कभी-कभी वो पोस्ट ऑफिस के साथ वाली गली से निकलकर, अचानक मेरे सामने आ जाता है। नाक पर टिका हुआ इतने मोटे लैंस का चश्मा कि लैंस के पीछे छुपी हुई उसकी आंखें बिल्कुल भी दिखलाई नहीं देतीं। सिर पर घने घुंघराले बाल। कुछ लम्बाई लेता हुआ तीखे नाक-नक्श वाला चेहरा। दरमियाना कद और दुबली काठी पर झूलते हुए ढीले-ढाले कपड़े। कमोबेश उसका हुलिया आज भी वैसा ही है जैसा वर्षो पहले विद्यालय में पढ़ने के समय हुआ करता था। तीस-पैंतीस साल बाद भी उसमें ऐसा कोई परिवर्तन नहीं आया है कि उसे पहचाना न जा सके। अलबत्ता बढ़ती हुई आयु के साथ अब वो उतना दुबला नहीं दिखता जितना कि छात्र जीवन में दिखा करता था।
विद्यालय में वो दंगल का दिन था। ब्वॉयस हॉस्टल के खुले मैदान के एक कोने में खोदकर बना लिए गए अखाड़े में कुछ तगड़े और कुछ बेहद तगड़े पहलवाननुमा लड़के ताल ठोंक रहे थे। उनके शरीर का गठन देखकर ही लगता था कि वे कायदे के पहलवान है। चारों ओर दंगल देखने को जुट आए छात्रों की भीड़ जमा थी। दंगल शुरू हुआ। एक के बाद एक पहलवान पटके जाने लगे। जो जीतता वो हुंकारता हुआ अखाड़े का चक्कर काटता और शाबाशी लेकर कपड़े पहन लेता। दंगल के अंतिम चरण में एक लम्बे-चौड़े गठे हुए शरीर वाला पहलवान लगातार जीत रहा था। उसने दो तीन पहलवानों को बुरी तरह पटककर चित कर दिया था और अब हुंकारता, ताल ठोंकता और ललकारता हुआ अखाडे़ में किसी शेर की तरह घूम रहा था। भीड़ में बहुत से छात्र उसके पक्ष में आवाज भी उठा रहे थे। वह काफी देर तक ताल ठोंकता हुआ अखाड़े में घूमता रहा पर कोई भी पहलवान उससे कुश्ती लड़ने के लिए तैयार नहीं हुआ। दरअसल उससे लड़ चुके पहलवानों का हश्र सभी ने देख लिया था और अब कोई भी उससे भिड़ने का हौंसला नहीं जुटा पा रहा था।
उछल-उछलकर ताल ठोंकते और अखाड़े में चारो तरफ घूमते हुए अचानक वो पहलवान चिल्लाने लगा ''कोई मर्द नहीं रहा? जिसने मां का दूध पिया हो, आ जाए।''
वो बार-बार उछल-उछलकर ललकार रहा था। उसका स्वर इतना तीखा और अशिष्ट हो चुका था कि भीड़ में सन्नाटा पसर गया। उसके पक्ष में बोलने वाले छात्र भी चुप हो गए। निश्चय ही उसकी विजय ने उस पर नशा जैसा कर दिया था और वो अपनी विजय के दर्प में अखाड़े की मर्यादा भी भूल गया था। सारी भीड़ सकते में खड़ी थी, शायद भीतर ही भीतर उसकी ललकार पर कुढ़ भी रही थी- पर कुछ भी बोलने की हिम्मत किसी में नहीं थी।
पहलवान ने फिर ललकार भरी और अखाड़े का चक्कर लगाया। तभी हमने देखा कि भीड़ में खड़ा हुआ एक बेहद दुबला-पतला लड़का आगे बढ़कर चीखते हुए कह रहा है-''ठहर जा। मैं लड़ूंगा।'' पहलवान ने उस लड़के को गौर से देखा और ठहाका लगाकर हंसा। जैसा कि भीड़ का मनोविज्ञान होता है, भीड़ भी पहलवान की हंसी के समर्थन में हंसने लगी। पर इन बातों को उस लड़के पर कोई प्रभाव नहीं हुआ। उसने हाथ से घड़ी उतारकर अपने साथी को पकड़ाई और कमीज के बटन खोलने लगा। जिस समय उसने बनियान उतारी तो भीड़ एक बार फिर हंसी। वो इतना दुबला था कि उसकी एक-एक पसली दिखलाई दे रही थी।
साधारण से झूलते हुए कच्छे में अपना दुबला-पतला शरीर लेकर वो अखाड़े में घुसा और किसी पहलवान ही की तरह माटी को माथे से लगाया और ताल ठोंकी। सूखी हुई पतली-पतली टांगों पर उसके हथेली मारते ही भीड़ की फिर हंसी छूट गई। कोई क्या करता वो दृश्य ही ऐसा था। किसी को ध्यान आया कि उस लड़के ने चश्मा नहीं उतारा है। उसे पुकार कर चश्मा उतारने के लिए कहा गया। पर उसने सुना-अनसुना कर दिया। तभी पलक झपकते ही अब तक के विजेत पहलवान ने उसे उठाकर अखाड़े में पटक दिया। उसके जमीन पर गिरते ही चश्मा छिटककर दूर जा गिरा। वो फुर्ती से उठ बैठा पर शायद चश्में के बिना उसे कुछ भी स्पष्ट दिखाई नहीं दे रहा था। वो मिट्टी में हाथ मार-मार कर चश्मा ढूंढ़ने लगा। भीड़ फिर हंसने लगी। उसके दोस्त ने चश्मा उठाकर उसे पहनाया तो वो फिर खड़ा होकर पहलवान की तरफ लपका।
कुछ ही क्षणों मे उसे आठ-दस पटकनी लग चुकी थीं। पहलवान के सामने उसकी स्थिति शेर और मेमने वाली थी।
''मर जाएगा। अखाड़ा छोड़ दे।'' इस बेजोड़ कुश्ती से शायद पहलवान भी खिसिया गया था। ''मरूंगा तो मैं, तू क्यों परेशान होता है।'' उसने हांफते हुए जवाब दिया। पहलवान ने उसे उठाकर कुछ और पटकियां दीं। इस बार भी उसने बेहद लड़खड़ाते हुए कदमों से उठने की कोशिश की पर गिर गया फिर किसी तरह उठ खड़ा हुआ। उस लड़के की हालत अब तक, काफी बिगड़ चुकी थी पर वो पीछे हटने को तैयार नहीं था।
पता नहीं क्यों पहलवान उसे चित करके कुश्ती खत्म नहीं कर रहा था। शायद पटक-पटककर उसे उसकी धृष्टता का मजा चखाना चाहता था या फिर सोचता था कि इतनी पटकनियों के बाद वो खुद ही भाग जाएगा। क्योंकि उस जैसे दुबले-पतले कमजोर लड़के को चित करके पहलवान को न तो वाह-वाही मिलने वाली थी और न ही आत्म-संतोष।
लड़के की बिगड़ती हुई हालत देख कर अब तक आनंद ले रही भीड़ चिंतित होने लगी, पहले भीड़ में से उसके बचाव में आवाजें उभरने लगीं और फिर एका-एक काफी लोग अपने जूतों सहित अखाड़े में उतर आए। कुश्ती रोक दी गई। कुछ ने जबरन उस लड़के को किनारे किया और कुछ लड़के समझाकर पहलवान को दूसरी तरफ ले गए। पर ज्यादा भीड़ उस कमजोर लड़के को घेर कर खड़ी हुई थी। वो लड़का धीरे-धीरे बदन से मिट्टी झाड़ते हुए घड़ी, कपड़े, मोजे पहन रहा था और बुरी तरह हांफ रहा था।
''तुझे क्या हो गया था भाई! पहाड़ से सिर टकराने लगा।'' किसी ने हंसते हुए कहा। लड़ने ने जवाब देने की कोशिश की पर उसकी सांस इतनी उखड़ी हुई थी कि बोल नहीं सका। यद्यपि उसके हाव-भाव से लग रहा था कि वो अभी भी पीछे हटने को तैयार नहीं है।
उस दिन तो शायद मैं भी उस कमजोर लड़के को लगती हुई पटकनियों पर हंसा था। पर जैसे-जैसे आयु बढ़ती गई मेरे मन से उस लड़के के लिए सम्मान बढ़ता गया। मां के दूध और मर्दानगी को ललकारने वाली उस पहलवान की अशिष्ट और अमर्यादित चुनौती के सामने खड़ा होने वाला उस भीड़ में कोई एक तो था।
आज न तो वो मुझे जानता है, न मैं उसे जानता हूं। मैं उसे पहचानता हूं, वो तो शायद मुझे पहचानता भी नहीं। पर जब कभी भी वो मुझे सड़क पर मिल जाता है तो मैं हाथ हिलाकर गर्दन की हल्की सी जुम्बिश के साथ उसका अभिवादन करता हुआ आगे बढ़ जाता हूं। मैंने कई बार अनुभव किया है कि वो अपने मोटे चश्में के पीछे से मुझे पहचानने की चेष्टा कर रहा है। वास्तव में तो यहां मेरी पहचान का कोई अर्थ है भी नहीं। शायद मैं कभी उसे बता भी न पाऊं कि एक दिन भीड़ के साथ मैं भी उस पर हंसा था। पर मेरे भीतर उसकी पहचान और सम्मान एक वास्तविक विजेता की सी है जो हकीकत में भले ही कहीं भी दर्ज न हो पर मेरे भीतर ता-उम्र दर्ज रहेगी।
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