...तो नहीं है आपके लिए योग
आप कह सकते हैं कि इस सबके बावजूद हम क्यों करें योग, जबकि हम स्वस्थ हैं, मानसिक और शारीरिक रूप से हमें कोई समस्या नहीं है? तब पहले तो यह जानना जरूरी है कि आपके भीतर आपका 'क्यों' है कि नहीं।
आनंद की अनुभूति : एक होता है सुख और एक होता है दु:ख। जो लोग योग करते हैं उन्हें पहली दफा समझ में आता है कि आनंद क्या होता है। जैसे सेक्स करते समय समझ में आता है कि सुख और दु:ख से अलग भी कोई अनुभूति है। इस तरह योगस्थ चित्त समस्त प्रकार के सुखों से ऊपर आनंद में स्थित होता है। उस आनंद की अनुभूति न भोग में है न संभोग में और न ही अन्य किन्हीं क्षणिक सुखों में।
चेतना का विकास : मोटे तौर पर सृष्टि और चेतना के वेद और योग में पाँच स्तर बताए गए हैं। यह पाँच मंजिला मकान है- (1) जड़ (2) प्राण (3) मन (4) आत्मा और (5) परमात्मा।
जड़ : आप तमोगुणी हो, अजाग्रत हो तो आप जिंदा होते हुए भी मृत हो अर्थात् आपकी चेतना या आप स्वयं जड़ हो। बेहोशी में जी रहे हो आप। आपकी अवस्था स्वप्निक है। आपको इस बात का जरा भी अहसास नहीं है कि आप जिंदा हैं। आप वैसे ही जीते हैं जैसे कि एक पत्थर या झाड़ जीता है या फिर वैसा पशु जो चलाने पर ही चलता है।
प्राण : प्राण अर्थात फेफड़ों में भरी जाने वाली प्राणवायु जिससे कोई जिंदा है, इस बात का पता चलता है। यदि आपकी चेतना या कि आप स्वयं अपनी भावनाओं, भावुक क्षणों या व्यग्रताओं के गुलाम हैं तो आप प्राणिक चेतना हैं। आपमें विचार-शक्ति क्षीण है। आप कभी भी क्रोधी हो सकते हैं और किसी भी क्षण प्रेमपूर्ण हो सकते हैं। प्राणिक चेतना रजोगुण-प्रधान मानी जा सकती है।
योग का प्रथम सूत्र है- अथ:योगानुशासनम्। योगश्चित्तिवृत्तिनिरोध। अर्थात यदि आप अपने मन और शरीर से थक गए हैं, आपने जान लिया है कि संसार असार है तो अब योग का अनुशासन समझें, क्योंकि अब आपका मन तैयार हो गया है। मन : मन में जीना अर्थात मनुष्य होना। मन का स्वयं का कोई अस्तित्व नहीं है। भावनाओं और विचारों के संगठित रूप को मन कहते हैं। मन के योग में भी कई स्तर बताए गए हैं। विचारशील मनुष्य मन से श्रेष्ठ बुद्धि में जीता है। उसमें तर्क की प्रधानता होती है। जो तर्कातीत है वही विवेकी है।
आत्मा : योग है मन से मुक्ति। जो मनुष्य मन से मुक्त हो गया है, वही शुद्ध आत्मा है, वही आत्मवान है अर्थात उसने स्वयं में स्वयं को स्थापित कर लिया है।
परमात्मा : परमात्मा को ब्रह्म कहा गया है, जिसका अर्थ विस्तार होता है। उस विराट विस्तार में लीन व्यक्ति को ब्रह्मलीन कहा जाता है और जो उसे जानने का प्रयास ही कर रहा है, उसे ब्राह्मण कहा गया। योगी योग बल द्वारा स्वयं को ब्रह्मलीन कर अमर हो जाता है, फिर उसकी न कोई मृत्यु है और न जन्म और यह भी कि वह चाहे तो जन्मे न चाहे तो न जन्मे।
जागरण : चेतना की चार अवस्थाएँ हैं- (1) जाग्रत (2) स्वप्न (3) सुसुप्ति (4) तंद्रा। योगी व्यक्ति चारों अवस्थाओं में जाग्रत रहता है। तंद्रा उसे कहते हैं, जबकि व्यक्ति शरीर छोड़ चीर निद्रा में चला जाता है। ऐसी तंद्रा में भी योगी जागा हुआ होता है।
अधिकतर जागकर भी सोए-सोए से नजर आते हैं अर्थात बेहोश यंत्रवत जीवन। फिर जब सो जाते हैं तो अच्छे और बुरे स्वप्नों में जकड़ जाते हैं और फिर गहरी नींद अर्थात सुसुप्ति में चले जाते हैं वहाँ भी उन्हें स्वयं के होने का बोध नहीं रहता। यह बेहोशी की चरम अवस्था जड़ अवस्था है, तब तंद्रा कैसी होगी सोचें। योग आपकी तंद्रा भंग करता है। वह आपमें इतना जागरण भर देता है कि मृत्यु आती है तब आपको नहीं लगता कि आप मर रहे हैं। लगता है कि शरीर छूट रहा है।
इस परम विस्तृत ब्रह्मांड में धरती पर खड़े आप स्वयं क्या हो, क्यों हो, कैसे हो, कब से हो, हो भी कि नहीं, कब तक रहोगे। मेरा अस्तित्व है कि नहीं। ऐसा सोचने वाले के लिए ही योग है। जिसने योग के अनुशासन को निभाया उसने सुपर कांसेस मन को जाग्रत करने की दिशा में एक कदम बढ़ाया।
स्वयं की स्थिति समझे : योग का प्रथम सूत्र है- अथ:योगानुशासनम्। योगश्चित्तिवृत्तिनिरोध। अर्थात यदि आप अपने मन और शरीर से थक गए हैं, आपने जान लिया है कि संसार असार है तो अब योग का अनुशासन समझें, क्योंकि अब आपका मन तैयार हो गया है, आप मैच्योर हो गए हैं तो अब समझें और अब भी नहीं समझते हैं तो अंधकार में खो जाने वाले हैं। यदि आपके भीतर का 'क्यों' मर गया है तो नहीं है आपके लिए योग।
अतत: : योग उनके लिए है जो अपना जीवन बदलना चाहते हैं। योग उनके लिए है जो इस ब्रह्मांड के सत्य को जानना चाहते हैं। योग उनके लिए भी है जो शक्ति सम्पन्न होना चाहते हैं और योग उनके लिए जो हर तरह से स्वस्थ होना चाहते हैं। आप किसी भी धर्म से हैं, यदि आप स्वयं को बदलना चाहते हैं तो योग आपकी मदद करेगा। आप विचार करें कि आप योग क्यों और क्यों नहीं करना चाहते हैं।
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