एक आदमी कपड़े की दुकान पर गया।
दुकानदार- सर, क्या चाहिए?
सलवार-सूट
सर पत्नी के लिए चाहिए या कुछ अच्छा सा दिखाऊं।
सोनू (चिंटू से)- मेरे पापा के आगे अमीर से अमीर आदमी भी कटोरी लेकर खड़े रहते हैं।
चिंटू (सोनू से)- ऐसे कितने अमीर हो तुम?
सोनू- मेरे पापा गोल-गप्पे की रेडी लगाते हैं।
रेस देखते हुए...
संता (बंता से)- इनाम किसे मिलेगा?
बंता (संता से)- सबसे आगे वाले को।
बंता- तो फिर पीछे वाले क्यों भाग रहे हैं?
पत्नी (पति से)- पूरी दुनिया में चिराग लेकर ढूंढोगे तो भी मेरी जैसी बीवी नही मिलेगी...
पति (पत्नी से)- तुम्हें किसने कहा कि दूसरी बार भी तुम्हारे जैसी ही ढूढूंगा?
डॉक्टर (मरीज से)- शराब आपके शरीर में एक धीमे जहर का काम कर रही है।
मरीज- ठीक है डॉक्टर साहब मुझे भी कोई जल्दी नही है।
मे दैनिक राष्ट्रीय हिंदी मेल का सम्पादक हूँ.खुल्लम खुल्ला मेरी अभिव्यक्ति है .अपना विचार खुलेआम दुनिया के सामने व्यक्त करने का यह सशक्त माध्यम है.अरुण बंछोर-मोबाइल -9074275249 ,7974299792 सबको प्यार देने की आदत है हमें, अपनी अलग पहचान बनाने की आदत है हमे, कितना भी गहरा जख्म दे कोई, उतना ही ज्यादा मुस्कराने की आदत है हमें...
रविवार, 30 मई 2010
खुशनुमा पलों
तसव्वुर में बसा गर्मियों का मौसम
फुरसत के पलों में जब कभी हमारा मन अतीत के फ्लैशबैक में जाता है तो वह बार-बार बचपन की ओर ही झांकता है। गर्मी की छुट्टियों का बचपन से कुछ ऐसा नाता है कि जब भी हम अपने बचपन के खुशनुमा पलों को याद करते हैं तो उसमें समर वेकेशंस के यादगार पलों का कोलाज सा दृश्य हमारी आंखों के आगे घूमने लगता है। दोस्तों के साथ की जाने वाली शरारतें, लूडो-कैरम और अंत्याक्षरी, बर्फ की ठंडी-ठंडी चुस्की..और न जाने ऐसी ही कितनी खूबसूरत यादें इस मौसम के साथ जुडी हैं।
वे भी क्या दिन थे
गर्मियों की छुट्टियों का नाम सुनते ही मन नॉस्टैल्जिक होने लगता है। ऐसे में यादों की उंगली थामे अतीत की गलियारों में बस यूं ही बेमतलब घूमना-टहलना बडा सुखद लगता है। जरा याद कीजिए अपने बचपन के दिनों को, आप पूरे साल कितनी बेसब्री से गर्मी की छुट्टियों का इंतजार करते थे। तब घरों में आज की तरह सुख-सुविधाएं नहीं थीं। फिर भी जिंदगी में एक अलग तरह का सुकून था। स्नेह और अपनत्व की ठंडी छांव चिलचिलाती धूप की तपिश को भी सुहाना बना देती थी।
गर्मियों की खुशनुमा सुबह को याद करते हुए बैंकिंग कंसल्टेंट आकाश सरावगी कहते हैं, हमें आज के बच्चों की तरह छुट्टियों में देर रात तक जागकर टीवी देखने, इंटरनेट पर चैटिंग करने और सुबह देर तक सोने की इजाजत नहीं थी। तब केवल दूरदर्शन ही होता था, जिस पर चित्रहार और रात नौ बजे वाला सीरियल (हमारे जमाने में नुक्कड आता था) देखकर हम सो जाते थे। हमें सुबह साढे पांच बजे ही उठा दिया जाता था और हम दादा जी के साथ मॉर्निग वॉक के लिए निकल पडते थे। तब पॉलीथीन बैग का जमाना नहीं था। इसलिए सैर पर जाते वक्त दादाजी अपने साथ कपडे का थैला ले जाते और लौटते वक्त ताजा-ताजा खीरा, ककडी और खरबूजे खरीदकर जरूर लाते। फिर मम्मी और दादी बडी तसल्ली से इन फलों को काटकर, हमें खिलातीं। सच वे भी क्या दिन थे!
खस की भीनी खुशबू
गर्मियों की दुपहरी को याद करते हुए 38 वर्षीया गृहिणी सुमेधा शर्मा कहती हैं, तब घरों में एसी होना तो बहुत दूर की बात थी, कूलर रखना भी सामाजिक प्रतिष्ठा की निशानी थी। लेकिन हमारे घर में तो केवल पंखे थे। दोपहर वक्त जब छत धूप से तप जाती तो पंखों से ऐसी गर्म हवाएं निकलतीं कि उन्हें बंद ही कर देने को जी चाहता। इस परेशानी से बचने के लिए हमारे पापा खिडकियों पर खस के परदे टंगवा देते और हम हर दो घंटे के बाद उन पर पानी का छिडकाव करते रहते। इससे कमरे का तापमान कम हो जाता और खस की भीनी-भीनी खुशबू पूरे माहौल को सुहाना बना देती। तेज धूप में घर से बाहर निकलने की सख्त मनाही थी। फिर भी हम दबे पांव सहेलियों के घर चले जाते या उन्हें अपने यहां बुलाकर उनके साथ कई तरह के इंडोर गेम्स खेलते। एक-दूसरे से हैंडीक्रॉफ्ट की चीजें बनाना सीखते। दोपहर के वक्त अगर बिजली जाए तो कोई गम नहीं। हमारे घर में एक ऐसा अंधेरा कमरा था जहां सूरज की रोशनी अच्छी तरह नहीं जाती थी। पूरे साल वह कमरा खाली पडा रहता लेकिन गर्मियों की दोपहर में वही जगह हमारे लिए जन्नत साबित होती। हम पोंछा डाल कर ठंडे फर्श पर लेट जाते। यह बात सुनने में थोडी लो प्रोफाइल जरूर लगती है। पर ईमानदारी से कहूं तो तब फर्श पर भी ऐसी मीठी नींद आती थी, जो अब एसी में भी नसीब नहीं होती। दोपहर को सोकर उठने के बाद शर्बत और शिकंजी का लंबा सेशन चलता। कभी बेल का शर्बत, कभी कच्चे आम का पना तो कभी नीबू की शिकंजी..मम्मी बडे जतन से बनातीं और उस दौरान हम पांच भाई-बहन उन्हें घेरे बैठे रहते। मम्मी सभी ग्लासों में एक बराबर शर्बत उडेलतीं। फिर भी उनके भगौने में थोडा शर्बत बच ही जाता, घर की सबसे छोटी बच्ची होने के कारण दो घूंट अतिरिक्त शर्बत पीने का सौभाग्य मुझे ही प्राप्त होता और अपने बडे भाई-बहनों की नजरों में उस पल के लिए मैं ईष्र्या की पात्र बन जाती।
आम होता था बहुत खास
फलों के राजा आम के बिना गर्मियों के मौसम की चर्चा अधूरी रह जाएगी। 36 वर्षीया रचना टंडन पेशे से शिक्षिका हैं। वह अपने बचपन के दिनों को याद करती हुई कहती हैं, लखनऊ में हमारा घर काफी बडा था और उसके कैंपस में आम के दो-तीन पेड लगे थे। पेडों पर बौर लगने के साथ ही कोयल कूकने लगती, जैसे उसे भी आमों के पकने का इंतजार हो, लेकिन हमें तो पहले कच्ची अमिया का ही इंतजार होता था। नमक के साथ अमिया खाने का मजा ही कुछ और होता था। दादी हमें डांटती रहतीं कि घर से बाहर मत निकलो, लू लग जाएगी। लेकिन हम कच्चे आम की तलाश में भरी दुपहरी में बाहर निकल पडते। फिर थोडे ही दिनों में डाल के पके दशहरी और सफेदा खाने का समय आ जाता। आम के बिना इस मौसम में डिनर अधूरा लगता।
इसके अलावा रस से भरे छोटे आमों का मजा ही कुछ और होता था। मुझे आज भी याद है इन आमों को ठंडे पानी से भरी बाल्टी में डुबोकर रख दिया जाता था और दोपहर की नींद पूरी करने के बाद हम सब भाई-बहन साथ बैठकर आम चूसते और अकसर हमारे बीच शर्त लगती कि कौन सबसे ज्यादा आम चूस सकता है? लीची के साथ भी कुछ ऐसा ही मामला था। लेकिन आम का कोई मुकाबला नहीं था।
ननिहाल में छुट्टियां
ननिहाल का गर्मी की छुट्टियों से बडा गहरा रिश्ता है। 45 वर्षीय आर्किटेक्ट प्रतीक मिश्र अपनी यादों को ताजा करते हुए कहते हैं, हमारा ननिहाल पटना में है। वहां जानलेवा गर्मी पडती है। फिर भी हर साल गर्मी की छुट्टियों में किसी हिल स्टेशन पर जाने के बजाय हम सीधे नानी केघर ही जाते थे। वहां बडा सा संयुक्त परिवार था। मां के अलावा हमारी दो मौसियां भी अपने बच्चों समेत वहां पहुंचती थीं। नाना-नानी के अलावा वहां दो मामाओं का परिवार पहले से ही रहता था। बडा-सा दो मंजिला मकान था। फिर भी रहने को जगह कम पडती। इसलिए रात को ड्राइंग रूम में जमीन पर गद्दे बिछाए जाते और हम सब बच्चे वहीं सोते। कुल मिलाकर हम बारह कजंस हर साल इकट्ठे होते थे। लडकों और लडकियों के अलग-अलग ग्रुप बन जाते थे। उसके बाद खूब शरारतें होतीं। बिजली की दि क्कत की वजह से अकसर पानी की भी समस्या हो जाती। जिस रोज नल में पानी नहीं आता, वह दिन हमारे लिए सबसे अच्छा होता। क्योंकि घर से वाकिंग डिस्टेंस पर गंगा बहती थीं। हमारे एक मामा बडे अच्छे तैराक थे और वह हम बच्चों को साथ लेकर गंगा जी की ओर निकल पडते। जहां हम जी भर कर नहाते और तैरते। मुझे इस बात की खुशी है कि स्विमिंग सीखने के लिए आज के बच्चों की तरह मैंने अपने पेरेंट्स से पैसे नहीं खर्च करवाए। नहाने के बाद वहीं नदी किनारे बने छोटे से ढाबेनुमा होटल में हम कचौरी-जलेबी का नाश्ता करते और लस्सी पीते। हमारी एक दीदी जो उन दिनों टीनएजर थीं, वह बेचारी घर पर अकेली रोती-बिसूरती रहतीं क्योंकि उन्हें हमारे साथ जाने की इजाजत नहीं होती थी। लेकिन लौटते वक्त हम उनके लिए नाश्ता ले जाना नहीं भूलते। वहां हर साल हमारा जाना होता था, लिहाजा पास-पडोस के कुछ बच्चे भी हमारे अच्छे दोस्त बन गए थे। उनमें से कुछ तो ऐसे हैं, जिनसे आज भी फेसबुक पर संपर्क बना हुआ है।
ढेर सारी बतकहियां
हर मौसम का लुत्फ उठाने के पीछे अलग तरह की सामाजिकता की भावना निहित होती है। गर्मियों में यह भावना ज्यादा अच्छी तरह दिखाई देती है। क्योंकि सर्दियों में तो शाम होते ही लोग अपने-अपने घरों में दुबक जाते हैं, लेकिन गर्मियों की शामें बहुत सुहानी होती हैं। हालांकि दुपहरी लंबी और बोरियत भरी होती है। फिर भी इसका बहुत बडा फायदा यह होता है कि लोगों के पास एक-दूसरे से बोलने-बतियाने का भरपूर वक्त होता है। 36 वर्षीय सुब्रत मुखर्जी डॉक्टर हैं और वह इस मौसम को बडी शिद्दत से याद करते हुए कहते हैं, इस मौसम में हम दोपहर के वक्त दोस्तों को अपने घर पर बुलाकर कैरम खेलते थे। छुट्टियों में हमारे मुहल्ले में बाकायदा कैरम टूर्नामेंट का आयोजन होता था। शाम को घरों के सामने ठंडे पानी का छिडकाव होता तो मिट्टी की सौंधी खुशबू बडी प्यारी लगती। छुट्टियों में हम अपने दोस्तों के साथ कहानियों की किताबों और कॉमिक्स का खूब आदान-प्रदान करते। उन दिनों अमर चित्र कथा और इंद्रजाल कॉमिक्स का बडा क्रेज था। हमारे चाचा का परिवार भी साथ रहता था। रात के वक्त छत पर एक साथ कई चारपाइयां बिछ जातीं। जहां हम सारे बच्चे एक साथ सोते और सोने से पहले एक-दूसरे को पहेलियां बुझाते, जोक्स सुनाते और ढेर सारी बातें करते। लेकिन अब जीवनशैली इतनी बदल गई है कि तमाम सुख-सुविधाओं के बावजूद आज के बच्चों के पास वह जीवंत माहौल नहीं है, जहां वह वे बेफिक्री से अपनी छुट्टियों का लुत्फ उठा सकें। हम माहौल नहीं बदल सकते, लेकिन दोबारा अपने बचपन को जी तो सकते ही हैं।
शबाना आजमी, अभिनेत्री
बावडी में सीखती थी स्विमिंग
बचपन में गर्मी की छुट्टियों में हम हैदराबाद जाते थे। मेरी पैदाइश हैदराबाद की है। वहां मेरी खालाएं रहती हैं। मेरे बहुत से फर्स्ट कजंस भी वहीं रहते हैं। हालांकि वहां बहुत गर्मी होती थी। फिर भी हम पूरे दिन धूप में घूमते रहते। मुझे याद है कि मेरी खालाओं ने मुर्गियां पाल रखी थीं और हम उनके पीछे भाग कर उन्हें पकडने की कोशिश करते। हमारे घर में अमरूद का बाग था। वहां हम पेड पर चढते थे। हैदराबाद में जो गंगा-जमुनी तहजीब है, उसका मुझे शिद्दत से एहसास है। वहां हमारे बहुत सारे पडोसी हिंदू थे। हम उनके साथ होली-दिवाली मनाते और वे हमारे साथ ईद मनाते थे। हम खूब नाटक खेलते थे। भाई-बहनों के साथ मिलकर हम नाटक खुद ही लिखते। घर का ही कोई एक दृश्य लेकर हम उस पर नाटक करते। वहां शाम को आंगन में पानी का छिडकाव होता था और तख्त लगती थी। उसके ऊपर सफेद चादर बिछाई जाती, जिसे चांदनी कहते थे। फिर चादर के ऊपर मोगरे के फूल रखे जाते और उसकी खुशबू से पूरी फिजा महक उठती।
छुट्टियों में जब मुझे दिन भर अपनी अम्मी के साथ रहने का वक्त मिलता तो उनके बारे में कई दिलचस्प बातें जानने को मिलतीं। मसलन, वह अपने गीले बालों को सुखाने के लिए एक तवे पर जलते हुए कोयले रखकर, उसमें लोबान डालतीं। फिर तवे पर बडे-बडे सूराखों वाली एकबेंत की टोकरी रखी जाती। उसके बाद अम्मी दरी पर लेट कर अपने बाल उसी लोबान के धुएं से सुखातीं। इससे लोबान की खुशबू उनके बालों में आ जाती। वह खुशबू मुझे आज भी याद है। मेरे आग्रह पर मंडी में श्याम बेनेगल ने यह दृश्य स्मिता पाटिल पर फिल्माया था। हमारे अब्बू के पास बहुत ज्यादा पैसा नहीं था। लेकिन हमने कभी भी इस कमी को महसूस नहीं किया। अब्बू शायर थे, इसलिए घर में हमेशा पढने-लिखने का माहौल रहा। बचपन में मैं अकसर सफेद गरारा-कुर्ता पहनती थी। मुझे याद है जब मैं आठ साल की थी तब मेरे एक कजन ने मुझे बावडी में धक्का देकर स्विमिंग करना सिखाया था। उस वक्त पानी के अंदर जाते समय मुझे थोडा डर जरूर लगा था, लेकिन पानी के ऊपर आते समय जो खुशी हुई थी, वह मुझे आज तक याद है।
जिया खान, अभिनेत्री
छुट्टियों में जाती थी फ्रांस
अपने बचपन की सारी बातें मुझे आज भी अच्छी तरह याद हैं। मेरे पिता अली रिजवी खान अमेरिका में पले-बढे भारतीय हैं और मां रबाया अमिन मूलत: आगरे की रहने वाली हैं। गर्मी की छुट्टियों में अलग-अलग गेटअप बनाकर मैं अकेले ही एक्टिंग करती रहती। हालांकि मेरे मम्मी-पापा के तलाक की वजह से मेरा बचपन वैसा खुशहाल नहीं था जैसा कि आम बच्चों का होता है। लेकिन जब तक मेरे पेरेंट्स साथ थे। मेरा समय अच्छा ही बीता। मैंने लंदन के ली स्ट्रेसबर्ग एकेडमी से ड्रमैटिक आर्ट का कोर्स पूरा किया। लेकिन मेरी गर्मी की छुट्टियां माता-पिता के आपसी अलगाव के कारण तनहा हो गई थीं। मेरी अम्मी ने अकेले अपने बलबूते मुझे और मेरी बहन को हमेशा खुश रखने की पूरी कोशिश की। मुझे हर साल समर वेकेशंस का इंतजार रहता। स्कूल मुझे बहुत बोरिंग लगता और मैं स्कूल जाने के नाम से ही रोने लगती थी। जब तक मम्मी-पापा साथ थे, मैं उनके साथ फ्रांस घूमने जाती थी और कभी-कभी इंडिया भी आती थी। यहां के बच्चों का आजाद बचपन मुझे बहुत प्रभावित करता था। आज भी मुझे शूटिंग की वजह से बहुत घूमने को मिलता है। लेकिन अब मैं बचपन की तरह एंजॉय नहीं करती पाती। आज भी मैं गर्मी की छुट्टियों को बहुत मिस करती हूं। मुझे ऐसा लगता है कि बचपन के दिन सबसे खूबसूरत होते हैं।
सांसों में बसी मिट्टी की सौंधी खुशबू
गुलजार, गीतकार
बचपन में ही मुझे देश के विभाजन का सदमा झेलना पडा। उस वक्त मेरी उम्र तकरीबन 10-11 साल रही होगी। फिर भी मेरा बचपन काफी खुशहाल था। यह बात बहुत कम लोगों को मालूम है कि मैं मूलत: सिख हूं और मेरा असली नाम संपूर्ण सिंह कालरा है। झेलम (अब पाकिस्तान में ) जिले के एक छोटे से गांव में मेरा ननिहाल था। मैं हर साल ननिहाल जाता था। तब मेरे पिताजी मुझसे कहते थे कि तुम छुट्टियों में नानी के घर जाते हो तो जल्दी वापस लौट आया करो। यहां तुम्हारे बिना मेरा मन नहीं लगता। जब मैं वहां जाता तो नानी मेरी शरारतों से परेशान हो जातीं। दिन के किसी भी वक्त मुझे गांव के पास बहती नदी में तैरना बहुत अच्छा लगता था। वहां जो लडके मुझसे बडे थे। वे मुझ पर बहुत रौब जमाते। जब मैं नदी में नहाने जाता तो वे मेरे कपडे तक छिपा देते थे। नानी कहतीं कि अगर इसी तरह दिनभर धूप में खेलता रहेगा तो रंगत काली पड जाएगी। तब अपने घर जाने के बाद तेरे पिता तुझे पहचानेंगे कैसे? नानी का वह प्यार-दुलार आज भी मुझे फ्लैश बैक में ले जाता है। हमारे घर के पास रावी नदी बहती थी। जब मुझे साथ खेलने-कूदने के लिए कोई साथी नहीं मिलता था तो मैं अकेले ही रावी नदी के किनारे घूमता रहता। पंछियों का कलरव और बहती नदी की मीठी लय मुझे मंत्रमुग्ध कर देती थी। आज मैं जो भी थोडा-बहुत लिख पाता हूं, वह सिर्फ इसी वजह से कि मेरा बचपन प्रकृति के साथ बीता है। मैं रावी और झेलम नदी को तैरकर पार कर लेता था। अपने गांव की संस्कृति और वहां की मिट्टी की सौंधी-सौंधी खुशबू से मैं पूरी तरह वाकिफ था। उन यादों को आज भी मैंने अपने सीने से लगा रखा है। लेकिन आज के बच्चों पर तो पढाई और होमवर्क का इतना जबरदस्त दबाव है कि वे फुरसत के पलों का लुत्फ भी नहीं उठा पाते।
गोपीचंद, बैडमिंटन कोच
आजादी के वे दिन
मैं पूरे साल इन दो महीनों का इंतजार करता था। आंध्र प्रदेश के एक छोटे से गांव में मेरी नानी का घर था, जहां मैं गर्मी की छुट्टियां मनाने जाता था। एक तो नानी का घर, उस पर से दोस्तों का साथ। छुट्टियों की मस्ती का परफेक्ट माहौल था वह। वहां बहुत सारे नारियल के पेड थे। जिन पर चढकर मैं नारियल तोडने की कोशिश करता था। क्रिकेट खेलना मुझे बहुत पसंद था। आए दिन पडोसियों की खिडकियों के शीशे हमारे खेल पर कुर्बान होते। शीशे तोड कर मजा तो बहुत आता था, पर बहुत डांट भी पडती थी। लेकिन हम अपनी शरारतों से कहां बाज आने वाले थे! दोपहर को निकल जाती थी- हम शैतानों की टोली पूरे मुहल्ले की शांति भंग करने। अलग ही मजा था आजादी के उन दिनों का। अफसोस है कि आज की जेनरेशन उस तरह का समय एंजॉय नहीं कर पाती। आज तो होमवर्क का बोझ ही इतना ज्यादा है कि छुट्टी होने के बावजूद बच्चे स्कूल से आजाद नहीं हो पाते। आज के बच्चों के बारे में सोच कर मुझे बहुत दुख होता है। अब वक्त बहुत बदल गया हे। हमारी गर्मी की छुट्टियों में बचपन का अल्हडपन, शरारतें और मस्तियां थीं लेकिन आज उनकी जगह विडियो गेम्स, सोशल नेटवर्किग और चैटिंग ने ले ली है।
अरशद वारसी, अभिनेता
आज भी नहीं भूलतीं वो शरारतें
मैं मुंबई से लगभग डेढ सौ किलोमीटर दूर देवलाली स्थित बार्नेस बोर्डिग स्कूल में पढता था। गर्मी की छुट्टियां शुरू होते ही हमें अपने घर मुंबई भेज दिया जाता था। मुंबई की उमस भरी गरमी इतनी भयावह होती कि बस, यही इच्छा होती थी कि हमेशा स्विमिंग पूल में पडा रहूं। मुंबई में जब गर्मी असहनीय होने लगती थी तब मैं अपने पेरेंट्स के साथ मुंबई के करीबी हिल स्टेशंस मसलन खंडाला, महाबलेश्वर, पंचगनी या पनवेल जैसी जगहों पर चला जाता था। वैसे तो यह मौसम मुझे बेहद नापसंद है, लेकिन गर्मियों में सुबह के वक्त समुद्र के किनारे टहलना बहुत अच्छा लगता है। बचपन में मैं बहुत शरारती था और अपनी शरारत से जुडा एक वाकया आपको सुनाता हूं। दरअसल जहां हमारा स्कूल है, वह जगह फलों के लिए मशहूर है। वहां आम, अंगूर, अमरूद, चीकू, शरीफा आदि के बडे-बडे बाग हैं। जब हमारा अंतिम पेपर होता था, उस रात हम योजना बना कर खूब मौज-मस्ती करते थे।
क्योंकि अगले दिन सभी बच्चों को अपने-अपने होम टाउन के लिए रवाना होना पडता था। ऐसी ही एक रात थी, जब मैं कुछ लडकों के साथ अंगूर के बाग में घुस गया। अपनी शर्ट के भीतर ढेर सारे अंगूर के गुच्छे भरकर हम ज्यों ही बाग से बाहर आने लगे, बाग का मालिक आ गया। हम सब की बोलती बंद हो गई। पहले तो उसने हमें खूब डराया कि वह स्कूल में हमारी शिकायत कर देगा। फिर बाद में उसने मुसकुराते हुए कहा कि कभी मैं भी तुम्हारी तरह बच्चा था और ऐसी ही शरारतें करता था। कल तुम लोग अपने अपने घर चले जाओगे, हमारी तरफ से अंगूर और अमरूद की दो-दो पेटियां लेते जाओ। जब स्कूल वापस आओगे तो यहां भी जरूर आना। हालांकि दोबारा उस व्यक्ति से मेरा मिलना नहीं हो पाया। लेकिन बचपन की उन शरारतों को मैं आज भी बहुत मिस करता हूं।
पद्मा सचदेव, साहित्यकार
बचपन खो रहे हैं आज के बच्चे
गर्मी की छुट्टियों में हमें बडा मजा आता था। हमारे मुहल्ले में दोपहर के वक्त एक फेरी वाला बहुत चटपटे और खट्टे कचालू आलू बेचने आता था। हमें धूप में बाहर निकलने की सख्त मनाही थी। लेकिन जैसे ही कचालू वाला आवाजें लगाता सबकी नजरें बचा कर हम बाहर निकल पडते और कचालू खरीद कर खाते। मुझे चांद-तारों को देखते हुए छत पर सोना बहुत पसंद था। मेरा भाई मुझे अकसर डराता कि जंगली भेडिया तुम्हें उठाकर ले जाएगा। लेकिन उसकी बातों का मुझ पर कोई असर नहीं होता। जम्मू में हमारा बहुत बडा कुनबा था, परिवार के अन्य सदस्य नीचे आंगन में सोते और सुबह होते ही मेरी मां आवाज लगाकर मुझे जगाने लगतीं। फिर हम भाई-बहनें मिलकर अपनी गायों को चरने के लिए जंगल में छोड आते थे। लौटते वक्त हम पेडों पर चढकर आम-इमली तोडते और उनका बंटवारा करते। उसबंटवारे में जो भी घपला करता, उससे हमारा झगडा हो जाता। दोपहर के वक्त मेरी मां मुझे कढाई, सिलाई और क्रोशिए का काम सिखातीं। गर्मियों की लंबी दुपहरी में शरतचंद्र और बंकिमचंद्र की किताबें पढने का सुख कुछ और ही होता था। ऐसी ही छुट्टियों में साहित्य से मेरा नाता प्रगाढ हुआ। मुझे डोगरी लोकगीत गाना बहुत पसंद था और मैं ढोलक भी बहुत अच्छा बजाती थी। अकसर दोपहर के वक्त हमारे गाने का कार्यक्रम चलता। आज के बच्चों को जब मैं पीठ पर भारी बस्ता लादे देखती हूं तो मुझे बहुत दुख होता है। पढाई के बोझ तले वे अपना बचपन खोते जा रहे हैं।
सिद्धार्थ टाइटलर, फैशन डिजाइनर
कभी नहीं करता था होमवर्क
मेरा ननिहाल अमेरिका में है। जहां मेरे 18 ममेरे-मौसेरे भाई-बहन रहते हैं। वैसे भी मुझे गर्मियों का मौसम बिलकुल पसंद नहीं है। इसलिए मैं हर साल गर्मियों की छुट्टियों में अमेरिका जाता हूं और यह सिलसिला आज तक जारी है। वहां हम सारे कजंस मिलकर बहुत मौज-मस्ती करते थे। खास तौर से मुझे हॉरर फिल्में देखना बहुत अच्छा लगता था। बचपन में मैं बहुत शरारती और बिगडा हुआ बच्चा था। छुट्टियों की मौज-मस्ती में हमेशा होमवर्क करना भूल जाता था। स्कूल में पनिशमेंट भी मिलती, पर मुझ पर कोई असर नहीं होता था। फिर भी मुझे ऐसा लगता है कि हम आज के बच्चों की तुलना में कहीं ज्यादा सीधे और शरीफ थे। मैंने तो अठारह साल की उम्र के बाद पार्टियों में जाना शुरू किया, लेकिन आज तो छोटी उम्र से ही बच्चों का एक्सपोजर बहुत ज्यादा है। अब उनमें बच्चों वाली मासूमियत देखने को नहीं मिलती।
फुरसत के पलों में जब कभी हमारा मन अतीत के फ्लैशबैक में जाता है तो वह बार-बार बचपन की ओर ही झांकता है। गर्मी की छुट्टियों का बचपन से कुछ ऐसा नाता है कि जब भी हम अपने बचपन के खुशनुमा पलों को याद करते हैं तो उसमें समर वेकेशंस के यादगार पलों का कोलाज सा दृश्य हमारी आंखों के आगे घूमने लगता है। दोस्तों के साथ की जाने वाली शरारतें, लूडो-कैरम और अंत्याक्षरी, बर्फ की ठंडी-ठंडी चुस्की..और न जाने ऐसी ही कितनी खूबसूरत यादें इस मौसम के साथ जुडी हैं।
वे भी क्या दिन थे
गर्मियों की छुट्टियों का नाम सुनते ही मन नॉस्टैल्जिक होने लगता है। ऐसे में यादों की उंगली थामे अतीत की गलियारों में बस यूं ही बेमतलब घूमना-टहलना बडा सुखद लगता है। जरा याद कीजिए अपने बचपन के दिनों को, आप पूरे साल कितनी बेसब्री से गर्मी की छुट्टियों का इंतजार करते थे। तब घरों में आज की तरह सुख-सुविधाएं नहीं थीं। फिर भी जिंदगी में एक अलग तरह का सुकून था। स्नेह और अपनत्व की ठंडी छांव चिलचिलाती धूप की तपिश को भी सुहाना बना देती थी।
गर्मियों की खुशनुमा सुबह को याद करते हुए बैंकिंग कंसल्टेंट आकाश सरावगी कहते हैं, हमें आज के बच्चों की तरह छुट्टियों में देर रात तक जागकर टीवी देखने, इंटरनेट पर चैटिंग करने और सुबह देर तक सोने की इजाजत नहीं थी। तब केवल दूरदर्शन ही होता था, जिस पर चित्रहार और रात नौ बजे वाला सीरियल (हमारे जमाने में नुक्कड आता था) देखकर हम सो जाते थे। हमें सुबह साढे पांच बजे ही उठा दिया जाता था और हम दादा जी के साथ मॉर्निग वॉक के लिए निकल पडते थे। तब पॉलीथीन बैग का जमाना नहीं था। इसलिए सैर पर जाते वक्त दादाजी अपने साथ कपडे का थैला ले जाते और लौटते वक्त ताजा-ताजा खीरा, ककडी और खरबूजे खरीदकर जरूर लाते। फिर मम्मी और दादी बडी तसल्ली से इन फलों को काटकर, हमें खिलातीं। सच वे भी क्या दिन थे!
खस की भीनी खुशबू
गर्मियों की दुपहरी को याद करते हुए 38 वर्षीया गृहिणी सुमेधा शर्मा कहती हैं, तब घरों में एसी होना तो बहुत दूर की बात थी, कूलर रखना भी सामाजिक प्रतिष्ठा की निशानी थी। लेकिन हमारे घर में तो केवल पंखे थे। दोपहर वक्त जब छत धूप से तप जाती तो पंखों से ऐसी गर्म हवाएं निकलतीं कि उन्हें बंद ही कर देने को जी चाहता। इस परेशानी से बचने के लिए हमारे पापा खिडकियों पर खस के परदे टंगवा देते और हम हर दो घंटे के बाद उन पर पानी का छिडकाव करते रहते। इससे कमरे का तापमान कम हो जाता और खस की भीनी-भीनी खुशबू पूरे माहौल को सुहाना बना देती। तेज धूप में घर से बाहर निकलने की सख्त मनाही थी। फिर भी हम दबे पांव सहेलियों के घर चले जाते या उन्हें अपने यहां बुलाकर उनके साथ कई तरह के इंडोर गेम्स खेलते। एक-दूसरे से हैंडीक्रॉफ्ट की चीजें बनाना सीखते। दोपहर के वक्त अगर बिजली जाए तो कोई गम नहीं। हमारे घर में एक ऐसा अंधेरा कमरा था जहां सूरज की रोशनी अच्छी तरह नहीं जाती थी। पूरे साल वह कमरा खाली पडा रहता लेकिन गर्मियों की दोपहर में वही जगह हमारे लिए जन्नत साबित होती। हम पोंछा डाल कर ठंडे फर्श पर लेट जाते। यह बात सुनने में थोडी लो प्रोफाइल जरूर लगती है। पर ईमानदारी से कहूं तो तब फर्श पर भी ऐसी मीठी नींद आती थी, जो अब एसी में भी नसीब नहीं होती। दोपहर को सोकर उठने के बाद शर्बत और शिकंजी का लंबा सेशन चलता। कभी बेल का शर्बत, कभी कच्चे आम का पना तो कभी नीबू की शिकंजी..मम्मी बडे जतन से बनातीं और उस दौरान हम पांच भाई-बहन उन्हें घेरे बैठे रहते। मम्मी सभी ग्लासों में एक बराबर शर्बत उडेलतीं। फिर भी उनके भगौने में थोडा शर्बत बच ही जाता, घर की सबसे छोटी बच्ची होने के कारण दो घूंट अतिरिक्त शर्बत पीने का सौभाग्य मुझे ही प्राप्त होता और अपने बडे भाई-बहनों की नजरों में उस पल के लिए मैं ईष्र्या की पात्र बन जाती।
आम होता था बहुत खास
फलों के राजा आम के बिना गर्मियों के मौसम की चर्चा अधूरी रह जाएगी। 36 वर्षीया रचना टंडन पेशे से शिक्षिका हैं। वह अपने बचपन के दिनों को याद करती हुई कहती हैं, लखनऊ में हमारा घर काफी बडा था और उसके कैंपस में आम के दो-तीन पेड लगे थे। पेडों पर बौर लगने के साथ ही कोयल कूकने लगती, जैसे उसे भी आमों के पकने का इंतजार हो, लेकिन हमें तो पहले कच्ची अमिया का ही इंतजार होता था। नमक के साथ अमिया खाने का मजा ही कुछ और होता था। दादी हमें डांटती रहतीं कि घर से बाहर मत निकलो, लू लग जाएगी। लेकिन हम कच्चे आम की तलाश में भरी दुपहरी में बाहर निकल पडते। फिर थोडे ही दिनों में डाल के पके दशहरी और सफेदा खाने का समय आ जाता। आम के बिना इस मौसम में डिनर अधूरा लगता।
इसके अलावा रस से भरे छोटे आमों का मजा ही कुछ और होता था। मुझे आज भी याद है इन आमों को ठंडे पानी से भरी बाल्टी में डुबोकर रख दिया जाता था और दोपहर की नींद पूरी करने के बाद हम सब भाई-बहन साथ बैठकर आम चूसते और अकसर हमारे बीच शर्त लगती कि कौन सबसे ज्यादा आम चूस सकता है? लीची के साथ भी कुछ ऐसा ही मामला था। लेकिन आम का कोई मुकाबला नहीं था।
ननिहाल में छुट्टियां
ननिहाल का गर्मी की छुट्टियों से बडा गहरा रिश्ता है। 45 वर्षीय आर्किटेक्ट प्रतीक मिश्र अपनी यादों को ताजा करते हुए कहते हैं, हमारा ननिहाल पटना में है। वहां जानलेवा गर्मी पडती है। फिर भी हर साल गर्मी की छुट्टियों में किसी हिल स्टेशन पर जाने के बजाय हम सीधे नानी केघर ही जाते थे। वहां बडा सा संयुक्त परिवार था। मां के अलावा हमारी दो मौसियां भी अपने बच्चों समेत वहां पहुंचती थीं। नाना-नानी के अलावा वहां दो मामाओं का परिवार पहले से ही रहता था। बडा-सा दो मंजिला मकान था। फिर भी रहने को जगह कम पडती। इसलिए रात को ड्राइंग रूम में जमीन पर गद्दे बिछाए जाते और हम सब बच्चे वहीं सोते। कुल मिलाकर हम बारह कजंस हर साल इकट्ठे होते थे। लडकों और लडकियों के अलग-अलग ग्रुप बन जाते थे। उसके बाद खूब शरारतें होतीं। बिजली की दि क्कत की वजह से अकसर पानी की भी समस्या हो जाती। जिस रोज नल में पानी नहीं आता, वह दिन हमारे लिए सबसे अच्छा होता। क्योंकि घर से वाकिंग डिस्टेंस पर गंगा बहती थीं। हमारे एक मामा बडे अच्छे तैराक थे और वह हम बच्चों को साथ लेकर गंगा जी की ओर निकल पडते। जहां हम जी भर कर नहाते और तैरते। मुझे इस बात की खुशी है कि स्विमिंग सीखने के लिए आज के बच्चों की तरह मैंने अपने पेरेंट्स से पैसे नहीं खर्च करवाए। नहाने के बाद वहीं नदी किनारे बने छोटे से ढाबेनुमा होटल में हम कचौरी-जलेबी का नाश्ता करते और लस्सी पीते। हमारी एक दीदी जो उन दिनों टीनएजर थीं, वह बेचारी घर पर अकेली रोती-बिसूरती रहतीं क्योंकि उन्हें हमारे साथ जाने की इजाजत नहीं होती थी। लेकिन लौटते वक्त हम उनके लिए नाश्ता ले जाना नहीं भूलते। वहां हर साल हमारा जाना होता था, लिहाजा पास-पडोस के कुछ बच्चे भी हमारे अच्छे दोस्त बन गए थे। उनमें से कुछ तो ऐसे हैं, जिनसे आज भी फेसबुक पर संपर्क बना हुआ है।
ढेर सारी बतकहियां
हर मौसम का लुत्फ उठाने के पीछे अलग तरह की सामाजिकता की भावना निहित होती है। गर्मियों में यह भावना ज्यादा अच्छी तरह दिखाई देती है। क्योंकि सर्दियों में तो शाम होते ही लोग अपने-अपने घरों में दुबक जाते हैं, लेकिन गर्मियों की शामें बहुत सुहानी होती हैं। हालांकि दुपहरी लंबी और बोरियत भरी होती है। फिर भी इसका बहुत बडा फायदा यह होता है कि लोगों के पास एक-दूसरे से बोलने-बतियाने का भरपूर वक्त होता है। 36 वर्षीय सुब्रत मुखर्जी डॉक्टर हैं और वह इस मौसम को बडी शिद्दत से याद करते हुए कहते हैं, इस मौसम में हम दोपहर के वक्त दोस्तों को अपने घर पर बुलाकर कैरम खेलते थे। छुट्टियों में हमारे मुहल्ले में बाकायदा कैरम टूर्नामेंट का आयोजन होता था। शाम को घरों के सामने ठंडे पानी का छिडकाव होता तो मिट्टी की सौंधी खुशबू बडी प्यारी लगती। छुट्टियों में हम अपने दोस्तों के साथ कहानियों की किताबों और कॉमिक्स का खूब आदान-प्रदान करते। उन दिनों अमर चित्र कथा और इंद्रजाल कॉमिक्स का बडा क्रेज था। हमारे चाचा का परिवार भी साथ रहता था। रात के वक्त छत पर एक साथ कई चारपाइयां बिछ जातीं। जहां हम सारे बच्चे एक साथ सोते और सोने से पहले एक-दूसरे को पहेलियां बुझाते, जोक्स सुनाते और ढेर सारी बातें करते। लेकिन अब जीवनशैली इतनी बदल गई है कि तमाम सुख-सुविधाओं के बावजूद आज के बच्चों के पास वह जीवंत माहौल नहीं है, जहां वह वे बेफिक्री से अपनी छुट्टियों का लुत्फ उठा सकें। हम माहौल नहीं बदल सकते, लेकिन दोबारा अपने बचपन को जी तो सकते ही हैं।
शबाना आजमी, अभिनेत्री
बावडी में सीखती थी स्विमिंग
बचपन में गर्मी की छुट्टियों में हम हैदराबाद जाते थे। मेरी पैदाइश हैदराबाद की है। वहां मेरी खालाएं रहती हैं। मेरे बहुत से फर्स्ट कजंस भी वहीं रहते हैं। हालांकि वहां बहुत गर्मी होती थी। फिर भी हम पूरे दिन धूप में घूमते रहते। मुझे याद है कि मेरी खालाओं ने मुर्गियां पाल रखी थीं और हम उनके पीछे भाग कर उन्हें पकडने की कोशिश करते। हमारे घर में अमरूद का बाग था। वहां हम पेड पर चढते थे। हैदराबाद में जो गंगा-जमुनी तहजीब है, उसका मुझे शिद्दत से एहसास है। वहां हमारे बहुत सारे पडोसी हिंदू थे। हम उनके साथ होली-दिवाली मनाते और वे हमारे साथ ईद मनाते थे। हम खूब नाटक खेलते थे। भाई-बहनों के साथ मिलकर हम नाटक खुद ही लिखते। घर का ही कोई एक दृश्य लेकर हम उस पर नाटक करते। वहां शाम को आंगन में पानी का छिडकाव होता था और तख्त लगती थी। उसके ऊपर सफेद चादर बिछाई जाती, जिसे चांदनी कहते थे। फिर चादर के ऊपर मोगरे के फूल रखे जाते और उसकी खुशबू से पूरी फिजा महक उठती।
छुट्टियों में जब मुझे दिन भर अपनी अम्मी के साथ रहने का वक्त मिलता तो उनके बारे में कई दिलचस्प बातें जानने को मिलतीं। मसलन, वह अपने गीले बालों को सुखाने के लिए एक तवे पर जलते हुए कोयले रखकर, उसमें लोबान डालतीं। फिर तवे पर बडे-बडे सूराखों वाली एकबेंत की टोकरी रखी जाती। उसके बाद अम्मी दरी पर लेट कर अपने बाल उसी लोबान के धुएं से सुखातीं। इससे लोबान की खुशबू उनके बालों में आ जाती। वह खुशबू मुझे आज भी याद है। मेरे आग्रह पर मंडी में श्याम बेनेगल ने यह दृश्य स्मिता पाटिल पर फिल्माया था। हमारे अब्बू के पास बहुत ज्यादा पैसा नहीं था। लेकिन हमने कभी भी इस कमी को महसूस नहीं किया। अब्बू शायर थे, इसलिए घर में हमेशा पढने-लिखने का माहौल रहा। बचपन में मैं अकसर सफेद गरारा-कुर्ता पहनती थी। मुझे याद है जब मैं आठ साल की थी तब मेरे एक कजन ने मुझे बावडी में धक्का देकर स्विमिंग करना सिखाया था। उस वक्त पानी के अंदर जाते समय मुझे थोडा डर जरूर लगा था, लेकिन पानी के ऊपर आते समय जो खुशी हुई थी, वह मुझे आज तक याद है।
जिया खान, अभिनेत्री
छुट्टियों में जाती थी फ्रांस
अपने बचपन की सारी बातें मुझे आज भी अच्छी तरह याद हैं। मेरे पिता अली रिजवी खान अमेरिका में पले-बढे भारतीय हैं और मां रबाया अमिन मूलत: आगरे की रहने वाली हैं। गर्मी की छुट्टियों में अलग-अलग गेटअप बनाकर मैं अकेले ही एक्टिंग करती रहती। हालांकि मेरे मम्मी-पापा के तलाक की वजह से मेरा बचपन वैसा खुशहाल नहीं था जैसा कि आम बच्चों का होता है। लेकिन जब तक मेरे पेरेंट्स साथ थे। मेरा समय अच्छा ही बीता। मैंने लंदन के ली स्ट्रेसबर्ग एकेडमी से ड्रमैटिक आर्ट का कोर्स पूरा किया। लेकिन मेरी गर्मी की छुट्टियां माता-पिता के आपसी अलगाव के कारण तनहा हो गई थीं। मेरी अम्मी ने अकेले अपने बलबूते मुझे और मेरी बहन को हमेशा खुश रखने की पूरी कोशिश की। मुझे हर साल समर वेकेशंस का इंतजार रहता। स्कूल मुझे बहुत बोरिंग लगता और मैं स्कूल जाने के नाम से ही रोने लगती थी। जब तक मम्मी-पापा साथ थे, मैं उनके साथ फ्रांस घूमने जाती थी और कभी-कभी इंडिया भी आती थी। यहां के बच्चों का आजाद बचपन मुझे बहुत प्रभावित करता था। आज भी मुझे शूटिंग की वजह से बहुत घूमने को मिलता है। लेकिन अब मैं बचपन की तरह एंजॉय नहीं करती पाती। आज भी मैं गर्मी की छुट्टियों को बहुत मिस करती हूं। मुझे ऐसा लगता है कि बचपन के दिन सबसे खूबसूरत होते हैं।
सांसों में बसी मिट्टी की सौंधी खुशबू
गुलजार, गीतकार
बचपन में ही मुझे देश के विभाजन का सदमा झेलना पडा। उस वक्त मेरी उम्र तकरीबन 10-11 साल रही होगी। फिर भी मेरा बचपन काफी खुशहाल था। यह बात बहुत कम लोगों को मालूम है कि मैं मूलत: सिख हूं और मेरा असली नाम संपूर्ण सिंह कालरा है। झेलम (अब पाकिस्तान में ) जिले के एक छोटे से गांव में मेरा ननिहाल था। मैं हर साल ननिहाल जाता था। तब मेरे पिताजी मुझसे कहते थे कि तुम छुट्टियों में नानी के घर जाते हो तो जल्दी वापस लौट आया करो। यहां तुम्हारे बिना मेरा मन नहीं लगता। जब मैं वहां जाता तो नानी मेरी शरारतों से परेशान हो जातीं। दिन के किसी भी वक्त मुझे गांव के पास बहती नदी में तैरना बहुत अच्छा लगता था। वहां जो लडके मुझसे बडे थे। वे मुझ पर बहुत रौब जमाते। जब मैं नदी में नहाने जाता तो वे मेरे कपडे तक छिपा देते थे। नानी कहतीं कि अगर इसी तरह दिनभर धूप में खेलता रहेगा तो रंगत काली पड जाएगी। तब अपने घर जाने के बाद तेरे पिता तुझे पहचानेंगे कैसे? नानी का वह प्यार-दुलार आज भी मुझे फ्लैश बैक में ले जाता है। हमारे घर के पास रावी नदी बहती थी। जब मुझे साथ खेलने-कूदने के लिए कोई साथी नहीं मिलता था तो मैं अकेले ही रावी नदी के किनारे घूमता रहता। पंछियों का कलरव और बहती नदी की मीठी लय मुझे मंत्रमुग्ध कर देती थी। आज मैं जो भी थोडा-बहुत लिख पाता हूं, वह सिर्फ इसी वजह से कि मेरा बचपन प्रकृति के साथ बीता है। मैं रावी और झेलम नदी को तैरकर पार कर लेता था। अपने गांव की संस्कृति और वहां की मिट्टी की सौंधी-सौंधी खुशबू से मैं पूरी तरह वाकिफ था। उन यादों को आज भी मैंने अपने सीने से लगा रखा है। लेकिन आज के बच्चों पर तो पढाई और होमवर्क का इतना जबरदस्त दबाव है कि वे फुरसत के पलों का लुत्फ भी नहीं उठा पाते।
गोपीचंद, बैडमिंटन कोच
आजादी के वे दिन
मैं पूरे साल इन दो महीनों का इंतजार करता था। आंध्र प्रदेश के एक छोटे से गांव में मेरी नानी का घर था, जहां मैं गर्मी की छुट्टियां मनाने जाता था। एक तो नानी का घर, उस पर से दोस्तों का साथ। छुट्टियों की मस्ती का परफेक्ट माहौल था वह। वहां बहुत सारे नारियल के पेड थे। जिन पर चढकर मैं नारियल तोडने की कोशिश करता था। क्रिकेट खेलना मुझे बहुत पसंद था। आए दिन पडोसियों की खिडकियों के शीशे हमारे खेल पर कुर्बान होते। शीशे तोड कर मजा तो बहुत आता था, पर बहुत डांट भी पडती थी। लेकिन हम अपनी शरारतों से कहां बाज आने वाले थे! दोपहर को निकल जाती थी- हम शैतानों की टोली पूरे मुहल्ले की शांति भंग करने। अलग ही मजा था आजादी के उन दिनों का। अफसोस है कि आज की जेनरेशन उस तरह का समय एंजॉय नहीं कर पाती। आज तो होमवर्क का बोझ ही इतना ज्यादा है कि छुट्टी होने के बावजूद बच्चे स्कूल से आजाद नहीं हो पाते। आज के बच्चों के बारे में सोच कर मुझे बहुत दुख होता है। अब वक्त बहुत बदल गया हे। हमारी गर्मी की छुट्टियों में बचपन का अल्हडपन, शरारतें और मस्तियां थीं लेकिन आज उनकी जगह विडियो गेम्स, सोशल नेटवर्किग और चैटिंग ने ले ली है।
अरशद वारसी, अभिनेता
आज भी नहीं भूलतीं वो शरारतें
मैं मुंबई से लगभग डेढ सौ किलोमीटर दूर देवलाली स्थित बार्नेस बोर्डिग स्कूल में पढता था। गर्मी की छुट्टियां शुरू होते ही हमें अपने घर मुंबई भेज दिया जाता था। मुंबई की उमस भरी गरमी इतनी भयावह होती कि बस, यही इच्छा होती थी कि हमेशा स्विमिंग पूल में पडा रहूं। मुंबई में जब गर्मी असहनीय होने लगती थी तब मैं अपने पेरेंट्स के साथ मुंबई के करीबी हिल स्टेशंस मसलन खंडाला, महाबलेश्वर, पंचगनी या पनवेल जैसी जगहों पर चला जाता था। वैसे तो यह मौसम मुझे बेहद नापसंद है, लेकिन गर्मियों में सुबह के वक्त समुद्र के किनारे टहलना बहुत अच्छा लगता है। बचपन में मैं बहुत शरारती था और अपनी शरारत से जुडा एक वाकया आपको सुनाता हूं। दरअसल जहां हमारा स्कूल है, वह जगह फलों के लिए मशहूर है। वहां आम, अंगूर, अमरूद, चीकू, शरीफा आदि के बडे-बडे बाग हैं। जब हमारा अंतिम पेपर होता था, उस रात हम योजना बना कर खूब मौज-मस्ती करते थे।
क्योंकि अगले दिन सभी बच्चों को अपने-अपने होम टाउन के लिए रवाना होना पडता था। ऐसी ही एक रात थी, जब मैं कुछ लडकों के साथ अंगूर के बाग में घुस गया। अपनी शर्ट के भीतर ढेर सारे अंगूर के गुच्छे भरकर हम ज्यों ही बाग से बाहर आने लगे, बाग का मालिक आ गया। हम सब की बोलती बंद हो गई। पहले तो उसने हमें खूब डराया कि वह स्कूल में हमारी शिकायत कर देगा। फिर बाद में उसने मुसकुराते हुए कहा कि कभी मैं भी तुम्हारी तरह बच्चा था और ऐसी ही शरारतें करता था। कल तुम लोग अपने अपने घर चले जाओगे, हमारी तरफ से अंगूर और अमरूद की दो-दो पेटियां लेते जाओ। जब स्कूल वापस आओगे तो यहां भी जरूर आना। हालांकि दोबारा उस व्यक्ति से मेरा मिलना नहीं हो पाया। लेकिन बचपन की उन शरारतों को मैं आज भी बहुत मिस करता हूं।
पद्मा सचदेव, साहित्यकार
बचपन खो रहे हैं आज के बच्चे
गर्मी की छुट्टियों में हमें बडा मजा आता था। हमारे मुहल्ले में दोपहर के वक्त एक फेरी वाला बहुत चटपटे और खट्टे कचालू आलू बेचने आता था। हमें धूप में बाहर निकलने की सख्त मनाही थी। लेकिन जैसे ही कचालू वाला आवाजें लगाता सबकी नजरें बचा कर हम बाहर निकल पडते और कचालू खरीद कर खाते। मुझे चांद-तारों को देखते हुए छत पर सोना बहुत पसंद था। मेरा भाई मुझे अकसर डराता कि जंगली भेडिया तुम्हें उठाकर ले जाएगा। लेकिन उसकी बातों का मुझ पर कोई असर नहीं होता। जम्मू में हमारा बहुत बडा कुनबा था, परिवार के अन्य सदस्य नीचे आंगन में सोते और सुबह होते ही मेरी मां आवाज लगाकर मुझे जगाने लगतीं। फिर हम भाई-बहनें मिलकर अपनी गायों को चरने के लिए जंगल में छोड आते थे। लौटते वक्त हम पेडों पर चढकर आम-इमली तोडते और उनका बंटवारा करते। उसबंटवारे में जो भी घपला करता, उससे हमारा झगडा हो जाता। दोपहर के वक्त मेरी मां मुझे कढाई, सिलाई और क्रोशिए का काम सिखातीं। गर्मियों की लंबी दुपहरी में शरतचंद्र और बंकिमचंद्र की किताबें पढने का सुख कुछ और ही होता था। ऐसी ही छुट्टियों में साहित्य से मेरा नाता प्रगाढ हुआ। मुझे डोगरी लोकगीत गाना बहुत पसंद था और मैं ढोलक भी बहुत अच्छा बजाती थी। अकसर दोपहर के वक्त हमारे गाने का कार्यक्रम चलता। आज के बच्चों को जब मैं पीठ पर भारी बस्ता लादे देखती हूं तो मुझे बहुत दुख होता है। पढाई के बोझ तले वे अपना बचपन खोते जा रहे हैं।
सिद्धार्थ टाइटलर, फैशन डिजाइनर
कभी नहीं करता था होमवर्क
मेरा ननिहाल अमेरिका में है। जहां मेरे 18 ममेरे-मौसेरे भाई-बहन रहते हैं। वैसे भी मुझे गर्मियों का मौसम बिलकुल पसंद नहीं है। इसलिए मैं हर साल गर्मियों की छुट्टियों में अमेरिका जाता हूं और यह सिलसिला आज तक जारी है। वहां हम सारे कजंस मिलकर बहुत मौज-मस्ती करते थे। खास तौर से मुझे हॉरर फिल्में देखना बहुत अच्छा लगता था। बचपन में मैं बहुत शरारती और बिगडा हुआ बच्चा था। छुट्टियों की मौज-मस्ती में हमेशा होमवर्क करना भूल जाता था। स्कूल में पनिशमेंट भी मिलती, पर मुझ पर कोई असर नहीं होता था। फिर भी मुझे ऐसा लगता है कि हम आज के बच्चों की तुलना में कहीं ज्यादा सीधे और शरीफ थे। मैंने तो अठारह साल की उम्र के बाद पार्टियों में जाना शुरू किया, लेकिन आज तो छोटी उम्र से ही बच्चों का एक्सपोजर बहुत ज्यादा है। अब उनमें बच्चों वाली मासूमियत देखने को नहीं मिलती।
साहित्यिक कृतियां
विडंबना
बैंक के एटीएम के पास तीन रिक्शेवाले सवारी की प्रतीक्षा में सडक के किनारे अपने-अपने रिक्शे पर बैठे थे। एक कार आकर रुकी उसमें से एक सम्भ्रांत सा आदमी उतरा और एटीएम की ओर बढा। रिक्शेवालों के बगल में ही नाले के किनारे पांच सौ के दो नोट गिरे पडे थे। कार वाले ने देखा उसने चुपके से उठा लिया और एटीएम की ओर बढ गया। एक रिक्शेवाले ने देखा तो उसने दूसरे रिक्शेवाले को दिखाते हुए कहा-वो देखो ऊपर वाला भी उसे ही देता है जिसके पास कुछ है।
बैंक के एटीएम के पास तीन रिक्शेवाले सवारी की प्रतीक्षा में सडक के किनारे अपने-अपने रिक्शे पर बैठे थे। एक कार आकर रुकी उसमें से एक सम्भ्रांत सा आदमी उतरा और एटीएम की ओर बढा। रिक्शेवालों के बगल में ही नाले के किनारे पांच सौ के दो नोट गिरे पडे थे। कार वाले ने देखा उसने चुपके से उठा लिया और एटीएम की ओर बढ गया। एक रिक्शेवाले ने देखा तो उसने दूसरे रिक्शेवाले को दिखाते हुए कहा-वो देखो ऊपर वाला भी उसे ही देता है जिसके पास कुछ है।
शुक्रवार, 28 मई 2010
ये आँखें देखकर...
कुछ शीतल टिप्स आँखों के लिए
'तेरी आँखों के सिवा इस दुनिया में रखा क्या है.... ' खूबसूरत आँखों के लिए जब कोई इस तरह का वर्णन करता है तो दिल बाग-बाग हो उठता है लेकिन यदि इसी तरह के और खूबसूरत कॉम्प्लीमेंट्स आप हमेशा पाना चाहती हैं तो आँखों की इस खूबसूरती को बरकरार रखना आपके लिए बहुत जरूरी हो जाता है।
गर्मियों का मौसम त्वचा के साथ-साथ आँखों पर भी बहुत गहरा प्रभाव डालता है। यही वो मौसम है जब आग उगलता सूरज अपनी तपन से तन को झुलसाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ता। ऐसे में आँखों की सुरक्षा बेहद जरूरी है, आइए जरा कुछ टिप्स पर गौर करें ताकि आपकी आँखें रहें हर वक्त तरोताजा...।
* कभी भी तेज धूप में बाहर न निकलें और यदि निकलना ही पड़ जाए तो धूप का चश्मा लगाना कभी न भूलें।
* धूप के चश्मे खरीदते समय सावधानी अत्यंत आवश्यक है। कभी भी चलताऊ किस्म का चश्मा न खरीदें, क्योंकि इनमें लगने वाला ग्लास घटिया किस्म का होता है और आँखों को नुकसान पहुँचा सकता है।
* इसलिए हमेशा अच्छी कंपनी का बढ़िया चश्मा ही खरीदें। आजकल छोटी फ्रेम वाले चश्मों का अत्यधिक चलन है लेकिन चश्मे खरीदते समय ध्यान रखें कि धूल के कण आपकी आँखों में न जा पाएँ अन्यथा चश्मा पहनने का कोई तुक ही नहीं रह जाएगा।
* यदि आप नजर का चश्मा लगाते हैं तो फोटोक्रोमिक लैंस वाले चश्मे उपयोग में लाएँ, इससे धूप में चलने पर आपकी आँखों को गर्मी से राहत मिलेगी।
* आँखों में खुजली होने पर कभी भी हाथों से आँखें न मलें। हमेशा किसी साफ कपड़े का उपयोग आँखों को सहलाने के लिए करें।
* दिन में तीन-चार बार साफ पानी से आँखों पर छींटें दें।
* यदि गर्मी के कारण आँखें लाल हो रही हैं तो ठंडे पानी से आँखें साफ करके कुछ देर ठंडक में आँखें मूंदकर बैठें।
ये कुछ टिप्स हैं, जिन्हें अपनाकर आप गर्मियों में भी अपनी आँखों को रख सकती हैं तरोताजा और चमकदार। ताकि मिल जाएँ झील सी ठंडक इनमें डूबने वालों को...!
'तेरी आँखों के सिवा इस दुनिया में रखा क्या है.... ' खूबसूरत आँखों के लिए जब कोई इस तरह का वर्णन करता है तो दिल बाग-बाग हो उठता है लेकिन यदि इसी तरह के और खूबसूरत कॉम्प्लीमेंट्स आप हमेशा पाना चाहती हैं तो आँखों की इस खूबसूरती को बरकरार रखना आपके लिए बहुत जरूरी हो जाता है।
गर्मियों का मौसम त्वचा के साथ-साथ आँखों पर भी बहुत गहरा प्रभाव डालता है। यही वो मौसम है जब आग उगलता सूरज अपनी तपन से तन को झुलसाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ता। ऐसे में आँखों की सुरक्षा बेहद जरूरी है, आइए जरा कुछ टिप्स पर गौर करें ताकि आपकी आँखें रहें हर वक्त तरोताजा...।
* कभी भी तेज धूप में बाहर न निकलें और यदि निकलना ही पड़ जाए तो धूप का चश्मा लगाना कभी न भूलें।
* धूप के चश्मे खरीदते समय सावधानी अत्यंत आवश्यक है। कभी भी चलताऊ किस्म का चश्मा न खरीदें, क्योंकि इनमें लगने वाला ग्लास घटिया किस्म का होता है और आँखों को नुकसान पहुँचा सकता है।
* इसलिए हमेशा अच्छी कंपनी का बढ़िया चश्मा ही खरीदें। आजकल छोटी फ्रेम वाले चश्मों का अत्यधिक चलन है लेकिन चश्मे खरीदते समय ध्यान रखें कि धूल के कण आपकी आँखों में न जा पाएँ अन्यथा चश्मा पहनने का कोई तुक ही नहीं रह जाएगा।
* यदि आप नजर का चश्मा लगाते हैं तो फोटोक्रोमिक लैंस वाले चश्मे उपयोग में लाएँ, इससे धूप में चलने पर आपकी आँखों को गर्मी से राहत मिलेगी।
* आँखों में खुजली होने पर कभी भी हाथों से आँखें न मलें। हमेशा किसी साफ कपड़े का उपयोग आँखों को सहलाने के लिए करें।
* दिन में तीन-चार बार साफ पानी से आँखों पर छींटें दें।
* यदि गर्मी के कारण आँखें लाल हो रही हैं तो ठंडे पानी से आँखें साफ करके कुछ देर ठंडक में आँखें मूंदकर बैठें।
ये कुछ टिप्स हैं, जिन्हें अपनाकर आप गर्मियों में भी अपनी आँखों को रख सकती हैं तरोताजा और चमकदार। ताकि मिल जाएँ झील सी ठंडक इनमें डूबने वालों को...!
बनी रहे यह सुंदर जोड़ी
जीवन की बगिया महकती रहे
आज के इस दौर में जहाँ पति-पत्नी दोनों कामकाजी हैं, वहाँ मकान को घर बनाने में दोनों का ही अहम योगदान होता है। घर के कामकाज हों या बच्चों की जरूरतें, शॉपिंग हो या रिश्तेदारी निभाना अब पति-पत्नी दोनों की रिस्पॉन्सिबिलिटी है। सच तो यह है कि इस भागदौड़ भरी जिंदगी में यदि आपस में प्रेम, समझदारी, विश्वास न हो तो रोज की मुश्किलों से लड़ना इम्पॉसिबल है। इसलिए हम बता रहे हैं कुछ ऐसे टिप्स जिससे आपके दांपत्य जीवन की बगिया महक उठेगी।
दोषारोपण न करें : कुछ गलतफहमी होने पर एक-दूसरे पर ब्लेम न लगाएँ। स्पष्ट रूप से मामले पर पुनर्विचार करें। एक-दूसरे पर हावी न हों बल्कि भावनाओं को समझने का पूरा प्रयास करें। अपने साथी को मानसिक चोट कभी न पहुँचाएँ। दोनों तरफ के परिवारों को बराबर सम्मान दें। माता-पिता, भाई-बहन तो एक सा रिश्ता लिए हुए हैं, इसलिए सम्मान में असमानता क्यों?
झगड़ों से बचें : छोटी-छोटी बातों को नजरअंदाज करें। यदि पति को किसी समय अधिक क्रोध आ रहा है तो बहस न करें। शांत होने पर मामले पर विचार करें। पत्नी के क्रोधित होने पर पति का शांत रहना परिवार के हित में है। एक दूसरे से, परिवार वालों से, सगे संबंधी और मित्रों के साथ मीठा बोलें। कटु वाणी से संबंध खराब होते हैं।
अपेक्षाएँ कम करें - एक दूसरे से कम अपेक्षाएँ रखें। जहाँ अधिक अपेक्षाएँ होती हैं, वहाँ इंसान अपेक्षा पूरी न होने पर खीजता रहता है, जिससे परिवार का वातावरण खराब होता है। समय की माँग के अनुसार पति या पत्नी को अपनी सोच के दायरे को भी बदलना पड़ता है। पारिवारिक, आंतरिक और बाह्य जिम्मेदारियों को मिल बाँटकर निभाएँ, क्योंकि एक पार्टनर सभी जिम्मेदारियों के बोझ को नहीं ढो सकता।
मित्रवत व्यवहार : एक-दूसरे के प्रति दोस्ताना व्यवहार अपनाएँ। एक दूसरे की शारीरिक इच्छाओं के सम्मान के साथ ही अन्य जरूरतों का ध्यान रखेंगे तो भटकाव की स्थिति नहीं आएगी। हर समय 'तुमने यह ठीक नहीं किया', 'तुम यहाँ पर नहीं जाओगे', या 'इतने बजे तक तुम्हें घर पहुँचना ही है।' आदि बेमलतब के अंकुश एक दूसरे पर न लगाएँ।
घर का वातावरण तरोताजा रखने का प्रयास करें। एक-दूसरे की इच्छाओं पर ध्यान दें। बीच-बीच में पति को चाहिए कि बच्चों की सहायता से पत्नी को आराम दें और शॉपिंग पर भेजें। हमेशा एक-दूसरे का महत्व महसूस कराते रहें।
सगे संबंधी या मित्रों की बातों में आकर मन विचलित न करें। यदि किसी एक पार्टनर में कुछ कमी है तो मिलकर उसका सोल्यूशन निकालें और लोगों की बातों को अधिक इम्पोर्टेंस न देकर अपनी परिस्थितियों को समझने का प्रयास करें।
आज के इस दौर में जहाँ पति-पत्नी दोनों कामकाजी हैं, वहाँ मकान को घर बनाने में दोनों का ही अहम योगदान होता है। घर के कामकाज हों या बच्चों की जरूरतें, शॉपिंग हो या रिश्तेदारी निभाना अब पति-पत्नी दोनों की रिस्पॉन्सिबिलिटी है। सच तो यह है कि इस भागदौड़ भरी जिंदगी में यदि आपस में प्रेम, समझदारी, विश्वास न हो तो रोज की मुश्किलों से लड़ना इम्पॉसिबल है। इसलिए हम बता रहे हैं कुछ ऐसे टिप्स जिससे आपके दांपत्य जीवन की बगिया महक उठेगी।
दोषारोपण न करें : कुछ गलतफहमी होने पर एक-दूसरे पर ब्लेम न लगाएँ। स्पष्ट रूप से मामले पर पुनर्विचार करें। एक-दूसरे पर हावी न हों बल्कि भावनाओं को समझने का पूरा प्रयास करें। अपने साथी को मानसिक चोट कभी न पहुँचाएँ। दोनों तरफ के परिवारों को बराबर सम्मान दें। माता-पिता, भाई-बहन तो एक सा रिश्ता लिए हुए हैं, इसलिए सम्मान में असमानता क्यों?
झगड़ों से बचें : छोटी-छोटी बातों को नजरअंदाज करें। यदि पति को किसी समय अधिक क्रोध आ रहा है तो बहस न करें। शांत होने पर मामले पर विचार करें। पत्नी के क्रोधित होने पर पति का शांत रहना परिवार के हित में है। एक दूसरे से, परिवार वालों से, सगे संबंधी और मित्रों के साथ मीठा बोलें। कटु वाणी से संबंध खराब होते हैं।
अपेक्षाएँ कम करें - एक दूसरे से कम अपेक्षाएँ रखें। जहाँ अधिक अपेक्षाएँ होती हैं, वहाँ इंसान अपेक्षा पूरी न होने पर खीजता रहता है, जिससे परिवार का वातावरण खराब होता है। समय की माँग के अनुसार पति या पत्नी को अपनी सोच के दायरे को भी बदलना पड़ता है। पारिवारिक, आंतरिक और बाह्य जिम्मेदारियों को मिल बाँटकर निभाएँ, क्योंकि एक पार्टनर सभी जिम्मेदारियों के बोझ को नहीं ढो सकता।
मित्रवत व्यवहार : एक-दूसरे के प्रति दोस्ताना व्यवहार अपनाएँ। एक दूसरे की शारीरिक इच्छाओं के सम्मान के साथ ही अन्य जरूरतों का ध्यान रखेंगे तो भटकाव की स्थिति नहीं आएगी। हर समय 'तुमने यह ठीक नहीं किया', 'तुम यहाँ पर नहीं जाओगे', या 'इतने बजे तक तुम्हें घर पहुँचना ही है।' आदि बेमलतब के अंकुश एक दूसरे पर न लगाएँ।
घर का वातावरण तरोताजा रखने का प्रयास करें। एक-दूसरे की इच्छाओं पर ध्यान दें। बीच-बीच में पति को चाहिए कि बच्चों की सहायता से पत्नी को आराम दें और शॉपिंग पर भेजें। हमेशा एक-दूसरे का महत्व महसूस कराते रहें।
सगे संबंधी या मित्रों की बातों में आकर मन विचलित न करें। यदि किसी एक पार्टनर में कुछ कमी है तो मिलकर उसका सोल्यूशन निकालें और लोगों की बातों को अधिक इम्पोर्टेंस न देकर अपनी परिस्थितियों को समझने का प्रयास करें।
विचार-मंथन
कुत्ता मत कहो, बनकर दिखाओ
बड़ा दहाड़ते थे शेर जैसे
और कुत्ते जैसे बनकर
तलवे चाटने लगे।
- नितिन गडकरी, अध्यक्ष, भारतीय जनता पार्टी
भारतीय राजनीति में मानवीय मूल्यों का तो घनघोर अवमूल्यन हुआ ही है, अब कुत्ते जैसे मनुष्य के सबसे प्यारे दोस्त का भी अवमूल्यन होने लगा है। कौन कुत्ता आज किसी के तलवे चाटता है? इस बंदे ने तो आदमियों को कुत्ते के तलवे चाटते देखा है। कुत्ते आदमी के साथ डाइनिंग टेबिल पर लंच और डिनर करते हैं।
फर्क सिर्फ इतना है कि वे आदमी का खाना भी खाते हैं लेकिन आदमी ने अभी कुत्तों का खाना "पेडिग्री" आदि खाना शुरू नहीं किया है। आदमी कुत्तों का बर्थ डे मनाता है और केक काटता है।
उन्हें साबुन और शैंपू से नहलाता है। उनके बाल सँवारता है। उन्हें घुमाने ले जाता है और अपने बिस्तर तक में उन्हें सुलाता है। भारत में भी कुत्तों के अलग क्रैच या डे केयर सेंटर हैं। उनके अलग सैलून हैं। विदेशों में तो उनके अलग होटल तक होते हैं जहाँ कुत्ते छुट्टियां बिताते हैं और अपना स्ट्रेस दूर करते हैं। वे हम आम आदमियों से श्रेष्ठ हैं और यह श्रेष्ठता उनके अभिजात-व्यवहार में कूट-कूट कर भरी होती है। वे भौंकते हैं, सूँघते हैं जो उनका नितांत मानवीय अभिवादन है।
वे काटते नहीं। और मान लीजिए काट भी लें तो यह कतई जरूरी नहीं कि आदमी को रैबीज रोधी इंजेक्शन लगवाने पड़ें। उनका इतना मानवीकरण हो चुका है कि इंजेक्शन वे खुद अपने लगवाते हैं।
उनके अपने डॉक्टर और अपनी दवाएँ हैं। वे परिवारों को भरा-पूरा बनाते हैं और हमारे परिवार उन्हें अपने बच्चों की तरह पालते हैं। वे कुत्ते को कुत्ता नहीं कहते। मेरे एक रिश्तेदार के यहाँ एक कुतिया थी, वह अपनी मालकिन के कंधे पर चढ़ी रहती थी। रक्षाबंधन पर मेरी रिश्तेदार उस कुतिया से अपने बच्चों को राखी बँधवाती थी। उस कुतिया को कोई कुतिया नहीं कह सकता था। वह मेरी रिश्तेदार की बेटी थी।
इसलिए जब कोई किसी आदमी को कुत्ता कहता है तो उस आदमी की आत्मा जले या न जले, कुत्ते की आत्मा जल उठती है कि हाय आदमी को हमारे बराबर रखने की कोशिश की जा रही है। हाय हमारा अवमूल्यन किया जा रहा है। वे बहुत शालीनता से भौं-भौं करके अपना विरोध प्रगट करते हैं।
मगर इस बीच हुआ यह है कि कोई बारह बरस तक नली में रहने के बाद कुत्ते की पूँछ तो एकदम लोहे के सरिये की तरह सीधी हो गई मगर आदमी ने जिस नली में उसे रखा था, वह टेढ़ी हो गई।
कुत्ते ने आदमी के सामने पूँछ हिलाना बंद कर दिया तो आदमी ने कुत्ते के सामने पूँछ हिलाना शुरू कर दिया। आदमी, कुत्ता, कुत्ता, आदमी। दोनों एकाकार।
शायद इसी भावभूमि में मेरे एक बचपन के दोस्त ने एक दिन मुझसे कहाः "यार तू भी बड़ी कुत्ती चीज है" तो मैं इसका आशय समझ नहीं सका। किसी ने आज तक मुझे चीज तक नहीं कहा और यह मेरा मित्र मुझे "कुत्ती चीज" कह रहा है। मैंने गुस्से में उससे कहा यह क्या मजाक है तो वह हँसने लगा।
बोलाः "मेरा मतलब था एक पहुँचा हुआ, आदमी जो आत्मीय भी हो।" उस दिन मुझे बोध हुआ कि पहले जिस पहुँचे हुए आदमी को संत समझा जाता था, आजकल उस पहुँचे हुए आदमी को "कुत्ती चीज" कहा जाता है।
इसलिए आज शब्दों के अर्थ बदल गए हैं और मुहावरों को भाषा से बेदखल किया जा चुका है क्योंकि वे भ्रामक साबित होते हैं। इसलिए राजनीतिक भाषणों और विमर्श में मुहावरों का प्रयोग अव्वल तो करना ही नहीं चाहिए और वक्त-जरूरत पर करना पड़े तो संभाल कर करना चाहिए।
बड़ा दहाड़ते थे शेर जैसे
और कुत्ते जैसे बनकर
तलवे चाटने लगे।
- नितिन गडकरी, अध्यक्ष, भारतीय जनता पार्टी
भारतीय राजनीति में मानवीय मूल्यों का तो घनघोर अवमूल्यन हुआ ही है, अब कुत्ते जैसे मनुष्य के सबसे प्यारे दोस्त का भी अवमूल्यन होने लगा है। कौन कुत्ता आज किसी के तलवे चाटता है? इस बंदे ने तो आदमियों को कुत्ते के तलवे चाटते देखा है। कुत्ते आदमी के साथ डाइनिंग टेबिल पर लंच और डिनर करते हैं।
फर्क सिर्फ इतना है कि वे आदमी का खाना भी खाते हैं लेकिन आदमी ने अभी कुत्तों का खाना "पेडिग्री" आदि खाना शुरू नहीं किया है। आदमी कुत्तों का बर्थ डे मनाता है और केक काटता है।
उन्हें साबुन और शैंपू से नहलाता है। उनके बाल सँवारता है। उन्हें घुमाने ले जाता है और अपने बिस्तर तक में उन्हें सुलाता है। भारत में भी कुत्तों के अलग क्रैच या डे केयर सेंटर हैं। उनके अलग सैलून हैं। विदेशों में तो उनके अलग होटल तक होते हैं जहाँ कुत्ते छुट्टियां बिताते हैं और अपना स्ट्रेस दूर करते हैं। वे हम आम आदमियों से श्रेष्ठ हैं और यह श्रेष्ठता उनके अभिजात-व्यवहार में कूट-कूट कर भरी होती है। वे भौंकते हैं, सूँघते हैं जो उनका नितांत मानवीय अभिवादन है।
वे काटते नहीं। और मान लीजिए काट भी लें तो यह कतई जरूरी नहीं कि आदमी को रैबीज रोधी इंजेक्शन लगवाने पड़ें। उनका इतना मानवीकरण हो चुका है कि इंजेक्शन वे खुद अपने लगवाते हैं।
उनके अपने डॉक्टर और अपनी दवाएँ हैं। वे परिवारों को भरा-पूरा बनाते हैं और हमारे परिवार उन्हें अपने बच्चों की तरह पालते हैं। वे कुत्ते को कुत्ता नहीं कहते। मेरे एक रिश्तेदार के यहाँ एक कुतिया थी, वह अपनी मालकिन के कंधे पर चढ़ी रहती थी। रक्षाबंधन पर मेरी रिश्तेदार उस कुतिया से अपने बच्चों को राखी बँधवाती थी। उस कुतिया को कोई कुतिया नहीं कह सकता था। वह मेरी रिश्तेदार की बेटी थी।
इसलिए जब कोई किसी आदमी को कुत्ता कहता है तो उस आदमी की आत्मा जले या न जले, कुत्ते की आत्मा जल उठती है कि हाय आदमी को हमारे बराबर रखने की कोशिश की जा रही है। हाय हमारा अवमूल्यन किया जा रहा है। वे बहुत शालीनता से भौं-भौं करके अपना विरोध प्रगट करते हैं।
मगर इस बीच हुआ यह है कि कोई बारह बरस तक नली में रहने के बाद कुत्ते की पूँछ तो एकदम लोहे के सरिये की तरह सीधी हो गई मगर आदमी ने जिस नली में उसे रखा था, वह टेढ़ी हो गई।
कुत्ते ने आदमी के सामने पूँछ हिलाना बंद कर दिया तो आदमी ने कुत्ते के सामने पूँछ हिलाना शुरू कर दिया। आदमी, कुत्ता, कुत्ता, आदमी। दोनों एकाकार।
शायद इसी भावभूमि में मेरे एक बचपन के दोस्त ने एक दिन मुझसे कहाः "यार तू भी बड़ी कुत्ती चीज है" तो मैं इसका आशय समझ नहीं सका। किसी ने आज तक मुझे चीज तक नहीं कहा और यह मेरा मित्र मुझे "कुत्ती चीज" कह रहा है। मैंने गुस्से में उससे कहा यह क्या मजाक है तो वह हँसने लगा।
बोलाः "मेरा मतलब था एक पहुँचा हुआ, आदमी जो आत्मीय भी हो।" उस दिन मुझे बोध हुआ कि पहले जिस पहुँचे हुए आदमी को संत समझा जाता था, आजकल उस पहुँचे हुए आदमी को "कुत्ती चीज" कहा जाता है।
इसलिए आज शब्दों के अर्थ बदल गए हैं और मुहावरों को भाषा से बेदखल किया जा चुका है क्योंकि वे भ्रामक साबित होते हैं। इसलिए राजनीतिक भाषणों और विमर्श में मुहावरों का प्रयोग अव्वल तो करना ही नहीं चाहिए और वक्त-जरूरत पर करना पड़े तो संभाल कर करना चाहिए।
मिर्च-मसाला
शादीशुदा से शादी कभी नहीं
पिछले दिनों अरशद वारसी और उनकी पत्नी के बीच खटपट के किस्से चर्चाओं में रहे। इस अनबन के पीछे दीया मिर्जा को
जिम्मेदार बताया गया, जिन्होंने अरशद की होम प्रोडक्शन ‘हम तुम और घोस्ट’ में काम किया था। कहा गया कि अरशद और दीया की नजदीकियाँ अरशद की पत्नी मारिया को पसंद नहीं आई।
उधर दीया का कहना है कि वे सपने में भी किसी शादीशुदा पुरुष से अफेयर के बारे में नहीं सोच सकती। अरशद और वे को-स्टार हैं। अच्छे दोस्त हैं। तिल का ताड़ बना दिया गया। अरशद और उनके अफेयर के किस्से चटखारे लेकर सुनाए गए।
आईफा की सुरक्षा के लिए पुलिस
कोलंबों में आईफा समारोह के दौरान कोई अनहोनी न हो इसके लिए सुरक्षा बलों को चौकन्ना कर दिया गया है। लगभग 6000 पुलिसकर्मी इसके लिए तैनात किए जाएँगे। हालाँकि एलटीटीई के साथ युद्ध खत्म हो चुका है पर श्रीलंका की सरकार किसी तरह का जोखिम मोल लेना नहीं चाहती।
3 से 5 जून तक होने वाले इस समारोह में भारत के नामीगिरामी फिल्मी सितारों के साथ-साथ विदेशी सेलिब्रिटी भी शिरकत करने वाले हैं। इन तीनों दिनों में इनकी सुरक्षा के लिए सख्त पहरे लगे रहेंगे।
पुलिस विभाग ने अभी से इसकी तैयारी शुरू कर दी है। कोलंबों के आस-पास की सुरक्षा भी क़ड़ी की जाएगी। वहाँ के कुछ तमिल समुदायों ने सुपरस्टार अमिताभ बच्चन के आईफा समारोह में नहीं आने की गुजारिश की है। इस कारण सुरक्षाकर्मियों को और ब़ढ़ा दिया गया है।
करीब 39 डीआईजी रैंक के अधिकारियों को आईफा समारोह की सुरक्षा की जिम्मेदारी सौंपी गई है।
कैटरीना की ओर से खंडन
पिछले दिनों कुछ अखबारों और टीवी चैनल्स पर बताया गया कि कैटरीना अपने होम प्रोडक्शन की पहली फिल्म में महिला सैनिक की भूमिका निभाने जा रही हैं। जब इस बारे में कैटरीना के प्रवक्ता से पूछा गया तो उन्होंने इसका खंडन करते हुए कहा कि अभी कुछ भी तय नहीं हुआ है और इन खबरों में बिलकुल भी सच्चाई नहीं है।
गौरतलब है कि कुछ महीनों पहले कैटरीना को एक फ्रेंच फिल्म पसंद आई थी और उन्होंने इसे हिंदी में बनाने के अधिकार खरीदे हैं। खबरों में कहा गया कि कैटरीना इस फिल्म के पहले एक ऐसी फिल्म बनाने जा रही हैं जिसमें वे महिला सैनिक के रूप में दिखाई देंगी।
कैटरीना से जुड़े एक सूत्र का कहना है ‘वक्त आने पर कैटरीना अपनी होम प्रोडक्शन की फिल्म के बारे में घोषणा करेंगी। फिलहाल उनकी बात चल रही है। ये सारी बातें सिर्फ अफवाह मात्र हैं।‘
पिछले दिनों अरशद वारसी और उनकी पत्नी के बीच खटपट के किस्से चर्चाओं में रहे। इस अनबन के पीछे दीया मिर्जा को
जिम्मेदार बताया गया, जिन्होंने अरशद की होम प्रोडक्शन ‘हम तुम और घोस्ट’ में काम किया था। कहा गया कि अरशद और दीया की नजदीकियाँ अरशद की पत्नी मारिया को पसंद नहीं आई।
उधर दीया का कहना है कि वे सपने में भी किसी शादीशुदा पुरुष से अफेयर के बारे में नहीं सोच सकती। अरशद और वे को-स्टार हैं। अच्छे दोस्त हैं। तिल का ताड़ बना दिया गया। अरशद और उनके अफेयर के किस्से चटखारे लेकर सुनाए गए।
आईफा की सुरक्षा के लिए पुलिस
कोलंबों में आईफा समारोह के दौरान कोई अनहोनी न हो इसके लिए सुरक्षा बलों को चौकन्ना कर दिया गया है। लगभग 6000 पुलिसकर्मी इसके लिए तैनात किए जाएँगे। हालाँकि एलटीटीई के साथ युद्ध खत्म हो चुका है पर श्रीलंका की सरकार किसी तरह का जोखिम मोल लेना नहीं चाहती।
3 से 5 जून तक होने वाले इस समारोह में भारत के नामीगिरामी फिल्मी सितारों के साथ-साथ विदेशी सेलिब्रिटी भी शिरकत करने वाले हैं। इन तीनों दिनों में इनकी सुरक्षा के लिए सख्त पहरे लगे रहेंगे।
पुलिस विभाग ने अभी से इसकी तैयारी शुरू कर दी है। कोलंबों के आस-पास की सुरक्षा भी क़ड़ी की जाएगी। वहाँ के कुछ तमिल समुदायों ने सुपरस्टार अमिताभ बच्चन के आईफा समारोह में नहीं आने की गुजारिश की है। इस कारण सुरक्षाकर्मियों को और ब़ढ़ा दिया गया है।
करीब 39 डीआईजी रैंक के अधिकारियों को आईफा समारोह की सुरक्षा की जिम्मेदारी सौंपी गई है।
कैटरीना की ओर से खंडन
पिछले दिनों कुछ अखबारों और टीवी चैनल्स पर बताया गया कि कैटरीना अपने होम प्रोडक्शन की पहली फिल्म में महिला सैनिक की भूमिका निभाने जा रही हैं। जब इस बारे में कैटरीना के प्रवक्ता से पूछा गया तो उन्होंने इसका खंडन करते हुए कहा कि अभी कुछ भी तय नहीं हुआ है और इन खबरों में बिलकुल भी सच्चाई नहीं है।
गौरतलब है कि कुछ महीनों पहले कैटरीना को एक फ्रेंच फिल्म पसंद आई थी और उन्होंने इसे हिंदी में बनाने के अधिकार खरीदे हैं। खबरों में कहा गया कि कैटरीना इस फिल्म के पहले एक ऐसी फिल्म बनाने जा रही हैं जिसमें वे महिला सैनिक के रूप में दिखाई देंगी।
कैटरीना से जुड़े एक सूत्र का कहना है ‘वक्त आने पर कैटरीना अपनी होम प्रोडक्शन की फिल्म के बारे में घोषणा करेंगी। फिलहाल उनकी बात चल रही है। ये सारी बातें सिर्फ अफवाह मात्र हैं।‘
बुधवार, 26 मई 2010
कैरियर
जर्नलिज्म बेस्ट करियर
इन दिनों ज्यादातर युवाओं के लिए मीडिया आकर्षक करियर बनता जा रहा है। यदि लिखने-पढने के शौकीन हैं और आपकी कम्युनिकेशन स्किल बढिया है, तो मीडिया आपके लिए बेस्ट करियर साबित हो सकता है। दरअसल, आज मीडिया का काफी विस्तार हो चुका है। न केवल अखबार, टीवी और रेडियो, बल्कि इंटरनेट, मैग्जींस, फिल्म भी इसके विस्तारित क्षेत्र हैं। करेंट इवेंट्स, ट्रेंड्स संबंधित इन्फॉर्मेशन कलेक्ट करना, एनालाइज करना आदि जर्नलिस्ट के मुख्य काम हैं।
इंस्टीट्यूट्स
जेआईएमएमसी
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्यूनिकेशन, नई दिल्ली (एमसीआरसी)
मास कम्यूनिकेशन रिसर्च सेंटर, जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी, नई दिल्ली
एशियन कॉलेज ऑफ जर्नलिज्म, चेन्नई
ज्यादातर इंस्टीट्यूट्स एंट्रेंस एग्जाम आयोजित करते हैं। इसमें रिटेन टेस्ट, इंटरव्यू और ग्रुप डिस्कशन भी होता है। लिखित परीक्षा में स्टूडेंट्स के राइटिंग स्किल्स, जेनरल अवेयरनेस, एनालिटिकल एबिलिटी और एप्टीट्यूड की जांच की जाती है। एमसीआरसी के ऑफिशिएटिंग डायरेक्टर ओबेद सिद्दीकी के अनुसार, एंट्रेंस एग्जाम के लिए कोई विशेष तैयारी नहीं करनी होती है। टेस्ट के माध्यम से एप्लीकैंट के सोशल, कल्चरल और पॉलिटिकल इश्यू संबंधित ज्ञान को परखा जाता है। करेंट अफेयर्स की जानकारीएशियन कॉलेज ऑफ जर्नलिज्म के प्रोफेसर संपत कुमार कहते हैं कि जर्नलिज्म के लिए जरूरी तत्व है- करेंट न्यूज पर आपकी पकड। ऐसे कैंडिडेट ही अच्छे जर्नलिस्ट बनते हैं, जिन्हें न्यूज की अच्छी समझ होती है और जिनकी राइटिंग स्किल बढिया होती है। साथ ही, उनका अपने पेशे के प्रति कमिटमेंट होना भी जरूरी है। दरअसल, किसी भी खबर का विश्लेषण कर उसे सरल रूप में पेश करना ही मास कम्युनिकेशन का मुख्य उद्देश्य होता है। यदि आप इस पेशे में सफल होना चाहते हैं, तो न्यूजपेपर्स, मैग्जींस और करेंट अफेयर्स संबंधित बुक्स जरूर पढें। इंटरव्यू है असली परीक्षा दिल्ली यूनिवर्सिटी से जर्नलिज्म में बैचलर करने के बाद मैं पीजी करना चाहता था। मैं प्रतिदिन एंट्रेंस एग्जाम की तैयारी के लिए दो लीडिंग न्यूजपेपर्स और कई मैग्जींस पढा करता था। एंट्रेंस एग्जाम राइटिंग स्किल और सामयिक घटनाओं के प्रति आपकी जागरूकता की जांच के लिए किए जाते हैं। इसमें सफल होना आसान है। असली परीक्षा इंटरव्यूज के दौरान होती है। इस दौरान आपके न्यूज सेंस, कम्युनिकेशन स्किल और पेशेंस की भी जांच-परख होती है। यदि आप दब्बू किस्म के इंसान हैं या जल्दी अपना धैर्य खो देते हैं, तो आपको इस क्षेत्र में सफलता नहीं मिल सकती। इसलिए आपको अपने लक्ष्य के प्रति स्पष्ट नजरिया बनाना होगा कि आपका स्वभाव इस पेशे के अनुकूल है या नहीं।
टाइम स्टार्ट्स नाउ
इन दिनों विभिन्न बैंकों में नौकरियों की बहार आई हुई है। यही कारण है कि अब युवा फिर से बैंकिंग सेक्टर की तरफ मुडने लगे हैं। हाल ही में सेंट्रल बैंक ने प्रोबेशनरी आफिसर पदों के लिए आवेदन आमंत्रित किए हैं। इसके लिए ऑनलाइन आवेदन करने की अंतिम तिथि 5 जून और परीक्षा तिथि 25 जुलाई, 2010 है। कुल पदों की संख्या 500 है। यदि आप पीओ बनना चाहते हैं, तो आपके लिए बेहतर अवसर है।
योग्यता
यदि आपके पास किसी मान्यताप्राप्त संस्थान या विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन में 55 प्रतिशत अंक हैं, तो आप आवेदन करने के योग्य हैं। इसके साथ ही कम्प्यूटर एप्लिकेशन की बेसिक जानकारी जरूरी है। जहां तक उम्र सीमा की बात है, तो सामान्य अभ्यर्थियों के लिए न्यूनतम उम्र 21 वर्ष और अधिकतम 30 वर्ष निर्धारित है।
सेलेक्शन प्रॉसेस प्रोबेशनरी पदों के लिए लिखित परीक्षा होगी। इसमें उत्तीर्ण अभ्यर्थियों को इंटरव्यू या ग्रुप डिस्कशन के लिए बुलाया जा सकता है। यह अभ्यर्थियों की संख्या पर निर्भर करेगा। प्रथम चरण के अंतर्गत रीजनिंग, क्वांटिटेटिव एप्टीटयूड, जेनरल अवेयरनेस और इंग्लिश लैंग्वेज से संबंधित प्रश्न होंगे। इसके बाद डिसक्रिप्टिव तरह के प्रश्न रहेंगे। इसके अंतर्गत सेसोशियो इकोनॉमिक डेवलपमेंट ऐंड कम्युनिकेशन स्किल आदि से संबंधित प्रश्न पूछे जाएंगे।
समझें प्रश्नों का पैटर्न
पैरामाउंट कोचिंग के अंजनी जायसवाल कहते हैं कि किसी भी परीक्षा के लिए बेहतर तैयारी तभी हो सकती है, जब आपको परीक्षा से संबंधित प्रश्नों के पैटर्न की जानकारी हो। क्योंकि सभी बैंक अलग-अलग क्षेत्रों से टेस्ट लेते हैं। अंजनी कहते हैं कि पहले सभी बैंकों के परीक्षा का पैटर्न लगभग एक था, लेकिन अब जरूरत के अनुसार सभी बैंक प्रश्नपत्रों को चेंज करते रहते हैं।
इस कारण आप जिस बैंक के पदों के लिए तैयारी कर रहे हैं, उसके पूर्व परीक्षाओं में किस तरह के प्रश्न पूछे गए हैं, उनका पहले अध्ययन करें और इसी पैटर्न पर तैयारी करें। 60 प्रतिशत प्रश्नों के पैटर्न पिछली परीक्षाओं से मिलते-जुलते होते हैं। इस कारण परीक्षा में पूछे जाने वाले अधिकांश प्रश्नों के पैटर्न से वाकिफ हुआ जा सकता है।
समय प्रबंधन
अंजनी कहते हैं कि ऑब्जेक्टिव परीक्षा में कम समय में अधिक से अधिक प्रश्नों का उत्तर देना होता है। इस तरह की परीक्षा में बेहतर प्रदर्शन करने के लिए जरूरी है कि आप निर्धारित समय-सीमा के अंदर घर पर ही अधिक से अधिक प्रश्नों के उत्तर देने का अभ्यास करें। इसके लिए समय प्रबंधन भी जरूरी है। इसका महत्व न सिर्फ तैयारी में है, बल्कि परीक्षा हॉल में भी यह रणनीति महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। इस दौरान हर प्रश्न के सही तकनीक और शॉर्टकट विधि भी ईजाद कर सकते हैं।
प्रिपरेशन स्ट्रेटेजी
प्रश्नों का उत्तर देने के लिए अलग-अलग रणनीति बनानी पडती है। ऐसा कोई सूत्र नहीं है, जिसके आधार पर सभी प्रश्नों को हल किया जा सके। लेकिन यदि आप कुछ बातों का ध्यान रखते हैं, तो औरों के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन कर सकते हैं। यह कहना है अंजनी जायसवाल का। बेहतर करने के लिए जरूरी है कि आप सबसे पहले प्रश्नों को समझने की कोशिश करें कि आखिर उसमें कहा क्या जा रहा है? उसके बाद उसे हल करने के लिए किस तरह के सूत्र कारगर हो सकते हैं, उसे दिमाग में बैठाएं। यदि इससे संबंधित कोई सूत्र या फार्मूला फिट बैठता हो, तो उसे हल करने के लिए रणनीति बनाएं तथा अंत में उसे हल करने के लिए जुट जाएं।
इन दिनों ज्यादातर युवाओं के लिए मीडिया आकर्षक करियर बनता जा रहा है। यदि लिखने-पढने के शौकीन हैं और आपकी कम्युनिकेशन स्किल बढिया है, तो मीडिया आपके लिए बेस्ट करियर साबित हो सकता है। दरअसल, आज मीडिया का काफी विस्तार हो चुका है। न केवल अखबार, टीवी और रेडियो, बल्कि इंटरनेट, मैग्जींस, फिल्म भी इसके विस्तारित क्षेत्र हैं। करेंट इवेंट्स, ट्रेंड्स संबंधित इन्फॉर्मेशन कलेक्ट करना, एनालाइज करना आदि जर्नलिस्ट के मुख्य काम हैं।
इंस्टीट्यूट्स
जेआईएमएमसी
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्यूनिकेशन, नई दिल्ली (एमसीआरसी)
मास कम्यूनिकेशन रिसर्च सेंटर, जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी, नई दिल्ली
एशियन कॉलेज ऑफ जर्नलिज्म, चेन्नई
ज्यादातर इंस्टीट्यूट्स एंट्रेंस एग्जाम आयोजित करते हैं। इसमें रिटेन टेस्ट, इंटरव्यू और ग्रुप डिस्कशन भी होता है। लिखित परीक्षा में स्टूडेंट्स के राइटिंग स्किल्स, जेनरल अवेयरनेस, एनालिटिकल एबिलिटी और एप्टीट्यूड की जांच की जाती है। एमसीआरसी के ऑफिशिएटिंग डायरेक्टर ओबेद सिद्दीकी के अनुसार, एंट्रेंस एग्जाम के लिए कोई विशेष तैयारी नहीं करनी होती है। टेस्ट के माध्यम से एप्लीकैंट के सोशल, कल्चरल और पॉलिटिकल इश्यू संबंधित ज्ञान को परखा जाता है। करेंट अफेयर्स की जानकारीएशियन कॉलेज ऑफ जर्नलिज्म के प्रोफेसर संपत कुमार कहते हैं कि जर्नलिज्म के लिए जरूरी तत्व है- करेंट न्यूज पर आपकी पकड। ऐसे कैंडिडेट ही अच्छे जर्नलिस्ट बनते हैं, जिन्हें न्यूज की अच्छी समझ होती है और जिनकी राइटिंग स्किल बढिया होती है। साथ ही, उनका अपने पेशे के प्रति कमिटमेंट होना भी जरूरी है। दरअसल, किसी भी खबर का विश्लेषण कर उसे सरल रूप में पेश करना ही मास कम्युनिकेशन का मुख्य उद्देश्य होता है। यदि आप इस पेशे में सफल होना चाहते हैं, तो न्यूजपेपर्स, मैग्जींस और करेंट अफेयर्स संबंधित बुक्स जरूर पढें। इंटरव्यू है असली परीक्षा दिल्ली यूनिवर्सिटी से जर्नलिज्म में बैचलर करने के बाद मैं पीजी करना चाहता था। मैं प्रतिदिन एंट्रेंस एग्जाम की तैयारी के लिए दो लीडिंग न्यूजपेपर्स और कई मैग्जींस पढा करता था। एंट्रेंस एग्जाम राइटिंग स्किल और सामयिक घटनाओं के प्रति आपकी जागरूकता की जांच के लिए किए जाते हैं। इसमें सफल होना आसान है। असली परीक्षा इंटरव्यूज के दौरान होती है। इस दौरान आपके न्यूज सेंस, कम्युनिकेशन स्किल और पेशेंस की भी जांच-परख होती है। यदि आप दब्बू किस्म के इंसान हैं या जल्दी अपना धैर्य खो देते हैं, तो आपको इस क्षेत्र में सफलता नहीं मिल सकती। इसलिए आपको अपने लक्ष्य के प्रति स्पष्ट नजरिया बनाना होगा कि आपका स्वभाव इस पेशे के अनुकूल है या नहीं।
टाइम स्टार्ट्स नाउ
इन दिनों विभिन्न बैंकों में नौकरियों की बहार आई हुई है। यही कारण है कि अब युवा फिर से बैंकिंग सेक्टर की तरफ मुडने लगे हैं। हाल ही में सेंट्रल बैंक ने प्रोबेशनरी आफिसर पदों के लिए आवेदन आमंत्रित किए हैं। इसके लिए ऑनलाइन आवेदन करने की अंतिम तिथि 5 जून और परीक्षा तिथि 25 जुलाई, 2010 है। कुल पदों की संख्या 500 है। यदि आप पीओ बनना चाहते हैं, तो आपके लिए बेहतर अवसर है।
योग्यता
यदि आपके पास किसी मान्यताप्राप्त संस्थान या विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन में 55 प्रतिशत अंक हैं, तो आप आवेदन करने के योग्य हैं। इसके साथ ही कम्प्यूटर एप्लिकेशन की बेसिक जानकारी जरूरी है। जहां तक उम्र सीमा की बात है, तो सामान्य अभ्यर्थियों के लिए न्यूनतम उम्र 21 वर्ष और अधिकतम 30 वर्ष निर्धारित है।
सेलेक्शन प्रॉसेस प्रोबेशनरी पदों के लिए लिखित परीक्षा होगी। इसमें उत्तीर्ण अभ्यर्थियों को इंटरव्यू या ग्रुप डिस्कशन के लिए बुलाया जा सकता है। यह अभ्यर्थियों की संख्या पर निर्भर करेगा। प्रथम चरण के अंतर्गत रीजनिंग, क्वांटिटेटिव एप्टीटयूड, जेनरल अवेयरनेस और इंग्लिश लैंग्वेज से संबंधित प्रश्न होंगे। इसके बाद डिसक्रिप्टिव तरह के प्रश्न रहेंगे। इसके अंतर्गत सेसोशियो इकोनॉमिक डेवलपमेंट ऐंड कम्युनिकेशन स्किल आदि से संबंधित प्रश्न पूछे जाएंगे।
समझें प्रश्नों का पैटर्न
पैरामाउंट कोचिंग के अंजनी जायसवाल कहते हैं कि किसी भी परीक्षा के लिए बेहतर तैयारी तभी हो सकती है, जब आपको परीक्षा से संबंधित प्रश्नों के पैटर्न की जानकारी हो। क्योंकि सभी बैंक अलग-अलग क्षेत्रों से टेस्ट लेते हैं। अंजनी कहते हैं कि पहले सभी बैंकों के परीक्षा का पैटर्न लगभग एक था, लेकिन अब जरूरत के अनुसार सभी बैंक प्रश्नपत्रों को चेंज करते रहते हैं।
इस कारण आप जिस बैंक के पदों के लिए तैयारी कर रहे हैं, उसके पूर्व परीक्षाओं में किस तरह के प्रश्न पूछे गए हैं, उनका पहले अध्ययन करें और इसी पैटर्न पर तैयारी करें। 60 प्रतिशत प्रश्नों के पैटर्न पिछली परीक्षाओं से मिलते-जुलते होते हैं। इस कारण परीक्षा में पूछे जाने वाले अधिकांश प्रश्नों के पैटर्न से वाकिफ हुआ जा सकता है।
समय प्रबंधन
अंजनी कहते हैं कि ऑब्जेक्टिव परीक्षा में कम समय में अधिक से अधिक प्रश्नों का उत्तर देना होता है। इस तरह की परीक्षा में बेहतर प्रदर्शन करने के लिए जरूरी है कि आप निर्धारित समय-सीमा के अंदर घर पर ही अधिक से अधिक प्रश्नों के उत्तर देने का अभ्यास करें। इसके लिए समय प्रबंधन भी जरूरी है। इसका महत्व न सिर्फ तैयारी में है, बल्कि परीक्षा हॉल में भी यह रणनीति महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। इस दौरान हर प्रश्न के सही तकनीक और शॉर्टकट विधि भी ईजाद कर सकते हैं।
प्रिपरेशन स्ट्रेटेजी
प्रश्नों का उत्तर देने के लिए अलग-अलग रणनीति बनानी पडती है। ऐसा कोई सूत्र नहीं है, जिसके आधार पर सभी प्रश्नों को हल किया जा सके। लेकिन यदि आप कुछ बातों का ध्यान रखते हैं, तो औरों के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन कर सकते हैं। यह कहना है अंजनी जायसवाल का। बेहतर करने के लिए जरूरी है कि आप सबसे पहले प्रश्नों को समझने की कोशिश करें कि आखिर उसमें कहा क्या जा रहा है? उसके बाद उसे हल करने के लिए किस तरह के सूत्र कारगर हो सकते हैं, उसे दिमाग में बैठाएं। यदि इससे संबंधित कोई सूत्र या फार्मूला फिट बैठता हो, तो उसे हल करने के लिए रणनीति बनाएं तथा अंत में उसे हल करने के लिए जुट जाएं।
एक टीन की महारत
पियानो का जादूगर
जो साज से निकली है धुन, वो सबने सुनी है,
जो साज पे गुजरी है, वो किसको पता है..
जी हां, एक हाथ से पियानो जैसा साज बजाने में एक टीन की महारत की गवाही तो लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स दे देता है, लेकिन ऐसी महारत पाने के लिए उस पर क्या-क्या गुजरी है, इसे कौन बताएगा? 17 साल का यह टीन है दिल्ली का करनजीत सिंह, जो सिविल इंजीनियरिंग प्रथम वर्ष का छात्र है। पियानो की औपचारिक शिक्षा के बगैर ही करन ऐसी-ऐसी धुनें ईजाद करता है कि बडे-बडे उस्तादों की बाजीगरी मात खा जाए।
इतना ही नहीं, वह घंटों एक ही हाथ से इस साज पर बेहतरीन धुनें बजा सकता है। पियानो बजाने के साथ-साथ वह दूसरे हाथ की एक उंगली से उतनी ही देर तक लगातार परात नचाता है। अपने इसी जुनून के चलते उसने एक हाथ से लगातार 2 घंटे 40 मिनट तक पियानो बजाकर लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में अपना नाम दर्ज करा लिया है।
अब उसका अगला लक्ष्य है गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में दर्ज होना। क्या यह सब आसानी से हो जाएगा? करन पूरे जोश और आत्मविश्वास से कहता है, इसकी तैयारी मैंने सफल होने के लिए ही शुरू की है।
करनजीत अपनी हर कामयाबी का सेहरा अपने डैडी के सिर बांधता है। उसके डैडी एक शो ऑर्गनाइजर हैं। वह कहता है, म्यूजिक, म्यूजिक और म्यूजिक-बस यही धुन है मुझे। इसके आगे मैं कुछ भी नहीं सोच पाता। जो कुछ करते हैं, वह डैडी ही करते हैं, मैं तो बस उनका साथ देता हूं। यह कहते-कहते वह चंद पल के लिए ठहर कर बोल पडता है थैंक्स डैडी।
उसके मुताबिक, जब मुझे पता चला कि गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में दाखिल होने के लिए हमें अपने खर्चे पर लंदन जाना होगा, तो एकबारगी मुझे थोडी निराशा जरूर हुई, पर जब डैडी के जोश और हौसले को देखता हूं, तो यह चिंता बहुत छोटी लगती है।
करनजीत उस दिन को खास तौर पर याद करता है, जब पहली बार उसने पियानो देखा था। वह कहता है, उस समय मेरी उम्र तकरीबन चार साल की रही होगी। मेरे बडे भैया को किसी ने गिफ्ट में पियानो दिया था। भैया सारेगामा बजाना जानते थे, इसलिए पडोस की एक दीदी उनसे पियानो सीखने आने लगीं। भैया तो उन्हें नहीं सिखा पाए, पर मैं उनका गुरु जरूर बन गया। यह कहकर वह जोर से ठहाका लगाता है।
करनजीत ने पियानो पर यह महारत यूं ही हासिल नहीं की। उसकी लगन, कडी मेहनत और कुछ कर दिखाने के जज्बे ने उसे इस मुकाम तक पहुंचाया है। म्यूजिक मेरी लाइफ का वह हिस्सा है, जिसे मैं कभी भी अलग नहीं कर सकता। मैं पियानो का रियाज बचपन से कर रहा हूं। चूंकि प्रैक्टिस का कोई तय वक्त नहीं है, इसलिएकभी-कभी घर में थोडी कहा-सुनी भी हो जाती है, लेकिन धीरे-धीरे सब ठीक हो जाता है। हां, जब पेपर खत्म हो जाते हैं, तो मैं पूरी तरह पियानो को समय देता हूं। जब पेपर नहीं होते, तब हर वक्त पियानो मेरे साथ होता है, वह चाहे दिन हो या रात।
आखिर करनजीत को रिकॉर्ड्स बनाने का विचार कहां से आया? इस सवाल के जवाब में वह एक और रोचक वाकया सुनाता है, मैंने अपने चाचा के घर लिम्का रिकॉर्ड बुक देखी थी। उसे पढकर बेहद प्रभावित हुआ। मेरे अंदर कुछ अलग कर दिखाने की कुलबुलाहट जोर मारने लगी। डैडी के कहने पर किताब में दिए गए फोन नंबर पर फोन घुमाया और लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स वाले ने बुलाया और बन गई बात!
वह बडा होकर पियानो मास्टर नहीं, म्यूजिक डायरेक्टर बनना चाहता है। करन इंजीनियरिंग की पढाई जरूर कर रहा है, लेकिन उसकी पहली प्राथमिकता म्यूजिक है। फिर उसने क्यों सिविल इंजीनियरिंग सब्जेक्ट को चुना? इस सवाल पर वह थोडा मजाकिया होकर कहता है, क्योंकि इसमें ड्रॉइंग भी बनानी पडती है।
रिकॉर्ड होल्डर है करनजीत.., यह सोचकर कैसा लगता है? करन कहता है, कुछ खास नहीं। हां, जब टीचर्स और बडे-बुजुर्ग प्रोत्साहित करते हैं, मुझ पर भरोसा जताते हैं, तो मेरा उत्साह दोगुना हो जाता है। लेकिन क्या कॉलेज के दोस्त भी उसे खास मानते हैं? करनजीत कहता है, नहीं, उन्हें लगता है कि ऐसे रिकॉर्ड्स तो सभी बना सकते हैं। मैं भी ऐसा ही मानता हूं। हां, स्ट्रांग विल पॉवर और मोटिवेशन होनी चाहिए।
उम्मीद है करनजीत का विल पॉवर यूं ही ऊंचाइयों पर रहेगा और गिनीज बुक में दर्ज होने की उसकी ख्वाहिश जल्द ही पूरी होगी। ऑल द बेस्ट!
जो साज से निकली है धुन, वो सबने सुनी है,
जो साज पे गुजरी है, वो किसको पता है..
जी हां, एक हाथ से पियानो जैसा साज बजाने में एक टीन की महारत की गवाही तो लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स दे देता है, लेकिन ऐसी महारत पाने के लिए उस पर क्या-क्या गुजरी है, इसे कौन बताएगा? 17 साल का यह टीन है दिल्ली का करनजीत सिंह, जो सिविल इंजीनियरिंग प्रथम वर्ष का छात्र है। पियानो की औपचारिक शिक्षा के बगैर ही करन ऐसी-ऐसी धुनें ईजाद करता है कि बडे-बडे उस्तादों की बाजीगरी मात खा जाए।
इतना ही नहीं, वह घंटों एक ही हाथ से इस साज पर बेहतरीन धुनें बजा सकता है। पियानो बजाने के साथ-साथ वह दूसरे हाथ की एक उंगली से उतनी ही देर तक लगातार परात नचाता है। अपने इसी जुनून के चलते उसने एक हाथ से लगातार 2 घंटे 40 मिनट तक पियानो बजाकर लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में अपना नाम दर्ज करा लिया है।
अब उसका अगला लक्ष्य है गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में दर्ज होना। क्या यह सब आसानी से हो जाएगा? करन पूरे जोश और आत्मविश्वास से कहता है, इसकी तैयारी मैंने सफल होने के लिए ही शुरू की है।
करनजीत अपनी हर कामयाबी का सेहरा अपने डैडी के सिर बांधता है। उसके डैडी एक शो ऑर्गनाइजर हैं। वह कहता है, म्यूजिक, म्यूजिक और म्यूजिक-बस यही धुन है मुझे। इसके आगे मैं कुछ भी नहीं सोच पाता। जो कुछ करते हैं, वह डैडी ही करते हैं, मैं तो बस उनका साथ देता हूं। यह कहते-कहते वह चंद पल के लिए ठहर कर बोल पडता है थैंक्स डैडी।
उसके मुताबिक, जब मुझे पता चला कि गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में दाखिल होने के लिए हमें अपने खर्चे पर लंदन जाना होगा, तो एकबारगी मुझे थोडी निराशा जरूर हुई, पर जब डैडी के जोश और हौसले को देखता हूं, तो यह चिंता बहुत छोटी लगती है।
करनजीत उस दिन को खास तौर पर याद करता है, जब पहली बार उसने पियानो देखा था। वह कहता है, उस समय मेरी उम्र तकरीबन चार साल की रही होगी। मेरे बडे भैया को किसी ने गिफ्ट में पियानो दिया था। भैया सारेगामा बजाना जानते थे, इसलिए पडोस की एक दीदी उनसे पियानो सीखने आने लगीं। भैया तो उन्हें नहीं सिखा पाए, पर मैं उनका गुरु जरूर बन गया। यह कहकर वह जोर से ठहाका लगाता है।
करनजीत ने पियानो पर यह महारत यूं ही हासिल नहीं की। उसकी लगन, कडी मेहनत और कुछ कर दिखाने के जज्बे ने उसे इस मुकाम तक पहुंचाया है। म्यूजिक मेरी लाइफ का वह हिस्सा है, जिसे मैं कभी भी अलग नहीं कर सकता। मैं पियानो का रियाज बचपन से कर रहा हूं। चूंकि प्रैक्टिस का कोई तय वक्त नहीं है, इसलिएकभी-कभी घर में थोडी कहा-सुनी भी हो जाती है, लेकिन धीरे-धीरे सब ठीक हो जाता है। हां, जब पेपर खत्म हो जाते हैं, तो मैं पूरी तरह पियानो को समय देता हूं। जब पेपर नहीं होते, तब हर वक्त पियानो मेरे साथ होता है, वह चाहे दिन हो या रात।
आखिर करनजीत को रिकॉर्ड्स बनाने का विचार कहां से आया? इस सवाल के जवाब में वह एक और रोचक वाकया सुनाता है, मैंने अपने चाचा के घर लिम्का रिकॉर्ड बुक देखी थी। उसे पढकर बेहद प्रभावित हुआ। मेरे अंदर कुछ अलग कर दिखाने की कुलबुलाहट जोर मारने लगी। डैडी के कहने पर किताब में दिए गए फोन नंबर पर फोन घुमाया और लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स वाले ने बुलाया और बन गई बात!
वह बडा होकर पियानो मास्टर नहीं, म्यूजिक डायरेक्टर बनना चाहता है। करन इंजीनियरिंग की पढाई जरूर कर रहा है, लेकिन उसकी पहली प्राथमिकता म्यूजिक है। फिर उसने क्यों सिविल इंजीनियरिंग सब्जेक्ट को चुना? इस सवाल पर वह थोडा मजाकिया होकर कहता है, क्योंकि इसमें ड्रॉइंग भी बनानी पडती है।
रिकॉर्ड होल्डर है करनजीत.., यह सोचकर कैसा लगता है? करन कहता है, कुछ खास नहीं। हां, जब टीचर्स और बडे-बुजुर्ग प्रोत्साहित करते हैं, मुझ पर भरोसा जताते हैं, तो मेरा उत्साह दोगुना हो जाता है। लेकिन क्या कॉलेज के दोस्त भी उसे खास मानते हैं? करनजीत कहता है, नहीं, उन्हें लगता है कि ऐसे रिकॉर्ड्स तो सभी बना सकते हैं। मैं भी ऐसा ही मानता हूं। हां, स्ट्रांग विल पॉवर और मोटिवेशन होनी चाहिए।
उम्मीद है करनजीत का विल पॉवर यूं ही ऊंचाइयों पर रहेगा और गिनीज बुक में दर्ज होने की उसकी ख्वाहिश जल्द ही पूरी होगी। ऑल द बेस्ट!
साहित्यिक कृतियां
रजाई
सर्दी की रात, चारों ओर पसरा हुआ सन्नाटा। किंतु कुछ ऐसा भी था, जो रुका हुआ नहीं था। वो थी अनवर की चलती हुई उंगलियां। तंग गलियों के एक कोठरीनुमा कमरे में अनवर की गृहस्थी सिमटी हुई थी। शरीर बूढा हो चला था, मगर हाथ अनवरत चल रहे थे।
चालीस साल से उसकी यही दिनचर्या थी। दिन-रात की मेहनत से वो कम वजन वाली खूबसूरत रजाइयां तैयार करता था। सेठजी सुंदर कशीदाकारी से मंडे खोल उसे देते और फिर शुरू होती अनवर की कारीगरी। अनवर के हाथ की बनी रजाइयां देश-विदेश में जाती थी। इस कार्य के लिए कई सरकारी व गैर-सरकारी संस्थाएं, उन्हें पुरस्कृत कर चुकी थीं।
अनवर का कमरा, एक भीड भरे मोहल्ले की तंग गली में स्थित था। कमरे को उसने दो भागों में बांट रखा था। एक ओर उसकी गृहस्थी, खाने-पीने का सामान था, दूसरी ओर रुई, रजाइयां, सुई-धागे आदि पडे रहते थे। उसका सारा कमरा बेतरतीब था। गंदगी और अव्यवस्था एक दूसरे से बढकर थी। खुद अनवर अव्यवस्थित कमरे का प्रतिरूप जान पडता था। पर फिर भी कमरे में कुछ थी जो अद्भुत थी, खूबसूरत थी, एक सुंदर सपने सी प्रतीत होती थी। वो थी, अनवर द्वारा तैयार एक्पोर्ट क्वालिटी रजाई। रेशम व मखमली कपडे की बनी मुलायम रजाई, जो छूते ही पंख सा अहसास देती थी। रजाई की अद्भुत कशीदाकारी उसका सौंदर्य दुगना कर देती थी। अनवर, हालांकि दिन भर ही रजाई पर काम करता था, पर पूरी होने पर उसको अनमोल धरोहर की तरह रखता था। रजाई, उसके लिए महज उत्पाद नहीं थी, अपितु साधना थी, अर्चना थी, समर्पण भाव से वह अपने काम में खोया रहता। रजाई ही उसकी आकार-निराकार प्रतिमा थी, कुरान की आयतें थीं। रजाई उसके लिए भोर का गीत थी, संध्या की राग-रागिनी थी। खुद वो कमरे के दूसरे छोर पर सोता था। एक पुरानी सी गुदडी और दो फटे कंबल। कडकडाती सर्दी में ये कंबल अपर्याप्त थे। मगर वो ये ही सोचकर तसल्ली कर लेता था कि दो महीने की तो बात है, बेकार में खर्चा क्यूं किया जाए।
उस रोज रात धीरे-धीरे गहराती जा रही थी। हवाएं, रह-रहकर उसके रोंगटे खडे कर देती थी। पर वह हमेशा की तरह अपने काम में लगा हुआ था। रजाई, लगभग तैयार होने को ही थी। उसका इरादा था कि वो पूरा काम करके ही सोए। तभी ठंड का एक झोंका तेजी से आया उसे कंपा गया। वह सिहर उठा। पर उंगलियां बराबर चलती रहीं। अंत में, करीब एक घंटे बाद रजाई का काम पूरा हो गया।
अब अनवर का मन शांति से भर उठा था। वह धीरे से उठा और जल्दी से अपने बिस्तर में आकर लेट गया। ठंड बराबर बढती जा रही थी। दोनों कंबल ओढने के बाद भी सरदी में कोई कमी नहीं आ रही थी। चारों ओर लिपटे कंबल जैसे ठंड के मारे पानी-पानी हो रहे थे। कोई बात नहीं, एक तो बज ही गया, चार घंटे बाद सुबह हो जाएगी। मन ही मन वो अपने आपको तसल्ली देने लगा।
बल्ब की पीली रोशनी में जहां पूरा कमरा उदासी से भरा हुआ था, वहीं रजाई की उपस्थिति कमरे की शोभा में चार चांद लगा रही थी। उसकी रजाईयां बहुत ही सुंदर व गर्म रहती थी। सुंदर के बारे में तो उसे पता था, लेकिन गरम रहती थी, ऐसा सिर्फ उसने लोगों से सुना था। लोग कहते थे कि अनवर के हाथों की बनी रजाई तो बिल्कुल ऐसी थी कि हिमपात में भी ओढकर बैठ जाएं। और उसे इसका कोई प्रत्यक्ष अनुभव नहीं था हालांकि वह उनका निर्माता था, सर्जक था और विशेषज्ञ समझा जाता था। इसका कारण संभवत: यही था कि सेठजी हमेशा-हमेशा कहते रहते थे कि रजाई बिल्कुल गंदी नहीं होनी चाहिए, न ही उन पर निशान पडने चाहिए। उन्हें ड्राइक्लीन करना संभव नहीं था और आखिर हजारों रुपए की होती थीं।
ऐसे ही ठिठुरते हुए उसने करवट बदली। रजाई अपने अप्रतिम सौंदर्य के साथ उसके सामने थी। गलन लगातार बढती जा रही थी। अचानक उसके दिमाग में एक ख्याल आया और वो रोमांच से भर उठा। वो सृजनकर्ता है, निर्माता है, पर अपने सृजन से कितना अनभिज्ञ है। वो चालीस सालों से बना रहा है, पर उसने कभी रजाई ओढकर नहीं देखी। पता नहीं कैसा अहसास होता होगा? लोग उसकी रजाई से कैसा सुख अनुभव करते होंगे?
वो धीरे से उठा और रजाई के पास जाकर बैठ गया। रजाई बहुत ही सुंदर लग रही थी। उसने रजाई को धीरे से सहलाया। मिला एक बहुत ही सुखद व कोमल अहसास.. वह अपना हाथ रजाई के अंदर ले गया। नर्मी मरहम सी छा गई हाथ पर। उसका दिल जोर-जोर से धडकने लगा। उसने चारों ओर देखा.. कोई नहीं था, खिडकी पर लगा परदा गिरा हुआ था।
अचानक ठंड बहुत बढ गई। वह पुन: अपने बिस्तर पर चला गया और कंबलों को पूरी तरह ओढकर पड गया। रजाई ओढने की हिम्मत वह जुटा नहीं पाया। बस पडे-पडे उसे देखता रहा। रजाई का सौंदर्य चांदनी सा छिटका हुआ था। कशीदाकारी और रंग के समावेश ने मानो उसके सौंदर्य में चार चांद लगा दिए थे।
सचमुच कितना अच्छा लगता होगा? वह सोचने लगा, लोग उसे चारों ओर से लपेट लेते होंगे। जो लोग इतनी मंहगी रजाई ओढते होंगे, वे नीचे मोटे-मोटे गद्दे भी बिछाते होंगे। फिर उस पर नर्म चादर.. और ऊपर से सुंदर.. सुकोमल रजाई। इन्हीं कल्पनाओं में खोया अनवर न जाने कब सपनों की सुहानी दुनिया में पहुंच गया।
उसे लगा कि वो एक बहुत सुंदर बिस्तर पर सोया है। बहुत सुंदर गद्दा, उस पर बिछी मखमल की चादर.. ऊपर उसने अपनी रजाई ओढ रखी है, बिल्कुल ऐसी जैसी.. किसी ने उसके चारों ओर छोटे-छोटे पंख लपेट दिए हों। तभी अचानक उसे ठंडापन सा लगा। उसकी नींद खुल गई। उसने देखा, यह सच नहीं था। वो सपना देख रहा था, उसे वास्तव में ठंड लग रही थी। उसने रजाई नहीं सिर्फ फटे कंबल ओढ रखे थे। रजाई तो वैसी ही रखी हुई थी। सुंदर, सुकोमल प्यारी..। उसका गला सूख रहा था। वो धीरे से उठा। चरी से निकाल पानी पिया। लेकिन इस बार वह लौटकर अपने बिस्तर के पास नहीं गया। वो रजाई के पास पहुंचा। वहीं बैठ गया, धीरे-धीरे उसे सहलाता रहा। उसे बहुत अच्छा लग रहा था। पहली बार उसे लगा कि वो उसका जन्मदाता है, निर्माता है, उसे भी पूरा अधिकार है, अपने सृजन के सुखद अहसास को अनुभव करने का।
उसने अब खिडकी की ओर भी नहीं देखा और रजाई में घुस गया। उसे लगा यह पल उसके जीवन का सबसे सुखद पल है, निर्वाण का पल, शांति का पल.. सचमुच वह बहुत ही खुश था.. बहुत ही खुश।
विडंबना
बैंक के एटीएम के पास तीन रिक्शेवाले सवारी की प्रतीक्षा में सडक के किनारे अपने-अपने रिक्शे पर बैठे थे। एक कार आकर रुकी उसमें से एक सम्भ्रांत सा आदमी उतरा और एटीएम की ओर बढा। रिक्शेवालों के बगल में ही नाले के किनारे पांच सौ के दो नोट गिरे पडे थे। कार वाले ने देखा उसने चुपके से उठा लिया और एटीएम की ओर बढ गया। एक रिक्शेवाले ने देखा तो उसने दूसरे रिक्शेवाले को दिखाते हुए कहा-वो देखो ऊपर वाला भी उसे ही देता है जिसके पास कुछ है।
औचक निरीक्षण
विद्यालय में ठीक से पढाई न होने और अध्यापकों द्वारा ट्यूशन-कोचिंग के लिए मजबूर किए जाने की अभिभावकों की शिकायतों से तंग आकर उच्चाधिकारियों ने औचक निरीक्षण की योजना बनायी।
उस दिन विद्यालय में सब कुछ बदला-बदला सा लग रहा था। प्रधानाचार्य अपने कक्ष से विद्यालय के अनुशासन का जायजा ले रहे थे, सभी कक्षाएं सुचारुरूप से चल रही थीं, अलबत्ता छात्रों की संख्या अवश्य बहुत कम थी। विद्यालय पहुंचते ही निरीक्षक दल का पूरे उत्साह से स्वागत किया गया। भेंट-पूजा [उपहार आदि] के साथ ही अच्छी पेट पूजा भी करायी गयी। निरीक्षण आख्या में विद्यालय के अनुशासन और शिक्षण की सराहना करते हुए यहां तक लिख दिया गया कि यहां का अनुसरण करके दूसरे विद्यालय भी आदर्श स्थापित करें। अभिभावकों को अब अपनी भूल का अहसास हो रहा था, अब वे भली प्रकार जान चुके थे कि विद्यालय प्रबंधतंत्र की जडें कितनी गहरी और मजबूत हैं।
सर्दी की रात, चारों ओर पसरा हुआ सन्नाटा। किंतु कुछ ऐसा भी था, जो रुका हुआ नहीं था। वो थी अनवर की चलती हुई उंगलियां। तंग गलियों के एक कोठरीनुमा कमरे में अनवर की गृहस्थी सिमटी हुई थी। शरीर बूढा हो चला था, मगर हाथ अनवरत चल रहे थे।
चालीस साल से उसकी यही दिनचर्या थी। दिन-रात की मेहनत से वो कम वजन वाली खूबसूरत रजाइयां तैयार करता था। सेठजी सुंदर कशीदाकारी से मंडे खोल उसे देते और फिर शुरू होती अनवर की कारीगरी। अनवर के हाथ की बनी रजाइयां देश-विदेश में जाती थी। इस कार्य के लिए कई सरकारी व गैर-सरकारी संस्थाएं, उन्हें पुरस्कृत कर चुकी थीं।
अनवर का कमरा, एक भीड भरे मोहल्ले की तंग गली में स्थित था। कमरे को उसने दो भागों में बांट रखा था। एक ओर उसकी गृहस्थी, खाने-पीने का सामान था, दूसरी ओर रुई, रजाइयां, सुई-धागे आदि पडे रहते थे। उसका सारा कमरा बेतरतीब था। गंदगी और अव्यवस्था एक दूसरे से बढकर थी। खुद अनवर अव्यवस्थित कमरे का प्रतिरूप जान पडता था। पर फिर भी कमरे में कुछ थी जो अद्भुत थी, खूबसूरत थी, एक सुंदर सपने सी प्रतीत होती थी। वो थी, अनवर द्वारा तैयार एक्पोर्ट क्वालिटी रजाई। रेशम व मखमली कपडे की बनी मुलायम रजाई, जो छूते ही पंख सा अहसास देती थी। रजाई की अद्भुत कशीदाकारी उसका सौंदर्य दुगना कर देती थी। अनवर, हालांकि दिन भर ही रजाई पर काम करता था, पर पूरी होने पर उसको अनमोल धरोहर की तरह रखता था। रजाई, उसके लिए महज उत्पाद नहीं थी, अपितु साधना थी, अर्चना थी, समर्पण भाव से वह अपने काम में खोया रहता। रजाई ही उसकी आकार-निराकार प्रतिमा थी, कुरान की आयतें थीं। रजाई उसके लिए भोर का गीत थी, संध्या की राग-रागिनी थी। खुद वो कमरे के दूसरे छोर पर सोता था। एक पुरानी सी गुदडी और दो फटे कंबल। कडकडाती सर्दी में ये कंबल अपर्याप्त थे। मगर वो ये ही सोचकर तसल्ली कर लेता था कि दो महीने की तो बात है, बेकार में खर्चा क्यूं किया जाए।
उस रोज रात धीरे-धीरे गहराती जा रही थी। हवाएं, रह-रहकर उसके रोंगटे खडे कर देती थी। पर वह हमेशा की तरह अपने काम में लगा हुआ था। रजाई, लगभग तैयार होने को ही थी। उसका इरादा था कि वो पूरा काम करके ही सोए। तभी ठंड का एक झोंका तेजी से आया उसे कंपा गया। वह सिहर उठा। पर उंगलियां बराबर चलती रहीं। अंत में, करीब एक घंटे बाद रजाई का काम पूरा हो गया।
अब अनवर का मन शांति से भर उठा था। वह धीरे से उठा और जल्दी से अपने बिस्तर में आकर लेट गया। ठंड बराबर बढती जा रही थी। दोनों कंबल ओढने के बाद भी सरदी में कोई कमी नहीं आ रही थी। चारों ओर लिपटे कंबल जैसे ठंड के मारे पानी-पानी हो रहे थे। कोई बात नहीं, एक तो बज ही गया, चार घंटे बाद सुबह हो जाएगी। मन ही मन वो अपने आपको तसल्ली देने लगा।
बल्ब की पीली रोशनी में जहां पूरा कमरा उदासी से भरा हुआ था, वहीं रजाई की उपस्थिति कमरे की शोभा में चार चांद लगा रही थी। उसकी रजाईयां बहुत ही सुंदर व गर्म रहती थी। सुंदर के बारे में तो उसे पता था, लेकिन गरम रहती थी, ऐसा सिर्फ उसने लोगों से सुना था। लोग कहते थे कि अनवर के हाथों की बनी रजाई तो बिल्कुल ऐसी थी कि हिमपात में भी ओढकर बैठ जाएं। और उसे इसका कोई प्रत्यक्ष अनुभव नहीं था हालांकि वह उनका निर्माता था, सर्जक था और विशेषज्ञ समझा जाता था। इसका कारण संभवत: यही था कि सेठजी हमेशा-हमेशा कहते रहते थे कि रजाई बिल्कुल गंदी नहीं होनी चाहिए, न ही उन पर निशान पडने चाहिए। उन्हें ड्राइक्लीन करना संभव नहीं था और आखिर हजारों रुपए की होती थीं।
ऐसे ही ठिठुरते हुए उसने करवट बदली। रजाई अपने अप्रतिम सौंदर्य के साथ उसके सामने थी। गलन लगातार बढती जा रही थी। अचानक उसके दिमाग में एक ख्याल आया और वो रोमांच से भर उठा। वो सृजनकर्ता है, निर्माता है, पर अपने सृजन से कितना अनभिज्ञ है। वो चालीस सालों से बना रहा है, पर उसने कभी रजाई ओढकर नहीं देखी। पता नहीं कैसा अहसास होता होगा? लोग उसकी रजाई से कैसा सुख अनुभव करते होंगे?
वो धीरे से उठा और रजाई के पास जाकर बैठ गया। रजाई बहुत ही सुंदर लग रही थी। उसने रजाई को धीरे से सहलाया। मिला एक बहुत ही सुखद व कोमल अहसास.. वह अपना हाथ रजाई के अंदर ले गया। नर्मी मरहम सी छा गई हाथ पर। उसका दिल जोर-जोर से धडकने लगा। उसने चारों ओर देखा.. कोई नहीं था, खिडकी पर लगा परदा गिरा हुआ था।
अचानक ठंड बहुत बढ गई। वह पुन: अपने बिस्तर पर चला गया और कंबलों को पूरी तरह ओढकर पड गया। रजाई ओढने की हिम्मत वह जुटा नहीं पाया। बस पडे-पडे उसे देखता रहा। रजाई का सौंदर्य चांदनी सा छिटका हुआ था। कशीदाकारी और रंग के समावेश ने मानो उसके सौंदर्य में चार चांद लगा दिए थे।
सचमुच कितना अच्छा लगता होगा? वह सोचने लगा, लोग उसे चारों ओर से लपेट लेते होंगे। जो लोग इतनी मंहगी रजाई ओढते होंगे, वे नीचे मोटे-मोटे गद्दे भी बिछाते होंगे। फिर उस पर नर्म चादर.. और ऊपर से सुंदर.. सुकोमल रजाई। इन्हीं कल्पनाओं में खोया अनवर न जाने कब सपनों की सुहानी दुनिया में पहुंच गया।
उसे लगा कि वो एक बहुत सुंदर बिस्तर पर सोया है। बहुत सुंदर गद्दा, उस पर बिछी मखमल की चादर.. ऊपर उसने अपनी रजाई ओढ रखी है, बिल्कुल ऐसी जैसी.. किसी ने उसके चारों ओर छोटे-छोटे पंख लपेट दिए हों। तभी अचानक उसे ठंडापन सा लगा। उसकी नींद खुल गई। उसने देखा, यह सच नहीं था। वो सपना देख रहा था, उसे वास्तव में ठंड लग रही थी। उसने रजाई नहीं सिर्फ फटे कंबल ओढ रखे थे। रजाई तो वैसी ही रखी हुई थी। सुंदर, सुकोमल प्यारी..। उसका गला सूख रहा था। वो धीरे से उठा। चरी से निकाल पानी पिया। लेकिन इस बार वह लौटकर अपने बिस्तर के पास नहीं गया। वो रजाई के पास पहुंचा। वहीं बैठ गया, धीरे-धीरे उसे सहलाता रहा। उसे बहुत अच्छा लग रहा था। पहली बार उसे लगा कि वो उसका जन्मदाता है, निर्माता है, उसे भी पूरा अधिकार है, अपने सृजन के सुखद अहसास को अनुभव करने का।
उसने अब खिडकी की ओर भी नहीं देखा और रजाई में घुस गया। उसे लगा यह पल उसके जीवन का सबसे सुखद पल है, निर्वाण का पल, शांति का पल.. सचमुच वह बहुत ही खुश था.. बहुत ही खुश।
विडंबना
बैंक के एटीएम के पास तीन रिक्शेवाले सवारी की प्रतीक्षा में सडक के किनारे अपने-अपने रिक्शे पर बैठे थे। एक कार आकर रुकी उसमें से एक सम्भ्रांत सा आदमी उतरा और एटीएम की ओर बढा। रिक्शेवालों के बगल में ही नाले के किनारे पांच सौ के दो नोट गिरे पडे थे। कार वाले ने देखा उसने चुपके से उठा लिया और एटीएम की ओर बढ गया। एक रिक्शेवाले ने देखा तो उसने दूसरे रिक्शेवाले को दिखाते हुए कहा-वो देखो ऊपर वाला भी उसे ही देता है जिसके पास कुछ है।
औचक निरीक्षण
विद्यालय में ठीक से पढाई न होने और अध्यापकों द्वारा ट्यूशन-कोचिंग के लिए मजबूर किए जाने की अभिभावकों की शिकायतों से तंग आकर उच्चाधिकारियों ने औचक निरीक्षण की योजना बनायी।
उस दिन विद्यालय में सब कुछ बदला-बदला सा लग रहा था। प्रधानाचार्य अपने कक्ष से विद्यालय के अनुशासन का जायजा ले रहे थे, सभी कक्षाएं सुचारुरूप से चल रही थीं, अलबत्ता छात्रों की संख्या अवश्य बहुत कम थी। विद्यालय पहुंचते ही निरीक्षक दल का पूरे उत्साह से स्वागत किया गया। भेंट-पूजा [उपहार आदि] के साथ ही अच्छी पेट पूजा भी करायी गयी। निरीक्षण आख्या में विद्यालय के अनुशासन और शिक्षण की सराहना करते हुए यहां तक लिख दिया गया कि यहां का अनुसरण करके दूसरे विद्यालय भी आदर्श स्थापित करें। अभिभावकों को अब अपनी भूल का अहसास हो रहा था, अब वे भली प्रकार जान चुके थे कि विद्यालय प्रबंधतंत्र की जडें कितनी गहरी और मजबूत हैं।
सोमवार, 24 मई 2010
नन्ही दुनिया
छोटी चुहिया
एक शहर में एक छोटा-सा परिवार रहता था। इस परिवार में एक छोटी चुहिया भी थी। दिन बीतते गए और देखते ही देखते यह छोटी चुहिया सयानी हो गई। इतनी बड़ी कि उसके माता-पिता को उसके ब्याह की चिंता हुई।
चुहिया का कहना था कि वह अनपढ़ नहीं पढ़ी-लिखी है और इसलिए दुनिया के सर्वश्रेष्ठ वर से ब्याह रचाएगी। माता-पिता के सिर पर अच्छा वर ढूँढने की जिम्मेदारी आन पड़ी। वे दोनों दिनभर सोचने लगे। सर्वश्रेष्ठ वर की तलाश में अखबारों और कम्प्यूटर पर मेट्रीमोनियल विज्ञापन देखने लगे। उन्होंने अखबार में- रंग गोरा, कद ५ फुट ७ इंच, सॉफ्टवेअर इंजीनियर के सैकड़ों विज्ञापन देखे, पर उन्हें कोई भी जँचा नहीं।
फिर एक दिन उन्हें खयाल आया कि सूरज पूरी दुनिया में रोशनी करता है तो उससे अच्छा वर कहाँ मिलेगा। माँ चुहिया ने पिता चूहे से कहा कि और सूरज तो प्रकाश बाँटते हुए जात-पाँत के चक्कर में भी नहीं पड़ता है इसलिए उससे योग्य वर और कोई हो ही नहीं सकता।
चुहिया के माता-पिता सूरज के पास जा पहुँचे। उन्होंने सूरज से कहा कि हमारी बेटी सयानी हो गई है और हम उसके लिए दुनिया का सबसे योग्य वर आपको ही मानते हैं। सूरज ने कहा- यह आपका बड़प्पन है पर मैं दुनिया का सबसे योग्य वर नहीं हूँ, क्योंकि मुझसे ज्यादा योग्य तो बादल हैं। वैसे भी जब बादल मुझ पर छा जाते हैं तो मैं उजाला तक नहीं कर पाता हूँ। बेहतर होगा आप अपनी बेटी के लिए बादल से बात करें।
चुहिया के माता-पिता यह सुनकर बादल के पास गए। बादल ने उन दोनों का स्वागत किया। चुहिया की माँ बोली- हमने सूरज से सुना है कि आप सर्वयोग्य वर हैं। हम अपनी बेटी के लिए ऐसे ही वर की तलाश कर रहे हैं। कृपा करके हमारी बेटी को अपनी अर्द्धांगिनी बना लीजिए। यह सुनकर बादल बोला - माफ कीजिए पर मुझसे श्रेष्ठ तो पवन है, जो मुझे उड़ाकर एक जगह से दूसरी जगह ले जाता है।
चुहिया के परेशान माता-पिता पवन के पास पहुँचे। पवन - आप मुझे अपनी बेटी के योग्य समझते हैं यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है, पर मुझसे भी श्रेष्ठ कोई है। चुहिया के माता-पिता-कौन? पहाड़। जब मैं एक जगह से दूसरी जगह जाता हूँ तो पहाड़ मुझे रोक लेते हैं। इसलिए सबसे योग्य तो पहाड़ है। आप चाहें पहाड़ से अपनी बेटी का रिश्ता कर सकते हैं।
चुहिया के माता-पिता पहाड़ के पास पहुँचे। उन्होंने पहाड़ से कहा - आप हमारी बिटिया के लिए सबसे योग्य वर हैं। आप हमारी बेटी को अपना जीवनसाथी बना लीजिए। पहाड़ ने बड़े ही धैर्य से जवाब दिया - माननीय आप दोनों के सम्मान का मैं आभारी हूँ, पर मैं सबसे योग्य वर नहीं हूँ। मेरे लंबे-चौड़े शरीर में छोटे-से चूहे छेद कर सकते हैं इसलिए मुझसे योग्य वर तो चूहों में ही आपको मिल सकेगा।
इसके बाद चुहिया के माता-पिता खुश होकर लौट आए। रास्ते में वे एक-दूसरे से बात करते रहे कि हमें पता ही नहीं था कि सबसे योग्य वर इतनी आसानी से अपने आसपास ही मिल जाएगा। कुछ दिनों बाद उन्होंने एक योग्य चूहा तलाश किया और उससे अपनी बेटी का ब्याह कर दिया। ब्याह में पूरे शहर के चूहों को बुलाया गया और सबने खूब छककर भोजन किया। माता-पिता बहुत खुश थे कि उनकी बेटी का विवाह सबसे योग्य वर के साथ हो रहा है।
(यह एक जापानी लोककथा है।)
विवेकानंद की श्रीरामकृष्ण से पहली भेंट
दक्षिणेश्वर में हुई श्रीरामकृष्ण तथा नरेंद्र के बीच पहली भेंट अत्यंत महत्वपूर्ण थी। श्रीरामकृष्ण ने क्षणभर में ही अपने भावी संदेशवाहक को पहचान लिया। नरेंद्रनाथ अपने साथ दक्षिणेश्वर को आए अन्य नवयुवकों से बिल्कुल भिन्न थे।
उनका अपने कपड़ों तथा बाह्य सज्जा की ओर जरा भी ध्यान न था। उनकी आँखें प्रभावशाली तथा अंशत: अंतर्मुखी थीं, जो उनके ध्यानतन्मयता की द्योतक थीं। उन्होंने पहले के समान ही अपने हृदय की पूर्ण भावुकता के साथ कुछ भजन गाए।
उनके पहले भजन का भावार्थ निम्नलिखित था -
मन! चल घर लौट चलें!
इस संसार रूपी विदेश में
विदेशी का वेश धारण किये
तू वृथा क्यों भटक रहा है?
सौंदर्य, रूप, रस, गंध, स्पर्श - इंद्रियों के ये पाँच विषय
तथा आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी ये पंचभूत
इनमें से कोई भी तेरा अपना नहीं, सभी पराये हैं।
तू क्यों व्यर्थ ही पराये प्रेम में पड़कर
अपने प्रियतम को भूला जा रहा है?
रे मन! तू सदा सत्य के पथ पर बढ़े जाना,
प्रेम का दीप जलाकर अपना पथ आलोकित कर लेना,
साथ में सम्बल के रूप में
भक्ति रूपी धन को खूब सहेजकर ले जाना!
राह में लोभ मोह आदि डाकू बसते हैं,
जो मौका पाकर पथिकों का सर्वस्व लूट लेते हैं,
इसलिए तू अपने साथ
शम और दम रूपी दो पहरेदारभी लेते जाना।
मार्ग में साधुसंग रूपी धर्मशाला पड़ती है,
थक जाने पर उसमें विश्राम कर लेना,
यदि तू कहीं पथ भूल जाए,
तो इस आश्रम के निवासी तेरा मार्गदर्शन करेंगे।
पथ में यदि कहीं कोई भय का कारण दिख पड़े
तो पूरे हृदय से राजा की दुहाई देना
क्योंकि उस पथ पर राजा का बड़ा दबदबा है,
यहाँ तक कि यम भी उनसे भय खाते हैं।
गाना समाप्त हो जाने पर श्रीरामकृष्ण ने सहसा नरेंद्र का हाथ पकड़ लिया और उन्हें उत्तरी बरामदे में ले गए। उनके गालों से होकर आँसुओं की धार बहती देखकर नरेंद्र के विस्मय की सीमा न रही। श्रीरामकृष्ण कहने लगे - 'अहा! तू इतने दिनों बाद आया! तू बड़ा निर्मम है, इसलिए तो इतनी प्रतीक्षा करवाई।
विषयी लोगों की व्यर्थ बकवास सुनते-सुनते मेरे कान झुलस गए हैं। दिल की बातें किसी को न कह पाने के कारण कितने दिनों से मेरा पेट फूल रहा है! फिर हाथ जोड़ते हुए बोले - 'मैं जानता हूँ प्रभु, आप ही वे पुरातन ऋषि, नररूपी नारायण हैं, जीवों की दुर्गति नाश करने को आपने पुन: शरीर धारण किया है।' बुद्धिवानी नरेन ने इन वाक्यों को एक उन्मादी का बकवास समझा। फिर श्रीरामकृष्ण ने अपने कमरे से कुछ मिठाइयाँ लाकर उन्हें अपने हाथों से खिलाने पर वे और भी विस्मित हुए। परंतु ठाकुर ने उनसे पुन: दक्षिणेश्वर आने का वचन लेकर ही छोड़ा।
पुन: कमरे में लौटने के बाद नरेन ने उनसे पूछा - 'महाराज, क्या आपने ईश्वर को देखा है?' द्विधाहीन उत्तर मिला - 'हाँ, मैंने ईश्वर का दर्शन किया है। तुम लोगों को जैसे देख रहा हूँ, ठीक वैसे ही बल्कि और भी स्पष्ट रूप से।
ईश्वर को देखा जा सकता है, उनसे बातें की जा सकती हैं, परंतु उन्हें चाहता ही कौन है? लोग पत्नी-बच्चों के लिए, धन-दौलत के लिए घड़ों आँसू बहाते हैं, परंतु ईश्वर के दर्शन नहीं हुए इस कारण कौन रोता है? यदि कोई उन्हें हृदय से पुकारे तो वे अवश्य ही दर्शन देंगे।'
नरेंद्र तो अवाक् रह गए। वे जीवन में प्रथम बार एक ऐसे व्यक्ति के सम्मुखीन हुए थे जो ईश्वरानुभूति का दावा कर सकते थे। वस्तुत: वे जीवन में प्रथम बार सुन रहे थे कि ईश्वर का दर्शन संभव है। उन्हें ऐसा लगा कि श्रीरामकृष्ण अपनी आंतरिक अनुभूतियों की गहराई से बोल रहे हैं।
उनकी बातों पर अविश्वास नहीं किया जा सकता। तथापि इन बातों के साथ अभी थोड़ी ही देर पूर्व देखे हुए उनके विचित्र व्यवहार का सामंजस्य न कर सके। फिर दूसरों के सामने श्रीरामकृष्ण का सामान्य व्यवहार भी नरेंद्र के लिए एक बड़ी पहेली थी।
उस दिन वह युवक किंकतर्व्यविमूढ़ होकर घर लौटा, तथापि उसके अंतर में शांति विराज रही थी।
श्रीरामकृष्ण के पास द्वितीय बार आने पर नरेंद्र को और भी विचित्र अनुभव हुए। उनके आगमन के दो-चार मिनट बाद ही वे उनकी ओर बढ़ने लगे तथा अस्पष्ट स्वर में कुछ कहते हुए उनकी ओर देखने लगे, फिर सहसा अपना दाहिना पैर उनके शरीर पर रख दिया। इस स्पर्श के साथ ही नरेंद्र ने खुली आँखों से देखा कि कमरे की दीवारें, मंदिर का उद्यान और यहाँ तक कि पूरा विश्व ब्रह्मांड ही घूमते हुए कहीं विलीन होने लगा। उनका अपना 'अहं' भाव भी शून्य में लय होने लगा। उन्हें ऐसा प्रतीत होने लगा कि मृत्यु आसन्न है। आतंकित होकर वे चिल्ला उठे - 'अजी, आपने मेरा यह क्या कर दिया? घर में माँ-बाप, भाई-बहन जो हैं!' श्रीरामकृष्ण इस पर खिलखिलाकर हँस पड़े और नरेन का सीना स्पर्श कर उनका मन सामान्य भूमि पर लाते हुए बोले - 'अच्छा, तो अभी रहने दे। समय आने पर सब होगा।'
नरेन बिल्कुल ही परेशान होकर सोचने लगे कि हो न हो इन्होंने अवश्य ही मेरे ऊपर सम्मोहन विद्या का प्रयोग किया है। परंतु ऐसा भला संभव ही कैसे हो सकता है! क्योंकि नरेन को अपनी प्रबल इच्छाशक्ति का बड़ा अभिमान था। उन्हें स्वयं पर ग्लानि भी हुई कि मैं एक ऐसे उन्मादी व्यक्ति के प्रभाव से अपने को बचा न सका। तथापि वे रामकृष्ण के प्रति आंतरिक आकर्षण का अनुभव करने लगे थे।
तीसरी बार आने पर नरेन ने यथासंभव सावधान रहने का प्रयास किया, परंतु इस बार उनकी हालत काफी कुछ पूर्ववत ही हुई। श्रीरामकृष्ण नरेन को साथ लेकर पड़ोस के एक उद्यान में टहलने चले गए और भाव समाधि की अवस्था में उन्हें स्पर्श किया। नरेन पूर्वरूप से अभिभूत होकर बाह्यचेतना खो बैठे।
इस घटना का उल्लेख करते हुए बाद में श्रीरामकृष्ण ने बताया था कि उस दिन नरेन को अचेतन अवस्था में ले जाकर मैंने उसके पूर्व जीवन के बारे में अनेक बातें, जगत में आने का उसका उद्देश्य तथा जगत में उसके निवास की अवधि आदि पूछ लिया था। नरेन के उत्तर से उनके पूर्व के विचारों की ही पुष्टि हुई थी। श्रीरामकृष्ण ने अपने दूसरे शिष्यों को बताया था कि नरेन अपने जन्म के पहले से ही पूर्णता की उपलब्धि कर चुका है, वह ध्यानसिद्ध है ;
और जिस दिन उसे अपने वास्तविक स्वरूप का बोध हो जाएगा, उस दिन वह योगमार्ग से स्वेच्छापूर्वक देह त्याग देगा। बहुधा वे कहते कि नरेन ब्रह्मलोक के निवासी सप्तऋषियों में अन्यतम है।
एक दिन जब श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न हुए तो उनका मन ऊपर ही ऊपर उठता चला गया। चंद्र, सूर्य एवं नक्षत्रखचित इस स्थूल जगत को पार करता हुआ वह क्रमश: विचारों के सूक्ष्म जगत में प्रविष्ट हुआ। धीरे-धीरे देवी देवताओं की भावघन मूर्तियाँ भी पीछे छूटती गईं। फिर उनके मन ने नामरूपात्मक ब्रह्माण्ड की सीमा पारकर, अंतत: अखंड के राज्य में प्रवेश किया।
श्रीरामकृष्ण ने देखा वहाँ सात दिव्य ऋषि बैठे गहन ध्यान में डूबे हुए हैं। ये ऋषि ज्ञान और पवित्रता में देवी-देवताओं से भी आगे पहुँचे हुए प्रतीत हो रहे थे। श्रीरामकृष्ण का मन उनकी इस अपूर्व आध्यात्मिकता पर विस्मित ही हो रहा था कि उन्होंने देखा कि उस समरस अखंड का एक अंश मानो घनीभूत होकर एक देवशिशु के रूप में परिणत हो गया। वह बालक अतीव मृदुतापूर्वक एक ऋषि के गले में बाँहें डालकर उनके कान में कुछ कहने लगा। उसके जादू भरे स्पर्श से ऋषि का ध्यान भंग हुआ।
उन्होंने अपने अर्धनिमीलित नेत्रों से शिशु की ओर देखा। शिशु ने अतीव प्रफुल्लतापूर्वक कहा, 'मैं पृथ्वी पर जा रहा हूँ, तुम भी आओगे न?' ऋषि ने भी स्नेहपूर्ण दृष्टि से अपनी स्वीकृति प्रदान की तथा पुन: अनपे गहन ध्यान में डूब गए।
श्रीरामकृष्ण ने विस्मयपूर्वक देखा कि उन्हीं ऋषि का एक सूक्ष्म अंश आलोक के रूप में पृथ्वी पर उतरा तथा कलकत्ते के दत्त भवन में प्रविष्ट हुआ। जब श्रीरामकृष्ण ने पहली बार नरेन को देखा तो उन्हें उन्हीं ऋषि के अवतार के रूप में पहचान लिया। फिर उन्होंने यह भी बताया कि उन ऋषि को इस धराधाम पर उतार लाने वाले देवशिशु वे खुद ही थे। नरेंद्रनाथ का श्रीरामकृष्ण से मिलन दोनों के ही जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना थी।
एक बंदर पुलिस के अंदर
कानून के पालन के लिए थाईलैंड में पुलिस को एक बंदर की मदद लेना ठीक लगा। सान्तीसुक नाम का यह बंदर पुलिस के जवानों को जख्मी हालत में मिला था। उसका हाथ टूटा था। इस बंदर को पुलिस के जवानों ने उपचार दिया और नारियल चुनना सिखाया। जल्दी ही बंदर ट्रेंड हो गया। अब वह चेकपोस्ट पर पुलिस के साथ चेकिंग का काम करता है और इसके बदले तनख्वाह के रूप में दूध की बोतल पाता है।
पुलिस अधिकारी का कहना है कि दूसरे चेकपोस्ट पर लोग पुलिस के जवानों के साथ बदतमीजी कर जाते हैं, पर जिस चेकपोस्ट पर सान्तीसुक रहता है वहाँ लोग खुद ठहरकर चेकिंग करवाते हैं और इस बंदर-अधिकारी के साथ फोटो खिंचवाते हैं। थाई में सान्तीसुक का मतलब होता है शांति और यह बंदर शांति स्थापित करने में मदद ही तो कर रहा है। पुलिस भी उसके साथ काम करके खुश है। श्वान के साथ अब बंदर भी पुलिस की मदद करने लगे। क्या पता भविष्य में और भी जानवर पुलिस के काम आए।
मैंने तो पहले ही कहा था...
हाथी। मुझे हाथी अच्छे लगते हैं।
हाथी। मुझे हाथी अच्छे लगते हैं।
मुझे अच्छा लगता है जब वे पेड़ों पर झूलते हैं...
नहीं, हाथी पेड़ों पर नहीं झूलते... वो तो शायद बंदर हैं!
बंदर। मुझे बंदर अच्छे लगते हैं।
मुझे अच्छा लगता है जब वे समुद्र में तैरते हैं।
क्या? उसे मछली कहते हैं?
मछली। तब मुझे मछली अच्छी लगती है।
मछली, हाँ मुझे मछली ही अच्छी लगती है।
मुझे अच्छा लगता है मक्खियों के पीछे उनका दौड़ना,
पेड़ों को सूँघते रहना और डाकिए पर भौंकना।
क्या कहा, ऐसा कुत्ते करते हैं?
सुनो, तब मुझे कुत्ते अच्छे लगते हैं।
वे जो दिनभर खिड़की पर बैठकर चूहे पकड़ते हैं
क्या कहा, उसे बिल्ली कहते हैं?
बिल्ली, तब मुझे बिल्ली अच्छी लगती है।
मुझे अच्छा लगता है जब वो कुक-डू-कू गाती है
मैं गलत हूँ? ऐसा मुर्गे गाते हैं?
मुर्गे, तब मुझे मुर्गे ही अच्छे लगते हैं।
मुझे अच्छा लगता है कि वे कैसे शहद के लिए
बिना डर के मधुमक्खी के छत्ते तक पहुँच जाते हैं
मुझे लगता है यह तो भालू करते हैं...
तब भालू, मुझे भालू अच्छे लगते हैं।
मैं देखती हूँ उन्हें कि कैसे वे कूद-कूदकर मक्खी पकड़ते हैं
और छोटे से डबरे के किनारे टर्र-टर्र करते हैं
अरे, उसे मेंढक कहते हैं?
तब मेंढक, मेंढक अच्छे लगते हैं।
वो, जो बिस्किट या दूसरी चीजों को लेकर
अपने बिल में छुप जाते हैं।
अरे, ऐसा चूहे करते हैं?
चूहे, मुझे तब चूहे ही अच्छे लगते हैं।
मुझे अच्छा लगता है जब वे हौंची-हौंची चिल्लाते हैं।
क्या, ऐसा तो गधे करते हैं?
गधे, तब तो मुझे गधे ही अच्छे लगते हैं।
मुझे अच्छा लगता है जब वे अपनी सूँड उठाए
जंगल में इधर-उधर घूमते रहते हैं।
क्या, उसे हाथी कहते हैं?
वही तो, वही तो मैं कहना चाहती हूँ कि
मुझे हाथी, हाथी ही अच्छे लगते हैं।
मैंने तो पहले ही कहा था
कि मुझे हाथी ही अच्छे लगते हैं
एक शहर में एक छोटा-सा परिवार रहता था। इस परिवार में एक छोटी चुहिया भी थी। दिन बीतते गए और देखते ही देखते यह छोटी चुहिया सयानी हो गई। इतनी बड़ी कि उसके माता-पिता को उसके ब्याह की चिंता हुई।
चुहिया का कहना था कि वह अनपढ़ नहीं पढ़ी-लिखी है और इसलिए दुनिया के सर्वश्रेष्ठ वर से ब्याह रचाएगी। माता-पिता के सिर पर अच्छा वर ढूँढने की जिम्मेदारी आन पड़ी। वे दोनों दिनभर सोचने लगे। सर्वश्रेष्ठ वर की तलाश में अखबारों और कम्प्यूटर पर मेट्रीमोनियल विज्ञापन देखने लगे। उन्होंने अखबार में- रंग गोरा, कद ५ फुट ७ इंच, सॉफ्टवेअर इंजीनियर के सैकड़ों विज्ञापन देखे, पर उन्हें कोई भी जँचा नहीं।
फिर एक दिन उन्हें खयाल आया कि सूरज पूरी दुनिया में रोशनी करता है तो उससे अच्छा वर कहाँ मिलेगा। माँ चुहिया ने पिता चूहे से कहा कि और सूरज तो प्रकाश बाँटते हुए जात-पाँत के चक्कर में भी नहीं पड़ता है इसलिए उससे योग्य वर और कोई हो ही नहीं सकता।
चुहिया के माता-पिता सूरज के पास जा पहुँचे। उन्होंने सूरज से कहा कि हमारी बेटी सयानी हो गई है और हम उसके लिए दुनिया का सबसे योग्य वर आपको ही मानते हैं। सूरज ने कहा- यह आपका बड़प्पन है पर मैं दुनिया का सबसे योग्य वर नहीं हूँ, क्योंकि मुझसे ज्यादा योग्य तो बादल हैं। वैसे भी जब बादल मुझ पर छा जाते हैं तो मैं उजाला तक नहीं कर पाता हूँ। बेहतर होगा आप अपनी बेटी के लिए बादल से बात करें।
चुहिया के माता-पिता यह सुनकर बादल के पास गए। बादल ने उन दोनों का स्वागत किया। चुहिया की माँ बोली- हमने सूरज से सुना है कि आप सर्वयोग्य वर हैं। हम अपनी बेटी के लिए ऐसे ही वर की तलाश कर रहे हैं। कृपा करके हमारी बेटी को अपनी अर्द्धांगिनी बना लीजिए। यह सुनकर बादल बोला - माफ कीजिए पर मुझसे श्रेष्ठ तो पवन है, जो मुझे उड़ाकर एक जगह से दूसरी जगह ले जाता है।
चुहिया के परेशान माता-पिता पवन के पास पहुँचे। पवन - आप मुझे अपनी बेटी के योग्य समझते हैं यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है, पर मुझसे भी श्रेष्ठ कोई है। चुहिया के माता-पिता-कौन? पहाड़। जब मैं एक जगह से दूसरी जगह जाता हूँ तो पहाड़ मुझे रोक लेते हैं। इसलिए सबसे योग्य तो पहाड़ है। आप चाहें पहाड़ से अपनी बेटी का रिश्ता कर सकते हैं।
चुहिया के माता-पिता पहाड़ के पास पहुँचे। उन्होंने पहाड़ से कहा - आप हमारी बिटिया के लिए सबसे योग्य वर हैं। आप हमारी बेटी को अपना जीवनसाथी बना लीजिए। पहाड़ ने बड़े ही धैर्य से जवाब दिया - माननीय आप दोनों के सम्मान का मैं आभारी हूँ, पर मैं सबसे योग्य वर नहीं हूँ। मेरे लंबे-चौड़े शरीर में छोटे-से चूहे छेद कर सकते हैं इसलिए मुझसे योग्य वर तो चूहों में ही आपको मिल सकेगा।
इसके बाद चुहिया के माता-पिता खुश होकर लौट आए। रास्ते में वे एक-दूसरे से बात करते रहे कि हमें पता ही नहीं था कि सबसे योग्य वर इतनी आसानी से अपने आसपास ही मिल जाएगा। कुछ दिनों बाद उन्होंने एक योग्य चूहा तलाश किया और उससे अपनी बेटी का ब्याह कर दिया। ब्याह में पूरे शहर के चूहों को बुलाया गया और सबने खूब छककर भोजन किया। माता-पिता बहुत खुश थे कि उनकी बेटी का विवाह सबसे योग्य वर के साथ हो रहा है।
(यह एक जापानी लोककथा है।)
विवेकानंद की श्रीरामकृष्ण से पहली भेंट
दक्षिणेश्वर में हुई श्रीरामकृष्ण तथा नरेंद्र के बीच पहली भेंट अत्यंत महत्वपूर्ण थी। श्रीरामकृष्ण ने क्षणभर में ही अपने भावी संदेशवाहक को पहचान लिया। नरेंद्रनाथ अपने साथ दक्षिणेश्वर को आए अन्य नवयुवकों से बिल्कुल भिन्न थे।
उनका अपने कपड़ों तथा बाह्य सज्जा की ओर जरा भी ध्यान न था। उनकी आँखें प्रभावशाली तथा अंशत: अंतर्मुखी थीं, जो उनके ध्यानतन्मयता की द्योतक थीं। उन्होंने पहले के समान ही अपने हृदय की पूर्ण भावुकता के साथ कुछ भजन गाए।
उनके पहले भजन का भावार्थ निम्नलिखित था -
मन! चल घर लौट चलें!
इस संसार रूपी विदेश में
विदेशी का वेश धारण किये
तू वृथा क्यों भटक रहा है?
सौंदर्य, रूप, रस, गंध, स्पर्श - इंद्रियों के ये पाँच विषय
तथा आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी ये पंचभूत
इनमें से कोई भी तेरा अपना नहीं, सभी पराये हैं।
तू क्यों व्यर्थ ही पराये प्रेम में पड़कर
अपने प्रियतम को भूला जा रहा है?
रे मन! तू सदा सत्य के पथ पर बढ़े जाना,
प्रेम का दीप जलाकर अपना पथ आलोकित कर लेना,
साथ में सम्बल के रूप में
भक्ति रूपी धन को खूब सहेजकर ले जाना!
राह में लोभ मोह आदि डाकू बसते हैं,
जो मौका पाकर पथिकों का सर्वस्व लूट लेते हैं,
इसलिए तू अपने साथ
शम और दम रूपी दो पहरेदारभी लेते जाना।
मार्ग में साधुसंग रूपी धर्मशाला पड़ती है,
थक जाने पर उसमें विश्राम कर लेना,
यदि तू कहीं पथ भूल जाए,
तो इस आश्रम के निवासी तेरा मार्गदर्शन करेंगे।
पथ में यदि कहीं कोई भय का कारण दिख पड़े
तो पूरे हृदय से राजा की दुहाई देना
क्योंकि उस पथ पर राजा का बड़ा दबदबा है,
यहाँ तक कि यम भी उनसे भय खाते हैं।
गाना समाप्त हो जाने पर श्रीरामकृष्ण ने सहसा नरेंद्र का हाथ पकड़ लिया और उन्हें उत्तरी बरामदे में ले गए। उनके गालों से होकर आँसुओं की धार बहती देखकर नरेंद्र के विस्मय की सीमा न रही। श्रीरामकृष्ण कहने लगे - 'अहा! तू इतने दिनों बाद आया! तू बड़ा निर्मम है, इसलिए तो इतनी प्रतीक्षा करवाई।
विषयी लोगों की व्यर्थ बकवास सुनते-सुनते मेरे कान झुलस गए हैं। दिल की बातें किसी को न कह पाने के कारण कितने दिनों से मेरा पेट फूल रहा है! फिर हाथ जोड़ते हुए बोले - 'मैं जानता हूँ प्रभु, आप ही वे पुरातन ऋषि, नररूपी नारायण हैं, जीवों की दुर्गति नाश करने को आपने पुन: शरीर धारण किया है।' बुद्धिवानी नरेन ने इन वाक्यों को एक उन्मादी का बकवास समझा। फिर श्रीरामकृष्ण ने अपने कमरे से कुछ मिठाइयाँ लाकर उन्हें अपने हाथों से खिलाने पर वे और भी विस्मित हुए। परंतु ठाकुर ने उनसे पुन: दक्षिणेश्वर आने का वचन लेकर ही छोड़ा।
पुन: कमरे में लौटने के बाद नरेन ने उनसे पूछा - 'महाराज, क्या आपने ईश्वर को देखा है?' द्विधाहीन उत्तर मिला - 'हाँ, मैंने ईश्वर का दर्शन किया है। तुम लोगों को जैसे देख रहा हूँ, ठीक वैसे ही बल्कि और भी स्पष्ट रूप से।
ईश्वर को देखा जा सकता है, उनसे बातें की जा सकती हैं, परंतु उन्हें चाहता ही कौन है? लोग पत्नी-बच्चों के लिए, धन-दौलत के लिए घड़ों आँसू बहाते हैं, परंतु ईश्वर के दर्शन नहीं हुए इस कारण कौन रोता है? यदि कोई उन्हें हृदय से पुकारे तो वे अवश्य ही दर्शन देंगे।'
नरेंद्र तो अवाक् रह गए। वे जीवन में प्रथम बार एक ऐसे व्यक्ति के सम्मुखीन हुए थे जो ईश्वरानुभूति का दावा कर सकते थे। वस्तुत: वे जीवन में प्रथम बार सुन रहे थे कि ईश्वर का दर्शन संभव है। उन्हें ऐसा लगा कि श्रीरामकृष्ण अपनी आंतरिक अनुभूतियों की गहराई से बोल रहे हैं।
उनकी बातों पर अविश्वास नहीं किया जा सकता। तथापि इन बातों के साथ अभी थोड़ी ही देर पूर्व देखे हुए उनके विचित्र व्यवहार का सामंजस्य न कर सके। फिर दूसरों के सामने श्रीरामकृष्ण का सामान्य व्यवहार भी नरेंद्र के लिए एक बड़ी पहेली थी।
उस दिन वह युवक किंकतर्व्यविमूढ़ होकर घर लौटा, तथापि उसके अंतर में शांति विराज रही थी।
श्रीरामकृष्ण के पास द्वितीय बार आने पर नरेंद्र को और भी विचित्र अनुभव हुए। उनके आगमन के दो-चार मिनट बाद ही वे उनकी ओर बढ़ने लगे तथा अस्पष्ट स्वर में कुछ कहते हुए उनकी ओर देखने लगे, फिर सहसा अपना दाहिना पैर उनके शरीर पर रख दिया। इस स्पर्श के साथ ही नरेंद्र ने खुली आँखों से देखा कि कमरे की दीवारें, मंदिर का उद्यान और यहाँ तक कि पूरा विश्व ब्रह्मांड ही घूमते हुए कहीं विलीन होने लगा। उनका अपना 'अहं' भाव भी शून्य में लय होने लगा। उन्हें ऐसा प्रतीत होने लगा कि मृत्यु आसन्न है। आतंकित होकर वे चिल्ला उठे - 'अजी, आपने मेरा यह क्या कर दिया? घर में माँ-बाप, भाई-बहन जो हैं!' श्रीरामकृष्ण इस पर खिलखिलाकर हँस पड़े और नरेन का सीना स्पर्श कर उनका मन सामान्य भूमि पर लाते हुए बोले - 'अच्छा, तो अभी रहने दे। समय आने पर सब होगा।'
नरेन बिल्कुल ही परेशान होकर सोचने लगे कि हो न हो इन्होंने अवश्य ही मेरे ऊपर सम्मोहन विद्या का प्रयोग किया है। परंतु ऐसा भला संभव ही कैसे हो सकता है! क्योंकि नरेन को अपनी प्रबल इच्छाशक्ति का बड़ा अभिमान था। उन्हें स्वयं पर ग्लानि भी हुई कि मैं एक ऐसे उन्मादी व्यक्ति के प्रभाव से अपने को बचा न सका। तथापि वे रामकृष्ण के प्रति आंतरिक आकर्षण का अनुभव करने लगे थे।
तीसरी बार आने पर नरेन ने यथासंभव सावधान रहने का प्रयास किया, परंतु इस बार उनकी हालत काफी कुछ पूर्ववत ही हुई। श्रीरामकृष्ण नरेन को साथ लेकर पड़ोस के एक उद्यान में टहलने चले गए और भाव समाधि की अवस्था में उन्हें स्पर्श किया। नरेन पूर्वरूप से अभिभूत होकर बाह्यचेतना खो बैठे।
इस घटना का उल्लेख करते हुए बाद में श्रीरामकृष्ण ने बताया था कि उस दिन नरेन को अचेतन अवस्था में ले जाकर मैंने उसके पूर्व जीवन के बारे में अनेक बातें, जगत में आने का उसका उद्देश्य तथा जगत में उसके निवास की अवधि आदि पूछ लिया था। नरेन के उत्तर से उनके पूर्व के विचारों की ही पुष्टि हुई थी। श्रीरामकृष्ण ने अपने दूसरे शिष्यों को बताया था कि नरेन अपने जन्म के पहले से ही पूर्णता की उपलब्धि कर चुका है, वह ध्यानसिद्ध है ;
और जिस दिन उसे अपने वास्तविक स्वरूप का बोध हो जाएगा, उस दिन वह योगमार्ग से स्वेच्छापूर्वक देह त्याग देगा। बहुधा वे कहते कि नरेन ब्रह्मलोक के निवासी सप्तऋषियों में अन्यतम है।
एक दिन जब श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न हुए तो उनका मन ऊपर ही ऊपर उठता चला गया। चंद्र, सूर्य एवं नक्षत्रखचित इस स्थूल जगत को पार करता हुआ वह क्रमश: विचारों के सूक्ष्म जगत में प्रविष्ट हुआ। धीरे-धीरे देवी देवताओं की भावघन मूर्तियाँ भी पीछे छूटती गईं। फिर उनके मन ने नामरूपात्मक ब्रह्माण्ड की सीमा पारकर, अंतत: अखंड के राज्य में प्रवेश किया।
श्रीरामकृष्ण ने देखा वहाँ सात दिव्य ऋषि बैठे गहन ध्यान में डूबे हुए हैं। ये ऋषि ज्ञान और पवित्रता में देवी-देवताओं से भी आगे पहुँचे हुए प्रतीत हो रहे थे। श्रीरामकृष्ण का मन उनकी इस अपूर्व आध्यात्मिकता पर विस्मित ही हो रहा था कि उन्होंने देखा कि उस समरस अखंड का एक अंश मानो घनीभूत होकर एक देवशिशु के रूप में परिणत हो गया। वह बालक अतीव मृदुतापूर्वक एक ऋषि के गले में बाँहें डालकर उनके कान में कुछ कहने लगा। उसके जादू भरे स्पर्श से ऋषि का ध्यान भंग हुआ।
उन्होंने अपने अर्धनिमीलित नेत्रों से शिशु की ओर देखा। शिशु ने अतीव प्रफुल्लतापूर्वक कहा, 'मैं पृथ्वी पर जा रहा हूँ, तुम भी आओगे न?' ऋषि ने भी स्नेहपूर्ण दृष्टि से अपनी स्वीकृति प्रदान की तथा पुन: अनपे गहन ध्यान में डूब गए।
श्रीरामकृष्ण ने विस्मयपूर्वक देखा कि उन्हीं ऋषि का एक सूक्ष्म अंश आलोक के रूप में पृथ्वी पर उतरा तथा कलकत्ते के दत्त भवन में प्रविष्ट हुआ। जब श्रीरामकृष्ण ने पहली बार नरेन को देखा तो उन्हें उन्हीं ऋषि के अवतार के रूप में पहचान लिया। फिर उन्होंने यह भी बताया कि उन ऋषि को इस धराधाम पर उतार लाने वाले देवशिशु वे खुद ही थे। नरेंद्रनाथ का श्रीरामकृष्ण से मिलन दोनों के ही जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना थी।
एक बंदर पुलिस के अंदर
कानून के पालन के लिए थाईलैंड में पुलिस को एक बंदर की मदद लेना ठीक लगा। सान्तीसुक नाम का यह बंदर पुलिस के जवानों को जख्मी हालत में मिला था। उसका हाथ टूटा था। इस बंदर को पुलिस के जवानों ने उपचार दिया और नारियल चुनना सिखाया। जल्दी ही बंदर ट्रेंड हो गया। अब वह चेकपोस्ट पर पुलिस के साथ चेकिंग का काम करता है और इसके बदले तनख्वाह के रूप में दूध की बोतल पाता है।
पुलिस अधिकारी का कहना है कि दूसरे चेकपोस्ट पर लोग पुलिस के जवानों के साथ बदतमीजी कर जाते हैं, पर जिस चेकपोस्ट पर सान्तीसुक रहता है वहाँ लोग खुद ठहरकर चेकिंग करवाते हैं और इस बंदर-अधिकारी के साथ फोटो खिंचवाते हैं। थाई में सान्तीसुक का मतलब होता है शांति और यह बंदर शांति स्थापित करने में मदद ही तो कर रहा है। पुलिस भी उसके साथ काम करके खुश है। श्वान के साथ अब बंदर भी पुलिस की मदद करने लगे। क्या पता भविष्य में और भी जानवर पुलिस के काम आए।
मैंने तो पहले ही कहा था...
हाथी। मुझे हाथी अच्छे लगते हैं।
हाथी। मुझे हाथी अच्छे लगते हैं।
मुझे अच्छा लगता है जब वे पेड़ों पर झूलते हैं...
नहीं, हाथी पेड़ों पर नहीं झूलते... वो तो शायद बंदर हैं!
बंदर। मुझे बंदर अच्छे लगते हैं।
मुझे अच्छा लगता है जब वे समुद्र में तैरते हैं।
क्या? उसे मछली कहते हैं?
मछली। तब मुझे मछली अच्छी लगती है।
मछली, हाँ मुझे मछली ही अच्छी लगती है।
मुझे अच्छा लगता है मक्खियों के पीछे उनका दौड़ना,
पेड़ों को सूँघते रहना और डाकिए पर भौंकना।
क्या कहा, ऐसा कुत्ते करते हैं?
सुनो, तब मुझे कुत्ते अच्छे लगते हैं।
वे जो दिनभर खिड़की पर बैठकर चूहे पकड़ते हैं
क्या कहा, उसे बिल्ली कहते हैं?
बिल्ली, तब मुझे बिल्ली अच्छी लगती है।
मुझे अच्छा लगता है जब वो कुक-डू-कू गाती है
मैं गलत हूँ? ऐसा मुर्गे गाते हैं?
मुर्गे, तब मुझे मुर्गे ही अच्छे लगते हैं।
मुझे अच्छा लगता है कि वे कैसे शहद के लिए
बिना डर के मधुमक्खी के छत्ते तक पहुँच जाते हैं
मुझे लगता है यह तो भालू करते हैं...
तब भालू, मुझे भालू अच्छे लगते हैं।
मैं देखती हूँ उन्हें कि कैसे वे कूद-कूदकर मक्खी पकड़ते हैं
और छोटे से डबरे के किनारे टर्र-टर्र करते हैं
अरे, उसे मेंढक कहते हैं?
तब मेंढक, मेंढक अच्छे लगते हैं।
वो, जो बिस्किट या दूसरी चीजों को लेकर
अपने बिल में छुप जाते हैं।
अरे, ऐसा चूहे करते हैं?
चूहे, मुझे तब चूहे ही अच्छे लगते हैं।
मुझे अच्छा लगता है जब वे हौंची-हौंची चिल्लाते हैं।
क्या, ऐसा तो गधे करते हैं?
गधे, तब तो मुझे गधे ही अच्छे लगते हैं।
मुझे अच्छा लगता है जब वे अपनी सूँड उठाए
जंगल में इधर-उधर घूमते रहते हैं।
क्या, उसे हाथी कहते हैं?
वही तो, वही तो मैं कहना चाहती हूँ कि
मुझे हाथी, हाथी ही अच्छे लगते हैं।
मैंने तो पहले ही कहा था
कि मुझे हाथी ही अच्छे लगते हैं
स्वास्थ्य-सौन्दर्य
चमकती रहें जुल्फों में बिजलियाँ
स्वास्थ्य के गड़बड़ होने का असर अक्सर आपकी केशराशि पर भी पड़ता है। कभी गौर से देखिए तो मालूम पड़ेगा कि आपके बाल भी बीमार पड़ते हैं और इसका सीधा संबंध आपकी हेल्थ से भी हो सकता है। ठीक उसी तरह जैसे आपकी स्किन पर उगते मुँहासों के लिए पेट की गड़बड़ या अनियमित खान-पान जिम्मेदार होता है।
वैसे ही बाल भी आपके स्वस्थ होने-न होने को जाहिर कर देते हैं। ऐसी स्थिति में आपके पास स्वास्थ्य को सुधारने का रास्ता और तरकीबें होती हैं। आप बीमारी की जड़ तक पहुँचकर स्वास्थ्य लाभ लेते हैं और बालों की सेहत भी सुधार सकते हैं। लेकिन अगर स्वस्थ रहते हुए भी आपके बाल बीमार हो रहे हों तो?
जी हाँ, रूखे, दोमुँहे और सफेद होते या तेजी से झड़ते बालों की परेशानी आजकल स्वस्थ लोगों को भी सताने लगी है। इसके दो प्रमुख कारण हैं, प्रदूषण और बालों की उचित देखभाल का न होना। इन दोनों ही सूरतों में आपकी सुंदर, घनी केशराशि बेजान हो सकती है। इसके अलावा बालों को नुकसान पहुँचाने वाले और भी तरीके हैं। जैसे-
गीले बालों में कंघी करना या तेजी से बालों को झटका देते हुए पोंछने से भी बालों को नुकसान पहुँचता है। रगड़-रगड़कर कंघी करने से तो बाल खराब होते ही हैं। इससे बाल तेजी से खिंचकर टूट जाते हैं तथा उनकी जड़ों को भी नुकसान पहुँचता है।
बालों को दिनभर में केवल 8-9 स्ट्रोक्स (मतलब कुल 8-9 बार सर में कंघा फिराने) की जरूरत होती है। इतनी ही बार में बालों की जड़ों में स्थित प्राकृतिक तेल पूरे बालों में फैल सकता है। इससे ज्यादा बार कंघी करने से भी बालों को नुकसान पहुँचता है।
स्वास्थ्य के गड़बड़ होने का असर अक्सर आपकी केशराशि पर भी पड़ता है। कभी गौर से देखिए तो मालूम पड़ेगा कि आपके बाल भी बीमार पड़ते हैं और इसका सीधा संबंध आपकी हेल्थ से भी हो सकता है। ठीक उसी तरह जैसे आपकी स्किन पर उगते मुँहासों के लिए पेट की गड़बड़ या अनियमित खान-पान जिम्मेदार होता है।
वैसे ही बाल भी आपके स्वस्थ होने-न होने को जाहिर कर देते हैं। ऐसी स्थिति में आपके पास स्वास्थ्य को सुधारने का रास्ता और तरकीबें होती हैं। आप बीमारी की जड़ तक पहुँचकर स्वास्थ्य लाभ लेते हैं और बालों की सेहत भी सुधार सकते हैं। लेकिन अगर स्वस्थ रहते हुए भी आपके बाल बीमार हो रहे हों तो?
जी हाँ, रूखे, दोमुँहे और सफेद होते या तेजी से झड़ते बालों की परेशानी आजकल स्वस्थ लोगों को भी सताने लगी है। इसके दो प्रमुख कारण हैं, प्रदूषण और बालों की उचित देखभाल का न होना। इन दोनों ही सूरतों में आपकी सुंदर, घनी केशराशि बेजान हो सकती है। इसके अलावा बालों को नुकसान पहुँचाने वाले और भी तरीके हैं। जैसे-
गीले बालों में कंघी करना या तेजी से बालों को झटका देते हुए पोंछने से भी बालों को नुकसान पहुँचता है। रगड़-रगड़कर कंघी करने से तो बाल खराब होते ही हैं। इससे बाल तेजी से खिंचकर टूट जाते हैं तथा उनकी जड़ों को भी नुकसान पहुँचता है।
बालों को दिनभर में केवल 8-9 स्ट्रोक्स (मतलब कुल 8-9 बार सर में कंघा फिराने) की जरूरत होती है। इतनी ही बार में बालों की जड़ों में स्थित प्राकृतिक तेल पूरे बालों में फैल सकता है। इससे ज्यादा बार कंघी करने से भी बालों को नुकसान पहुँचता है।
मिर्च-मसाला
दीपिका ने पहनी साड़ी
कॉन फिल्म समारोह में दीपिका पादुकोण ने साड़ी पहनकर उपस्थित लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा। इस प्रतिष्ठित समारोह में वे उन लोगों में से थीं जो आकर्षण का केंद्र बने हुए थे।
दीपिका ने साड़ी पहनने का कारण बताते हुए कहा कि मॉडलिंग के दिनों में उन्होंने सोच रखा था कि जब कभी उन्हें अंतरराष्ट्रीय कार्यक्रम में हिस्सा लेने का मौका मिलेगा वे पाश्चात्य ड्रेस के बजाय ‘नेशनल कास्ट्यूम’ साड़ी पहनेंगी।
साड़ी पहनी दीपिका बेहद खूबसूरत नजर आईं और विश्व के तमाम प्रसिद्ध फिल्मकारों का ध्यान उनकी ओर गया। खबर है कि दीपिका को कई एजेंट्स ने संपर्क किया है जो हॉलीवुड फिल्म निर्माता और कलाकार के बीच की कड़ी का काम करते हैं।
चंकी के साथ मजाक
चंकी पांडे को एक लड़की ने उनकी ही फिल्म का एक संवाद सुनाकर परेशान कर दिया। ‘हाउसफुल’ में चंकी ने ‘आखिरी पास्ता’ नामक किरदार निभाया है जो बात-बात में ‘आई एम ए जोकिंग’ बोलता रहता है। इस किरदार की लोकप्रियता देश तो क्या विदेश में भी पहुँच गई।
एक शो में हिस्सा लेकर चंकी भारत लौटने के लिए दोहा एअरपोर्ट पहुँचे। चेक-इन-काउंटर पर उन्हें एक लड़की ने बताया कि मुंबई जाने वाली फ्लाइट जा चुकी है। चंकी को कुछ समझ में नहीं आया क्योंकि वे समय से पहले पहुँचे थे। वे परेशान हो गए। चंकी को परेशान देख उस लड़की ने कहा ‘आई एम ए जोकिंग’। चंकी को तुरंत समझ में आया कि उनसे मजाक किया जा है।
‘आखिरी पास्ता’ की कामयाबी का मजा लूट रहे चंकी मजाकिया अंदाज में कहते हैं ‘मुझे डर है कि कोई बड़ा प्रोड्यसूर मुझे साइन कर लेने के बाद यह न कहे कि वो मजाक कर रहा था।‘
कॉन फिल्म समारोह में दीपिका पादुकोण ने साड़ी पहनकर उपस्थित लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा। इस प्रतिष्ठित समारोह में वे उन लोगों में से थीं जो आकर्षण का केंद्र बने हुए थे।
दीपिका ने साड़ी पहनने का कारण बताते हुए कहा कि मॉडलिंग के दिनों में उन्होंने सोच रखा था कि जब कभी उन्हें अंतरराष्ट्रीय कार्यक्रम में हिस्सा लेने का मौका मिलेगा वे पाश्चात्य ड्रेस के बजाय ‘नेशनल कास्ट्यूम’ साड़ी पहनेंगी।
साड़ी पहनी दीपिका बेहद खूबसूरत नजर आईं और विश्व के तमाम प्रसिद्ध फिल्मकारों का ध्यान उनकी ओर गया। खबर है कि दीपिका को कई एजेंट्स ने संपर्क किया है जो हॉलीवुड फिल्म निर्माता और कलाकार के बीच की कड़ी का काम करते हैं।
चंकी के साथ मजाक
चंकी पांडे को एक लड़की ने उनकी ही फिल्म का एक संवाद सुनाकर परेशान कर दिया। ‘हाउसफुल’ में चंकी ने ‘आखिरी पास्ता’ नामक किरदार निभाया है जो बात-बात में ‘आई एम ए जोकिंग’ बोलता रहता है। इस किरदार की लोकप्रियता देश तो क्या विदेश में भी पहुँच गई।
एक शो में हिस्सा लेकर चंकी भारत लौटने के लिए दोहा एअरपोर्ट पहुँचे। चेक-इन-काउंटर पर उन्हें एक लड़की ने बताया कि मुंबई जाने वाली फ्लाइट जा चुकी है। चंकी को कुछ समझ में नहीं आया क्योंकि वे समय से पहले पहुँचे थे। वे परेशान हो गए। चंकी को परेशान देख उस लड़की ने कहा ‘आई एम ए जोकिंग’। चंकी को तुरंत समझ में आया कि उनसे मजाक किया जा है।
‘आखिरी पास्ता’ की कामयाबी का मजा लूट रहे चंकी मजाकिया अंदाज में कहते हैं ‘मुझे डर है कि कोई बड़ा प्रोड्यसूर मुझे साइन कर लेने के बाद यह न कहे कि वो मजाक कर रहा था।‘
रविवार, 23 मई 2010
प्रेम-गीत
तुम, संध्या के रंगों में आती
मेरी प्रेरणा
तुम, संध्या के रंगों में आती
और आकर मंडराती
फिर बुलबुल बन, मन के बन को,
कर देती आलोड़ित!
फिर पुकार बिरहा के बैन,
नशीले,
बुलबुल सी तू
मेरे दिल को तड़पा जाती
अरी बुलबुल जो तू, मैं होती,
बनी बावरी, जब भी तू आती
मेरे जीवन के सूने आंगन को,
भर दे जाती री सुहाग-राग!
मेरी प्रेरणा
तुम, संध्या के रंगों में आती
और आकर मंडराती
फिर बुलबुल बन, मन के बन को,
कर देती आलोड़ित!
फिर पुकार बिरहा के बैन,
नशीले,
बुलबुल सी तू
मेरे दिल को तड़पा जाती
अरी बुलबुल जो तू, मैं होती,
बनी बावरी, जब भी तू आती
मेरे जीवन के सूने आंगन को,
भर दे जाती री सुहाग-राग!
आलेख
होम मिनिस्टर : ये जॉब नहीं आसान
प्रायः किसी कंपनी के मालिक, अधिकारी, फैक्टरी मालिक या नौकरीपेशा लोग अपने काम को इतना महत्वपूर्ण मानते हैं कि जैसे उनके काम के अलावा दूसरे किसी काम का महत्व ही न हो। माना कंपनी चलाना एक कठिन काम है, क्योंकि एक कंपनी चलाने में बहुत झंझटें रहती हैं। जो माल हम बना रहे हैं या बेच रहे हैं, उसकी हर एक किस्म का कितना स्टॉक गोदाम में है।
फिर बाजार में रोजाना होने वाले उतार-चढ़ाव पर ध्यान देना, कंपनी में काम करने वालों के मिजाज पर ध्यान देना, उनके वेतन, वार्षिक वेतनवृद्धियाँ, बोनस आदि का ध्यान रखना, उस पर भी मैनेजमेंट की होने वाली मासिक मीटिंग्स आदि-आदि पर ध्यान देते हुए किसी भी कंपनी के मालिक के दिमाग की बत्ती गुल होने लगती है।
एक कंपनी के मेनगेट से उसके परिसर में स्थित एक महाप्रबंधक से लेकर चतुर्थ श्रेणी अधिकारी तक को हमेशा खुश या संतुष्ट रखना इतना आसान नहीं है। लेकिन यकीन मानिए कुछ इसी प्रकार की अनेक समस्याएँ घर चलाने वाली गृहिणियों के साथ भी जुड़ी हैं।
सुबह जल्दी उठना, घर के सभी सदस्यों के लिए चाय-कॉफी-दूध बनाना, फिर नहाने के लिए पानी गरम करना, सबका स्नान होते ही नाश्ते की व्यवस्था करना, घर के मुखिया के दफ्तर, फैक्टरी, कंपनी जाते ही बच्चे, सदस्यों का बस्ता पैक कर उन्हें स्कूल के लिए तैयार करना, उन्हें बस स्टॉप तक छोड़ने जाना।
वहाँ से लौटकर आने पर कपड़े धोना, स्वयं खाना खाना, इसके बाद घर के सदस्यों के कपड़ों को प्रेस करना या प्रेस वाले के यहाँ भिजवाना, दोपहर में सब्जी, तरकारीवाला आने पर उससे सब्जी-भाजी लेना, शाम का खाना तैयार करना, गेहूँ पिसाना है इसलिए गेहूँ साफ करना, उनको पिसवाने के लिए भिजवाना, शाम को जिस सोसायटी में रहते हैं, वहाँ के क्लब या समिति की बैठक में भाग लेना।
बच्चों के स्कूल से वापस आने पर उनका होमवर्क करना, फिर शाम को खाने की तैयारी में लग जाना, इसके अलावा किसी रिश्तेदार या परिचित की तबीयत खराब होने पर समय निकालकर उन्हें देखने जाना, किसी के यहाँ 'गमी' होने पर वहाँ शरीक होने जाना- इस प्रकार घर के कितने सारे काम हैं, जो महिलाओं को ध्यान में रखकर करने ही पड़ते हैं।
यदि इन कामों का वर्गीकरण एवं विश्लेषण कर इन कार्यों को करने के लिए घर में 'बाई' या 'सेवक' रखें तो यकीनन उतनी ही राशि हमें हर माह चुकानी पड़ेगी जितनी एक सरकारी अधिकारी की पगार में भी नहीं मिलती।
विश्वास कीजिए कि पुरुष-प्रधान व्यवस्था के चलते महिलाओं के द्वारा 'अलसुबह' से 'देर रात किए' जाने वाले असाधारण कार्यों का सही मूल्यांकन ही नहीं किया जाता। यदि वास्तव में कोई सही मूल्यांकन करे तो महिलाओं के कार्य की कुल लागत जानने के बाद उसकी आँखें फटी की फटी रह जाएँगी।
किसी को यदि इस बात पर पूरा यकीन न हो तो वह केवल इतना भर करे कि केवल अपने परिवार के सुबह से लेकर रात तक के सारे काम केवल एक माह पूरी ईमानदारी से करके दिखाए। मेरा विश्वास है कि वह 7 दिन बाद ही कह उठेगा, 'भैया, गृहमंत्री बनना इतना आसान नहीं है या घर चलाना किसी कंपनी चलाने से कम नहीं है।'
अधिकांश पुरुष वर्ग कंपनी तो चला सकते हैं, लेकिन घर नहीं चला सकते! इसीलिए श्रेष्ठ मार्ग यही है कि यथासंभव जो भी सहयोग घर चलाने में, घर के काम में वे दे सकते हैं, अवश्य दें। इससे आपकी पत्नी को संतोष मिलेगा और राहत भी। परिणामतः वह आपको रोजाना एक नई ऊर्जा से सराबोर दिखेगी। जाहिर है, महिलाओं ने तो यह सिद्ध कर दिया है कि वे किसी भी क्षेत्र में कम नहीं हैं, लेकिन अभी तक पुरुष वर्ग पूरी तरह यह सिद्ध नहीं कर पाए हैं कि हम उनके बगैर कुशलता से अपना घर चला सकते हैं।
सुपर-वूमन भी है लाड़ली बहू
समय बदला है तो लड़कियों के प्रति नजरिया भी बदला है। उन्हें एक इंसान की तरह देखा और स्वीकार किया जाने लगा है यह माना जाने लगा है कि उसकी भी पसंद-नापसंद, रुचि-अरुचि हो सकती है। यदि वह अच्छी प्रोफेशनल है तो जरूरी नहीं है कि उसे पारंपरिक रूप से महिलाओं के हिस्से आई जिम्मेदारियों को उठाने में भी माहिर होना ही चाहिए। इससे पहले लड़कियों को ये सहूलियतें नहीं दी थी जो आज है।
शादी के लिए अच्छा खाना पका लेना या सिलाई-कढ़ाई कर लेने जैसी शर्तें आजकल शिथिल हुई है। रोहन सॉफ्टवेयर इंजीनियर है। शादी के लिए उसकी बस इतनी ही शर्त थी कि लड़की पढ़ी-लिखी हो। तान्या से उसका रिश्ता तय हुआ। तान्या भी सॉफ्टवेयर इंजीनियर है।
नए जमाने की लड़की है ख्याल, रहन-सहन, पहनावा एकदम आधुनिक है। माँ-बाप की इकलौती लड़की है उसके लिए शादी यानी टिपिकल पति-पत्नी वाला हिसाब नहीं है, बल्कि दो अच्छे दोस्तों का साथ मिलकर 'लाइफ' शेयर करना ही उसकी नजर में शादी है। रोहन को तान्या पसंद है, उसकी आधुनिकता, पहनावे, लाइफ स्टाइल पर उसे कोई आपत्ति नहीं है। पहली मुलाकात में जब तान्या ने उसे बताया कि उसे खाना बनाना नहीं आता, तो चौंकने की बजाय रोहन बोला, 'कोई बात नहीं, मैं फास्ट फूड बना लेता हूँ।
हॉस्टल में जो रहा हूँ...बाकी 'मेड' सर्वेट रहेगी ही। तान्या शालीन है, वैल ग्रुम्ड है और बड़ों का आदर करती है। रोहन की माँ का कहना है, 'भई वो जमाने गए जब आठवीं पास करते ही लड़कियों को रसोई में धकेल दिया जाता था। जाहिर-सी बात है, दिन-रात पढ़ाई में जुटी लड़कियों के लिए रसोई में जाने की फुरसत है कहाँ? सीख लेगी धीरे-धीरे...' शर्मा आंटी की बहू एक कंपनी की एमडी है। उसे खाना बनाना आता तो है, मगर खाना बनाने में रुचि नहीं है।
घर में नौकरानी है, मगर शर्मा अंकल और उनके बेटे को नौकरानी के हाथ का भोजन पसंद नहीं। शर्मा आंटी अब भी जिम्मेदारी से रसोई का सारा काम सम्हालती है। वे कहती हैं 'मेरी बहू यदि भोजन बनाने में रुचि नहीं रखती तो जबरन उससे वह काम क्यों करवाऊँ? मुझे खाना बनाने का शौक है, सो मैं अपना शौक पूरा करती हूँ। इसमें बुराई क्या है?
इन उदाहरणों को देख-सुनकर मन को राहत का झोंका छू जाता है। आज समय तेजी से बदल रहा है, अब नारी की आर्थिक स्वतंत्रता केवल घर का ढाँचा बरकरार रखने के लिए ही मायने नहीं रखती, वरन् पति और ससुराल वाले भी उसकी तरक्की-सफलता को अपना गौरव मानते हैं।
आज से एक दशक पहले भी स्त्री अपने पैरों पर खड़ी थी, मगर तब घर-बाहर की जिम्मेदारी उसी के सिर थी। पति या ससुराल पक्ष से सहयोग न के बराबर था। मगर आज स्थितियाँ तेजी से बदली हैं। घर की बुनावट में स्त्री को विशेषतः बहू को खासी अहमियत मिलने लगी है। उसे दकियानूसी परंपराओं, रीति-रिवाजों और पुरानी मान्यताओं से बाहर निकलने का मौका दिया गया है। पति की तरह ही उसे भी दफ्तर की जिम्मेदारियों को निभाने व समय देने का मौका दिया जा रहा है।
घर-परिवार के अलावा उसका सर्कल, उसके सहकर्मी, उसका ओहदा भी सम्माननीय है। उसे अपने अनुसार जीने, पहनने-ओढ़ने की छूट है...क्या ऐसा नहीं लगता कि स्त्री अब सचमुच स्वतंत्र हो रही है? अक्षिता के पिताजी का स्वर्गवास हो गया है। शादी के समय ही अक्षिता ने स्पष्ट कर दिया कि वह न केवल अपनी माँ की भी देखभाल करेगी, वरन् अपनी तनख्वाह का कुछ हिस्सा उन पर खर्च करेगी।
अक्षिता के पति व ससुराल वालों ने यह बात सहर्ष स्वीकार कर ली और आज अक्षिता बेटे की तरह ही अपनी माँ का ख्याल रखती है। समयानुसार अपने में परिवर्तन लाते जाना, नया ग्रहण करना और पुराना (जो अनुपयोगी हो) छोड़ते जाना ही बुद्धिमानी है। अप्रासंगिक, गैरजरूरी मान्यताएँ छोड़ना, नई सोच, नई मान्यताओं को जीवन में स्थान देना ही सुखी जीवन का मूलमंत्र है। कल जो भी हुआ हो, आज बदलाव की सुहानी बयार चल पड़ी है जो सचमुच खुशगवार है, कुछ नएपन का इशारा कर रही है।
खतरनाक जासूस कैमरा !
पिछले दिनों देश की राजधानी दिल्ली के एक बड़े कॉल सेंटर के रेस्ट रूम में एक ऐसे कैमरे का भेद खुला है जो रेस्ट रूम में लगे काँच के पीछे छुपाया गया था और कई महीने से महिलाओं की 'निगरानी' कर रहा था। इस घटना ने केवल वर्किंग वूमन ही नहीं बल्कि उन सभी महिलाओं के सामने एक नया प्रश्न खड़ा कर दिया है, जो घर से बाहर निकलती हैं।
इनका रखें ध्यान :
किसी दफ्तर के रेस्ट रूम या लेडिज़ रूम में जहाँ काँच के पीछे हिडन कैमरे हो सकते हैं या फिर दीवारों को जासूस बनाया जा सकता है।
शॉपिंग मॉल्स, शो रूम या दुकानों के चेंजिंग रूम्स जहाँ ऐसी घटनाएँ होने का सबसे ज्यादा अंदेशा होता है।
किस रेस्त्राँ या होटल का वॉश रूम अथवा कमरा जहाँ काँच तथा दीवारों के अलावा भी कई जगह जासूस आँखें छिपी हो सकती हैं।
ऐसी कोई भी जगह जो सिर्फ महिलाओं के आराम या बैठने के लिए बनाई गई है।जाहिर है कि ऐसी घटनाओं के डर से आप घर से निकलना तो बंद कर नहीं सकतीं। इन घटनाओं को हल्के में लेना भी गलत है... तो सवाल ये उठता है कि आखिर वे कौन सी सावधानियाँ हैं जो इस संबंध में महिलाओं को रखना चाहिए। चलिए इस बारे में जानते हैं।
सबसे पहले तो किसी भी जगह के चेंजिंग रूम या वॉश रूम का प्रयोग करने से बचें। यदि आपके पास अन्य विकल्प हों, जैसे घर पास हो या पास के किसी अन्य ज्यादा विश्वस्त स्थान के बारे में आप जानती हों, तो उसका प्रयोग करें।
अनावश्यक 'गैप', छेद या अनजानी 'चीज़' लगी दिखे तो सावधान हो जाएँ।
चेंजिंग रूम यदि छोटा है तो सबसे अच्छा तरीका है, लाइट्स ऑफ कर देने का। चेंज करने के बाद पुनः लाइट्स जला लें लेकिन यह तरीका अँधेरे में भी रिकॉर्डिंग करने वाले कैमरों के सामने कारगर नहीं होगा।
यदि आपको दीवार या काँच या अन्य किसी जगह कोई छोटी लाइट या काला बिंदु नजर आए तो सतर्क हो जाएँ।
यदि अनजाने में आप किसी ऐसी मुसीबत में फँस ही गई हों तो तुरंत उस स्थान के प्रबंधन और पुलिस को सूचित करें। आपका एक कदम आपके साथ दूसरों को भी परेशानी से बचा लेगा।
मिरर टेस्ट :
मिरर टेस्ट हर उस जगह आपका साथ देगा जहाँ काँच के पीछे हिडन कैमरे लगे हो सकते हैं। ये काँच दिखने में बिलकुल सामान्य लगते हैं लेकिन इसके दूसरी ओर से आपको देखा जा रहा होता है। आप जिस तरफ खड़े हैं उस तरफ से आपको सिर्फ खुद का अक्स नजर आएगा और आप इस बात से पूरी तरह अनजान होंगी कि दूसरी तरफ से कोई आपको देख रहा है।
इसके लिए मिरर टेस्ट अपनाएँ। अपने हाथ की ऊँगली की नोक को काँच पर धीरे से रखें। यदि आपकी ऊँगली और काँच पर पड़ती ऊँगली की छाया के बीच में हल्का सा भी अंतर है यानी गैप है तो यह काँच बिलकुल ठीक है। इससे आपको कोई खतरा नहीं लेकिन अगर आपकी ऊँगली और काँच पर पड़ते अक्स के बीच कोई दूरी नहीं रह जाती तो सतर्क हो जाइए... इस काँच के पीछे कैमरा हो सकता है।
प्रायः किसी कंपनी के मालिक, अधिकारी, फैक्टरी मालिक या नौकरीपेशा लोग अपने काम को इतना महत्वपूर्ण मानते हैं कि जैसे उनके काम के अलावा दूसरे किसी काम का महत्व ही न हो। माना कंपनी चलाना एक कठिन काम है, क्योंकि एक कंपनी चलाने में बहुत झंझटें रहती हैं। जो माल हम बना रहे हैं या बेच रहे हैं, उसकी हर एक किस्म का कितना स्टॉक गोदाम में है।
फिर बाजार में रोजाना होने वाले उतार-चढ़ाव पर ध्यान देना, कंपनी में काम करने वालों के मिजाज पर ध्यान देना, उनके वेतन, वार्षिक वेतनवृद्धियाँ, बोनस आदि का ध्यान रखना, उस पर भी मैनेजमेंट की होने वाली मासिक मीटिंग्स आदि-आदि पर ध्यान देते हुए किसी भी कंपनी के मालिक के दिमाग की बत्ती गुल होने लगती है।
एक कंपनी के मेनगेट से उसके परिसर में स्थित एक महाप्रबंधक से लेकर चतुर्थ श्रेणी अधिकारी तक को हमेशा खुश या संतुष्ट रखना इतना आसान नहीं है। लेकिन यकीन मानिए कुछ इसी प्रकार की अनेक समस्याएँ घर चलाने वाली गृहिणियों के साथ भी जुड़ी हैं।
सुबह जल्दी उठना, घर के सभी सदस्यों के लिए चाय-कॉफी-दूध बनाना, फिर नहाने के लिए पानी गरम करना, सबका स्नान होते ही नाश्ते की व्यवस्था करना, घर के मुखिया के दफ्तर, फैक्टरी, कंपनी जाते ही बच्चे, सदस्यों का बस्ता पैक कर उन्हें स्कूल के लिए तैयार करना, उन्हें बस स्टॉप तक छोड़ने जाना।
वहाँ से लौटकर आने पर कपड़े धोना, स्वयं खाना खाना, इसके बाद घर के सदस्यों के कपड़ों को प्रेस करना या प्रेस वाले के यहाँ भिजवाना, दोपहर में सब्जी, तरकारीवाला आने पर उससे सब्जी-भाजी लेना, शाम का खाना तैयार करना, गेहूँ पिसाना है इसलिए गेहूँ साफ करना, उनको पिसवाने के लिए भिजवाना, शाम को जिस सोसायटी में रहते हैं, वहाँ के क्लब या समिति की बैठक में भाग लेना।
बच्चों के स्कूल से वापस आने पर उनका होमवर्क करना, फिर शाम को खाने की तैयारी में लग जाना, इसके अलावा किसी रिश्तेदार या परिचित की तबीयत खराब होने पर समय निकालकर उन्हें देखने जाना, किसी के यहाँ 'गमी' होने पर वहाँ शरीक होने जाना- इस प्रकार घर के कितने सारे काम हैं, जो महिलाओं को ध्यान में रखकर करने ही पड़ते हैं।
यदि इन कामों का वर्गीकरण एवं विश्लेषण कर इन कार्यों को करने के लिए घर में 'बाई' या 'सेवक' रखें तो यकीनन उतनी ही राशि हमें हर माह चुकानी पड़ेगी जितनी एक सरकारी अधिकारी की पगार में भी नहीं मिलती।
विश्वास कीजिए कि पुरुष-प्रधान व्यवस्था के चलते महिलाओं के द्वारा 'अलसुबह' से 'देर रात किए' जाने वाले असाधारण कार्यों का सही मूल्यांकन ही नहीं किया जाता। यदि वास्तव में कोई सही मूल्यांकन करे तो महिलाओं के कार्य की कुल लागत जानने के बाद उसकी आँखें फटी की फटी रह जाएँगी।
किसी को यदि इस बात पर पूरा यकीन न हो तो वह केवल इतना भर करे कि केवल अपने परिवार के सुबह से लेकर रात तक के सारे काम केवल एक माह पूरी ईमानदारी से करके दिखाए। मेरा विश्वास है कि वह 7 दिन बाद ही कह उठेगा, 'भैया, गृहमंत्री बनना इतना आसान नहीं है या घर चलाना किसी कंपनी चलाने से कम नहीं है।'
अधिकांश पुरुष वर्ग कंपनी तो चला सकते हैं, लेकिन घर नहीं चला सकते! इसीलिए श्रेष्ठ मार्ग यही है कि यथासंभव जो भी सहयोग घर चलाने में, घर के काम में वे दे सकते हैं, अवश्य दें। इससे आपकी पत्नी को संतोष मिलेगा और राहत भी। परिणामतः वह आपको रोजाना एक नई ऊर्जा से सराबोर दिखेगी। जाहिर है, महिलाओं ने तो यह सिद्ध कर दिया है कि वे किसी भी क्षेत्र में कम नहीं हैं, लेकिन अभी तक पुरुष वर्ग पूरी तरह यह सिद्ध नहीं कर पाए हैं कि हम उनके बगैर कुशलता से अपना घर चला सकते हैं।
सुपर-वूमन भी है लाड़ली बहू
समय बदला है तो लड़कियों के प्रति नजरिया भी बदला है। उन्हें एक इंसान की तरह देखा और स्वीकार किया जाने लगा है यह माना जाने लगा है कि उसकी भी पसंद-नापसंद, रुचि-अरुचि हो सकती है। यदि वह अच्छी प्रोफेशनल है तो जरूरी नहीं है कि उसे पारंपरिक रूप से महिलाओं के हिस्से आई जिम्मेदारियों को उठाने में भी माहिर होना ही चाहिए। इससे पहले लड़कियों को ये सहूलियतें नहीं दी थी जो आज है।
शादी के लिए अच्छा खाना पका लेना या सिलाई-कढ़ाई कर लेने जैसी शर्तें आजकल शिथिल हुई है। रोहन सॉफ्टवेयर इंजीनियर है। शादी के लिए उसकी बस इतनी ही शर्त थी कि लड़की पढ़ी-लिखी हो। तान्या से उसका रिश्ता तय हुआ। तान्या भी सॉफ्टवेयर इंजीनियर है।
नए जमाने की लड़की है ख्याल, रहन-सहन, पहनावा एकदम आधुनिक है। माँ-बाप की इकलौती लड़की है उसके लिए शादी यानी टिपिकल पति-पत्नी वाला हिसाब नहीं है, बल्कि दो अच्छे दोस्तों का साथ मिलकर 'लाइफ' शेयर करना ही उसकी नजर में शादी है। रोहन को तान्या पसंद है, उसकी आधुनिकता, पहनावे, लाइफ स्टाइल पर उसे कोई आपत्ति नहीं है। पहली मुलाकात में जब तान्या ने उसे बताया कि उसे खाना बनाना नहीं आता, तो चौंकने की बजाय रोहन बोला, 'कोई बात नहीं, मैं फास्ट फूड बना लेता हूँ।
हॉस्टल में जो रहा हूँ...बाकी 'मेड' सर्वेट रहेगी ही। तान्या शालीन है, वैल ग्रुम्ड है और बड़ों का आदर करती है। रोहन की माँ का कहना है, 'भई वो जमाने गए जब आठवीं पास करते ही लड़कियों को रसोई में धकेल दिया जाता था। जाहिर-सी बात है, दिन-रात पढ़ाई में जुटी लड़कियों के लिए रसोई में जाने की फुरसत है कहाँ? सीख लेगी धीरे-धीरे...' शर्मा आंटी की बहू एक कंपनी की एमडी है। उसे खाना बनाना आता तो है, मगर खाना बनाने में रुचि नहीं है।
घर में नौकरानी है, मगर शर्मा अंकल और उनके बेटे को नौकरानी के हाथ का भोजन पसंद नहीं। शर्मा आंटी अब भी जिम्मेदारी से रसोई का सारा काम सम्हालती है। वे कहती हैं 'मेरी बहू यदि भोजन बनाने में रुचि नहीं रखती तो जबरन उससे वह काम क्यों करवाऊँ? मुझे खाना बनाने का शौक है, सो मैं अपना शौक पूरा करती हूँ। इसमें बुराई क्या है?
इन उदाहरणों को देख-सुनकर मन को राहत का झोंका छू जाता है। आज समय तेजी से बदल रहा है, अब नारी की आर्थिक स्वतंत्रता केवल घर का ढाँचा बरकरार रखने के लिए ही मायने नहीं रखती, वरन् पति और ससुराल वाले भी उसकी तरक्की-सफलता को अपना गौरव मानते हैं।
आज से एक दशक पहले भी स्त्री अपने पैरों पर खड़ी थी, मगर तब घर-बाहर की जिम्मेदारी उसी के सिर थी। पति या ससुराल पक्ष से सहयोग न के बराबर था। मगर आज स्थितियाँ तेजी से बदली हैं। घर की बुनावट में स्त्री को विशेषतः बहू को खासी अहमियत मिलने लगी है। उसे दकियानूसी परंपराओं, रीति-रिवाजों और पुरानी मान्यताओं से बाहर निकलने का मौका दिया गया है। पति की तरह ही उसे भी दफ्तर की जिम्मेदारियों को निभाने व समय देने का मौका दिया जा रहा है।
घर-परिवार के अलावा उसका सर्कल, उसके सहकर्मी, उसका ओहदा भी सम्माननीय है। उसे अपने अनुसार जीने, पहनने-ओढ़ने की छूट है...क्या ऐसा नहीं लगता कि स्त्री अब सचमुच स्वतंत्र हो रही है? अक्षिता के पिताजी का स्वर्गवास हो गया है। शादी के समय ही अक्षिता ने स्पष्ट कर दिया कि वह न केवल अपनी माँ की भी देखभाल करेगी, वरन् अपनी तनख्वाह का कुछ हिस्सा उन पर खर्च करेगी।
अक्षिता के पति व ससुराल वालों ने यह बात सहर्ष स्वीकार कर ली और आज अक्षिता बेटे की तरह ही अपनी माँ का ख्याल रखती है। समयानुसार अपने में परिवर्तन लाते जाना, नया ग्रहण करना और पुराना (जो अनुपयोगी हो) छोड़ते जाना ही बुद्धिमानी है। अप्रासंगिक, गैरजरूरी मान्यताएँ छोड़ना, नई सोच, नई मान्यताओं को जीवन में स्थान देना ही सुखी जीवन का मूलमंत्र है। कल जो भी हुआ हो, आज बदलाव की सुहानी बयार चल पड़ी है जो सचमुच खुशगवार है, कुछ नएपन का इशारा कर रही है।
खतरनाक जासूस कैमरा !
पिछले दिनों देश की राजधानी दिल्ली के एक बड़े कॉल सेंटर के रेस्ट रूम में एक ऐसे कैमरे का भेद खुला है जो रेस्ट रूम में लगे काँच के पीछे छुपाया गया था और कई महीने से महिलाओं की 'निगरानी' कर रहा था। इस घटना ने केवल वर्किंग वूमन ही नहीं बल्कि उन सभी महिलाओं के सामने एक नया प्रश्न खड़ा कर दिया है, जो घर से बाहर निकलती हैं।
इनका रखें ध्यान :
किसी दफ्तर के रेस्ट रूम या लेडिज़ रूम में जहाँ काँच के पीछे हिडन कैमरे हो सकते हैं या फिर दीवारों को जासूस बनाया जा सकता है।
शॉपिंग मॉल्स, शो रूम या दुकानों के चेंजिंग रूम्स जहाँ ऐसी घटनाएँ होने का सबसे ज्यादा अंदेशा होता है।
किस रेस्त्राँ या होटल का वॉश रूम अथवा कमरा जहाँ काँच तथा दीवारों के अलावा भी कई जगह जासूस आँखें छिपी हो सकती हैं।
ऐसी कोई भी जगह जो सिर्फ महिलाओं के आराम या बैठने के लिए बनाई गई है।जाहिर है कि ऐसी घटनाओं के डर से आप घर से निकलना तो बंद कर नहीं सकतीं। इन घटनाओं को हल्के में लेना भी गलत है... तो सवाल ये उठता है कि आखिर वे कौन सी सावधानियाँ हैं जो इस संबंध में महिलाओं को रखना चाहिए। चलिए इस बारे में जानते हैं।
सबसे पहले तो किसी भी जगह के चेंजिंग रूम या वॉश रूम का प्रयोग करने से बचें। यदि आपके पास अन्य विकल्प हों, जैसे घर पास हो या पास के किसी अन्य ज्यादा विश्वस्त स्थान के बारे में आप जानती हों, तो उसका प्रयोग करें।
अनावश्यक 'गैप', छेद या अनजानी 'चीज़' लगी दिखे तो सावधान हो जाएँ।
चेंजिंग रूम यदि छोटा है तो सबसे अच्छा तरीका है, लाइट्स ऑफ कर देने का। चेंज करने के बाद पुनः लाइट्स जला लें लेकिन यह तरीका अँधेरे में भी रिकॉर्डिंग करने वाले कैमरों के सामने कारगर नहीं होगा।
यदि आपको दीवार या काँच या अन्य किसी जगह कोई छोटी लाइट या काला बिंदु नजर आए तो सतर्क हो जाएँ।
यदि अनजाने में आप किसी ऐसी मुसीबत में फँस ही गई हों तो तुरंत उस स्थान के प्रबंधन और पुलिस को सूचित करें। आपका एक कदम आपके साथ दूसरों को भी परेशानी से बचा लेगा।
मिरर टेस्ट :
मिरर टेस्ट हर उस जगह आपका साथ देगा जहाँ काँच के पीछे हिडन कैमरे लगे हो सकते हैं। ये काँच दिखने में बिलकुल सामान्य लगते हैं लेकिन इसके दूसरी ओर से आपको देखा जा रहा होता है। आप जिस तरफ खड़े हैं उस तरफ से आपको सिर्फ खुद का अक्स नजर आएगा और आप इस बात से पूरी तरह अनजान होंगी कि दूसरी तरफ से कोई आपको देख रहा है।
इसके लिए मिरर टेस्ट अपनाएँ। अपने हाथ की ऊँगली की नोक को काँच पर धीरे से रखें। यदि आपकी ऊँगली और काँच पर पड़ती ऊँगली की छाया के बीच में हल्का सा भी अंतर है यानी गैप है तो यह काँच बिलकुल ठीक है। इससे आपको कोई खतरा नहीं लेकिन अगर आपकी ऊँगली और काँच पर पड़ते अक्स के बीच कोई दूरी नहीं रह जाती तो सतर्क हो जाइए... इस काँच के पीछे कैमरा हो सकता है।
क्यों करें योग?
...तो नहीं है आपके लिए योग
आप कह सकते हैं कि इस सबके बावजूद हम क्यों करें योग, जबकि हम स्वस्थ हैं, मानसिक और शारीरिक रूप से हमें कोई समस्या नहीं है? तब पहले तो यह जानना जरूरी है कि आपके भीतर आपका 'क्यों' है कि नहीं।
आनंद की अनुभूति : एक होता है सुख और एक होता है दु:ख। जो लोग योग करते हैं उन्हें पहली दफा समझ में आता है कि आनंद क्या होता है। जैसे सेक्स करते समय समझ में आता है कि सुख और दु:ख से अलग भी कोई अनुभूति है। इस तरह योगस्थ चित्त समस्त प्रकार के सुखों से ऊपर आनंद में स्थित होता है। उस आनंद की अनुभूति न भोग में है न संभोग में और न ही अन्य किन्हीं क्षणिक सुखों में।
चेतना का विकास : मोटे तौर पर सृष्टि और चेतना के वेद और योग में पाँच स्तर बताए गए हैं। यह पाँच मंजिला मकान है- (1) जड़ (2) प्राण (3) मन (4) आत्मा और (5) परमात्मा।
जड़ : आप तमोगुणी हो, अजाग्रत हो तो आप जिंदा होते हुए भी मृत हो अर्थात् आपकी चेतना या आप स्वयं जड़ हो। बेहोशी में जी रहे हो आप। आपकी अवस्था स्वप्निक है। आपको इस बात का जरा भी अहसास नहीं है कि आप जिंदा हैं। आप वैसे ही जीते हैं जैसे कि एक पत्थर या झाड़ जीता है या फिर वैसा पशु जो चलाने पर ही चलता है।
प्राण : प्राण अर्थात फेफड़ों में भरी जाने वाली प्राणवायु जिससे कोई जिंदा है, इस बात का पता चलता है। यदि आपकी चेतना या कि आप स्वयं अपनी भावनाओं, भावुक क्षणों या व्यग्रताओं के गुलाम हैं तो आप प्राणिक चेतना हैं। आपमें विचार-शक्ति क्षीण है। आप कभी भी क्रोधी हो सकते हैं और किसी भी क्षण प्रेमपूर्ण हो सकते हैं। प्राणिक चेतना रजोगुण-प्रधान मानी जा सकती है।
योग का प्रथम सूत्र है- अथ:योगानुशासनम्। योगश्चित्तिवृत्तिनिरोध। अर्थात यदि आप अपने मन और शरीर से थक गए हैं, आपने जान लिया है कि संसार असार है तो अब योग का अनुशासन समझें, क्योंकि अब आपका मन तैयार हो गया है। मन : मन में जीना अर्थात मनुष्य होना। मन का स्वयं का कोई अस्तित्व नहीं है। भावनाओं और विचारों के संगठित रूप को मन कहते हैं। मन के योग में भी कई स्तर बताए गए हैं। विचारशील मनुष्य मन से श्रेष्ठ बुद्धि में जीता है। उसमें तर्क की प्रधानता होती है। जो तर्कातीत है वही विवेकी है।
आत्मा : योग है मन से मुक्ति। जो मनुष्य मन से मुक्त हो गया है, वही शुद्ध आत्मा है, वही आत्मवान है अर्थात उसने स्वयं में स्वयं को स्थापित कर लिया है।
परमात्मा : परमात्मा को ब्रह्म कहा गया है, जिसका अर्थ विस्तार होता है। उस विराट विस्तार में लीन व्यक्ति को ब्रह्मलीन कहा जाता है और जो उसे जानने का प्रयास ही कर रहा है, उसे ब्राह्मण कहा गया। योगी योग बल द्वारा स्वयं को ब्रह्मलीन कर अमर हो जाता है, फिर उसकी न कोई मृत्यु है और न जन्म और यह भी कि वह चाहे तो जन्मे न चाहे तो न जन्मे।
जागरण : चेतना की चार अवस्थाएँ हैं- (1) जाग्रत (2) स्वप्न (3) सुसुप्ति (4) तंद्रा। योगी व्यक्ति चारों अवस्थाओं में जाग्रत रहता है। तंद्रा उसे कहते हैं, जबकि व्यक्ति शरीर छोड़ चीर निद्रा में चला जाता है। ऐसी तंद्रा में भी योगी जागा हुआ होता है।
अधिकतर जागकर भी सोए-सोए से नजर आते हैं अर्थात बेहोश यंत्रवत जीवन। फिर जब सो जाते हैं तो अच्छे और बुरे स्वप्नों में जकड़ जाते हैं और फिर गहरी नींद अर्थात सुसुप्ति में चले जाते हैं वहाँ भी उन्हें स्वयं के होने का बोध नहीं रहता। यह बेहोशी की चरम अवस्था जड़ अवस्था है, तब तंद्रा कैसी होगी सोचें। योग आपकी तंद्रा भंग करता है। वह आपमें इतना जागरण भर देता है कि मृत्यु आती है तब आपको नहीं लगता कि आप मर रहे हैं। लगता है कि शरीर छूट रहा है।
इस परम विस्तृत ब्रह्मांड में धरती पर खड़े आप स्वयं क्या हो, क्यों हो, कैसे हो, कब से हो, हो भी कि नहीं, कब तक रहोगे। मेरा अस्तित्व है कि नहीं। ऐसा सोचने वाले के लिए ही योग है। जिसने योग के अनुशासन को निभाया उसने सुपर कांसेस मन को जाग्रत करने की दिशा में एक कदम बढ़ाया।
स्वयं की स्थिति समझे : योग का प्रथम सूत्र है- अथ:योगानुशासनम्। योगश्चित्तिवृत्तिनिरोध। अर्थात यदि आप अपने मन और शरीर से थक गए हैं, आपने जान लिया है कि संसार असार है तो अब योग का अनुशासन समझें, क्योंकि अब आपका मन तैयार हो गया है, आप मैच्योर हो गए हैं तो अब समझें और अब भी नहीं समझते हैं तो अंधकार में खो जाने वाले हैं। यदि आपके भीतर का 'क्यों' मर गया है तो नहीं है आपके लिए योग।
अतत: : योग उनके लिए है जो अपना जीवन बदलना चाहते हैं। योग उनके लिए है जो इस ब्रह्मांड के सत्य को जानना चाहते हैं। योग उनके लिए भी है जो शक्ति सम्पन्न होना चाहते हैं और योग उनके लिए जो हर तरह से स्वस्थ होना चाहते हैं। आप किसी भी धर्म से हैं, यदि आप स्वयं को बदलना चाहते हैं तो योग आपकी मदद करेगा। आप विचार करें कि आप योग क्यों और क्यों नहीं करना चाहते हैं।
आप कह सकते हैं कि इस सबके बावजूद हम क्यों करें योग, जबकि हम स्वस्थ हैं, मानसिक और शारीरिक रूप से हमें कोई समस्या नहीं है? तब पहले तो यह जानना जरूरी है कि आपके भीतर आपका 'क्यों' है कि नहीं।
आनंद की अनुभूति : एक होता है सुख और एक होता है दु:ख। जो लोग योग करते हैं उन्हें पहली दफा समझ में आता है कि आनंद क्या होता है। जैसे सेक्स करते समय समझ में आता है कि सुख और दु:ख से अलग भी कोई अनुभूति है। इस तरह योगस्थ चित्त समस्त प्रकार के सुखों से ऊपर आनंद में स्थित होता है। उस आनंद की अनुभूति न भोग में है न संभोग में और न ही अन्य किन्हीं क्षणिक सुखों में।
चेतना का विकास : मोटे तौर पर सृष्टि और चेतना के वेद और योग में पाँच स्तर बताए गए हैं। यह पाँच मंजिला मकान है- (1) जड़ (2) प्राण (3) मन (4) आत्मा और (5) परमात्मा।
जड़ : आप तमोगुणी हो, अजाग्रत हो तो आप जिंदा होते हुए भी मृत हो अर्थात् आपकी चेतना या आप स्वयं जड़ हो। बेहोशी में जी रहे हो आप। आपकी अवस्था स्वप्निक है। आपको इस बात का जरा भी अहसास नहीं है कि आप जिंदा हैं। आप वैसे ही जीते हैं जैसे कि एक पत्थर या झाड़ जीता है या फिर वैसा पशु जो चलाने पर ही चलता है।
प्राण : प्राण अर्थात फेफड़ों में भरी जाने वाली प्राणवायु जिससे कोई जिंदा है, इस बात का पता चलता है। यदि आपकी चेतना या कि आप स्वयं अपनी भावनाओं, भावुक क्षणों या व्यग्रताओं के गुलाम हैं तो आप प्राणिक चेतना हैं। आपमें विचार-शक्ति क्षीण है। आप कभी भी क्रोधी हो सकते हैं और किसी भी क्षण प्रेमपूर्ण हो सकते हैं। प्राणिक चेतना रजोगुण-प्रधान मानी जा सकती है।
योग का प्रथम सूत्र है- अथ:योगानुशासनम्। योगश्चित्तिवृत्तिनिरोध। अर्थात यदि आप अपने मन और शरीर से थक गए हैं, आपने जान लिया है कि संसार असार है तो अब योग का अनुशासन समझें, क्योंकि अब आपका मन तैयार हो गया है। मन : मन में जीना अर्थात मनुष्य होना। मन का स्वयं का कोई अस्तित्व नहीं है। भावनाओं और विचारों के संगठित रूप को मन कहते हैं। मन के योग में भी कई स्तर बताए गए हैं। विचारशील मनुष्य मन से श्रेष्ठ बुद्धि में जीता है। उसमें तर्क की प्रधानता होती है। जो तर्कातीत है वही विवेकी है।
आत्मा : योग है मन से मुक्ति। जो मनुष्य मन से मुक्त हो गया है, वही शुद्ध आत्मा है, वही आत्मवान है अर्थात उसने स्वयं में स्वयं को स्थापित कर लिया है।
परमात्मा : परमात्मा को ब्रह्म कहा गया है, जिसका अर्थ विस्तार होता है। उस विराट विस्तार में लीन व्यक्ति को ब्रह्मलीन कहा जाता है और जो उसे जानने का प्रयास ही कर रहा है, उसे ब्राह्मण कहा गया। योगी योग बल द्वारा स्वयं को ब्रह्मलीन कर अमर हो जाता है, फिर उसकी न कोई मृत्यु है और न जन्म और यह भी कि वह चाहे तो जन्मे न चाहे तो न जन्मे।
जागरण : चेतना की चार अवस्थाएँ हैं- (1) जाग्रत (2) स्वप्न (3) सुसुप्ति (4) तंद्रा। योगी व्यक्ति चारों अवस्थाओं में जाग्रत रहता है। तंद्रा उसे कहते हैं, जबकि व्यक्ति शरीर छोड़ चीर निद्रा में चला जाता है। ऐसी तंद्रा में भी योगी जागा हुआ होता है।
अधिकतर जागकर भी सोए-सोए से नजर आते हैं अर्थात बेहोश यंत्रवत जीवन। फिर जब सो जाते हैं तो अच्छे और बुरे स्वप्नों में जकड़ जाते हैं और फिर गहरी नींद अर्थात सुसुप्ति में चले जाते हैं वहाँ भी उन्हें स्वयं के होने का बोध नहीं रहता। यह बेहोशी की चरम अवस्था जड़ अवस्था है, तब तंद्रा कैसी होगी सोचें। योग आपकी तंद्रा भंग करता है। वह आपमें इतना जागरण भर देता है कि मृत्यु आती है तब आपको नहीं लगता कि आप मर रहे हैं। लगता है कि शरीर छूट रहा है।
इस परम विस्तृत ब्रह्मांड में धरती पर खड़े आप स्वयं क्या हो, क्यों हो, कैसे हो, कब से हो, हो भी कि नहीं, कब तक रहोगे। मेरा अस्तित्व है कि नहीं। ऐसा सोचने वाले के लिए ही योग है। जिसने योग के अनुशासन को निभाया उसने सुपर कांसेस मन को जाग्रत करने की दिशा में एक कदम बढ़ाया।
स्वयं की स्थिति समझे : योग का प्रथम सूत्र है- अथ:योगानुशासनम्। योगश्चित्तिवृत्तिनिरोध। अर्थात यदि आप अपने मन और शरीर से थक गए हैं, आपने जान लिया है कि संसार असार है तो अब योग का अनुशासन समझें, क्योंकि अब आपका मन तैयार हो गया है, आप मैच्योर हो गए हैं तो अब समझें और अब भी नहीं समझते हैं तो अंधकार में खो जाने वाले हैं। यदि आपके भीतर का 'क्यों' मर गया है तो नहीं है आपके लिए योग।
अतत: : योग उनके लिए है जो अपना जीवन बदलना चाहते हैं। योग उनके लिए है जो इस ब्रह्मांड के सत्य को जानना चाहते हैं। योग उनके लिए भी है जो शक्ति सम्पन्न होना चाहते हैं और योग उनके लिए जो हर तरह से स्वस्थ होना चाहते हैं। आप किसी भी धर्म से हैं, यदि आप स्वयं को बदलना चाहते हैं तो योग आपकी मदद करेगा। आप विचार करें कि आप योग क्यों और क्यों नहीं करना चाहते हैं।
मिर्च-मसाला
क्या बच्चे के लिए शादी करेंगी सुष्मिता?
दो लड़कियों को गोद लेकर माँ बनने का सुख उठाने वाली सुष्मिता सेन अब बच्चे को जन्म देना चाहती हैं। उनकी इस इच्छा से बॉलीवुड में चर्चा चल पड़ी है कि सुष्मिता जल्दी ही शादी कर सकती हैं और ये भी संभव है कि वे बिन ब्याही माँ भी बन जाए।
सुष्मिता 34 की हो गई हैं और इस बात से परिचित हैं कि उम्र के लिहाज से माँ बनने के लिए अब उनके पास ज्यादा समय नहीं है। इसलिए वे जल्दी ही इस दिशा में कदम उठा सकती हैं।
जहाँ तक शादी का सवाल है, तो सुष के प्रेमियों की लंबी लिस्ट है। विक्रम भट्ट और मुदस्सर अजीज के बीच में कई लोग हैं, जिनके साथ उनका रोमांस चला। सुष्मिता के मिजाज को देख यह लिस्ट अभी भी अधूरी लगती है।
इन पुरुषों ने सुष्मिता की जिंदगी में प्रवेश किया, लेकिन किसी में भी सुष्मिता को पति वाली क्वॉलिटी नजर नहीं आई। चूँकि सुष्मिता अब बच्चे को जन्म देना चाहती हैं इसलिए वे शादी कर लें।
दूसरी ओर इस बात की संभावना है कि वे बिन ब्याही माँ भी बन जाए। सुष्मिता उन लोगों में से हैं जिन्होंने कभी लोगों की परवाह नहीं कि और अपने मुताबिक जीवन जिया है।
हम तो यही शुभकामना देंगे कि सुष की इच्छा जल्द से जल्द पूरी हो।
दिल तो बच्चा है जी
‘जेल’ की असफलता के बाद मधुर भंडारकर ने अपनी हार्ड हिटिंग फिल्मों वाला ट्रेक चेंज किया है और उन्होंने हल्की-फुल्की रोमांटिक-कॉमेडी फिल्म ‘दिल तो बच्चा है जी’ बनाने की घोषणा की है। इसमें अजय देवगन, इमरान हाशमी और ओमी वैद्य नजर आएँगे।
मधुर ने हमेशा ऐसी फिल्में बनाई हैं जो वास्तविकता के निकट होती हैं और सच को उजागर करती हैं। चाहे चाँदनी बार हो, फैशन या पेज थ्री हो। लेकिन पिछली कुछ फिल्मों से लगने लगा था कि मधुर अब टाइप्ड होते जा रहे हैं। शायद इसीलिए इस बार उन्होंने रोमांस और हास्य फिल्मों में हाथ आजमाने की सोची है।
मधुर एक अभिनेत्री की जिंदगी पर भी फिल्म बनाने वाले हैं, जिसमें करीना कपूर को लिए जाने की चर्चा है, लेकिन उसमें काफी शोध किया जाना है, जिसमें समय लगेगा। तब तक एक हल्की-फुल्की फिल्म ही सही।
अजय देवगन : हर किरदार में फिट
प्रकाश झा की नवीनतम फिल्म राजनीति सहित उनकी लगभग तमाम फिल्मों का हिस्सा अजय देवगन रहे हैं और झा के मुताबिक उन्हें इस राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता अभिनेता के साथ काम करके मजा आता है क्योंकि वे हर किरदार में फिट बैठते हैं।
झा ने कहा ‘‘सच में अजय के साथ मुझे और मेरे साथ उन्हें काम करने में मजा आता है। वे न सिर्फ एक पेशेवर कलाकार हैं बल्कि एक अच्छे इंसान भी हैं और उनकी यही खूबी उन्हें औरों से अलग करती है।’’
उन्होंने कहा, ‘‘ हम दोनों के बीच एक-दूसरे के लिए बेहतर समझ है। वह कुछ भी कर सकते हैं। कोई आश्चर्य नहीं जब मैं फिल्म लिख रहा होता हूँ तो उसके एक या दो किरदार ऐसे होते हैं, जिनमें अजय एकदम फिट बैठते हैं।’’
1999 से अब तक झा और देवगन ने साथ-साथ कुल चार फिल्मों- ‘दिल क्या करे’(1999), ‘गंगाजल’ (2003), ‘अपहरण’ (2005) और ‘राजनीति’ (2010) में काम किया है।
इस दौरान झा ने सिर्फ एक फिल्म ‘राहुल’ (2001) में देवगन को नहीं लिया। झा ने राहुल में नए चेहरों को मौका दिया था और फिल्म बॉक्स आफिस पर चारों खाने चित्त हो गई।
‘गंगाजल’ और ‘अपहरण’ चर्चित होने के साथ-साथ व्यावसायिक रूप से भी सफल रहीं। यही वजह है कि ‘राजनीति’ में नए-पुराने कई अभिनेताओं को शामिल करने के बावजूद झा ने अजय देवगन के लिए एक खास जगह रखी। फिल्म में नसीरूद्दीन शाह और नाना पाटेकर जैसे मंझे हुए अभिनेताओं के साथ रणबीर कपूर और कैटरीना कैफ सितारे भी हैं।
दो लड़कियों को गोद लेकर माँ बनने का सुख उठाने वाली सुष्मिता सेन अब बच्चे को जन्म देना चाहती हैं। उनकी इस इच्छा से बॉलीवुड में चर्चा चल पड़ी है कि सुष्मिता जल्दी ही शादी कर सकती हैं और ये भी संभव है कि वे बिन ब्याही माँ भी बन जाए।
सुष्मिता 34 की हो गई हैं और इस बात से परिचित हैं कि उम्र के लिहाज से माँ बनने के लिए अब उनके पास ज्यादा समय नहीं है। इसलिए वे जल्दी ही इस दिशा में कदम उठा सकती हैं।
जहाँ तक शादी का सवाल है, तो सुष के प्रेमियों की लंबी लिस्ट है। विक्रम भट्ट और मुदस्सर अजीज के बीच में कई लोग हैं, जिनके साथ उनका रोमांस चला। सुष्मिता के मिजाज को देख यह लिस्ट अभी भी अधूरी लगती है।
इन पुरुषों ने सुष्मिता की जिंदगी में प्रवेश किया, लेकिन किसी में भी सुष्मिता को पति वाली क्वॉलिटी नजर नहीं आई। चूँकि सुष्मिता अब बच्चे को जन्म देना चाहती हैं इसलिए वे शादी कर लें।
दूसरी ओर इस बात की संभावना है कि वे बिन ब्याही माँ भी बन जाए। सुष्मिता उन लोगों में से हैं जिन्होंने कभी लोगों की परवाह नहीं कि और अपने मुताबिक जीवन जिया है।
हम तो यही शुभकामना देंगे कि सुष की इच्छा जल्द से जल्द पूरी हो।
दिल तो बच्चा है जी
‘जेल’ की असफलता के बाद मधुर भंडारकर ने अपनी हार्ड हिटिंग फिल्मों वाला ट्रेक चेंज किया है और उन्होंने हल्की-फुल्की रोमांटिक-कॉमेडी फिल्म ‘दिल तो बच्चा है जी’ बनाने की घोषणा की है। इसमें अजय देवगन, इमरान हाशमी और ओमी वैद्य नजर आएँगे।
मधुर ने हमेशा ऐसी फिल्में बनाई हैं जो वास्तविकता के निकट होती हैं और सच को उजागर करती हैं। चाहे चाँदनी बार हो, फैशन या पेज थ्री हो। लेकिन पिछली कुछ फिल्मों से लगने लगा था कि मधुर अब टाइप्ड होते जा रहे हैं। शायद इसीलिए इस बार उन्होंने रोमांस और हास्य फिल्मों में हाथ आजमाने की सोची है।
मधुर एक अभिनेत्री की जिंदगी पर भी फिल्म बनाने वाले हैं, जिसमें करीना कपूर को लिए जाने की चर्चा है, लेकिन उसमें काफी शोध किया जाना है, जिसमें समय लगेगा। तब तक एक हल्की-फुल्की फिल्म ही सही।
अजय देवगन : हर किरदार में फिट
प्रकाश झा की नवीनतम फिल्म राजनीति सहित उनकी लगभग तमाम फिल्मों का हिस्सा अजय देवगन रहे हैं और झा के मुताबिक उन्हें इस राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता अभिनेता के साथ काम करके मजा आता है क्योंकि वे हर किरदार में फिट बैठते हैं।
झा ने कहा ‘‘सच में अजय के साथ मुझे और मेरे साथ उन्हें काम करने में मजा आता है। वे न सिर्फ एक पेशेवर कलाकार हैं बल्कि एक अच्छे इंसान भी हैं और उनकी यही खूबी उन्हें औरों से अलग करती है।’’
उन्होंने कहा, ‘‘ हम दोनों के बीच एक-दूसरे के लिए बेहतर समझ है। वह कुछ भी कर सकते हैं। कोई आश्चर्य नहीं जब मैं फिल्म लिख रहा होता हूँ तो उसके एक या दो किरदार ऐसे होते हैं, जिनमें अजय एकदम फिट बैठते हैं।’’
1999 से अब तक झा और देवगन ने साथ-साथ कुल चार फिल्मों- ‘दिल क्या करे’(1999), ‘गंगाजल’ (2003), ‘अपहरण’ (2005) और ‘राजनीति’ (2010) में काम किया है।
इस दौरान झा ने सिर्फ एक फिल्म ‘राहुल’ (2001) में देवगन को नहीं लिया। झा ने राहुल में नए चेहरों को मौका दिया था और फिल्म बॉक्स आफिस पर चारों खाने चित्त हो गई।
‘गंगाजल’ और ‘अपहरण’ चर्चित होने के साथ-साथ व्यावसायिक रूप से भी सफल रहीं। यही वजह है कि ‘राजनीति’ में नए-पुराने कई अभिनेताओं को शामिल करने के बावजूद झा ने अजय देवगन के लिए एक खास जगह रखी। फिल्म में नसीरूद्दीन शाह और नाना पाटेकर जैसे मंझे हुए अभिनेताओं के साथ रणबीर कपूर और कैटरीना कैफ सितारे भी हैं।
शनिवार, 22 मई 2010
मिर्च-मसाला
सोनम को पहली सफलता का इंतजार
अनिल कपूर की बेटी सोनम कपूर अच्छी अभिनेत्री हैं। खूबसूरत भी हैं। लेकिन बॉलीवुड में पूछ-परख तभी बढ़ती है जब आपके खाते में सफल फिल्म हो। इस मामले में सोनम की झोली खाली है।
‘साँवरिया’ और ‘देहली 6’ जैसी फिल्मों में सोनम ने सराहनीय अभिनय किया, लेकिन ये फिल्में असफल हो गईं और सोनम अपनी समकालीन नायिकाओं से पिछड़ गईं।
सोनम चाहती तो कई फिल्म साइन कर सकती थीं, लेकिन कहते हैं कि फिल्मों के चयन के मामले में पापा अनिल का दखल रहता है। वे चाहते हैं भले ही सोनम कम फिल्में करें किंतु अच्छी करें। सोनम उनकी बात मान रही हैं। सोनम को लेकर अनिल भी एक फिल्म बना रहे हैं जिसमें उनके हीरो हैं अभय देओल।
एक और फिल्म है जिससे सोनम ने बहुत उम्मीद पाल रखी है। धर्मा प्रोडक्शन यानी करण जौहर के बैनर की ‘आई हेट लव स्टोरीज़’ से। टीनएजर्स को ध्यान में रखकर यह फिल्म बनाई गई इस फिल्म में इमरान खान और सोनम की जोड़ी है। फिल्म के प्रोमो दिखाए जा रहे हैं और इस जोड़ी को देख पॉजिटिव फीडबैक मिले हैं। पहली बार सोनम अपने हमउम्र हीरो की नायिका बनी हैं।
इस फिल्म में सोनम की भूमिका ऐसी लड़की की है जो प्यार में बहुत विश्वास करती है। जबकि इमरान की सोच इसके विपरीत है। सोनम का मानना है कि इस बार उनका नाम एक हिट फिल्म के साथ जुड़ जाएगा क्योंकि इस फिल्म में वो सब कुछ है जो आज का युवा पसंद करता है।
क्या पूरी होगी शिल्पा की ख्वाहिश?
फिल्मों में अभिनय से ज्यादा शिल्पा शेट्टी उन गानों के लिए पहचानी जाती हैं, जो उन पर फिल्माए गए हैं। कई लोकप्रिय गानों पर शिल्पा ने डांस कर लोगों को झूमने पर मजबूर कर दिया। यूपी, बिहार सहित पूरे विश्व के प्रशंसकों का दिल लूट लिया। फिर भी उनकी एक इच्छा अधूरी ही रह गई।
शिल्पा चाहती हैं कि ऑन स्क्रीन उन्हें एक मुजरा करने का अवसर मिले। आजकल फिल्म बनाने का तरीका बहुत बदल गया है और मुजरे की कोई जगह नहीं रही है। पहले बनने वाली हर दूसरी फिल्म में मुजरा होता था। रेखा, हेमा मालिनी आदि पर कई मुजरे फिल्माए गए हैं।
एक अभिनेत्री के रूप में शिल्पा का करियर लगभग खत्म हो गया है, लेकिन संभव है कि कोई निर्माता या निर्देशक शिल्पा की यह इच्छा पूरी कर दे। आखिर एक गाने का ही तो सवाल है।
अनिल कपूर की बेटी सोनम कपूर अच्छी अभिनेत्री हैं। खूबसूरत भी हैं। लेकिन बॉलीवुड में पूछ-परख तभी बढ़ती है जब आपके खाते में सफल फिल्म हो। इस मामले में सोनम की झोली खाली है।
‘साँवरिया’ और ‘देहली 6’ जैसी फिल्मों में सोनम ने सराहनीय अभिनय किया, लेकिन ये फिल्में असफल हो गईं और सोनम अपनी समकालीन नायिकाओं से पिछड़ गईं।
सोनम चाहती तो कई फिल्म साइन कर सकती थीं, लेकिन कहते हैं कि फिल्मों के चयन के मामले में पापा अनिल का दखल रहता है। वे चाहते हैं भले ही सोनम कम फिल्में करें किंतु अच्छी करें। सोनम उनकी बात मान रही हैं। सोनम को लेकर अनिल भी एक फिल्म बना रहे हैं जिसमें उनके हीरो हैं अभय देओल।
एक और फिल्म है जिससे सोनम ने बहुत उम्मीद पाल रखी है। धर्मा प्रोडक्शन यानी करण जौहर के बैनर की ‘आई हेट लव स्टोरीज़’ से। टीनएजर्स को ध्यान में रखकर यह फिल्म बनाई गई इस फिल्म में इमरान खान और सोनम की जोड़ी है। फिल्म के प्रोमो दिखाए जा रहे हैं और इस जोड़ी को देख पॉजिटिव फीडबैक मिले हैं। पहली बार सोनम अपने हमउम्र हीरो की नायिका बनी हैं।
इस फिल्म में सोनम की भूमिका ऐसी लड़की की है जो प्यार में बहुत विश्वास करती है। जबकि इमरान की सोच इसके विपरीत है। सोनम का मानना है कि इस बार उनका नाम एक हिट फिल्म के साथ जुड़ जाएगा क्योंकि इस फिल्म में वो सब कुछ है जो आज का युवा पसंद करता है।
क्या पूरी होगी शिल्पा की ख्वाहिश?
फिल्मों में अभिनय से ज्यादा शिल्पा शेट्टी उन गानों के लिए पहचानी जाती हैं, जो उन पर फिल्माए गए हैं। कई लोकप्रिय गानों पर शिल्पा ने डांस कर लोगों को झूमने पर मजबूर कर दिया। यूपी, बिहार सहित पूरे विश्व के प्रशंसकों का दिल लूट लिया। फिर भी उनकी एक इच्छा अधूरी ही रह गई।
शिल्पा चाहती हैं कि ऑन स्क्रीन उन्हें एक मुजरा करने का अवसर मिले। आजकल फिल्म बनाने का तरीका बहुत बदल गया है और मुजरे की कोई जगह नहीं रही है। पहले बनने वाली हर दूसरी फिल्म में मुजरा होता था। रेखा, हेमा मालिनी आदि पर कई मुजरे फिल्माए गए हैं।
एक अभिनेत्री के रूप में शिल्पा का करियर लगभग खत्म हो गया है, लेकिन संभव है कि कोई निर्माता या निर्देशक शिल्पा की यह इच्छा पूरी कर दे। आखिर एक गाने का ही तो सवाल है।
लड़कियाँ
हर बार बाजी लड़कियों के हाथ में क्यों?
रिजल्ट आने लगे हैं। मेहनत, प्रतिभा, भाग्य और लगन, सब इस बार भी दाँव पर लगे थे। हर बार की तरह जीत मेहनत की हुई। यानी लड़कियों ने लहरा दिए हमेशा की तरह परचम। हर बार रिजल्ट इसी तरह आते हैं और कमोबेश हर अखबार की सुर्खियाँ यही होती है कि लड़कियों ने मारी बाजी।
प्रश्न यह उठता है कि आखिर ऐसा क्या है इन लड़कियों में जो तमाम दबावों और जिम्मेदारियों से निपटते-जूझते भी आगे निकल जाती है। भावुकता,नजाकत और चंचलता जैसे गुणों के होते हुए भी कैसे लड़कों को पीछे धकेल खुद को साबित कर देती है?
मनोविज्ञान कहता है लड़कियों में कुछ ऐसे विशिष्ट गॉड गिफ्टेड गुण होते हैं जिनकी बराबरी लड़के कर ही नहीं सकते। हमें प्रकृति के इस भेद को स्वीकारना होगा कि स्त्री और पुरुष दो अलग-अलग स्वरूप में गढ़े गए ईश्वर के खिलौने हैं। दोनों की क्वॉलिटी डिफरेंट है। आइए कुछ बेसिक अंतर पर गौर फरमा लिया जाए :
खुद के प्रति अवेयर : भारतीय परिवेश में लड़कियाँ जिस तरह से संस्कारित की जाती है उससे वे स्वयं के प्रति जागरूक रहना सीख जाती है। उन्हें कब क्या करना है इसे लेकर बचपन से उनका मानस बनने लगता है। वहीं लड़कों में लापरवाही के गुण जल्दी विकसित होते हैं। फैमेली में लड़कियाँ लाड़ली होती है बावजूद इसके लड़कियाँ अपनी केयर खुद करना जल्दी सीख जाती है। खुद के प्रति जवाबदेही की स्थिति उन्हें पढ़ाई के प्रति भी गंभीर बना देती है।
किसी जमाने में समाज के कुछ हिस्सों में लड़कियाँ उपेक्षित होती होंगी,आजकल लड़कियाँ परिवार में ज्यादा अटेंशन पाती है। ज्यादा केयर भी उन्हें मिलने लगी है। इस बात का लड़कियाँ गलत फायदा नहीं उठाती है और करियर के प्रति गंभीरता बनाए रखती है।
पेरेंट्स के प्रति ग्रेटफुल : बचपन से ही लड़कियाँ इस अहसास के साथ जीती हैं कि एक दिन उन्हें किसी और के घर जाना है। यह बात उन्हें अपने पेरेंट्स के और करीब ले आती है। अपनी पढ़ाई और दूसरे खर्चों पर माता-पिता का सेक्रिफाइज करना उन्हें कचोटता है। यही कारण है कि उनमें जल्द ही कुछ बनकर माता-पिता के उपकारों का बदला चुकाने का जुनून होता है।
लड़के इस मामले में उतने संवेदनशील नहीं होते हैं कि पेरेंट्स की तकलीफों को महसूस कर सकें। उन्हें लगता है पेरेंट्स जो कुछ कर रहे हैं उस पर उनका पूरा हक है, जबकि लड़कियाँ और अधिक ग्रेटफुल हो जाती हैं। यह एक अहम वजह हो सकती है कि लड़कियाँ रिजल्ट का शानदार तोहफा लेकर फैमेली को देती है।
मेहनत का जवाब नहीं : जाहिर तौर पर लड़कियाँ लड़कों से अधिक मेहनत करती है, यह बात और है कि एक्जाम के अलावा कहीं और उतनी ईमानदारी से उनका मूल्यांकन नहीं होता। जिम्मेदारियों को निभाते हुए वे अपने लिए एक-एक पल चुराती हैं। इसीलिए अपने लिए मिले लम्हों को वह सही ढंग से यूटिलाइज करना चाहती है। चाहे लड़कों को बुरा लगें उन्हें स्वीकारना होगा कि लड़कियों की तुलना में वे आलसी होते हैं।
करियर को लेकर क्लियर : यह लड़कियों की सबसे खास खूबी होती है कि वे बहुत जल्दी यह जान लेती है कि उन्हें क्या बनना है, वे क्या करना चाहती है। अपना फ्यूचर कैसा देखना चाहती है। वहीं लड़के अकसर इस डाइलेमा से बाहर नहीं आ पाते हैं कि वे क्या करें और क्या नहीं। पल-पल में उनके विचार बदलते हैं। लड़कियाँ उनके मुकाबले स्थिर दिमाग की होती है।
दूसरा, लड़कों में हर चीज हासिल करने का नशा होता है, परिणाम यह होता है कि जो वे आसानी से हासिल कर सकते थे उससे भी वंचित रह जाते हैं। लड़कियाँ हर चीज के पीछे नहीं भागती, वे शांत रहकर अपनी क्षमता और दक्षता का मूल्यांकन करते हुए करियर को लेकर क्लियर होती हैं।
लाजवाब कम्यूनिकेशन स्किल : यह बात लड़के ना भी मानें तो वैज्ञानिकों के रिसर्च उन्हें मानने के लिए बाध्य कर देंगे कि लड़कियों में खुद को अभिव्यक्त करने की विलक्षण क्षमता होती है। वे जैसा सोचतीं हैं, वैसा ही कहने और लिखने की योग्यता उनमें होती है। यही वजह है कि एक्जाम में अपने दिमाग का कुशलतापूर्वक इस्तेमाल करते हुए वे वह सब लिख पातीं है जैसा सोच रही होती हैं। जबकि लड़कों में विचारों का प्रवाह होता है लेकिन उनकी डिलेवरी उतनी इफेक्टीव नहीं हो पाती। जाहिर सी बात है कि एक्जामिनर कॉपी देखता है, लड़की या लड़का नहीं।
डेडिकेशन एंड कमिटमेंट : मेहनत और लगन, लड़कियाँ खुद को किसी काम में डुबोती है तो यही दो उनके हथियार होते हैं,जाहिर तौर पर वह जंग जीत जाती हैं। क्योंकि कोई भी काम, समर्पण और प्रतिबद्धता के बिना सफल हो ही नहीं सकता। लड़के तुलनात्मक रूप से उतने समर्पण भाव से कोई काम नहीं करते, पढ़ाई की बात हो तो मामला और पेचीदा हो जाता है। पेरेंट्स की टोकाटोकी उनके बचे-खुचे समर्पण भाव को भी खत्म कर देती है। लड़कियों को टोकना ही नहीं पड़ता वे स्टडी भी उतने ही चाव से करती हैं जितनी चाव से फैशन।
नो फालतू शौक : अब इस पर क्या कहें। सिगरेट हो या मूवी का फर्स्ट शो। गुटखा हो या गॉगल्स, जींस हो या गर्लफ्रेंड पर इंप्रेशन। आउटिंग हो या लॉंग ड्राइव, बाइक हो या मोबाइल, खर्चे और शौक हमेशा से ही लड़कों के ज्यादा होते हैं। महँगे शौक उन्हें इतना वक्त ही नहीं देते कि अपनी स्टडी को लेकर सीरियस हो सकें। फिर जब लड़कियाँ मैदान मार लेती हैं तो सिर धुनने के सिवा बचता ही क्या हैं।
प्रॉएरिटी या एजेंडा सेटिंग : लड़कियाँ इस मामले में बेहद चतुर होती है। उन्हें देखकर आप यह अंदाज नहीं लगा सकते कि फैशन, फिल्में, स्टाइल को मेंटेन करते हुए भी उनका लाइफ एजेंडा कुछ और ही होता है। जब स्टडी की बात आती है तो इन सबके साथ वे फोकस्ड हो जाती हैं अपनी प्रॉएरिटी लेवल को सेट करने में। यहीं लड़के मात खा जाते हैं उनका कोई प्रॉएरिटी लेवल होता ही नहीं है।
यूँ तो गिनाने बैठें तो कई प्वॉइंट्स निकल आएँगे लेकिन फिलहाल इन शॉर्ट कॉन्फिडेंस, कॉन्संट्रेशन, एनर्जिटिक, लर्निंग एबिलिटी सही डायरेक्शन में नारी सुलभ जॅलेसी का इस्तेमाल, सिस्टेमैटिक, स्मार्ट और सेंसेटिव होना लड़कियों के ऐसे दुर्लभ गुण हैं जो उन्हें मंजिल तक पहुँचाने में हेल्प करते हैं। अब आप गाते रहें धुन में 'ब्वॉयज आर बेस्ट', लड़कियों ने तो साबित कर दिया।
रिजल्ट आने लगे हैं। मेहनत, प्रतिभा, भाग्य और लगन, सब इस बार भी दाँव पर लगे थे। हर बार की तरह जीत मेहनत की हुई। यानी लड़कियों ने लहरा दिए हमेशा की तरह परचम। हर बार रिजल्ट इसी तरह आते हैं और कमोबेश हर अखबार की सुर्खियाँ यही होती है कि लड़कियों ने मारी बाजी।
प्रश्न यह उठता है कि आखिर ऐसा क्या है इन लड़कियों में जो तमाम दबावों और जिम्मेदारियों से निपटते-जूझते भी आगे निकल जाती है। भावुकता,नजाकत और चंचलता जैसे गुणों के होते हुए भी कैसे लड़कों को पीछे धकेल खुद को साबित कर देती है?
मनोविज्ञान कहता है लड़कियों में कुछ ऐसे विशिष्ट गॉड गिफ्टेड गुण होते हैं जिनकी बराबरी लड़के कर ही नहीं सकते। हमें प्रकृति के इस भेद को स्वीकारना होगा कि स्त्री और पुरुष दो अलग-अलग स्वरूप में गढ़े गए ईश्वर के खिलौने हैं। दोनों की क्वॉलिटी डिफरेंट है। आइए कुछ बेसिक अंतर पर गौर फरमा लिया जाए :
खुद के प्रति अवेयर : भारतीय परिवेश में लड़कियाँ जिस तरह से संस्कारित की जाती है उससे वे स्वयं के प्रति जागरूक रहना सीख जाती है। उन्हें कब क्या करना है इसे लेकर बचपन से उनका मानस बनने लगता है। वहीं लड़कों में लापरवाही के गुण जल्दी विकसित होते हैं। फैमेली में लड़कियाँ लाड़ली होती है बावजूद इसके लड़कियाँ अपनी केयर खुद करना जल्दी सीख जाती है। खुद के प्रति जवाबदेही की स्थिति उन्हें पढ़ाई के प्रति भी गंभीर बना देती है।
किसी जमाने में समाज के कुछ हिस्सों में लड़कियाँ उपेक्षित होती होंगी,आजकल लड़कियाँ परिवार में ज्यादा अटेंशन पाती है। ज्यादा केयर भी उन्हें मिलने लगी है। इस बात का लड़कियाँ गलत फायदा नहीं उठाती है और करियर के प्रति गंभीरता बनाए रखती है।
पेरेंट्स के प्रति ग्रेटफुल : बचपन से ही लड़कियाँ इस अहसास के साथ जीती हैं कि एक दिन उन्हें किसी और के घर जाना है। यह बात उन्हें अपने पेरेंट्स के और करीब ले आती है। अपनी पढ़ाई और दूसरे खर्चों पर माता-पिता का सेक्रिफाइज करना उन्हें कचोटता है। यही कारण है कि उनमें जल्द ही कुछ बनकर माता-पिता के उपकारों का बदला चुकाने का जुनून होता है।
लड़के इस मामले में उतने संवेदनशील नहीं होते हैं कि पेरेंट्स की तकलीफों को महसूस कर सकें। उन्हें लगता है पेरेंट्स जो कुछ कर रहे हैं उस पर उनका पूरा हक है, जबकि लड़कियाँ और अधिक ग्रेटफुल हो जाती हैं। यह एक अहम वजह हो सकती है कि लड़कियाँ रिजल्ट का शानदार तोहफा लेकर फैमेली को देती है।
मेहनत का जवाब नहीं : जाहिर तौर पर लड़कियाँ लड़कों से अधिक मेहनत करती है, यह बात और है कि एक्जाम के अलावा कहीं और उतनी ईमानदारी से उनका मूल्यांकन नहीं होता। जिम्मेदारियों को निभाते हुए वे अपने लिए एक-एक पल चुराती हैं। इसीलिए अपने लिए मिले लम्हों को वह सही ढंग से यूटिलाइज करना चाहती है। चाहे लड़कों को बुरा लगें उन्हें स्वीकारना होगा कि लड़कियों की तुलना में वे आलसी होते हैं।
करियर को लेकर क्लियर : यह लड़कियों की सबसे खास खूबी होती है कि वे बहुत जल्दी यह जान लेती है कि उन्हें क्या बनना है, वे क्या करना चाहती है। अपना फ्यूचर कैसा देखना चाहती है। वहीं लड़के अकसर इस डाइलेमा से बाहर नहीं आ पाते हैं कि वे क्या करें और क्या नहीं। पल-पल में उनके विचार बदलते हैं। लड़कियाँ उनके मुकाबले स्थिर दिमाग की होती है।
दूसरा, लड़कों में हर चीज हासिल करने का नशा होता है, परिणाम यह होता है कि जो वे आसानी से हासिल कर सकते थे उससे भी वंचित रह जाते हैं। लड़कियाँ हर चीज के पीछे नहीं भागती, वे शांत रहकर अपनी क्षमता और दक्षता का मूल्यांकन करते हुए करियर को लेकर क्लियर होती हैं।
लाजवाब कम्यूनिकेशन स्किल : यह बात लड़के ना भी मानें तो वैज्ञानिकों के रिसर्च उन्हें मानने के लिए बाध्य कर देंगे कि लड़कियों में खुद को अभिव्यक्त करने की विलक्षण क्षमता होती है। वे जैसा सोचतीं हैं, वैसा ही कहने और लिखने की योग्यता उनमें होती है। यही वजह है कि एक्जाम में अपने दिमाग का कुशलतापूर्वक इस्तेमाल करते हुए वे वह सब लिख पातीं है जैसा सोच रही होती हैं। जबकि लड़कों में विचारों का प्रवाह होता है लेकिन उनकी डिलेवरी उतनी इफेक्टीव नहीं हो पाती। जाहिर सी बात है कि एक्जामिनर कॉपी देखता है, लड़की या लड़का नहीं।
डेडिकेशन एंड कमिटमेंट : मेहनत और लगन, लड़कियाँ खुद को किसी काम में डुबोती है तो यही दो उनके हथियार होते हैं,जाहिर तौर पर वह जंग जीत जाती हैं। क्योंकि कोई भी काम, समर्पण और प्रतिबद्धता के बिना सफल हो ही नहीं सकता। लड़के तुलनात्मक रूप से उतने समर्पण भाव से कोई काम नहीं करते, पढ़ाई की बात हो तो मामला और पेचीदा हो जाता है। पेरेंट्स की टोकाटोकी उनके बचे-खुचे समर्पण भाव को भी खत्म कर देती है। लड़कियों को टोकना ही नहीं पड़ता वे स्टडी भी उतने ही चाव से करती हैं जितनी चाव से फैशन।
नो फालतू शौक : अब इस पर क्या कहें। सिगरेट हो या मूवी का फर्स्ट शो। गुटखा हो या गॉगल्स, जींस हो या गर्लफ्रेंड पर इंप्रेशन। आउटिंग हो या लॉंग ड्राइव, बाइक हो या मोबाइल, खर्चे और शौक हमेशा से ही लड़कों के ज्यादा होते हैं। महँगे शौक उन्हें इतना वक्त ही नहीं देते कि अपनी स्टडी को लेकर सीरियस हो सकें। फिर जब लड़कियाँ मैदान मार लेती हैं तो सिर धुनने के सिवा बचता ही क्या हैं।
प्रॉएरिटी या एजेंडा सेटिंग : लड़कियाँ इस मामले में बेहद चतुर होती है। उन्हें देखकर आप यह अंदाज नहीं लगा सकते कि फैशन, फिल्में, स्टाइल को मेंटेन करते हुए भी उनका लाइफ एजेंडा कुछ और ही होता है। जब स्टडी की बात आती है तो इन सबके साथ वे फोकस्ड हो जाती हैं अपनी प्रॉएरिटी लेवल को सेट करने में। यहीं लड़के मात खा जाते हैं उनका कोई प्रॉएरिटी लेवल होता ही नहीं है।
यूँ तो गिनाने बैठें तो कई प्वॉइंट्स निकल आएँगे लेकिन फिलहाल इन शॉर्ट कॉन्फिडेंस, कॉन्संट्रेशन, एनर्जिटिक, लर्निंग एबिलिटी सही डायरेक्शन में नारी सुलभ जॅलेसी का इस्तेमाल, सिस्टेमैटिक, स्मार्ट और सेंसेटिव होना लड़कियों के ऐसे दुर्लभ गुण हैं जो उन्हें मंजिल तक पहुँचाने में हेल्प करते हैं। अब आप गाते रहें धुन में 'ब्वॉयज आर बेस्ट', लड़कियों ने तो साबित कर दिया।
शुक्रवार, 21 मई 2010
खबर-संसार
समलैंगिक दंपति के पक्ष में उतरी मैडोना
पॉप सनसनी मैडोना ने मलावी द्वारा दो समलैंगिकों को जेल भेजे जाने को ‘पिछड़ेपन’ का प्रतीक बताते हुए वहाँ के नागरिकों से अनुरोध किया है कि वे उन्हें मुक्त कराने के लिए आगे आएँ।
इससे पहले गुरुवार को मलावी की एक अदालत ने समलैंगिक होने के कारण स्टीवेन मोनजेजा और तिवोन्गे चिमबालांगा को 14 साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई है। प्रसिद्ध समलैंगिक चेहरे के रूप में जाने जानी वाली मैडोना ने अपने दो बच्चों को मलावी से गोद लिया है। मैडोना अदालत के इस निर्णय से काफी दुखी हैं।
मैडोना ने कहा कि मैं मलावी के अदालत के इस निर्णय से आश्चर्यचकित और दुखी हूँ। अदालत ने दो निर्दोष लोगों को जेल भेज दिया। अगर सिद्धांतों की बात करें तो मैं सभी लोगों के लिए समान अधिकार में विश्वास करती हूँ फिर चाहे उनका लिंग, जाति, रंग और धर्म कुछ भी हो।
उन्होंने कहा कि आज मलावी ने पिछड़ेपन की तरफ एक बड़ा कदम उठाया है। यह विश्व दर्द और दुखों से भरा हुआ है इसलिए हमें प्यार और अपने चाहने वाले के लिए मूलभूत मानवाधिकारों का समर्थन करना चाहिए।
नेहा धूपिया : फिलहाल करियर महत्वपूर्ण
नेहा धूपिया को इस बात की पूरी उम्मीद है आने वाली फिल्म ‘विद लव टू ओबामा’ उनके करियर की महत्वपूर्ण फिल्म साबित होगी। हाल ही में इस फिल्म की शूटिंग आरंभ हुई थी। तेजी से काम हुआ और फिल्म की शूटिंग खत्म भी हो गई।
मायावती से प्रेरित नेहा का किरदार!
फिल्म में नेहा मेरठ की मुन्नी मैडम बनी हैं जो एक डकैत है। इस बात की चर्चा है कि उनके किरदार के बोलने का तरीका, बॉडी लैंग्वज और स्टाइल मायावती से प्रेरित है। नेहा ने इस मामले में चुप्पी साध रखी है क्योंकि वे फिल्म को विवादों से बचाए रखना चाहती हैं।
शबाना से लिए टिप्स
नेहा पहली बार डकैत बनी हैं। रोल उनके लिए चैलेंजिंग था, इसलिए उन्होंने एक्टिंग के कुछ टिप्स शबाना आजमी से लिए। नेहा ने जिस भाषा में संवाद बोले हैं उसके उच्चारण के लिए उन्होंने काफी मेहनत की है।
करियर से खुश
नेहा का मानना है कि उनका करियर सही राह पर है और वे बेहद खुश हैं। जहाँ एक ओर ‘दे दना दन’, ‘सिंह इज़ किंग’ जैसी बड़ी फिल्मों में उन्हें अवसर मिल रहे हैं वहीं दूसरी ओर ‘मिथ्या’, ‘रात गई बात गई’ जैसी ऑफबीट फिल्मों में भी उन्हें रोल मिल रहे हैं।
शादी की जल्दी नहीं
नेहा का अरसे से ऋत्विक भट्टाचार्य से रोमांस चल रहा है, लेकिन नेहा इस बारे में बात करना बहुत कम पसंद करती हैं। दरअसल ऋत्विक अपने रोमांस की चर्चा नहीं करना चाहते हैं और मीडिया से दूर रहना चाहते हैं, इसलिए नेहा उनकी पूरी मदद करती है। वैसे नेहा उन्हें सिर्फ अपना दोस्त बताती हैं। जहाँ तक शादी का सवाल है तो नेहा का कहना है कि उनके करियर का स्वर्णिम दौर चल रहा है और उन्हें शादी की जल्दी नहीं है।
पॉप सनसनी मैडोना ने मलावी द्वारा दो समलैंगिकों को जेल भेजे जाने को ‘पिछड़ेपन’ का प्रतीक बताते हुए वहाँ के नागरिकों से अनुरोध किया है कि वे उन्हें मुक्त कराने के लिए आगे आएँ।
इससे पहले गुरुवार को मलावी की एक अदालत ने समलैंगिक होने के कारण स्टीवेन मोनजेजा और तिवोन्गे चिमबालांगा को 14 साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई है। प्रसिद्ध समलैंगिक चेहरे के रूप में जाने जानी वाली मैडोना ने अपने दो बच्चों को मलावी से गोद लिया है। मैडोना अदालत के इस निर्णय से काफी दुखी हैं।
मैडोना ने कहा कि मैं मलावी के अदालत के इस निर्णय से आश्चर्यचकित और दुखी हूँ। अदालत ने दो निर्दोष लोगों को जेल भेज दिया। अगर सिद्धांतों की बात करें तो मैं सभी लोगों के लिए समान अधिकार में विश्वास करती हूँ फिर चाहे उनका लिंग, जाति, रंग और धर्म कुछ भी हो।
उन्होंने कहा कि आज मलावी ने पिछड़ेपन की तरफ एक बड़ा कदम उठाया है। यह विश्व दर्द और दुखों से भरा हुआ है इसलिए हमें प्यार और अपने चाहने वाले के लिए मूलभूत मानवाधिकारों का समर्थन करना चाहिए।
नेहा धूपिया : फिलहाल करियर महत्वपूर्ण
नेहा धूपिया को इस बात की पूरी उम्मीद है आने वाली फिल्म ‘विद लव टू ओबामा’ उनके करियर की महत्वपूर्ण फिल्म साबित होगी। हाल ही में इस फिल्म की शूटिंग आरंभ हुई थी। तेजी से काम हुआ और फिल्म की शूटिंग खत्म भी हो गई।
मायावती से प्रेरित नेहा का किरदार!
फिल्म में नेहा मेरठ की मुन्नी मैडम बनी हैं जो एक डकैत है। इस बात की चर्चा है कि उनके किरदार के बोलने का तरीका, बॉडी लैंग्वज और स्टाइल मायावती से प्रेरित है। नेहा ने इस मामले में चुप्पी साध रखी है क्योंकि वे फिल्म को विवादों से बचाए रखना चाहती हैं।
शबाना से लिए टिप्स
नेहा पहली बार डकैत बनी हैं। रोल उनके लिए चैलेंजिंग था, इसलिए उन्होंने एक्टिंग के कुछ टिप्स शबाना आजमी से लिए। नेहा ने जिस भाषा में संवाद बोले हैं उसके उच्चारण के लिए उन्होंने काफी मेहनत की है।
करियर से खुश
नेहा का मानना है कि उनका करियर सही राह पर है और वे बेहद खुश हैं। जहाँ एक ओर ‘दे दना दन’, ‘सिंह इज़ किंग’ जैसी बड़ी फिल्मों में उन्हें अवसर मिल रहे हैं वहीं दूसरी ओर ‘मिथ्या’, ‘रात गई बात गई’ जैसी ऑफबीट फिल्मों में भी उन्हें रोल मिल रहे हैं।
शादी की जल्दी नहीं
नेहा का अरसे से ऋत्विक भट्टाचार्य से रोमांस चल रहा है, लेकिन नेहा इस बारे में बात करना बहुत कम पसंद करती हैं। दरअसल ऋत्विक अपने रोमांस की चर्चा नहीं करना चाहते हैं और मीडिया से दूर रहना चाहते हैं, इसलिए नेहा उनकी पूरी मदद करती है। वैसे नेहा उन्हें सिर्फ अपना दोस्त बताती हैं। जहाँ तक शादी का सवाल है तो नेहा का कहना है कि उनके करियर का स्वर्णिम दौर चल रहा है और उन्हें शादी की जल्दी नहीं है।
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