बुधवार, 26 मई 2010

साहित्यिक कृतियां

रजाई


सर्दी की रात, चारों ओर पसरा हुआ सन्नाटा। किंतु कुछ ऐसा भी था, जो रुका हुआ नहीं था। वो थी अनवर की चलती हुई उंगलियां। तंग गलियों के एक कोठरीनुमा कमरे में अनवर की गृहस्थी सिमटी हुई थी। शरीर बूढा हो चला था, मगर हाथ अनवरत चल रहे थे।

चालीस साल से उसकी यही दिनचर्या थी। दिन-रात की मेहनत से वो कम वजन वाली खूबसूरत रजाइयां तैयार करता था। सेठजी सुंदर कशीदाकारी से मंडे खोल उसे देते और फिर शुरू होती अनवर की कारीगरी। अनवर के हाथ की बनी रजाइयां देश-विदेश में जाती थी। इस कार्य के लिए कई सरकारी व गैर-सरकारी संस्थाएं, उन्हें पुरस्कृत कर चुकी थीं।

अनवर का कमरा, एक भीड भरे मोहल्ले की तंग गली में स्थित था। कमरे को उसने दो भागों में बांट रखा था। एक ओर उसकी गृहस्थी, खाने-पीने का सामान था, दूसरी ओर रुई, रजाइयां, सुई-धागे आदि पडे रहते थे। उसका सारा कमरा बेतरतीब था। गंदगी और अव्यवस्था एक दूसरे से बढकर थी। खुद अनवर अव्यवस्थित कमरे का प्रतिरूप जान पडता था। पर फिर भी कमरे में कुछ थी जो अद्भुत थी, खूबसूरत थी, एक सुंदर सपने सी प्रतीत होती थी। वो थी, अनवर द्वारा तैयार एक्पोर्ट क्वालिटी रजाई। रेशम व मखमली कपडे की बनी मुलायम रजाई, जो छूते ही पंख सा अहसास देती थी। रजाई की अद्भुत कशीदाकारी उसका सौंदर्य दुगना कर देती थी। अनवर, हालांकि दिन भर ही रजाई पर काम करता था, पर पूरी होने पर उसको अनमोल धरोहर की तरह रखता था। रजाई, उसके लिए महज उत्पाद नहीं थी, अपितु साधना थी, अर्चना थी, समर्पण भाव से वह अपने काम में खोया रहता। रजाई ही उसकी आकार-निराकार प्रतिमा थी, कुरान की आयतें थीं। रजाई उसके लिए भोर का गीत थी, संध्या की राग-रागिनी थी। खुद वो कमरे के दूसरे छोर पर सोता था। एक पुरानी सी गुदडी और दो फटे कंबल। कडकडाती सर्दी में ये कंबल अपर्याप्त थे। मगर वो ये ही सोचकर तसल्ली कर लेता था कि दो महीने की तो बात है, बेकार में खर्चा क्यूं किया जाए।

उस रोज रात धीरे-धीरे गहराती जा रही थी। हवाएं, रह-रहकर उसके रोंगटे खडे कर देती थी। पर वह हमेशा की तरह अपने काम में लगा हुआ था। रजाई, लगभग तैयार होने को ही थी। उसका इरादा था कि वो पूरा काम करके ही सोए। तभी ठंड का एक झोंका तेजी से आया उसे कंपा गया। वह सिहर उठा। पर उंगलियां बराबर चलती रहीं। अंत में, करीब एक घंटे बाद रजाई का काम पूरा हो गया।

अब अनवर का मन शांति से भर उठा था। वह धीरे से उठा और जल्दी से अपने बिस्तर में आकर लेट गया। ठंड बराबर बढती जा रही थी। दोनों कंबल ओढने के बाद भी सरदी में कोई कमी नहीं आ रही थी। चारों ओर लिपटे कंबल जैसे ठंड के मारे पानी-पानी हो रहे थे। कोई बात नहीं, एक तो बज ही गया, चार घंटे बाद सुबह हो जाएगी। मन ही मन वो अपने आपको तसल्ली देने लगा।

बल्ब की पीली रोशनी में जहां पूरा कमरा उदासी से भरा हुआ था, वहीं रजाई की उपस्थिति कमरे की शोभा में चार चांद लगा रही थी। उसकी रजाईयां बहुत ही सुंदर व गर्म रहती थी। सुंदर के बारे में तो उसे पता था, लेकिन गरम रहती थी, ऐसा सिर्फ उसने लोगों से सुना था। लोग कहते थे कि अनवर के हाथों की बनी रजाई तो बिल्कुल ऐसी थी कि हिमपात में भी ओढकर बैठ जाएं। और उसे इसका कोई प्रत्यक्ष अनुभव नहीं था हालांकि वह उनका निर्माता था, सर्जक था और विशेषज्ञ समझा जाता था। इसका कारण संभवत: यही था कि सेठजी हमेशा-हमेशा कहते रहते थे कि रजाई बिल्कुल गंदी नहीं होनी चाहिए, न ही उन पर निशान पडने चाहिए। उन्हें ड्राइक्लीन करना संभव नहीं था और आखिर हजारों रुपए की होती थीं।

ऐसे ही ठिठुरते हुए उसने करवट बदली। रजाई अपने अप्रतिम सौंदर्य के साथ उसके सामने थी। गलन लगातार बढती जा रही थी। अचानक उसके दिमाग में एक ख्याल आया और वो रोमांच से भर उठा। वो सृजनकर्ता है, निर्माता है, पर अपने सृजन से कितना अनभिज्ञ है। वो चालीस सालों से बना रहा है, पर उसने कभी रजाई ओढकर नहीं देखी। पता नहीं कैसा अहसास होता होगा? लोग उसकी रजाई से कैसा सुख अनुभव करते होंगे?

वो धीरे से उठा और रजाई के पास जाकर बैठ गया। रजाई बहुत ही सुंदर लग रही थी। उसने रजाई को धीरे से सहलाया। मिला एक बहुत ही सुखद व कोमल अहसास.. वह अपना हाथ रजाई के अंदर ले गया। नर्मी मरहम सी छा गई हाथ पर। उसका दिल जोर-जोर से धडकने लगा। उसने चारों ओर देखा.. कोई नहीं था, खिडकी पर लगा परदा गिरा हुआ था।

अचानक ठंड बहुत बढ गई। वह पुन: अपने बिस्तर पर चला गया और कंबलों को पूरी तरह ओढकर पड गया। रजाई ओढने की हिम्मत वह जुटा नहीं पाया। बस पडे-पडे उसे देखता रहा। रजाई का सौंदर्य चांदनी सा छिटका हुआ था। कशीदाकारी और रंग के समावेश ने मानो उसके सौंदर्य में चार चांद लगा दिए थे।

सचमुच कितना अच्छा लगता होगा? वह सोचने लगा, लोग उसे चारों ओर से लपेट लेते होंगे। जो लोग इतनी मंहगी रजाई ओढते होंगे, वे नीचे मोटे-मोटे गद्दे भी बिछाते होंगे। फिर उस पर नर्म चादर.. और ऊपर से सुंदर.. सुकोमल रजाई। इन्हीं कल्पनाओं में खोया अनवर न जाने कब सपनों की सुहानी दुनिया में पहुंच गया।

उसे लगा कि वो एक बहुत सुंदर बिस्तर पर सोया है। बहुत सुंदर गद्दा, उस पर बिछी मखमल की चादर.. ऊपर उसने अपनी रजाई ओढ रखी है, बिल्कुल ऐसी जैसी.. किसी ने उसके चारों ओर छोटे-छोटे पंख लपेट दिए हों। तभी अचानक उसे ठंडापन सा लगा। उसकी नींद खुल गई। उसने देखा, यह सच नहीं था। वो सपना देख रहा था, उसे वास्तव में ठंड लग रही थी। उसने रजाई नहीं सिर्फ फटे कंबल ओढ रखे थे। रजाई तो वैसी ही रखी हुई थी। सुंदर, सुकोमल प्यारी..। उसका गला सूख रहा था। वो धीरे से उठा। चरी से निकाल पानी पिया। लेकिन इस बार वह लौटकर अपने बिस्तर के पास नहीं गया। वो रजाई के पास पहुंचा। वहीं बैठ गया, धीरे-धीरे उसे सहलाता रहा। उसे बहुत अच्छा लग रहा था। पहली बार उसे लगा कि वो उसका जन्मदाता है, निर्माता है, उसे भी पूरा अधिकार है, अपने सृजन के सुखद अहसास को अनुभव करने का।

उसने अब खिडकी की ओर भी नहीं देखा और रजाई में घुस गया। उसे लगा यह पल उसके जीवन का सबसे सुखद पल है, निर्वाण का पल, शांति का पल.. सचमुच वह बहुत ही खुश था.. बहुत ही खुश।

विडंबना
बैंक के एटीएम के पास तीन रिक्शेवाले सवारी की प्रतीक्षा में सडक के किनारे अपने-अपने रिक्शे पर बैठे थे। एक कार आकर रुकी उसमें से एक सम्भ्रांत सा आदमी उतरा और एटीएम की ओर बढा। रिक्शेवालों के बगल में ही नाले के किनारे पांच सौ के दो नोट गिरे पडे थे। कार वाले ने देखा उसने चुपके से उठा लिया और एटीएम की ओर बढ गया। एक रिक्शेवाले ने देखा तो उसने दूसरे रिक्शेवाले को दिखाते हुए कहा-वो देखो ऊपर वाला भी उसे ही देता है जिसके पास कुछ है।

औचक निरीक्षण

विद्यालय में ठीक से पढाई न होने और अध्यापकों द्वारा ट्यूशन-कोचिंग के लिए मजबूर किए जाने की अभिभावकों की शिकायतों से तंग आकर उच्चाधिकारियों ने औचक निरीक्षण की योजना बनायी।

उस दिन विद्यालय में सब कुछ बदला-बदला सा लग रहा था। प्रधानाचार्य अपने कक्ष से विद्यालय के अनुशासन का जायजा ले रहे थे, सभी कक्षाएं सुचारुरूप से चल रही थीं, अलबत्ता छात्रों की संख्या अवश्य बहुत कम थी। विद्यालय पहुंचते ही निरीक्षक दल का पूरे उत्साह से स्वागत किया गया। भेंट-पूजा [उपहार आदि] के साथ ही अच्छी पेट पूजा भी करायी गयी। निरीक्षण आख्या में विद्यालय के अनुशासन और शिक्षण की सराहना करते हुए यहां तक लिख दिया गया कि यहां का अनुसरण करके दूसरे विद्यालय भी आदर्श स्थापित करें। अभिभावकों को अब अपनी भूल का अहसास हो रहा था, अब वे भली प्रकार जान चुके थे कि विद्यालय प्रबंधतंत्र की जडें कितनी गहरी और मजबूत हैं।

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