शनिवार, 23 जनवरी 2010

विचार मंथन

खेल भावना के खिलाफ
यह गलत है। खेल खेल भावनाओं से होना चाहिए। इसमें राजनीति का स्थान नहीं। शुरू से हम यही सब सुन रहे हैं। यहां तक कि जब दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद की नीति जारी थी, तब भी दुनिया का एक बड़ा तबका इस बात की वकालत करता था कि दक्षिण अफ्रीका के राजनेताओं की करतूत को आखिर खिलाड़ी क्यों भुगतें! जब दो देशों के रिश्ते बेहतर नहीं होते तो इन्हें बेहतर बनाने के लिए आमतौर पर खेलों का सहारा लिया जाता है। भारत और पाकिस्तान के संबंध में तो यह अकसर देखा गया है। जब दोनों देशों के रिश्ते सबसे खराब दौर से गुजर रहे थे, तब भी खेलों के लिए थोड़ी-सी गुंजाइश बाकी थी। जिया-उल-हक जैसे तानाशाह भी सेकेंड ट्रैक डिप्लोमेसी के चलते भारत में क्रिकेट मैच देखने का लुत्फ उठा चुके हैं। फिर ऐसा क्यों किया गया कि आईपीएल जैसे अनधिकृत अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट में पाकिस्तानी खिलाडि़यों की बोली न लगाकर उन्हें अपमानित किया गया। यह फूहड़ता क्रिकेट के बाजारू विस्तार की है या फिर आईपीएल की टीमों के मालिकों को साउथ ब्लाक से कोई संदेश गया था कि पाकिस्तानी खिलाडि़यों की अनदेखी की जाए।

पाकिस्तानी खिलाडि़यों का गुस्सा स्वाभाविक है। 19 जनवरी को मुंबई में दुनियाभर के क्रिकेटरों की मंडी लगी और इसमें जिस तरह से ट्वेंटी-20 के व‌र्ल्ड चैंपियन पाकिस्तानी खिलाडि़यों की अनदेखी की गई, उससे कोई भी खेल प्रेमी आहत हो सकता है। क्या सचमुच इस हद तक नीचे गिरने की जरूरत थी? अगर हमें पाकिस्तान के शासकों से शिकायतें हैं तो इससे सियासत के स्तर पर ही निपटा जाना चाहिए। अगर यह फैसला आईपीएल टीमों के मालिकों का है तो सरकार को तुरंत कार्रवाई करनी चाहिए। अगर साउथ ब्लाक ने इस संबंध में कोई संदेश दिया है तो हमें वाकई अपने उन नीति निर्माताओं पर तरस आना चाहिए जो इन दिनों हमारी विदेश नीति तय कर रहे हैं। क्या भारत की विदेश नीति इस कदर मूल्यहीन और खोखली हो चुकी है कि विरोध जताने के लिए उसे क्रिकेट जैसे खेल का सहारा लेना पड़े? शाहिद अफरीदी ने बिल्कुल सही कहा है कि मुंबई में जो बोली लगी उसमें जानबूझकर पाकिस्तान और पाकिस्तानी खिलाडि़यों को अपमानित किया गया। कोई भी खेल प्रेमी ईमानदारी से यह महसूस कर सकता है। आईपीएल टीमों के मालिक भले यह कहें कि उन्होंने पाकिस्तानी खिलाडि़यों की अनदेखी इसलिए की क्योंकि उनका खेलना संदिग्ध था या उनकी उपलब्धता सुनिश्चित नहीं थी। मगर यह तर्क तो आस्ट्रेलियाई खिलाडि़यों के संबंध में भी दिया जा सकता था। आईपीएल टीमों के मालिक यह नहीं कह सकते कि उन्होंने इस आशंका से पाकिस्तानी खिलाडि़यों की अनदेखी की क्योंकि उन्हें लग रहा था कि शायद भारत सरकार उन्हें वीजा न दे। सरकार के किसी कामकाज पर इस तरह से सोच लेने का हक किसी निजी टीम के मालिक को नहीं होना चाहिए। आखिरकार, आईपीएल टूर्नामेंट महज बीसीसीआई का निजी मसला नहीं है। इसके राष्ट्रीय सरोकार भी हैं। अगर ऐसा न हो तो बीसीसीआई इस टूर्नामेंट के दौरान सुरक्षा व्यवस्था के लिए सरकार पर निर्भर न रहे। फिर वह ऐसा एकतरफा फैसला कैसे कर सकती है जिसमें देश की प्रतिष्ठा और साख दांव पर लगी हो।

पाकिस्तानी खिलाडि़यों की अनदेखी, सिर्फ पाकिस्तानी खिलाडि़यों का ही अपमान नहीं है बल्कि यह क्रिकेट का भी अपमान है और क्रिकेट से जुड़ी उस साख का भी, जिसकी बदौलत इसे जेंटलमेन्स गेम कहा जाता है। यह भारतीय दर्शकों का भी अपमान है। आखिर कौन भूल सकता है कि आईपीएल के पहले टूर्नामेंट में जिस राजस्थान रायल्स ने खिताब जीता, उस टूर्नामेंट में मैन आफ द सीरिज सोहेल तनवीर थे। सोहेल तनवीर ही पहले खिलाड़ी थे, जिन्होंने ट्वेंटी-20 फार्मेट में पांच विकेट चटकाए थे। आप क्रिकेट को कूटनीति के नजरिए से नहीं देख सकते। न ही राजनीति की अपनी असफलताओं की कुंठा क्रिकेट से निकाल सकते हैं।

माना कि पाकिस्तान दुष्ट देश है, लेकिन यह राजनीतिक तर्जुमा है। क्रिकेट को इससे दूर रखें। इसे भावनाओं का उद्गार बना रहने दीजिए। नहीं तो कल को क्रिकेट से दिलचस्पी सरहदों के फायदे नुकसान का गणित बन जाएगी। भला कौन भारतीय क्रिकेट प्रेमी होगा जो शाहिद अफरीदी के छक्के और मोहम्मद सामी की गेंदबाजी की नई धार न देखना चाहता हो। आखिरकार पाकिस्तान ट्वेंटी-20 का विश्व विजेता है। आप पाकिस्तान या उनके खिलाडि़यों के साथ इस तरह का मजाक नहीं कर सकते। इसे यहीं रोक दीजिए वरना खेलों से भी सियासत की बू आने लगेगी।


आजादी की कीमत
अंग्रेज एक विश्वव्यापी संघर्ष में उलझे हुए है और इस संघर्ष के दौरान उन्होंने कई मोर्चो पर मात खाई है। इस तरह शत्रु के काफी कमजोर होने से आजादी के लिए हमारी लड़ाई उनसे बहुत आसान हो गई है, जितनी वह पांच वर्ष पहले थी। इस तरह का अनूठा और ईश्वर-प्रदत्त अवसर सौ वर्षो में एक बार आता है। इसीलिए अपनी मातृभूमि को ब्रिटिश दासता से छुड़ाने के लिए हमने इस अवसर का पूरा लाभ उठाने की कसम खाई है।..साथियों, एक वर्ष पहले जब मैंने आपके सामने कुछ मांगे रखी थीं तब मैंने कहा था कि यदि आप मुझे संपूर्ण सैन्य संगठन दें तो मैं आपको एक दूसरा मोर्चा दूंगा। मैंने अपना वह वचन निभाया है। हमारे अभियान का पहला चरण पूरा हो गया है। हमारी विजयी सेनाओं ने निप्योनीज सेनाओं के साथ कंधे से कंधा मिलाकर शत्रु को पीछे धकेल दिया है और अब वे हमारी प्रिय मातृभूमि की पवित्र धरती पर बहादुरी से लड़ रही हैं। अब जो काम हमारे सामने है उन्हे पूरा करने के लिए कमर कस लें। मैंने आपसे धन और सामग्री की व्यवस्था करने के लिए कहा था। मुझे वे सब भरपूर मात्रा में मिल गए है। अब मैं आपसे कुछ और चाहता हूं।

जवान, धन, सामग्री विजय या स्वतंत्रता नहीं दिला सकते। हमारे पास ऐसी प्रेरक शक्ति होनी चाहिए जो हमें बहादुर व नायकोचित कार्यो के लिए प्रेरित करे। सिर्फ इस कारण कि अब विजय हमारी पहुंच में दिखाई देती है, यह सोचना कि आप जीते-जी भारत को स्वतंत्र देख ही पाएंगे, आपके लिए एक घातक गलती होगी। यहां मौजूद लोगों में से किसी के मन में स्वतंत्रता के मीठे फलों का आनंद लेने की इच्छा नहीं होनी चाहिए। एक लंबी लड़ाई अब भी हमारे सामने है। आज हमारी केवल एक ही इच्छा होनी चाहिए-मरने की इच्छा, ताकि भारत जी सके। एक शहीद की मौत मरने की इच्छा, जिससे स्वतंत्रता की राह शहीदों के खून से बनाई जा सके। स्वतंत्रता के युद्ध में मेरे साथियो! आज मैं आपसे एक ही चीज मांगता हूं-सबसे ऊपर मैं आपसे खून मांगता हूं। यह खून ही उस खून का बदला लेगा,जो शत्रु ने बहाया है। खून से ही आजादी की कीमत चुकाई जा सकती है। तुम मुझे खून दो और मैं तुम से आजादी का वादा करता हूं।

[सुभाष चंद्र बोस]

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