बुधवार, 2 जून 2010

काव्य-संसार

रोहिणी तप रही है


वर्षा के लिए
चल रहा है अनुष्ठान
चिंता मत करो
न करो हाहाकार
वर्षा के लिए ही निर्जला व्रत में
धरती खप रही है
धीरज रखो, तुम्हारे लिए ही
रोहिणी तप रही है।

पर्वत खड़े हैं भुजाएँ फैलाकर

NDमिट्टी गूँथ रही हैं स्वप्नमालाएँ
रोम-रोम पुलकित हो उठेगा
उतरेंगी जब पर्जन्य ऋचाएँ
प्रकृति वर्षा के निमित्त ही
माला जप रही है
धीरज रखो, तुम्हारे लिए ही
रोहिणी तप रही है।

यज्ञ सफल नहीं होता तप के बिन
पसीना ही लाता है आषाढ़
का पहला दिन
सूरज की कविताएँ
धूप में छप रही हैं
धीरज रखो, तुम्हारे लिए ही
रोहिणी तप रही है।

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