया। उन्होंने बाद में कहा कि वह तभी मंच साझा करेंगे जब प्रधानमंत्री इस बात का आश्वासन दें कि उनके खिलाफ हूटिंग नहीं होगी। गौरतलब है कि गत दिनों प्रधानमंत्री के साथ एक कार्यक्रम के दौरान उन्होंने ही सबसे पहले हूटिंग झेली थी। झारखंड में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को भी मोदी के साथ मंच साझा करने के दौरान हूटिंग झेलनी पड़ी। उन्होंने आवेश में आकर इसे संघीय ढांचे का बलात्कार तक की संज्ञा दे डाली। सोरेन ने कहा कि उन्होंने इस कार्यक्रम में तभी भाग लिया था जब एक केंद्रीय मंत्री ने आश्वासन दिया था कि कार्यक्रम के दौरान ऐसा कुछ (हूटिंग) नहीं होगा। वाकई यह बड़ी ही दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि राज्यों के मुख्यमंत्री देश के प्रधानमंत्री के साथ मंच साझा करने से इंकार कर दें। मोदी ने आम चुनाव के दौरान नारा दिया था 'सबका साथ, सबका विकास'। अब वक्त है इस नारे पर अमल करने का। मोदी खुद एक राज्य के लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहे हैं वह केंद्र से राज्य के संबंधों की महत्ता समझते हैं। उन्हें आगे बढ़कर ऐसी चीजों पर रोक लगाने की बात कड़ाई के साथ कहनी चाहिए। मोदी जानते हैं कि केंद्र की सरकार जिन योजनाओं को बनाती है उनमें से अधिकांश का कार्यान्वयन पूरी तरह राज्यों पर निर्भर है। इसलिए वह वाकई यदि अपने सपनों का भारत बनाना चाहते हैं तो दलगत राजनीति से ऊपर उठकर सबको साथ लेकर चलना ही होगा। जनसभाओं में 'मोदी मोदी' के नारे आम चुनाव तक ठीक थे लेकिन अब मोदी प्रधानमंत्री बन चुके हैं और उनके आचरण से यह स्पष्ट संकेत मिलना ही चाहिए कि वह सभी को साथ लेकर चलना चाहते हैं। वैसे झारखंड में प्रधानमंत्री ने हूटिंग के दौरान हाथ से इशारा करते हुए जनता से शांत रहने को कहा था लेकिन हूटिंग जारी रही। भाजपा नेताओं ने बाद में तर्क दिये कि ऐसा मोदी की लोकप्रियता के कारण हो रहा है क्योंकि जनता स्थानीय नेताओं से तंग आ चुकी है और अपनी उम्मीदों को पूरा करने के बारे में मोदी की बात सुनना चाहती है। भाजपा का यह भी कहना है कि यह आरोप गलत है कि हूटिंग में उसका कोई हाथ है। पार्टी का कहना है कि जहां जहां हूटिंग हुई वहां हम अपने कार्यकर्ताओं को लेकर नहीं गये थे और यह सब कुछ स्थानीय लोगों ने ही किया। दूसरी ओर विपक्ष का कहना है कि आम चुनाव के दौरान भाजपा की ओर से प्रशिक्षित लोग ऐसी सभाओं में योजनाबद्ध तरीके से लाये जाते हैं ताकि वह माहौल भाजपामय बना सकें। हूटिंग विवाद की जो प्रतिक्रिया हुई वह लोकतंत्र को सही दिशा में ले जाती नहीं दिख रही। महाराष्ट्र में जहां कांग्रेस कार्यकर्ताओं की ओर से प्रधानमंत्री को काले झंडे दिखाये गये वहीं झारखंड में झामुमो कार्यकर्ताओं ने केंद्रीय मंत्रियों के कार्यक्रमों का विरोध करने के ऐलान के तहत खान मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर को काले झंडे दिखाये जिस पर भाजपा-झामुमो कार्यकर्ताओं की भिडन्त में कई लोग घायल भी हो गये। झामुमो ने हूटिंग के विरोध में बंद का ऐलान भी किया था लेकिन यूपीएससी परीक्षा के चलते इसे वापस ले लिया गया। अभी जिन राज्यों में चुनाव होने हैं वहां पर भी यदि हूटिंग प्रकरण दोहराये गये तो संघर्ष बढ़ना संभव है। मोदी सरकार के 100 दिनों के भीतर केंद्र-राज्य संबंध जिस दिशा में जा रहे हैं, हालात ऐसे ही रहे तो पांच साल के दौरान क्या होगा, इसकी कल्पना करना मुश्किल नहीं है। यह निश्चित है कि अनुशासन प्रिय प्रधानमंत्री मोदी यदि कड़ा रुख अख्तियार कर लें तो हूटिंग की घटनाएं रुक सकती हैं। यहां भाजपा को यह सोचना चाहिए कि भले ऐसे प्रकरणों के पीछे उसका हाथ नहीं हो लेकिन यदि कोई अन्य पार्टी का मुख्यमंत्री सरकारी कार्यक्रम के दौरान प्रधानमंत्री के खिलाफ हूटिंग कराना शुरू कर दे तो बड़ी ही असहज स्थिति हो जाएगी और स्थिति को संभालने में कड़ी मशक्कत करनी होगी। सबका भला इसी में है कि इस पर शुरुआती दौर में ही पूरी तरह रोक लगा दी जाए। ऐसे प्रकरणों से संसदीय मर्यादाओं का उल्लंघन तो होता ही है साथ ही यह देश में लोकतंत्र की जड़ों को और मजबूत बनाने के लिहाज से सही भी नहीं है।

गुरुवार, 21 अगस्त 2014

जरूर सुने बेटियों की पुकार

माँ, मुझे जीना हैं.मुझे खुद से अलग मत करो, मुझे अपना लो, मुझे तुम्हारी गोद में रहना है, तुम्हारे आँचल में सोना है...माँ.............. ! ये विलाप है उस मासूम की ,जो दुनिया में आना तो चाहती है पर लालची दरिंदों को उनकी आवाज सुनाई नहीं देती। सबसे बड़ी बात तो यह है की माँ भी बेटे की चाहत रखती है और बेटी को दुनिया में आने नहीं देती है। कितनी बड़ी विडम्बना है , कुछ बरस पहले वो भी किसी की बेटी थी। अगर बेटियो नहीं होंगी तो ये सृष्टी कैसी बढ़ेगी। मेरी एक बहन से मैंने कहा कि मेरी दिली तमन्ना है कि मै भी किसी बेटी का कन्यादान करूँ तो उन्होंने कहा कि मै भी कन्यादान करना चाहती हूँ , अगर आप करे तो मुझे भी शामिल कर लीजियेगा। उनके विचार सुनकर मै बहुत खुश हुआ। ऐसी विचार हर बेटी , हर महिला की होनी चाहिए। मै सलाम करता अपनी उस बहन को जिनके मन में बेटियों के प्रति दर्द है, आश्था है। इस समझ की आज बहुत ही जरुरत है।
बालिका परिवार के आँगन का वो नन्हा सा फूल है, जो उलाहना के थपेड़ों से बिखरता है, त्याग की रासायनिक खाद से फलता-फूलता है फिर भी दुःख रूपी पतझड़ में अपने बूते पर खड़ा रहता है। बालिका, जिसके जन्म से ही उसके जीवन के जंग की शुरुआत हो जाती है। नन्ही उम्र में ही उसे बेड़ियाँ पहनकर चलने की आदत-सी डाल दी जाती है। येन केन प्रकारेण उसे बार-बार याद दिलाया जाता है कि वह एक औरत है, उसे सपने देखने की इजाजत नहीं है। कैद ही उसका जीवन है। हमें यह सोचना चाहिए कि विकास के सोपानों पर चढ़ने के बावजूद भी आखिर क्यों आज इस देश की बालिका भ्रूण हत्या, बाल विवाह, दहेज मृत्यु के रूप में समाज में अपने औरत होने का दंश झेल रही है? लोगों के सामने तो हम बड़ी-बड़ी बातें करते हैं कि बालिका भी देश का भविष्य है लेकिन जब हम अपने गिरेबान में झाँकते हैं तब महसूस होता है कि हम भी कहीं न कहीं प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इसकी हत्या के भागी रहे हैं। यही कारण है कि आज देश में घरेलू हिंसा व भ्रूण हत्या संबंधी कानून बनाने की आवश्यकता महसूस हुई। अशिक्षित ही नहीं बल्कि ऊँचे ओहदे वाले शिक्षित परिवारों में भी गर्भ में बालिका भ्रूण का पता चलने पर अबार्शन के रूप में एक जीवित बालिका को गर्भ में ही कुचलकर उसके अस्तित्व को समाप्त किया जा रहा है। हालाँकि भ्रूण का लिंग परीक्षण करना कानूनी अपराध परंतु फिर भी नोटों व पहचान के जोर पर कई चिकित्सकों के यहाँ चोरी-छिपे लिंग परीक्षण का अपराध किया जा रहा है। यदि हम अकेले म.प्र. की बात करें तो यहाँ प्रति हजार लड़कों पर लड़कियों का अनुपात निरंतर घटता जा रहा है। वहीं दूसरी ओर हमारी सरकार दलील देती है कि अब गाँव-गाँव में शत-प्रतिशत शिक्षा पहुँच चुकी है व लोगों में जागरूकता आई है। मेरा उनसे प्रश्न है कि यदि बालिका शिक्षा का लक्ष्य पूरा हुआ है तो फिर म.प्र. में वर्ष 1991 में प्रति हजार लड़कों पर 952 बालिकाएँ थीं, वो वर्ष 2001 में घटकर 933 कैसे रह गईं? भिंड और मुरैना जिले में तो यह स्थिति दूसरे जिलों की तुलना में और भी अधिक भयावह है। आज कई जातियों में ये स्थितियाँ बन रही हैं कि वहाँ लड़के ज्यादा और लड़कियाँ कम हैं इसलिए मजबूरन उन्हें दूसरी जाति में अपने लड़के का रिश्ता तय करना पड़ रहा है। यदि आज यह स्थिति है तो कल क्या होगा, यह तो सर्वविदित है। यदि हम अब भी नहीं जागे तो शायद बहुत देर हो जाएगी और प्रकृति के किसी सुंदर विलुप्त प्राणी की तरह बेटियों की प्रजाति भी विलुप्ति के कगार पर पहुँच जाएगी। बेटियाँ भी घर का चिराग हैं। वे भी एक इनसान हैं, जननी हैं, जो हमारे अस्तित्व का प्रमाण है। इसकी रक्षा करना हमारा कर्त्तव्य है इसलिए आज ही संकल्प लें और कन्या भ्रूण हत्या पर अंकुश लगाकर नन्ही बेटियों को भी जीने का अधिकार दें।

रविवार, 17 अगस्त 2014

भारत के लिए कलंक है बालश्रम

आजाद हिंदुस्तान में गुलामी करते बच्चे
आजादी के छह दशक बाद भी बालश्रम भारत के लिए कलंक बना हुआ है। ढाबों-होटलों, ईंट-भट्टों और खेत खलिहानों से लेकर कल-कारखानों में काम कर रहे लाखों बच्चों के लिए आज आजादी के कोई मायने नहीं हैं। स्वतंत्रता दिवस पर उस दिन काम नहीं होता। लिहाजा उनकी दिहाड़ी अलग से कट जाती है। अलबत्ता कुछ बच्चों के लिए काम से निजात जरूर मिल जाती है और वे पतंग उड़ाने या 'लूटने' निकल पड़ते हैं। इनके लिए आजादी का दिन महज 'एक दिन' भर है। असल में न तो इन्हें पढ़ने की आजादी है और न खेलने की। न ही इन्हें पौष्टिक आहार नसीब है और न ही साफ-सुथरे कपड़े मिलते हैं पहनने के लिए।
कौन हैं ये बच्चे? कहां से चले आए शहरों और महानगरों में। आपने आफिस जाते समय ट्रैफिक सिग्नल पर गाडि़यों के शीशे साफ कर पैसे मांगते देखा होगा। बस, ट्रेन में गाना गाकर पैसे मांगते भी देखा हो मगर कुछ मेहनती बच्चे आपको छोटी दुकानों और ढाबों पर काम करते भी मिल जाएंगे। पूछने पर बताते हैं कि घर की मदद के लिए वे काम कर रहे हैं। पिता कम कमाते हैं तो स्कूल कैसे भेजें। मां-बाऊजी की वह मदद कर रहा है। बड़ों की सेवा करने में उसका बचपन खो रहा है। हर दिन मरता है और वह हर दिन जीता है। यह एक ऐसा गुलामी है, जो न सरकार को दिखाई देती है और न समाज को। आजादी के जश्न में चंद स्कूलों के बच्चों को शामिल कर हम मिठाई खिलाते हैं और बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। मगर नेताओं और अधिकारियों को बेघर और बालश्रम में जकड़े बच्चे नहीं दिखाई देते।
कुछ बच्चे ऐसे हैं, जिन्हें अपने मां-बाप के बारे में नहीं पता। लोगों की नजारों में ये स्ट्रीट चिल्ड्रेन या फिर लावारिस बच्चे हैं, जिन्हें लोग नफरत व हिकारत भरी नजरों से देखते हैं। आज जब देश में हर तरफ शिक्षा का प्रचार-प्रसार हो रहा हैं, तो वहीं ऐसे बच्चे शिक्षा के अधिकार से वंचित हैं। आजाद देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू का सपना था कि देश का हर बच्चा शिक्षित हो। मगर आज इन बच्चों की शिक्षा तो दूर कोई सुध लेने वाला नहीं। सड़कों से लेकर स्टेशन तक, मंदिरों के बाहर मंडरा रहे इन फटे हाल बच्चों पर सरकारी तंत्र की नजर क्यों नहीं जाती।
अपनी जीविका चलाने के लिए ये बच्चे रेड सिग्नल पर करतब दिखा कर भीख मांगते हैं, कोई अखबार बेचता है, कोई ट्रेन में झाड़ू लगाता है तो कोई छोटी-मोटी दुकानों में काम कर अपना गुजारा करता हैं। सुबह से लेकर रात तक इनका जीवन सड़क से शुरू होकर सड़क पर ही खत्म हो जाता है। ये आजाद देश के सम्य समाज का हिस्सा नहीं बन पाते। ना ही इन्हें कोई अपनाने को पहल करता है। इन्हें दो-चार रुपए देकर लोग चलता कर देते हैं। ये बच्चे बेघर हैं। इनका कोई अभिभावक नहीं। ये उन लोगों के रहमो करम पर हैं, जो इनसे अच्छा या बुरा काम करा कर अपना मतलब साधते हैं।
आंकड़ों पर नजर डालें तो चार लाख से भी ज्यादा बच्चे आजाद हिंदुस्तान में सड़कों पर अपना जीवन बिता रहे हैं। अकेले दिल्ली के आंकड़े देखें तो करीब 50 हजार बच्चे ऐसे हैं जिनके पास अपना कोई घर नहीं। सबसे बड़ी विडंबना यह हैं कि इनमें 15 से 20 फीसद लड़कियां हैं। आज जहां रेप कैपिटल बन चुकी दिल्ली में लड़कियां सुरक्षित महसूस नहीं करती, वहीं जहरा सोचिए सड़क पर रहने वाली इन लड़कियों की क्या हालत होगी? क्या ऐसे आजाद देश की कल्पना किसी ने की होगी, जहां बच्चे गुलामों जैसी जिंदगी जी रहे हैं। ऐसे ज्यादातर बच्चे चाहे वह लड़का हो या लड़की यौन हिंसा का शिकार होते हैं। आंकड़ों के मुताबिक लगभग 50 फीसद बच्चे यौन प्रताड़ना या यौन हिंसा का शिकार होते हैं। कई लड़कियों को जबरदस्ती जिस्मफरोशी में धकेल दिया जाता है।
कई बच्चे छोटी उम्र में ही घर छोड़ कर दूसरे शहर आ जाते हैं, इस उम्मीद में कि स्थिति बेहतर होगी पर होता उसका उलटा है। न तो उनके माता-पिता को फ्रिक होती है कि बच्चे कहां गए, न ही उनके पास इतने पैसे होते हैं कि उनकी खोज-खबर ले सकें। उन्हें तो यही लगता है अच्छा है अब कम पैसे में भी गुजारा होगा। फिर यही बच्चे लावारिस बच्चों की श्रेणी में आ जाते हैं। कम उम्र में ये बच्चे ऐसे काम सीखते और करते हैं जिनकी कल्पना शायद ही हम कर सकें। जुआ खेलना, चोरी करना, सिगरेट, शराब और नशीली चीजों का सेवन इनकी जिंदगी का हिस्सा हो जाता है। इन्हें न अपने कल की चिंता होती है और ना ही अपने भविष्य की। यही बच्चे बड़े होकर अपराधी बनते हैं क्योंकि इनका बचपन ही बुरा होता है। अगर आपको याद हो तो ऐसा ही किशोर दिल्ली में बहुचर्चित निर्भया कांड में शामिल था।
आजाद देश के भविष्य की बात करते हैं तो मन में एक ही ख्याल आता है कि बच्चे कल के कर्णधार बनेंगे, देश का भविष्य उज्ज्वल करेंगे। मगर जब बच्चे ही अशिक्षित और अपराधी बनने लगें, तो देश का भविष्य क्या होगा? हर पल हमारे आगे आते इन बच्चों के बारे में किसी को सोचने की फुर्सत नहीं। हम भले ही जमीन, आसमान और जल संसाधनों पर फतह हासिल कर लें पर असली फतह हमारी तभी होगी जब इन बच्चों को भी वही अधिकार और सुविधाएं मिलें, जो हम अपने बच्चों को देते हैं। इनकी उपेक्षा के बजाय समाज का हिस्सा बनाने और उनका भविष्य संवारने की जरूरत है। शिक्षा, आवास, चिकित्सा, उचित आहार और कपड़े उन्हें भी चाहिए। इसके लिए सरकार को कदम तो उठाना ही चाहिए, देश के शीर्ष उद्योगपतियों और स्वयंसेवी संगठनों को भी आगे आना चाहिए।

शनिवार, 16 अगस्त 2014

पहली बार बना सामाजिक विमर्श का माहौल

० वरना तिरंगा फहराकर और देशभक्ति के गीत बजाकर रस्म पूरी की जाती थी
देश ने आजादी की 68 वीं सालगिरह मनाई। दिल्ली के लाल किले से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश को संबोधित किया, तो उन्होंने महज राजनीतिक और सरकारी भाषण ही नहीं दिया, बल्कि सामाजिक मुद्ददे भी उठाये। इस मौके पर पहली बार कोई प्रधानमंत्री देशवासियों से सीधे संवाद करता नजर आया। मोदी ने सांप्रदायिकता, जातिवाद और प्रांतवाद को भूलकर देश-निर्माण में लग जाने को कहा। बेटियों की सुरक्षा और गरीबी से लड़ने का मुद्दा भी उठाया। नक्सलवादियों और आतंकवादियों से कहा कि वे कंधे पर बंदूक लेकर धरती को लाल तो कर सकते हैं, उनके कंधे पर हल होगा तो धरती हरी-भरी लहलहाती नजर आएगी। मोदी ने कहा, ‘माता-पिता बेटियों पर बंधन डालते हैं, लेकिन उन्हें अपने बेटों से भी घर से बाहर निकलने पर पूछना चाहिए कि वे कहां जा रहे हैं। किसी महिला के साथ दुष्कर्म करने वाला व्यक्ति किसी का बेटा होता है। एक माता-पिता होने के नाते क्या वे अपने बेटों से पूछते हैं कि उनका बेटा कहां जा रहा है?’ मोदी के इस भाषण से पहली बार आजादी के दिन सामाजिक विमर्श का माहौल बना है। वरना तो देश भर में तिरंगा फहराकर और देशभक्ति के फिल्मी गीत बजाकर 15 अगस्त की रस्म पूरी कर ली जाती है। आजादी पर भाषण दिये जाते हैं, फ्रीडम फाइटर्स को याद किया जाता है, देश की अच्छी बातों और उपलब्धियों पर गर्व व्यक्त हो जाता है, पर यह शायद ही किसी के मन में आता है कि आजादी के मायने आखिर क्या हैं! क्या सिर्फ सरहदों तक अपना राज होना ही आजादी है? क्या अपना झंडा, अपना राष्ट्रगान, अपनी करेंसी और अपनी सरकार होना ही आजादी है? नागरिकों के लिए आजादी का मतलब क्या है? या यों कहें कि क्या होना चाहिए? अंग्रेजों से लंबे संघर्ष के बाद 15 अगस्त, 1947 को भारत आजाद हुआ था। अपनी सरकार बनी, तो देशवासियों को लगा कि अब उनका जीवन बदल जायेगा। काफी कुछ बदला भी। देश भर में स्कूल, कारखाने और अस्पताल खुले। सड़कें, रेलवे लाइनें और बांध बने। साक्षरता, बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं, औसत आयु और औसत आय बढ़ीं। श्वेत और हरित क्रांतियां हुईं। दुग्ध उत्पादों और खाद्यान्नों के लिए देश आत्मनिर्भर हो गया। सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि तमाम विविधताओं, अनेकताओं और मतभेदों के बावजूद लोकतंत्र हमारे यहां सफल रहा।
क्या हम कभी सोचते हैं अपने दायित्वों के बारे में? - क्या कभी हमारे मन में किसी गरीब बच्चे को पढ़ाने का खयाल आता है? - क्या कभी हम किसी भूखे को खाना खिलाते हैं? - क्या हमने कभी बिना किसी स्वार्थ के किसी जरूरतमंद की मदद की है? - क्या कभी शोहदों को सरेराह छेड़छाड़ करते देखकर हमारा खून खौलता है? - क्या कभी हमारे मुंह से कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ आवाज निकली है? - क्या हमने कभी दहेज लने या देने का विरोध किया है? - क्या हमने कभी किसी सरकारी दफ्तर में अपना काम जल्दी कराने के लिए रिश्वत नहीं दी है? - क्या ट्रैफिक पुलिस द्वारा पकड़े जाने पर हम कॉंस्टेबल को चंद नोट देकर बच निकलने की जुगत में नहीं रहते? - क्या हमारे मन में सिनेमाघर, बस, टिकट बुकिंग या बैंक की लाइन तोड़कर अपना काम जल्दी कराने की मंशा होती है? - क्या हम बस या ट्रेन में बच्चों-बूढ़ों-महिलाओं को अपनी सीट देते हैं? - क्या हम जरा ठहरकर, सड़क पार करते किसी नेतृहीन की मदद करते हैं? - क्या हम सड़क पर आपस में लड़ते हुए लोगों को अलग करने की कोशिश करते हैं? - क्या हमने कभी किसी को सार्वजनिक स्थान पर थूकते, कचरा फैलाते या पेशाब करते हुए देखकर टोका है? - क्या अपने से ताकतवर के सामने सिर झुकाने और अपने से कमजोर का सिर अपने सामने झुकवाने की आदत से हम बाज आये हैं? - क्या किसी घर से झगड़े की आवाज सुनकर हमने उसे सुलझाने के बारे में कभी सोचा है? - क्या कभी किसी बाल मजदूर को छुड़ाने की कोशिश की है? - क्या दूसरों का दुख दूर करने और अपनी खुशियां दूसरों में बांटने की भावना हमारे मन में कभी आयी है? - क्या हमने कभी सार्वजनिक स्थानों पर परीक्षाओं के दौरान लाउडस्पीकर बजाये जाने का विरोध किया है? - क्या अफवाहें और सांप्रदायिक तनाव फैलाने वालों का कॉलर पकड़कर हमने कभी उनसे पूछा है कि भई, ऐसा क्यों करते हो? - क्या कभी खराब साइलेंसर वाले किसी बाइकर को फटकार लगाई है? - क्या ऑटो-टैक्सी में न बैठाने वाले ड्राइवर की शिकायत कभी ट्रैफिक पुलिस से की है? ऐसे बहुत से सवाल और भी हो सकते हैं। इनके जवाब में बहुत से लोग यह भी कह सकते हैं कि यह क्या हमारा काम है? सरकार, पुलिस और अदालतें आखिर किसलिए हैं? मगर, इस सवाल के बाद यह सवाल उठना भी लाजिमी है कि इन सबके होने के बाजूद ये तमाम हालात आखिर पैदा क्यों होते हैं? इस सवाल का जवाब ऊपर के सवालों में ही छिपा है। ठीक है, तमाम जिम्मेदारी सिस्टम की है। फिर हमारे दायित्व क्या हैं? क्या समाज के लिए हमारा कोई सरोकार नहीं है? क्या हमारी यह सोच सही मानी जा सकती है कि अधिकार हमारे और कर्तव्य सिस्टम के?

गुरुवार, 14 अगस्त 2014

अपराधी की उम्र कोई मुद्दा नहीं

केंद्र सरकार ने 'किशोर न्याय (बाल संरक्षण और देखभाल) अधिनियम 2000' यानी जुवेनाइल जस्टिस एक्ट में बदलाव को मंजूरी देकर इस संबंध में पिछले कुछ समय से चल रही बहस को एक निश्चित मुकाम पर पहुंचाने की कोशिश की है। संशोधित कानून के मुताबिक अब हत्या और बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों में लिप्त 16 से 18 साल के किशोरों पर मुकदमा चलाने के फैसले का हक जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड को दिया जाएगा। बोर्ड ही तय करेगा कि मुकदमा उसके यहां चलेगा या सामान्य अदालत में। केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा मंजूर इस प्रस्तावित संशोधन से स्पष्ट है कि उसने नाबालिगों की उम्र सीमा घटाने की मांग नहीं मानी है और साथ ही यह भी स्पष्ट कर दिया है कि कानूनी प्रावधानों के तहत किसी मुकदमे में जघन्य अपराध में संलिप्त किसी किशोर या नाबालिग को किसी भी हालत में फांसी या उम्रकैद की सजा नहीं दी जाएगी।
इसमें कोई दो राय नहीं कि सरकार ने संशोधित कानून के प्रस्ताव को मंजूरी देते वक्त किशोर न्याय की मूल अवधारणा और विधिशास्त्र के स्थापित सिद्धांतों को ध्यान रखा है यानी उसने अपराध की गंभीरता को आधार बनाकर अधकचरी आपराधिक मानसिकता को संपूर्ण मानते हुए किशोरावस्था की उम्र घटा देने को न्यायसम्मत नहीं माना है। मौजूदा कानून में सरकार जो बदलाव करने जा रही है उससे संभावित अपराधियों में सजा का खौफ पैदा करने में तो मदद मिल सकती है, लेकिन इसे समस्या का अंतिम समाधान नहीं माना जा सकता। सवाल है कि इस संशोधित कानून के मसौदे के मंजूरी देने से पहले सरकार ने क्या इस बात की भी समीक्षा कि 'किशोर न्याय अधिनियम, 2000' में क्या कमी रह गई थी? हकीकत यह है कि कानून में कमी नहीं थी, बल्कि संबंधित कानून के अधिकतर प्रावधानों को लागू ही नहीं किया जा सका। इस कानून के बन जाने के 13 वर्ष बाद भी पुलिस, अभियोजन पक्ष, वकीलों, दंडाधिकारियों और अदालतों को कानून के प्रावधानों की पर्याप्त जानकारी नहीं है। किशोरों के विरुद्ध दर्ज हो रहे लगभग तीन-चौथाई मुकदमे ऐसे हैं, जो दर्ज ही नहीं होने चाहिए थे। किशोरों की दो-तिहाई गिरफ्तारियां गैरकानूनी हैं। किशोरों को सरकारी संरक्षण में रखने के लिए कानून में बताई गई व्यवस्था कहीं भी उपलब्ध नहीं है। इस कानून के लगभग 80 प्रतिशत प्रावधान देश में लागू ही नहीं हो पाए हैं। फिर यह समझ से परे है कि पुराना कानून बदलकर सरकार नया कानून लाने का फैसला क्यों कर लिया? दिल्ली में चलती बस में हुई सामूहिक बलात्कार की बर्बर घटना में जब एक किशोर को भी दोषी पाया गया, तभी से यह मांग हो रही थी कि गंभीर अपराधों में लिप्त होने पर सजा दिलाने के लिए बालिग मानने की उम्र घटाई जानी चाहिए। इस मसले पर पिछले साल सुप्रीम कोर्ट में याचिका भी दायर की गई थी। मगर मौजूदा कानूनों के तहत अदालत ने नाबालिगों की उम्र में कोई फेरबदल करने से इंकार कर दिया था। समाजशास्त्रियों और बच्चों या किशोरों के लिए काम करने वाले स्वयंसेवी संगठनों ने भी कानून में बदलाव करने के मसले पर असहमति जताई और इस समस्या की बुनियादी वजहों पर गौर करने पर जोर दिया। इन संगठनों ने यह कहकर उम्र घटाने का विरोध किया कि इससे उन बच्चों के सुधार का रास्ता बंद हो जाएगा, जो अपनी सामाजिक परिस्थितियों के कारण या मजबूरीवश अपराध के रास्ते पर चल पड़ते हैं। लेकिन आंकड़ों का हवाला देते हुए कई हलकों से बलात्कार और हत्या जैसे अपराधों के मामले में नाबालिगों की उम्र से संबंधित कानून बदलने की मांग की जा रही थी। ऐसी मांग करने वालों की दलील थी कि अब नाबालिगों का व्यवहार भी आम अपराधियों जैसा होने लगा है, वे भी खतरनाक अपराध में लिप्त होने लगे हैं।निर्भया कांड में सबसे ज्यादा क्रूरता भी एक नाबालिग ने ही दिखाई थी, पर जुवेनाइल जस्टिस एक्ट का लाभ उठाकर वह सस्ते में छूट गया। इन दो परस्पर विपरीत विचारों के बीच का एक मत यह रहा कि क्यों न अपराध की प्रकृति के आधार पर सजा तय हो। अगर अपराध गंभीर है तो किशोर आरोपी को सामान्य अपराधी के तौर पर देखा जाए।निर्भया बलात्कार और हत्याकांड के बाद उपजे जनाक्रोश को ध्यान में रखते हुए केंद्र की तत्कालीन यूपीए सरकार ने न्यायमूर्ति जेएस वर्मा की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया था। समिति को स्त्री-विरोधी अपराधों से संबंधित कानूनी प्रावधानों को और कठोर बनाने के उपाय सुझाने का जिम्मा दिया गया था।इस समिति की रिपोर्ट के आधार पर भारतीय दंड संहिता के संबंधित प्रावधानों में परिवर्तन भी किए गए। वर्मा समिति के समक्ष एक अहम प्रश्न यह भी था कि क्या किशोरावस्था की उम्र को 18 से घटाकर 16 वर्ष किया जाना चाहिए?बहुत विचार-विमर्श के बाद समिति ने किशोरावस्था की उम्र 18 वर्ष ही रखने का सुझाव दिया था। इसी मुद्दे को लेकर सुप्रीम कोर्ट में कोई आधा दर्जन याचिकाएं भी दायर की गई थीं, जिनमें किशोरावस्था की अधिकतम उम्र 16 वर्ष करने की गुहार लगाई गई थी।सुप्रीम कोर्ट के तीन न्यायाधीशों की एक खंडपीठ ने इन सभी याचिकाओं को एकसाथ सुनते हुए किशोरावस्था की उम्र को पुनः परिभाषित करने से इंकार कर दिया था। खंडपीठ ने कहा था कि किशोर न्याय अधिनियम, 2000 के प्रावधान अंतरराष्ट्रीय मानकों को ध्यान में रख कर बनाए गए तर्कसंगत प्रावधान है जिनमें फिलहाल हस्तक्षेप करने की जरूरत नहीं है। दरअसल, किशोरावस्था की अधिकतम सीमा 18 वर्ष निर्धारित करते समय बाल-मनोवैज्ञानिकों और व्यवहार-विशेषज्ञों की राय को आधार बनाया गया था।सुप्रीम कोर्ट का मत था कि 18 वर्ष तक की आयु वाले किशोरों को सुधारकर उन्हें समाज की मुख्यधारा में लाने की बहुत गुंजाइश बाकी रहती है। निर्भया कांड जैसे गंभीर अपराधों को रोकने की पृष्ठभूमि में किशोरावस्था की उम्र कम किए जाने की दलील को सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने यह कह कर नकार दिया था कि इस प्रकार के गंभीर अपराध ऐसे घटित हो रहे कुल संगीन अपराधों की संख्या के मुकाबले बहुत कम है और अपवादस्वरूप ही सामने आते हैं। अपवादों को आधार बनाकर सामान्य कानून में परिवर्तन करना विधिशास्त्र के स्थापित सिद्धांतों के विपरीत होगा।नून बनाने वालों ने कानून लागू करने वालों से कभी यह पूछने की जहमत उठाई कि अब तक जिला मुख्यालयों पर किशोर अपराधियों को रखने के लिए 'निरीक्षण गृह,' 'सुरक्षित स्थान,' 'बाल भवन,' और देखभाल के बाद रखने के लिए कानूनसम्मत मुकम्मल व्यवस्था क्यों उपलब्ध नहीं है।सामुदायिक सेवा, परामर्श केंद्र और किशोरों की सजा से संबंधित अन्य साधन अभी तक क्यों विकसित नहीं हो पाए हैं? कितने प्रतिशत किशोर बार-बार अपराधों में शामिल हो रहे हैं और क्यों? राज्य का संरक्षण पाने के हकदार कितने बच्चों को सरकारी संरक्षण में रखने के उचित साधन राज्यों के पास है?दरअसल, हमें यह समझ लेना चाहिए कि अगर कानून पूर्ण रूप से लागू ही नहीं होंगे तो उनमें बार-बार संशोधन के पैबंद लगाने से कोई फायदा नहीं होने वाला है।दरअसल, मीडिया में जब भी किसी किशोर द्वारा गंभीर अपराध करने की खबर आती है, जनमत न्यायमूर्ति वर्मा समिति की रिपोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था को मानने से इंकार करता नजर आता है।जनता का तर्क होता है कि संगीन अपराधों में किशोरों की भागीदारी लगातार बढ़ती जा रही है, लिहाजा समय आ गया है कि किशोरावस्था की आयु-सीमा घटाकर उन्हें उचित दंड देने की व्यवस्था की जाए।मीडिया का एक तबका भी जनमत की इस मांग को बगैर सोचे-समझे तूल देने लगता है। कानून में कोई भी परिवर्तन करने से पहले यह नहीं भूलना चाहिए कि जनता की राय हमेशा तर्कसंगत और न्यायसम्मत नहीं होती।जनता की राय को कानून और न्याय की कसौटी पर परखना प्रशासनिक व्यवस्था की जिम्मेदारी होती है।निर्णय लेते समय उसी जनमत को महत्व दिया जाना चाहिए, जो प्रगतिशील और विवेकपूर्ण हो और सामुदायिक विकास और मानवता के सामूहिक मापदंडों पर खरा उतरता हो।वरना भीड़तंत्र जनमत का अपहरण करके लोकतंत्र को मजबूरी की जंजीरों में जकड़ लेगा और तालिबानी और खाप पंचायतों वाली मानसिकता न्यायिक व्यवस्था का हिस्सा बनने लगेगी। इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने की जरूरत है। >

बुधवार, 13 अगस्त 2014

लौट आओ रंजना!

आज दुनिया से आँखें कैसे मिलाऊँ। उस दुनिया से जो तुमको मेरी ताकत के रूप में जानती थी आज तुमसे बड़ी कमजोरी मेरी कोई नहीं रह गई। बस इस सवाल का जवाब दे दो मुझे मेरी नजरों में तुम्हारी कद्र और भी बढ़ जाएगी। कल तक लोग मेरी और तुम्हारी बातें करते नहीं थकते थे और जब भी मैंने उनसे बात की हर दूसरी बात में तुम ही शामिल रहीं लेकिन अचानक ऐसा क्या हुआ कि जिस रंजना की तरफ मैं दौड़ता-भागता हर हाल में पहुँच जाता था आज उससे कोसों दूर होता जा रहा हूँ।
कल तक जिन बाँहों में मैंने अपनी ज़िंदगी गुजारी, आज उन्हीं बाँहों ने किसी और को अपने भीतर समेट लिया। मेरा हमसफर आज आँखें फेरकर बहुत आगे बढ़ गया। न जाने वह कहाँ चला गया? जिसे मेरी नजर आज तक हर-जगह ढूँढ रही है। काश.. आज वह मेरे पास होता तो मेरी हर डगर गुलिस्ताँ थी। वह इन बाँहों और प्यार की ठंडी छाँव को छोड़कर बहुत-बहुत दूर चला गया है। कभी तो उसका मेरी नजरों के सामने होना मुझे सुकून देता था आज कचोट रहा है। आज तुम मुझसे नजरें चुरा रही हो या मेरी कोई ऐसी खता है जो तुम मेरी तरफ देखना भी नहीं चाहतीं। मुझे कम से कम मेरी इस गलती का अहसास करा दो। मैं हर सजा के लिए तैयार हूँ लेकिन आज जो सजा भुगत रहा हूँ उसके लिए तो मेरी अंतरात्मा भी गवारा नहीं कर रही कि बगैर गलती के कैसे मैं यह दिन गुजार रहा हूँ।
तुम्हें हमारे उसी प्यार का वास्ता जो मैंने तुमसे किया था और यदि मेरा भ्रम नहीं तो तुमने भी मुझसे किया था। और यदि वह भ्रम था तो इसी बात का यकीन मुझे दिला दो। कल तक जिन बाँहों में मैंने अपनी ज़िंदगी गुजारी, आज उन्हीं बाँहों ने किसी और को अपने भीतर समेट लिया। मेरा हमसफर आज आँखें फेरकर बहुत आगे बढ़ गया। न जाने वह कहाँ चला गया? जिसे मेरी नजर आज तक हर-जगह ढूँढ रही है। इतना मजबूर तो रंजना मैंने कभी तुम्हें नहीं पाया। फिर आज क्यों? क्या मेरे प्यार से तुम्हें इतनी भी ताकत नहीं मिली कि केवल 10 मिनट का समय निकालकर यह सब बातें मुझे मिलकर या फोन पर ही बता सको। रंजना इस दास्तान का अंत मैं केवल तुम्हारे मुँह से सुनना चाहता हूँ। हालाँकि मैं जानता हूँ कि मुझे मेरी करनी की ही सजा मिली है। रंजना जैसा कि तुम जानती हो मैंने अपनी पूर्व प्रेमिका डॉली को अनजाने में धोखा दिया था। यह मुझे उसी की सजा मिली है कि मैं तुमसे मिल नहीं सका। शायर की वह पंक्तियाँ याद आ जाती हैं मुझे 'आज किसी ने दिल तोड़ा तो हमको जैसे याद आया जिसका दिल हमने तोड़ा था वो जाने कैसा होगा।'
जो गलती मैंने डॉली के समक्ष की थी वह मैं दोहराना नहीं चाहता था इसलिए मैंने तुम्हें पाने के‍ लिए अपने घर वालों से भी बगावत की। और तुम्हारी भी वह सभी बातें मानी जोकि तुम चाहती थीं। हमने कभी भागकर शादी करने की नहीं सोची। उसके लिए मैंने तुम्हें अपने माता-पिता से मिलवाया और मैं खुद तुम्हारे माता-पिता से भी मिला और अपनी शादी की बात की थी। मुझे शिकायत तुमसे तो कभी थी ही नहीं और यकीन मानो आज भी नहीं मैं आज भी तुम्हें उतना ही चाहता हूँ जितना कि कल। लेकिन मेरे प्यार का भरम रखने के लिए ही मुझे चंद सवालों के जवाब जरूर देना, मेरी गलती जरूर बताना। नहीं तो जिंदगी भर इस बात का पछतावा मुझे रहेगा कि मैंने आखिर किस गलती की सजा भुगती। - जॉन (जो कभी तुम्हारा था) * रब्बा इश्क ना होवे... घटनाक्रम कुछ ऐसा है कि जॉन और रंजना दोनों एक-दूसरे को लगभग 4 वर्षों से जानते थे और दोनों के बीच लगभग 2 वर्षों से प्रेम प्रसंग चल रहा था। जॉन ने ही रंजना को प्रपोज किया था जिसे रंजना ने दोस्ती मानकर स्वीकार कर लिया था। धीरे-धीरे दोनों की दोस्ती प्यार में बदल गई। इस रिश्ते की कद्र करते हुए दोनों शादी के लिए सहमत हो गए। जॉन बाकायदा जाकर रंजना के माता-पिता से मिला और रंजना को भी अपने माता-पिता से मिलवाया। दोनों के घर वालों से भी उन्हें सहमति‍ मिली। दोनों की एक-दूसरे के घर में घनिष्ठता भी बढ़ गई। लेकिन इसके थोड़े ही दिनों बाद रंजना ने जॉन की तरफ देखना भी बंद कर दिया। करीब 3 महीने निकलने के बाद जॉन ने रंजना से इस बेरुखी के बारे में जानना चाहा। रंजना पहले तो टालती रही और स्पष्ट कुछ नहीं बोली। लेकिन जॉन को अपने दोस्तों से पता चला कि रंजना की एंगेजमेंट किसी दूसरे शहर में रहने वाले लड़के से हो गई है और अगले माह दोनों शादी भी करने वाले हैं।
जॉन के तो जैसे पैरों तले धरती ही खिसक गई। मानो आसमान टूट पड़ा हो उसके सिर पर। फिर भी थोड़ा सँभलते हुए जब उसे विस्तार से इसके बारे में पता चला तो समझ ही नहीं पा रहा था कि अब कैसे वह इस सदमे से उबरे। हरदम हँसते-खिलतेखिलाते चेहरे का स्वामी जॉन डिप्रेशन में चला गया। योग, आर्ट ऑफ लिविंग आदि कई चीजों की मदद से जैसे-तैसे अपने आपको सँभालते हुए अपना आगे का जीवन काट रहा है। जी हाँ, जीवन काटना ही कहूँगा क्योंकि रंजना के बिना तो उसने कभी इस जीवन की कल्पना ही नहीं की थी। जिस बेवफाई के किस्से अब तक उसने किताबों में पढ़े और फिल्मों की पटकथाओं के रूप में रुपहले पर्दे पर देखे थे आज उसके जीवन की वास्तविकता बन गई थी। एक टूटे हुए व्यक्ति की भाँति अब उस पात्र को वह जी रहा था, रंजना की बेवफाई को सहते हुए या डॉली की यादों के सहारे। जीवन में रिश्तों के समीकरण कब, कहाँ कैसे बदल जाते हैं कोई नहीं जानता। लेकिन यह हमारे हाथों में होता है कि रिश्तों की बुनियाद को विश्वास के जल से सींचे ताकि ना डॉली का दिल टूटे ना कोई रंजना दिल तोड़ने पाए।

मंगलवार, 12 अगस्त 2014

'जब रेप होता है तो धर्म कहाँ जाता है?'

"पाँच पांडवों के लिए पाँच तरह से बिस्तर सजाना पड़ता है लेकिन किसी ने मेरे इस दर्द को समझा ही नहीं क्योंकि महाभारत मेरे नज़रिए से नहीं लिखा गया था!" बीईंग एसोसिएशन के नाटक 'म्यूज़ियम ऑफ़ स्पीशीज़ इन डेंजर' की मुख्य किरदार प्रधान्या शाहत्री मंच से ऐसे कई पैने संवाद बोलती हैं. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के सहयोग से मंचित इस नाटक में सीता और द्रौपदी जैसे चरित्रों के माध्यम से महिलाओं की हालत की ओर ध्यान खींचने की कोशिश की है लेखिका और निर्देशक रसिका अगाशे ने.
रसिका कहती हैं, "सीता को देवी होने के बाद भी अग्नि परीक्षा देनी पड़ी थी और इसे सही भी माना जाता है लेकिन मेरा मानना है कि 'अग्नि परीक्षा' जैसी चीज़ें ही रेप को बढ़ावा देती हैं." ० ये विरोध का तरीका है
नाटक में शूर्पणखा पूछती है, "मेरी गलती बस इतनी थी कि मैंने राम से अपने प्यार का इज़हार कर दिया था? इसके लिए मुझे कुरूप बना देना इंसाफ़ है?" शूर्पणखा सवाल उठाती है, "अगर शादीशुदा आदमी से प्यार करना ग़लत है तो राम के पिता की तीन पत्नियां क्यों थीं?" रसिका कहती हैं, "16 दिसंबर को दिल्ली गैंगरेप के बाद इंडिया गेट पर मोमबती जलाने और मोर्चा निकालने से बेहतर यही लगा कि लोगों तक अपनी बात को पहुंचाई जाए और इसके लिए इससे अच्छा माध्यम मुझे कोई नहीं लगा." ० कट्टरपंथियों का डर नहीं
नाटक में सीता का किरदार निभाने वाली प्रधान्या शाहत्री हैं, "सच से डरना कैसा? ये हमारा विरोध करने का तरीका है और हम जानते हैं, हम ग़लत नहीं हैं." जब आस्था का मामला आता है तो घर परिवार से भी विरोध होता है. द्रौपदी की भूमिका निभाने वाली किरण ने बताया कैसे घर वाले उनसे नाराज़ हो गए थे. रसिका का कहना था, "ये पहली बार नहीं है कि किसी ने द्रौपदी और सीता के दर्द को लिखने की कोशिश की है और उस वक़्त धर्म कहाँ जाता है जब किसी लड़की का रेप हो जाता है." ० हिंदू सभ्यता पर हमला?
"कुंती ने हमारा सेक्स टाइमटेबल बनाया ताकि किसी भाई को कम या ज़्यादा दिन न मिलें." द्रौपदी जब मंच से ये संवाद बोलती हैं तो तालियां गूंज उठती हैं. नाटक की सीता पूछती हैं, "लोग पूछेंगे कि सीता का असली प्रेमी कौन था? वो रावण जिसने उसकी हां का इंतज़ार किया या वो राम जिसने उस पर अविश्वास किया?" सिर्फ़ हिंदू मान्यताओं पर ही छींटाकशी क्यों, इसके जवाब में वह कहती हैं, "हमने ये कहानियां बचपन से सुनी हैं. हमें ये याद हैं और इसलिए हम इसके हर पहलू पर गौर कर सकते हैं." (बीबीसी से साभार)

सोमवार, 11 अगस्त 2014

काली

(अरुण कुमार बंछोर)
गरीब बस्ती में रहने वाले रामदीन की सारी उम्र खिलौने बनाकर बेचने में ही बीत गई। एक बेटी को जन्म देकर बीवी कभी की मर गई थी। अब वह भी बूढ़ा हो गया था। दमे का शिकार अलग था, फिर भी पेट भरने के लिए खिलौने बनाता था। अब उसकी बेटी काली जवान हो गई थी और रोज टोकरा सजाकर खिलौने बेचने बाजार जाती थी। काली का रंग कोयले की तरह काला था। नाक चपटी और आंख टेढ़ी बनाकर कुदरत ने उसको मजाक का पात्र बना दिया था। उसका नाम काली किसी ने रखा नहीं, बल्कि खुद ही मशहूर हो गया था। पिता रामदीन ने उसकी शादी के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा लिया, मगर कोई भी उससे शादी करने को तैयार नहीं हुआ। कभी-कभार उसके जवां अरमान मचलते और छिपकर वह घर के टूटे आईने के सामने खड़ी होती और अपने बिगड़े चेहरे को देख सहमकर आईने के सामने से हट जाती। कई बार रामदीन बस्ती वालों से कहता था कि उसे अपनी मौत का डर नहीं रहा। काली खिलौने बेचकर अपनी जिंदगी गुजार लेगी। पर काली को पिता के ये सादगीभरे शब्द कांटे की तरह चुभते थे। वह तो अपने बूढ़े पिता का सहारा बन गई, पर उसकी वीरान जिंदगी का सहारा कोई क्यों नहीं है? कितनी ही बार लोगों की उसकी बदसूरती का मजाक उड़ाया था। वह सोचती- 'क्या बदसूरतों में दिल नहीं होता? क्या हमारे दिल में कोई अरमान नहीं होते?' पर दुनिया को इससे क्या लेना-देना? एक दिन काली खाना बनाकर खिलौने बेचने के जाने के लिए तैयार हो रही थी कि तभी पिता ने आवाज लगाई- 'बेटी, खिलौने का टोकरा तैयार है।' 'आई बापू', काली दौड़कर पिता के पास गई। काली ने देखा, रोज की तरह पिता ने दूसरे खिलौनों के ऊपर एक बदसूरत खिलौना रख दिया था। काली ने कहा- 'बापू इसे हटा दो। कल भी मैंने कहा था। इसे कोई नहीं खरीदता, फिर क्यों इसे रख देते हो?' पिता ने समझाते हुए कहा- 'बेटी, कुछ ही तो टेढ़ा-मेढ़ा है। नजर बचाकर किसी को खपा देना। काली ने पिता को समझाया- '10 दिन हो गए, सब खिलौने बिक जाते हैं, केवल यही टोकरे में रखा रह जाता है, खपने की चीज होती, तो कभी की खप जाती...।' बूढ़े बापू ने कहा- 'बेटी, आज और आजमा लो...। तुम्हारी शादी की अभी भी उम्मीद लगाए बैठा हूं।' काली के वीरान मन में आशा की किरण फिर जाग उठी। 'बापू को अभी भी मेरी शादी की उम्मीद है। अगर यह खिलौना खप जाएगा, तो शायद मैं भी इस दुनिया के हाट में खप जाऊंगी...' और काली ने वह बदरंग, टेढ़ा-मेढ़ा खिलौना टोकरे में रख लिया। काली देर रात तक खिलौने बेचती रही। एक-एक कर सारे खिलौने बिक गए। हर बार वह उस कुरूप व बदरंग खिलौने को आगे बढ़ाती, पर उसका हाथ हटाकर बच्चे दूसरे खिलौने खरीद लेते। उस छूते तक नहीं। एक ने तो यहां तक कह दिया कि 'इसे कचरे के ढेर में डाल दो। नहीं तो नदी में फेंक दो...। बार-बार इसे क्यों उठा लाती हो?' काली का दिल टूट गया। काश! आज यह खिलौना बिक जाता, तो शायद दुनिया के हाट में वह भी कहीं खप जाती। वह फफक-फफककर रो पड़ी। रात बहुत हो चुकी थी। रात के सन्नाटे में किसी ने भी उसके आंसुओं को नहीं देखा। तेज कदमों से दौड़ती हुई वह घर की ओर जा रही थी। उसका जी कर रहा था कि जल्दी घर जाकर चीख-चीखकर बूढ़े बापू को कोसे कि क्यों बापू ने उसकी बात नहीं मानी? क्यों उसे वह खिलौना बाजार में खपाने के लिए मजबूर किया। लालटेन जल रही थी। झोपड़ी में पुरानी खटिया पर बैठा रामदीन बेटी का इंतजार कर रहा था। आज दमा भी बढ़ गया था। धौंकनी की तरह उसका सीना फूल रहा था। रह-रहकर उसके दिमाग में बुरे खयाल आ रहे थे- 'अब मैं ज्यादा दिन नहीं जी पाऊंगा... दमा मेरा दम लेकर ही रहेगा... मगर मैं मर गया तो काली इस वीरान दुनिया में अकेली रह जाएगी...' तभी धड़ाम से दरवाजा खुला और धम्म से काली पिता के सामने बैठ गई। उसके खाली टोकरे में मात्र वही कुरूप खिलौना पड़ा था। यह देख रामदीन का दम फूलने लगा। सूनी आंखों से वह काली को देखने लगा। बूढ़े पिता के फूलते दमे और गहरी, सपाट आंखों को देखकर काली का गुस्सा शांत हो गया। उसकी आंखों से आंसू गिर गए। वह धीरे से बोली- 'बापू आइंदा ऐसा खिलौना मत बनाना जिसका खरीदार दुनिया में कोई न हो।' और उसने वह खिलौना जमीन पर दे मारा। खिलौने के टुकड़े झोपड़ी में चारों ओर बिखर गए। रामदीन कुछ नहीं बोला। उसकी आंखों में भी दो मोती चमक आए थे।

शुक्रवार, 8 अगस्त 2014

क्या मुझे फेसबुक से प्यार है

क्या फेसबुक बोरिंग लगने लगा है। क्या आप फेसबुक और अपने रिश्ते को खत्म करना चाहते हैं? विशेषज्ञ कहते हैं कि फेसबुक के साथ करीबी रिश्ता होना एक गंभीर मामला है। एक सोशल मीडिया एक्सपर्ट अपनी कहानी बताती हैं। मुझे फेसबुक इस्तेमाल करने में बड़ा मजा आता था लेकिन करीब एक साल पहले मैंने लॉगिन करते वक्त लगा कि मैं ऐसा सिर्फ आदत से मजबूर हो कर कर रही हूं। मेरे और फेसबुक के बीच प्यार खत्म हो चुका था। लेकिन मैं लगी रही। पहले फेसबुक में फॉर्मेट बदले और मुझे लगा कि मैंने तय कर लिया है कि फेसबुक में मैं क्या और कितना पोस्ट करूंगी। फेसबुक के साथ मेरा प्यार का रिश्ता। यह काफी कुछ मेरे रोमांटिक संबंधों जैसा है। क्या मुझे वाकई फेसबुक से प्यार हो गया है?
फेसबुक और मेरा रिश्ता : सूसन किलियम ब्रिटेन में मनोवैज्ञानिक हैं। वह कहती हैं, 'फेसबुक से आपको प्यार हो सकता है।' रिश्तों की भी एक प्रक्रिया होती है। पहले स्तर पर आपका लगाव शारीरिक और भावनाओं से जुड़ा होता है और आप एक दूसरे के साथ वक्त बिताना पसंद करते हैं। मस्तिष्क में ऑक्सिटेसिन जैसे हॉरमोन की मात्रा अधिक हो जाती है। सोशल नेटवर्क का हिस्सा बनना कुछ कुछ ऐसा ही होता है। किलियम कहती हैं कि लोगों की तरह ही फेसबुक के साथ रिश्ता भी एक असली रिश्ते जैसा लग सकता है। और सोशल नेटवर्क्स का आपको नशा भी हो सकता है, प्यार या सेक्स के नशे की तरह या फिर ड्रग्स के नशे की तरह। लेकिन कुछ समय बाद आप आम जिंदगी में लोटते हैं। आपकी भावनाएं सामान्य हो जाती हैं और आप अपने प्यार के पात्र में खामियां देखने लगते हैं। इस स्तर पर आने के बाद आपके पास दो विकल्प हैं। आप या तो संतुष्ट होकर एक अच्छे रिश्ते में शामिल हो सकते हैं या फिर आपको लग सकता है कि आप अपना वक्त जाया कर रहे हैं। तो फिर क्या करें : सोशल नेटवर्क में भी ऐसा ही होता है। अगर आपके फेसबुक फ्रेंड्स आपको अनदेखा कर रहे हैं, तो आपको बुरा लग सकता है। अगर वह आपको चिढ़ाने लगते हैं या फिर फेसबुक अपनी प्राइवेसी सेटिंग बदलता है तो आपको अजीब लगने लगता है। हर रिश्ते की तरह आपके सामने एक सवाल है- क्या आप इस रिश्ते में रहना चाहते हैं। ज्यूरिख के ईटीएच तकनीकी संस्थान में पावलिन मावरोडीव कहते हैं कि फेसबुक जैसे नेटवर्क में अगर यूजर को फायदा दिखे तो वह रह जाता है, नहीं तो वह इसे छोड़ देता है। मावरोडीव कहते हैं कि कुछ सोशल नेटवर्क्स एक बुरे रिश्ते की तरह भी हो सकते हैं। कई बार अगर एक दोस्त फेसबुक पर कम पोस्ट करने लगता है तो उसके साथ के कुछ लोग भी फेसबुक पर कम आने लगते हैं। धीरे-धीरे और लोग फेसबुक या किसी सोशल नेटवर्क से निकलने लगते हैं।मेरे और फेसबुक के रिश्ते के बारे में पता नहीं। मुझे लगता है कि मैं एक स्थिर लेकिन बोरिंग शादी में फंस गई हूं। लेकिन मेरे दोस्त लगातार फेसबुक छोड़ रहे हैं और हो सकता है मैं भी फेसबुक से निकलने लगूं। (साभार-वेबदुनिया डाट काम)

गुरुवार, 7 अगस्त 2014

आने वाले समय में 20 की उम्र में ही आएगा बुढ़ापा

0 पुरुष होंगे कमजोर उज्जैन। बात चौंकाने वाली है कि एक समय ऐसा आएगा जब 16 वर्ष की उम्र में बाल सफेद हो जाएंगे और 20 वर्ष की उम्र में बुढ़ापा आ जाएगा। ब्रह्मवैवर्त पुराण में बताया गया है कि कलियुग में ऐसा समय भी आएगा जब इंसान की उम्र बहुत कम रह जाएगी, युवावस्था समाप्त हो जाएगी। इस पुराण में कलियुग में किस प्रकार का वातावरण रहेगा, इंसानों का जीवन कैसा रहेगा, स्त्री और पुरुष के बीच कैसे संबंध रहेंगे आदि बातों की भविष्यवाणी की गई है। यहां जानिए इस पुराण में कलियुग के लिए क्या-क्या भविष्यवाणी पहले से ही कर दी गई है... इंसानों की उम्र हो जाएगी बहुत कम कलियुग में इंसानों की उम्र बहुत कम हो जाएगी। स्त्री और पुरुष, दोनों ही रोगी और थोड़ी उम्र वाले हो जाएंगे। 16 वर्ष की आयु में ही लोगों के बाल पक जाएंगे और वे 20 वर्ष की आयु में ही वृद्ध हो जाएंगे। युवावस्था समाप्त हो जाएगी। यह बात सच भी प्रतीत होती है, क्योंकि प्राचीन काल में इंसानों की औसत उम्र करीब 100 वर्ष रहती थी। उस काल में 100 वर्ष से अधिक जीने वाले लोग भी हुआ करते थे, लेकिन आज के समय में इंसानों की औसत आयु बहुत कम हो गई है। भविष्य में भी इंसानों की औसत उम्र में कमी आने की संभावनाएं काफी अधिक हैं, क्योंकि प्राकृतिक वातावरण लगातार बिगड़ रहा है और हमारी दिनचर्या असंतुलित हो गई है।
पुराने समय में लंबी उम्र के बाद ही बाल सफेद होते थे, लेकिन आज के समय में युवा अवस्था में ही स्त्री और पुरुष दोनों के बाल सफेद हो जाते हैं। जवानी के दिनों में बुढ़ापे के रोग होने लगते हैं।