रविवार, 14 फ़रवरी 2010

साहित्यिक

मैं हूं न!
मुकुंद बाबू की आज अन्तिम विदाई भी हो गई। सभी नाते-रिश्तेदार पूर्ण तृप्त हो करुणा जी की झोली में संवेदनाएं उडेल अपने-अपने नीडों की ओर उड गए। बेटी धरा भी अपने पति व बच्चों के साथ मां से मिलकर लौट गई। इस सबसे निबटते रात उतरने लगी। रह गया केवल हार्दिक और उसके बच्चे। अब चिंता हो आई- मम्मी अकेली कैसे रहेंगी? जब तक पापा रहे कोई चिन्ता नहीं थी। दोनों मिलकर आराम से रह रहे थे। अब क्या करे वह? मम्मी से क्या कहे वह? पता नहीं मम्मी इतनी जल्दी साथ भी चलेगी या नहीं? पूरी रात यही सोचते करवटों में कट गई। इससे पहले मां को लेकर कभी चिन्ता नहीं हुई थी। कुछ भी कहते संकोच नहीं हुआ था, पर पापा के जाने के बाद मम्मी को देखना रहता है, उसके मुंह से शब्द नहीं फूटते। मां के कंधे पर सिर रखने वाला बेटा अब मां का सिर अपने कंधे पर टिका लेता है। मैं हूं न मां, आप चिन्ता क्यों करती हैं? मैं चिंता क्या करूंगी? पर चालीस साल का साथ छूटा है- अच्छा-बुरा, हंसते-रोते, लडते-झगडते- कैसे भुला सकती हूं। मम्मी, मैंने भी पापा को खोया है। उनके रहते मैं कितना निश्चिन्त था। मेरी हर समस्या का समाधान उनके पास था। पापा हाथ छुडाकर चले गए हैं। कितना अकेला हो गया हूं मैं! और मां-बेटे दोनों अपने-अपने आंसू बहने देते। आकर उन्हें संभालती। बच्चे कहते- दादी मां, आप और पापा रोएंगे तो हम भी रोएंगे। हमें भी अपने दादा जी चाहिए। उनके जाने से हमारी खुशी छिन गई है। करुणा जी झट अपने आंसू पोंछ लेतीं और मुस्कराकर कहतीं- कहां रो रही हूं। बस तुम्हारे दादाजी याद आ गए। सबको उदास देखकर बच्चे भी उदास रहते। पहले की तरह मस्ती नहीं करते और न कोई चीज लेने की जिद्द। जैसे बच्चे भी समझदार हो गए। करुणा जी को नहीं छोडते क्योंकि वे सारा समय औरतों से घिरी मुख नीचा किए बैठी रहती हैं या रोती रहती हैं। अजीब सा माहौल है। बहुत हिम्मत कर हार्दिक ने कहा- मम्मी, आपसे कुछ कहना है। तेरी उलझन मैं समझ रही हूं हार्दिक। जो तू पूछना या कहना चाहता है मुझे मालूम है। जो तेरी उलझन है वह मेरी भी है। तू इसे आज महसूस कर रहा है, मैंने कई दिन पहले महसूस कर लिया था। तेरी छोटी मौसी वत्सला कुछ समय मेरे पास रहेगी। तू निश्चिन्त होकर जा। और आगे की बाद में सोचेंगे। वह कल शाम तक आ जाएगी। वह तो ठीक है मम्मी, लेकिन आपको इस अवस्था में अकेले कैसे छोड सकता हूं, और इतनी जल्दी चलने को भी कैसे कह सकता हूं। तू इतनी चिन्ता मत कर। कहा न कि वत्सला रहेगी मेरे पास। कुछ वक्त लगेगा, धीरे-धीरे जीवन पटरी पर आ जाएगा। एकदम घर में ताला लगाकर तेरे साथ चल भी नहीं सकती। इस घर का आदमी मेरा पति, तेरा पिता गया है। कोई बाहर का नहीं। अभी उनके प्रति मेरे कुछ कर्तव्य हैं। जिन्हें पूरा करना है। जब तेरी जरूरत होगी, फोन पर बता दूंगी। कल वत्सला के आने पर तू निकल जाना। तब तक हलवाई, टैन्ट वालों या अन्य किसी का हिसाब करना हो निबटा लेना। अपना सामान तैयार कर ले। खुशी को भी बता दे। संकोच करने से काम नहीं चलने वाला। कुछ देर बैठकर हार्दिक उठ गया। फिर लौटकर करुणाजी को एक लिफाफा देकर बोला- मम्मी, इसे मेरे जाने के बाद खोलना। करुणा जी ने लिफाफा अलमारी में रख लिया। वत्सला के आने पर हार्दिक चला गया। करुणा जी ने लिफाफा खोलकर देखा, हजार-हजार के दस नोटों के साथ एक छोटी सी चिट भी थी- जल्दी ही आऊंगा। करुणाजी ने लिफाफा आंखों से लगाया और जहां से निकाला था वहीं रख दिया। आंखें नम हो आई। कभी धरा आ जाती, कभी वत्सला और कभी हार्दिक। हार्दिक जब भी आता करुणा जी को एक लिफाफा थमा जाता और वे संभालकर रख लेंती। इसी प्रकार एक साल निकल गया। मुकुन्द जी की बरसी पर हार्दिक के आने से पहले ही वत्सला, धरा और करुणा जी ने सारी व्यवस्था कर ली। हार्दिक बरसी की पूर्व संध्या पर पहुंच गया। उसे आश्चर्य हुआ- मैं आ तो रहा था मम्मी। आपने सारा आयोजन कैसे किया? इतने सारे रुपए की व्यवस्था कहां से की? मैंने कुछ नहीं किया। सब तेरी बहिन और मौसी ने किया है। पैसे सारे तूने ही खर्च किए हैं? मैंने..? आश्चर्य से पूछा हार्दिक ने। हां, जब भी तू आता, मुझे रुपए थमा जाता। बस उन्हीं रुपयों से सब व्यवस्था हो गई। और मम्मी, आपका खर्चा..? सब चल गया। कुछ तेरे पापा छोड गए थे, कुछ पेंशन मिल जाती है। शायद तूने इधर नहीं सोचा। अब सारी चिन्ता छोड। सब आराम से चल रहा है। करुणाजी को लोगों ने समझाया कि बहू-बेटे के पास जाकर रहने से स्वयं को अपमानित कराना है। दो-चार दिन के लिए जाओ तो बहू से सम्मान मिलता है और जब हमेशा के लिए जाकर रहने लगो तो वही सम्मान अपमान में बदल जाता है। यह बात कहीं न कहीं करुणा जी के मन में भी थी। वे बहाने बनाकर हार्दिक के साथ जाना टालती रहीं। एक दिन थक कर हार्दिक ने कहा- मम्मी, आप क्या समझती हैं मैं आपका ध्यान नहीं रख सकता। यदि आप कभी अपमानित महसूस करें तो मुझे बता देना। मैं आपको यहीं छोड जाऊंगा। आपके रहते यह घर नहीं बेचूंगा। एक बार आप अपने बच्चों पर विश्वास करके देखिए। खुशी आपका इंतजार कर रही है। अब स्वयं को नहीं रोक सकी करुणा जी। अपना जरूरी सामान पैक किया। घर का ताला लगा दिया और स्वयं हार्दिक के साथ आ गई। करुणा जी के कमरे में ए.सी. लगा था, कलर टी.वी. था, अटैच बाथरूम यानि सुविधा का सभी सामान था। बच्चों ने करुणा जी को हांथों-हाथ लिया। उन्हें कोई किसी काम में हाथ न लगाने देता। पूरे समय काम करने के लिए नौकर जो था। बच्चे स्कूल से लौटकर दादी मां-दादी मां कहकर उन्हें घेर लेते। बच्चे दादी मां के साथ खूब खुश रहते। हार्दिक और खुशी भी करुणा जी के आने से काफी निश्चिन्त हो गए थे। वीक एंड पर सब घूमने जाते। करुणा जी बच्चों को होमवर्क करा देतीं। उनके साथ लूडो, कैरम, अन्ताक्षरी खेलतीं, कहानियां सुनातीं। करुणा जी उन्हें रस्सी घुमाना सिखातीं। धीरे-धीरे दस-बारह बच्चों का ग्रुप बन गया। करुणा जी उन्हें रोज नए-नए खेल खिलातीं। कभी कहानियां सुनातीं। बच्चे अपने प्रश्नों के उत्तर करुणाजी से पाकर सन्तुष्ट होते। करुणाजी कभी-कभी अपने साथ टॉफी, चाकलेट्स या बिस्कुट के पैकेट ले आतीं और बच्चों में बांट देती। बच्चों की मम्मियों से भी उनकी दोस्ती हो गई। बच्चे अपने जन्मदिन पर करुणाजी को अपने घर निमंत्रित करते अथवा उनके घर कोई उत्सव होता तो करुणा जी को न्यौता अवश्य मिलता। वे इला और कार्तिक के साथ चली जातीं। धीरे-धीरे सभी बच्चे अपना होमवर्क भी करुणा जी के पास बैठकर पूरा करने लगे। उन्हें पढाते हुए समय का पता ही न चलता। कब पंख लगाकर गुजर जाता। कभी दो-चार दिन के लिए घर लौटतीं तो बच्चे रोज फोन करते- अम्मा जी, कब लौट रही हैं? हमारा मन नहीं लग रहा। आप जल्दी आइए। करुणाजी की आंखें भर आतीं। ये कैसा बंधन? एक टूटा दूसरा जुड गया। आगे वक्त कैसे कटेगा वे इस चिन्ता से मुक्त हो गई। करुणा जी के लौटने पर बच्चे खूब खुश होते। धीरे-धीरे पुराने रूटीन पर लौट आते। एक दिन बच्चों की मम्मियां उनके पास आई और उनके पैरों में एक-एक लिफाफा रख दिया। उन्हें बडा आश्चर्य हुआ। उत्सुकता भी हुई कि देखें लिफाफे में क्या है? उन्होंने एक लिफाफा खोला सौ-सौ के तीन नोट रखे थे। सभी लिफाफों में रुपए थे। उन्होंने पूछा- आप सब ये रुपए मुझे क्यों दे रही हैं? मांजी, बच्चे जब से आपके सम्पर्क में आए हैं, ट्यूशन पढना छोड दिया है। आप जो भी पढाती हैं, बहुत ध्यान से सुनते हैं और याद रखते हैं। नम्बर भी अच्छे ला रहे हैं। आप इतनी मेहनत करती हैं तो हमारा भी कुछ फर्ज बनता है। ये क्या कह रही हो तुम सब? मेरे पास पैसे की कोई कमी नहीं है। बेटा-बहू मेरा खूब ध्यान रखते हैं। मैं इन रुपयों का क्या करूंगी? ज्ञान बांटने से बढता है कम नहीं होता। मेरे पास जो थोडा सा ज्ञान है इनमें बांट देती हूं। करुणा जी ने लाख मना किया पर वे सब नहीं मानीं। करुणा जी को वे रुपए लेने पडे। उनके पास तीन हजार रुपए थे। यानि साल में छत्तीस हजार। वे इतने रुपयों का क्या करेंगी? सोच रही थीं- तभी उन्हें ख्याल आया। अगले सप्ताह दिवाली है। करुणाजी ने सारी बात हार्दिक और खुशी को बताई। खुशी और हार्दिक ने हंसते हुए कहा-मम्मी, आपकी पहली कमाई है। अपने पास रखिए। नहीं हार्दिक, बच्चों की कमाई बच्चों में बांट देना चाहती हूं। हम दीपावली पर अनाथाश्रम चलेंगे। बच्चों को मिठाई और पटाखे बाटेंगे। हर साल जितना पैसा इकट्ठा होगा जरूरतमंद संस्था को दे देंगे। करुणा जी के फैसले पर दोनों ने मुहर लगा दी। इस प्रकार दो साल और निकल गए। एक दिन करुणा जी हार्दिक और खुशी से बोलीं- तुम से कुछ कहना चाहती हूं बच्चों। मैं वहां रहती थी तो घर की साज-संवार कर लेती थी। बिन देख रेख के घर बेकार हो रहा है। मैं चाहती हूं तुम उसे बेच दो। जो पैसा मिले उसका एक तिहाई धरा को भी दे देना। शेष तुम रख लेना। मम्मी! आपके इस फैसले से मैं सहमत नहीं हूं। अभी हम घर किराए पर उठा देते हैं। एक कमरा अपने पास रख लेंगे। आप चिन्ता मत करो। मैं हूं न। हां तुम दोनों मेरी पूंजी हो। तभी तो निश्चिंत हूं। कहकर करुणा जी ने दोनों को गले लगा लिया।

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