मंगलवार, 23 मार्च 2010

बलिदान दिवस पर विशेष

बलिदान से पहले साथियों को अंतिम पत्र
22 मार्च 1931
साथियों,

स्वाभाविक है कि जीने की इच्छा मुझमें भी होनी चाहिए। मैं इसे छिपाना नहीं चाहता, लेकिन एक शर्त पर जिंदा रह सकता हूँ कि मैं कैद होकर या पाबंद होकर जीना नहीं चाहता।
मेरा नाम हिन्दुस्तानी क्रांति का प्रतीक बन चुका है और क्रांतिकारी दल के आदर्शों और कुर्बानियों ने मुझे बहुत ऊँचा उठा दिया है- इतना ऊँचा कि जीवित रहने की स्थिति में इससे ऊँचा मैं हर्गिज नहीं हो सकता। आज मेरी कमजोरियाँ जनता के सामने नहीं हैं। अगर मैं फाँसी से बच गया तो वे जाहिर हो जाएँगी और क्रांति का प्रतीक चिन्ह मद्धिम पड़ जाएगा या संभवतः मिट ही जाए।
लेकिन दिलेराना ढंग से हँसते-हँसते मेरे फाँसी चढ़ने की सूरत में हिन्दुस्तानी माताएँ अपने बच्चों के भगतसिंह बनने की आरजू किया करेंगी और देश की आजादी के लिए कुर्बानी देने वालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि क्रांति को रोकना साम्राज्यवाद या तमाम शैतानी शक्तियों के बूते की बात नहीं रहेगी।
हाँ, एक विचार आज भी मेरे मन में आता है कि देश और मानवता के लिए जो कुछ करने की हसरतें मेरे दिल में थीं, उनका हजारवाँ भाग भी पूरा नहीं कर सका। अगर स्वतंत्र, जिंदा रह सकता, तब शायद उन्हें पूरा करने का अवसर मिलता और मैं अपनी हसरतें पूरी कर सकता। इसके सिवाय मेरे मन में कभी कोई लालच फाँकसी से बचने का नहीं आया। मुझसे अधिक भाग्यशाली कौन होगा? आजकल मुझे स्वयं पर बहुत गर्व है। अब तो बड़ी बेताबी से अंतिम परीक्षा का इंतजार है। कामना है कि यह और नजदीक हो जाए।

आपका साथी,
भगतसिंह
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भगतसिंह के दस्तावेज उनकी पहचान हैं
23 मार्च 1931 को अँगरेज सरकार ने जनता के आक्रोश से डरकर धाँधली से आजादी के तीन महान रणबाँकुरों भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव को फाँसी के फंदे पर लटका दिया था। शहीद हो जाने पर ये नौजवान हमेशा-हमेशा के लिए भारतीय जनमानस के अविस्मयकारी बलिदानी बन गए।
दरअसल, भगतसिंह उन विरले क्रांतिकारियों में से थे, जो न केवल विदेशी हुकूमत को खदेड़ने के लिए संघर्षरत थे, बल्कि वे पूरे देश में अपनी बेमिसाल सक्रियता से आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे। भगतसिंह बेहद पढ़ाकू थे, एक अच्छे संगठक थे, पत्रकार थे और लेखक थे। जो निरंतर जनता को सच्ची आजादी का सपना दिखा रहे थे।
भगतसिंह की मानसिकता, जीवन दृष्टि और राजनीति को समझने के लिए उनके लिखे गए पत्र, लेख और दस्तावेजों का पढ़ना जरूरी है, तभी हम समझ पाएँगे कि वे आजादी के बाद एक ऐसे नए समाज का निर्माण करना चाहते थे, जो शोषण से मुक्त हो और जहाँ हर व्यक्ति खुशहाल रहे। उनकी इस बेचैनी और आजादी के लिए व्यक्तिगत कुर्बानी के जज्बे को समझने के लिए उनके पत्र पढ़ना जरूरी है। पेश है तीनों रणबाँकुरों के बलिदान दिवस 23 मार्च पर उनके पत्र के संक्षिप्त अंश-

हमें गोली से उड़ाया जाए
प्रति, 20 मार्च 1931
गवर्नर पंजाब, शिमला
महोदय,
उचित सम्मान के साथ हम नीचे लिखी बातें आपकी सेवा में रख रहे हैं- भारत की ब्रिटिश सरकार के सर्वोच्च अधिकारी वाइसराय ने एक विशेष अध्यादेश जारी करके लाहौर षड्यंत्र अभियोग की सुनवाई के लिए एक विशेष न्यायाधिकरण ट्रिब्यूनल स्थापित किया था। जिसने 7 अक्टूबर 1930 को हमें फाँसी का दंड सुनाया। हमारे विरुद्ध सबसे बड़ा आरोप यह लगाया गया है कि हमने सम्राट जॉर्ज पंचम के विरुद्ध युद्ध किया है। न्यायालय के निर्णय से दो बातें स्पष्ट हो जाती हैं-
पहली यह कि अँगरेज जाति और भारतीय जनता के मध्य एक युद्ध चल रहा है। दूसरे यह कि हमने निश्चित रूप से इस युद्ध में भाग लिया है, अतः हम युद्धबंदी हैं...। हम यह कहना चाहते हैं कि युद्ध छिड़ा हुआ है और यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी, जब तक कि शक्तिशाली व्यक्तियों ने भारतीय जनता और श्रमिकों की आय के साधनों पर अपना एकाधिकार कर रखा है...।
निश्चय ही यह युद्ध उस समय तक समाप्त नहीं होगा, जब तक कि समाज का वर्तमान ढाँचा समाप्त नहीं हो जाता। प्रत्येक वस्तु में परिवर्तन या क्रांति समाप्त नहीं हो जाती और मानवीय सृष्टि में एक नवीन युग का सूत्रपात नहीं हो जाता। ...हम आपसे केवल यह प्रार्थना करना चाहते हैं कि आपकी सरकार के ही न्यायालय के निर्णय के अनुसार हमारे विरुद्ध युद्ध जारी रखने का अभियोग है। इस स्थिति में हम युद्धबंदी हैं। अतः इस आधार पर हम आपसे माँग करते हैं कि हमारे प्रति युद्धबंदियों जैसा ही व्यवहार किया जाए और हमें फाँसी देने के बदले गोली से उड़ा दिया जाए...।
भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव
(20 मार्च 1931 को फाँसी पर लटकाए जाने से पहले सरदार भगतसिंह और उनके साथियों सुखदेव एवं राजगुरु ने पंजाब के तत्कालीन गवर्नर से माँग की थी कि उन्हें युद्धबंदी माना जाए और फाँसी पर लटकाए जाने के बजाय गोली से उड़ा दिया जाए। उनके उस पत्र का संक्षिप्त ब्योरा)

पिताजी के नाम भगतसिंह का पत्र
घर को अलविदा
पूज्य पिताजी,
नमस्ते

मेरी जिंदगी मकसदे आला (ऊँचा उद्देश्य) यानी आजादी-ए-हिन्द के असूल (सिद्धांत) के लिए वक्फ (दान) हो चुकी है। इसलिए मेरी जिंदगी में आराम और दुनियावी खाहशात (सांसारिक इच्छाएँ) वायसे कशिश (आकर्षक) नहीं है।
आपको याद होगा कि जब मैं छोटा था तो बापूजी ने मेरे यज्ञोपवीत के वक्त ऐलान किया था कि मुझे खिदमते वतन (देशसेवा) के लिए वक्फ कर दिया गया है। लिहाजा मैं उस वक्त की प्रतिज्ञा पूरी कर रहा हूँ।
उम्मीद है आप मुझे माफ फरमाएँगे

आपका ताबेदार
भगतसिंह

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