सुपर-वूमन भी है लाड़ली बहू
समय बदला है तो लड़कियों के प्रति नजरिया भी बदला है। उन्हें एक इंसान की तरह देखा और स्वीकार किया जाने लगा है यह माना जाने लगा है कि उसकी भी पसंद-नापसंद, रुचि-अरुचि हो सकती है। यदि वह अच्छी प्रोफेशनल है तो जरूरी नहीं है कि उसे पारंपरिक रूप से महिलाओं के हिस्से आई जिम्मेदारियों को उठाने में भी माहिर होना ही चाहिए। इससे पहले लड़कियों को ये सहूलियतें नहीं दी थी जो आज है।
शादी के लिए अच्छा खाना पका लेना या सिलाई-कढ़ाई कर लेने जैसी शर्तें आजकल शिथिल हुई है। रोहन सॉफ्टवेयर इंजीनियर है। शादी के लिए उसकी बस इतनी ही शर्त थी कि लड़की पढ़ी-लिखी हो। तान्या से उसका रिश्ता तय हुआ। तान्या भी सॉफ्टवेयर इंजीनियर है।
नए जमाने की लड़की है ख्याल, रहन-सहन, पहनावा एकदम आधुनिक है। माँ-बाप की इकलौती लड़की है उसके लिए शादी यानी टिपिकल पति-पत्नी वाला हिसाब नहीं है, बल्कि दो अच्छे दोस्तों का साथ मिलकर 'लाइफ' शेयर करना ही उसकी नजर में शादी है। रोहन को तान्या पसंद है, उसकी आधुनिकता, पहनावे, लाइफ स्टाइल पर उसे कोई आपत्ति नहीं है। पहली मुलाकात में जब तान्या ने उसे बताया कि उसे खाना बनाना नहीं आता, तो चौंकने की बजाय रोहन बोला, 'कोई बात नहीं, मैं फास्ट फूड बना लेता हूँ।
हॉस्टल में जो रहा हूँ...बाकी 'मेड' सर्वेट रहेगी ही। तान्या शालीन है, वैल ग्रुम्ड है और बड़ों का आदर करती है। रोहन की माँ का कहना है, 'भई वो जमाने गए जब आठवीं पास करते ही लड़कियों को रसोई में धकेल दिया जाता था। जाहिर-सी बात है, दिन-रात पढ़ाई में जुटी लड़कियों के लिए रसोई में जाने की फुरसत है कहाँ? सीख लेगी धीरे-धीरे...' शर्मा आंटी की बहू एक कंपनी की एमडी है। उसे खाना बनाना आता तो है, मगर खाना बनाने में रुचि नहीं है।
NDघर में नौकरानी है, मगर शर्मा अंकल और उनके बेटे को नौकरानी के हाथ का भोजन पसंद नहीं। शर्मा आंटी अब भी जिम्मेदारी से रसोई का सारा काम सम्हालती है। वे कहती हैं 'मेरी बहू यदि भोजन बनाने में रुचि नहीं रखती तो जबरन उससे वह काम क्यों करवाऊँ? मुझे खाना बनाने का शौक है, सो मैं अपना शौक पूरा करती हूँ। इसमें बुराई क्या है?
इन उदाहरणों को देख-सुनकर मन को राहत का झोंका छू जाता है। आज समय तेजी से बदल रहा है, अब नारी की आर्थिक स्वतंत्रता केवल घर का ढाँचा बरकरार रखने के लिए ही मायने नहीं रखती, वरन् पति और ससुराल वाले भी उसकी तरक्की-सफलता को अपना गौरव मानते हैं।
आज से एक दशक पहले भी स्त्री अपने पैरों पर खड़ी थी, मगर तब घर-बाहर की जिम्मेदारी उसी के सिर थी। पति या ससुराल पक्ष से सहयोग न के बराबर था। मगर आज स्थितियाँ तेजी से बदली हैं। घर की बुनावट में स्त्री को विशेषतः बहू को खासी अहमियत मिलने लगी है। उसे दकियानूसी परंपराओं, रीति-रिवाजों और पुरानी मान्यताओं से बाहर निकलने का मौका दिया गया है। पति की तरह ही उसे भी दफ्तर की जिम्मेदारियों को निभाने व समय देने का मौका दिया जा रहा है।
घर-परिवार के अलावा उसका सर्कल, उसके सहकर्मी, उसका ओहदा भी सम्माननीय है। उसे अपने अनुसार जीने, पहनने-ओढ़ने की छूट है...क्या ऐसा नहीं लगता कि स्त्री अब सचमुच स्वतंत्र हो रही है? अक्षिता के पिताजी का स्वर्गवास हो गया है। शादी के समय ही अक्षिता ने स्पष्ट कर दिया कि वह न केवल अपनी माँ की भी देखभाल करेगी, वरन् अपनी तनख्वाह का कुछ हिस्सा उन पर खर्च करेगी।
अक्षिता के पति व ससुराल वालों ने यह बात सहर्ष स्वीकार कर ली और आज अक्षिता बेटे की तरह ही अपनी माँ का ख्याल रखती है। समयानुसार अपने में परिवर्तन लाते जाना, नया ग्रहण करना और पुराना (जो अनुपयोगी हो) छोड़ते जाना ही बुद्धिमानी है। अप्रासंगिक, गैरजरूरी मान्यताएँ छोड़ना, नई सोच, नई मान्यताओं को जीवन में स्थान देना ही सुखी जीवन का मूलमंत्र है। कल जो भी हुआ हो, आज बदलाव की सुहानी बयार चल पड़ी है जो सचमुच खुशगवार है, कुछ नएपन का इशारा कर रही है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें