रविवार, 7 मार्च 2010

विविध

कैसे भूलूँ, क्या याद करूँ?
राहों का अनजानापन
अपनों का बेगानापन
ले गया तुम्हें मुझसे दूर
तोड़ गया संबंधों की डोर
कैसे भूलूँ, क्या याद करूँ?
तुम हो गए नजरों से दूर

सूनी राहों पर टिकी निगाहें
खोजती हैं तुम्हारी परछाई
नयनों में दो दीप लिए हुए
तुम्हें ढूँढ़ रही मेरी तन्हाई

शाम के सुरमई अँधेरों में
एक पहचानी-सी सदा आती है
जो जाने-अनजाने में मुझे तुम्हारी
यादों के आँगन में ले जा‍ती है

जान कर भी इस जहान में
वजूद तुम्हारा मौजूद नहीं है
फिर भी हर आहट तुम्हारे यहाँ
होने का अहसास करा जाती है
कैसे भूलूँ, क्या याद करूँ?
तुम हो गए नजरों से दूर

अनजानी राहों का अनजानापन
अपने ही अपनों का बेगानापन
ले गया तुम्हें मुझसे दूर
कैसे भूलूँ, क्या याद करूँ?
तुम हो मेरी नजरों से दूर।

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