मे दैनिक राष्ट्रीय हिंदी मेल का सम्पादक हूँ.खुल्लम खुल्ला मेरी अभिव्यक्ति है .अपना विचार खुलेआम दुनिया के सामने व्यक्त करने का यह सशक्त माध्यम है.अरुण बंछोर-मोबाइल -9074275249 ,7974299792 सबको प्यार देने की आदत है हमें, अपनी अलग पहचान बनाने की आदत है हमे, कितना भी गहरा जख्म दे कोई, उतना ही ज्यादा मुस्कराने की आदत है हमें...
मंगलवार, 4 मई 2010
वामा
अंदर से बहती है खुशी
यूँ ये सवाल बड़ा पुराना है कि खुशी क्या है? और उसकी ग्यारंटी क्या? धीरे-धीरे समझदार लोग यहाँ तक पहुँच गए हैं कि कम से कम पैसा या भौतिकता तो खुशी की ग्यारंटी नहीं है। खुशी का स्रोत हम में ही कहीं है। वह कहीं बाहर से नहीं आती है। वह अंदर से बाहर की ओर बहती है। यकीन नहीं हो तो इसे पढ़ें।
एक दिन खबर मिली कि बचपन के दोस्त संजय ने नई कार खरीदी है तो बड़े उत्साह के साथ मैं सुबह उसे बधाई देने उसके घर गया। रास्तेभर सोचता रहा कि अत्यंत साधारण परिस्थिति से संजय ने समय को पहचानते हुए अलग-अलग व्यवसाय किए, अच्छी पहचान बनाई तथा आज उसका स्वयं का आयात-निर्यात का काम है। यह सोचते-सोचते उसका घर आ गया। बाहर पोर्च में खड़ी लाल चट कार को देखकर मन खुश हो गया। पास ही संजय खड़ा था। गर्मजोशी से उसको बधाई दी। उसने भी आत्मीयता से स्वागत किया।
इतने में एक 2 वर्षीय बालक हाथ में एक चकरी लेकर दौड़ता हुआ बाहर आया। चकरी यानी पेंसिल पर कागज को तिकोना मोड़कर नोक पर लगा दिया था। दौड़ने से वह पंखा घूमने लगता तथा वह बच्चा खुश हो जाता। घर के अंदर प्रवेश किया तो संजय की बेटी से सामना हुआ। कार खरीदने की बात सुनकर बेलगाँव से आई थी। उसी का बेटा मोनू था, जो हाथ में चकरी लेकर घरभर में दौड़ रहा था। कभी खिड़की के सामने तो कभी कूलर के सामने जाता तो उसका पंखा जोर से चलता और वह खुशी से उछल पड़ता।
इसी बीच संजय के दामाद का फोन आया। पहले उसने अपने ससुर को कार की बधाई दी फिर मोनू से कार के बारे में पूछा। पर वह तो अपनी चकरी के बारे में ही बात करता रहा। इतने में संजय की पत्नी ने प्रवेश किया। मेरे अभिवादन का उत्तर उन्होंने अत्यंत ठंडेपन से दिया। पानी का गिलास रखकर वह बोली, 'जरा काम है मैं अंदर जाती हूँ।' कुछ देर बाद मैं वहाँ से उठा तो संजय भी बाहर आया। वहाँ मैंने उससे पूछा, 'यार, नीता भाभी का व्यवहार समझ में नहीं आया, कुछ गड़बड़ है क्या?' छूटते ही बोला, 'नीता को गहरे नीले रंग की कार पसंद थी, पर घर में किसी और को वह रंग पसंद नहीं था अतः बहुमत को ध्यान में रखते हुए हमने यह कार पसंद की। पर हालत यह है कि उसने कार को देखा तक नहीं, बैठना तो दूर की बात है।'
इतने में मोनू फिर अपनी चकरी लेकर हमारे बीच से दौड़ते हुए किलकारी मारते हुए निकल गया, तो लगा खुशी पाने के लिए पैसों से ज्यादा मन की भावना जरूरी है। इसे उम्र का अंतर मानें या समझ का फर्क- वह लाल चट कार संजय के सीने पर बोझ बन गई, क्योंकि मोनू तो कल वापस बेलगाँव चला जाएगा।
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