वह एक हिंदुस्तानी औरत थी जो चाह रही थी कि उसके दुख, दर्द और उसकी विपत्तियों को पहचाना जाए। कोई उसके माथे का बुखार महसूस कर पाए। कोई उसे सुने। कोई यह समझ सके कि वह बहुत थकी है। उसे थोड़ी-सी अपनी जगह चाहिए । जितना उसका पैर दुख रहा है, उतना ही उसका माथा और उतना ही उसका मन। वह भारतीय मर्दवाद के बीहड़ों में घूमती रही थी - बदहवास और लहूलुहान। उसने तीन चार मदोर्ं को जाना लेकिन वे सारे ही उसे रौंदना चाहते थे। यह सब ‘भूमिका’ (1977) नाम की फिल्म की नायिका के साथ होता है। फिल्म में एक जगह कहा भी जाता है कि सब कुछ बदलता है लेकिन मर्द नहीं बदलता।
कहना पड़ेगा कि अगर कोई एक कथा फिल्म भारतीय स्त्री के दुख, दुविधा और दावेदारी को आमूल तरीके से सामने ला पाती है तो वह है ‘भूमिका’ जिसे श्याम बेनेगल ने 1977 में ‘अंकुर’, ‘निशांत’, ‘मंथन’ के बाद चौथी फिल्म के तौर पर निर्देशित किया था। वह एक स्त्री की आत्मकथा पर आधारित फिल्म थी।
अभिनेत्री हंसा वाडकर की आत्मकथा। बस हुआ यह कि श्याम बेनेगल की फिल्म में हंसा उषा में बदल गई। लेकिन हुआ यह भी कि हंसा और उषा भारतीय स्त्री की जीवनी में बदलती गईं। आत्मकथा कथा में बदल गई। हंसा वाडकर मराठी सिनेमा में चौथे दशक में एक महत्वपूर्ण अदाकारा के तौर पर जानी-पहचानी गईं। मराठी थियेटर और अपने फिल्मी सफर के दौरान उन्होंने जो देखा जाना उसे उन्होंने अपनी आत्मकथा में कह दिया, जो उन्होंने अरुण साधु की मदद से लिखी। आत्मकथा का नाम उन्होंने 1959 की अपनी एक फिल्म के नाम पर रखा - ‘सुनो जो कहूंगी’। और सबने इस कहानी को बहुत मर्म और अवधान के साथ सुना।
यह एक स्त्री के कांटों पर चलने की कहानी थी। एक औरत के बार-बार हतप्रभ होने का वृत्तांत। बार-बार ठगे जाने की कराह। यह एक स्त्री की कहानी थी जिसकी नींद उड़ी हुई है, जो उनींदी है और जो ठौर की तलाश में है। जो नीमहोशी में चली जा रही है। यह मदोर्ं की दुनिया में एक स्त्री का भटकाव था जहां बार बार मोहभंग होता था। स्वप्न टूटता था। उषा ने कलाओं को साधा था - गाने और अभिनय और नृत्य की कलाएं। लेकिन मदोर्ं से निपटने की कला उसे नहीं आती थी। यह उसकी त्रासदी है। लेकिन यह तो भारतीय स्त्री की त्रासदी भी है। तो ‘भूमिका’ एक दस्तावेज है।
‘भूमिका’ में उषा की भूमिका स्मिता पाटिल ने निभाई - बिना किसी विवाद के स्मिता पाटिल हिंदी सिनेमा की सबसे बड़ी अभिनेत्री हैं और ‘भूमिका’ शायद उनकी सबसे अच्छी फिल्म है। उषा के तौर पर स्मिता फिल्म का केंद्रीय पात्र थीं लेकिन जैसा कि कहा गया है समस्या भी वही थीं। कहना यह है कि स्त्री होना दूसरे दर्जे की नागरिकता का आरोपण और वरण दोनों है और इस अनंतरता को स्मिता ने क्या ही खूबी से निभाया ।
उषा कमजोर और काइयां केशव देहलवी (अमोल पालेकर) से शादी करती है जो अधिकारवाद का लिजलिजापन है। वह कितना भी टेढ़ा-मेढा क्यों न हो, अपनी स्त्री को वह अंगूठे के नीचे रखना जानता है। श्याम बेनेगल केशव के जरिए कहना भी यही चाहते हैं कि पुरुष का मूल गुण यह है कि वह पुरुष है, जिसका यह मायने भी है कि वह स्त्री की नियति का नियंत्रक है।
उर्वशी उर्फ उषा इस कैद को स्वीकार नहीं करना चाहती। वह दांपत्य का किला ढहाती है लेकिन तब वह और निष्कवच हो जाती है। कहां है स्वातं˜य। परंपरा, बाजार और सामंत में से किसी एक का वरण उसे करना ही होगा। लेकिन यह इसलिए भी तो है कि वह मदोर्ं के बनाए विकल्पों में से किसी एक का चुनाव कर रही है। अनंत नाग, कुलभूषण खरबंदा, नसीरुद्दीन शाह, अमरीश पुरी के तौर पर पुरुष चरित्रों की एक कतार है जो स्मिता को अपने-अपने तरीकों से रौंदने को तैयार है। कोई सामंत है तो कोई तिÊारती।
संबंध उसे स्वतंत्र नहीं करता, बंधुआ बनाता है। वह साथी को पुकारती है तो मिलता है जेलर। वह एक बंधनमुक्त यूटोपिया चाहती है लेकिन बदलती है वह माल में। श्याम बेनेगल स्त्री के सब कुछ खोने की दास्तान को एक स्त्री की जीवनी के ज़रिये कहते हैं। वे पुरुष के सत्तात्मक मन की जांच काफी हद तक नारीवादी औज़ारों से करते हैं। फिल्म में फैले अंधेरे में वह मर्दवाद के चूहेपन पर लगातार अपनी जासूसी टॉर्च की रौशनी फेंकते रहते हैं। तो होता यह है कि पुरुष का बौनापन छिपाए नहीं छिपता और इस सबके बीच स्त्री के अपराजेय होने की हंसी जब-तब सुनाई देती रहती है - उसकी अपनी सतत चीखों के बीच।
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