शनिवार, 23 जनवरी 2010

सामयिक

मासूम बचपन : खौफनाक कदम
मासूम सा मन, कोमल तन और कच्ची-पक्की सैकड़ों अनुभूतियाँ। यह बचपन की नाजुक परिभाषा हो सकती है मगर लगातार बढ़ती आत्महत्या और घर से भाग जाने की मार्मिक घटनाओं के मद्देनजर यह परिभाषा रूप बदलने लगी है। लगने लगा है मानो हँसता-खिलखिलाता गुनगुनाता बचपन अब ना मासूम रहा, ना कोमल। वरना कैसे और किस तरह से मौत जैसी भयावह खाई की तरफ वह बढ़ने लगा है। कहीं जाने-अनजाने बदलता परिवेश, बढ़ती महत्वाकांक्षाएँ, अपनी ही बगिया के सुकोमल फूल से निरंतर बढ़ती कँटीली अपेक्षाएँ ही तो इनकी मौत का कारण नहीं?

जरा एक गहरी नजर अपने ही आँगन के उस मध्यमवर्गीय बचपन पर डालिए, जो आपकी नजर में लापरवाह और शरारती हो सकता है मगर अपने अंतर में ना जाने कितने तनाव और दबाव के कैक्टस लिए घुम रहा है। एक तरफ ‍निरंतर बढ़ती महँगाई की वजह से उसे कई तरह के अभावों का सामना करना पड़ता है, दूसरी तरफ उसे अपने परिवार की थोपी गई अपेक्षाओं को भी जीवित रखना है। ये बचपन अपने मन की भावुक इच्छाओं और किलकती उमंगों का दमन करते हुए,पारिवारिक महत्वाकांक्षाओं और जिम्मेदारियों का बोझ लादे कब बालक से किशोर और किशोर से युवा हो जाता है, समझ ही नहीं पाता। एक तरफ उच्च उपभोक्तावादी समाज का फैलाव और दूसरी तरफ अपने वजूद को खोजने की छटपटाहट, इन दोनों के बीच सिमटता-सिकुड़ता नन्हा बालक। रिवार, विद्यालय, दोस्त, टीवी, गेम्स, शारीरिक बदलाव, प्रतियोगिताओं की होड़ और खुद को अलग व अनूठा साबित करने की व्यग्रता, एक अकेला वह और उसे समझने वाला कोई नहीं, इन सारे झमेलों से वह कैसे निपटे? आखिरकार कच्चे कोमल मन पर पड़ जाती है किसी भी ऐसे मीडिया संदेश की छाप जो उसके लिए नहीं थी, उसकी समझ के लिए नहीं थी मगर उसे यह बात समझाने वाला कौन? कोई नहीं। यही वजह है कि फिल्म 'थ्री इडियट्स' के सीधे और सार्थक संदेश को नादान मन सही रूप में ग्रहण नहीं कर पाया। में बढ़ती बाल-आत्महत्याएँ एक चेतावनी देती है कि हमें अपने बच्चों को फिल्म ' देखने का प्रशिक्षण' देना ज्यादा जरूरी है बजाय फिल्मों पर आरोप-प्रत्यारोप के।

बिगड़ते हालात सिर्फ मध्यमवर्गीय बचपन को ही चपेट में नहीं ले रहे बल्कि इसका शिकार वह ऐश्वर्यशाली बचपन भी है जो मुँह में चाँदी का चम्मच लेकर पैदा हुआ है। यह कम आश्चर्य का विषय नहीं है कि यह भी शोषित है। इन पर भावनात्मक दबाव इतना ज्यादा होता है कि कई बार ये अपना मानसिक संतुलन खो बैठते हैं। हर उच्च अभिजात्य वर्ग के अभिभावक की यह तमन्ना होती है कि उनका बच्चा ना सिर्फ औरों से अलग हो बल्कि उनके मुकाबले कहीं अधिक बढ़-चढ़ कर हो।
मामला चाहे परीक्षा के अंकों का हो या पहनने-ओढ़ने का, बच्चा उनके लिए स्टेटस का प्रतीक होता है। अपने बच्चे को भरपूर सुविधा और प्रचुर साधन उपलब्ध कराते हुए ऐसे पालक उन्हें यह याद दिलाना नहीं भूलते कि उन्हें क्या बनना है। और इतने संसाधन उन्हें फलाँ कुछ बनने के लिए ही उपलब्ध कराए जा रहे हैं। बच्चों के ऊपर यह सब एक अहसान की तरह लादा जाता है। जिसके बदले में किसी बड़ी नौकरी या पद की लालसा भी संजोई जाती है। यानी व्यावसायिकता अब खून के रिश्ते में भी अपनी पैठ बना चुकी है। ये बचपन किसी उच्च पद की आकांक्षा को सामने रख कर जुट जाता है। अथक प्रयत्नों के साथ बिना यह जाने कि उनकी अपनी योग्यता क्या है? क्षमता और अरमान क्या है?
आज बच्चे का सर्वगुण संपन्न होना अनिवार्य आवश्यकता हो गई है। बच्चे को यदि एक क्षेत्र में महारत हासिल है तो उससे अपेक्षा की जाती है कि अन्य क्षेत्रों में भी वह दक्षता हासिल करे। संगीत, कला, साहित्य, खेल, रचनात्मक योग्यता, सामान्य ज्ञान ये सारी पाठ्येत्तर गतिविधियों में तो वह कुशाग्र हो साथ ही वह विनम्र और आज्ञाकारी भी बना रहे। और अनुशासन तो आवश्यक है ही। ऐसे में ये गुलाबी नवांकुर सामाजिकता और व्यावहारिकता की जड़ें पकड़ ही नहीं पाते है और कर बैठते हैं ऐसा कुछ,जो जीवन भर के लिए माता-पिता का नासूर बन जाता है।
NDक्यों नहीं पढ़ पाते हम अपने ही बच्चों की आँखों में किसी अज्ञात भय की आशंका और तनाव की महीन रेखाएँ। क्यों ग्रहण कर रहा है आज का बचपन ऐसा नकारात्मक संदेश जो उसके अपने ही भीतर अनजाने में कहीं हमने पनपा दिया है और फिल्म को देखते ही उसे अवसर मिल गया बाहर आने का। अगर ऐसा है तो हमें एक ईमानदार को‍शिश करनी होगी अपनी ही संतानों के मन पढ़ने की। हमें 'स्पेस' देना होगा उनकी उड़ान को वरना जब वे हमारे बीच से 'उड़' जाएँगे किसी पंछी की तरह तब कुछ नहीं बचेगा, कुछ भी नहीं।

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