समझौतों से नक्सली ही जीतेंगे
इस बात में कोई दो राय नहीं कि नरम मिजाज देश होने का खामियाजा हिन्दुस्तान को भुगतना पड़ रहा है। नक्सलवादी कहिए, माओवादी कहिए या आतंकवादी, इन हिंसा करने वाले संगठनों को किसी भी नाम से पुकारिए, वे बेखौफ होकर कभी भी, कहीं भी आक्रमण कर देते हैं। जैसा कि पश्चिम बंगाल के शिल्दा में हुआ, जहाँ माओवादियों ने निर्दयी तरीके से पुलिसवालों की नृशंस हत्याएँ कीं। यह हमला उनके योजनाबद्ध आतंकी अभियान का हिस्सा है।
नक्सलियों ने साल 2009 में 6 अप्रैल से 12 जून तक पश्चिम बंगाल के तथा अन्य क्षेत्रों में अपने ऑपरेशन चलाए थे, जिनमें उन्होंने 112 पुलिस वालों की जानें ले लीं।
माओवादियों व नक्सलियों की समस्या से पार पाना कोई असंभव कार्य नहीं है। मुश्किल यह है कि इनसे निपटने की कोई दीर्घकालिक नीति नहीं बनाई गई है। पश्चिम बंगाल में 25 लोगों को मारने के बाद माओवादियों ने फरवरी 2010 के तीसरे हफ्ते में बिहार के कोसारी गाँव में 11 लोगों की हत्या कर दी। इस नरसंहार में 100 से ज्यादा माओवादी शामिल थे, जिन्होंने डायनामाइट से घरों को उड़ा दिया। मारे गए लोगों के अलावा 25 लोग भी शिकार हुए जो जलने से या गोली से घायल हुए।
वास्तव में राज्यों के नेता इस मुद्दे पर जो दृष्टिकोण रखते हैं, वह केंद्र में बैठे नेताओं तथा देश के बाकी लोगों के मतों से भिन्न है। बिहार के मुख्यमंत्री का कहना था कि मैं माओवादियों के खिलाफ बल प्रयोग के खिलाफ हूँ। जमीनी स्तर पर विकास एवं प्रजातंत्र माओवाद को हल करने का एकमात्र तरीका है। कितना अच्छा होता यदि मुख्यमंत्रीजी का यह बयान सच हो पाता।
लेकिन सच यह है कि शांति का कोई विकल्प नहीं है, चाहे वह बंदूक से आए या बातचीत से या फिर आत्मसमर्पण से। दुर्भाग्य से बंदूक के सामने झुकना हमारे देश में एक मान्य परंपरा बन गई है। इसकी शुरुआत 1989 में हुई थी जब स्थानीय लोगों की मदद से पाकिस्तानी आतंकियों ने अपने साथियों को छुड़वाने के लिए तत्कालीन गृहमंत्री की बेटी को अगवा कर लिया था।
इस घटना के बाद से आतंकियों ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। इसके बाद उन्होंने अपने साथियों या शुभचिंतकों को छुड़वाने के लिए लोगों को बंधक बनाना आरंभ कर दिया।
वर्ष 2008 में एक पुलिस अधिकारी को कैद से छुड़ाने के लिए पश्चिम बंगाल सरकार को कुछ माओवादी कमांडरों को रिहा करना पड़ा। 2009 में माओवादियों ने झारखंड में एक पुलिस इंस्पेक्टर का अपहरण करके उसका सिर कलम कर दिया।
हाल ही में उन्होंने झारखंड के एक प्रखंड विकास अधिकारी को अगवा कर लिया जिसे छुड़ाने के लिए मुख्यमंत्री 14 माओवादियों को रिहा करने के लिए तैयार हो गए।
यदि गुप्तचर और अन्य स्रोतों की रपटों पर यकीन किया जाए तो पता लगता है कि समस्या कितनी गंभीर हो चुकी है। जून 2009 के अंत तक 455 लोग (255 नागरिक व 200 सुरक्षाकर्मी) नक्सलियों ने मार डाले थे और ये कत्लेआम जारी है।
ये आँकड़े केंद्रीय गृह मंत्रालय के हैं। इस अवधि में सबसे अधिक यानी 60 प्रतिशत हत्याएँ छत्तीसगढ़ व झारखंड में हुईं, जो कि सबसे ज्यादा नक्सल प्रभावित राज्य हैं। आँकड़े बताते हैं कि छत्तीसगढ़ में सबसे ज्यादा नक्सली हिंसा होती है। पिछले तीन वर्षों के आँकड़े इस बात के गवाह हैं।
समस्या की भयावहता को स्वीकारते हुए केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने फरवरी 2010 में कहा कि नक्सलवाद का खतरा सरकार की उम्मीद से कहीं अधिक भयंकर है। जब तक हम उन्हें छेड़ेंगे नहीं वे आराम से अपना विस्तार करते रहेंगे। वे तब तक फैलते रहेंगे जब तक हम उन्हें चुनौती नहीं देंगे।
लोगों का सहयोग हासिल करने के लिए माओवादी हरसंभव तरीके अपनाएँगे। वे मीडिया को फुसलाएँगे, गलत आरोप लगाएँगे और अपने प्रभाव का दायरा बढ़ाएँगे। अधिकतर लोग सोचेंगे कि समझौता किया जाए या कोई अन्य बीच का रास्ता अपनाया जाए लेकिन यह बहुत बेवकूफी होगी।
सबसे मुश्किल चुनौती जो हमारे सामने है, वह है अच्छी तरह प्रशिक्षित तथा बेहतरीन साजो-सामान से लैस पुलिस बल। नक्सलवाद व माओवाद की समस्या से निपटने के लिए मजबूत दिमाग, उससे भी ज्यादा मजबूत दिल तथा इरादों पर टिके रहने की आवश्यकता है। अल्पकालिक समाधानों से कुछ नहीं होगा।
एक मासूम व निहत्थे अफसर का अपहरण कर लिया जाता है और उसे छुड़ाने के लिए 14 पके हुए अपराधियों को छोड़ दिया जाता है, इन सब घटनाओं से माओवादियों के हौसले और बुलंद होंगे।
मुँह में खून लगने के बाद नक्सली अब और आगे बढ़ेंगे। राज्य सरकारें आतंकियों, नक्सलियों व माओवादियों के हाथों खिलौना बन रही हैं। वे जैसे चाहे सरकारों को नचाते हैं और अपनी माँगें मनवाते हैं।
नक्सली दलों से नरमाई से बातचीत करके राज्य सरकारों ने कमजोरी दिखाई है और उन्हें बढ़ावा दिया है। यही वजह है कि आज उन्होंने अपहरण को अपनी माँगें मनवाने का औजार बना लिया है।
जिन किन्हीं भी राज्य सरकारों ने ऐसा किया है, उन्होंने कारगर प्रशासन देने के अपने उत्तरदायित्व का उल्लंघन किया है। खराब हालात झेल रहे क्षेत्रों को विकसित करने के बजाय ये सरकारें अपने अधिकारियों को संदेश दे रही हैं कि कि जो जगह असुरक्षित हैं वहाँ न जाएँ।
कोई भी आतंकी समूह तब तक कोई समझौता नहीं करेगा, जब तक कि वह यह जानता है कि वह जीत रहा है। ऐसा पंजाब, असम व अन्य राज्यों में हो चुका है। दुनिया का कोई भी कोना हो, ऐसे तत्वों से निपटने के लिए गोली का जवाब गोली ही एक तरीका होता है। एक संदेश स्पष्ट तौर पर सख्ती से जाना चाहिए कि प्रदेश में अमन व सुरक्षा बहाल करने का अधिकार सरकार पर है, जिस पर वह अमल करेगी, वह उसने छोड़ा नहीं है।
केवल समर्पण के लिए माओवादियों से बात करना एक कदम पीछे हटना है और यह उस नीति के खिलाफ जाता है जो भारत सरकार ने नक्सलवाद से लड़ने के लिए बनाई थी और फिर समझौते तो तभी होते हैं जब किसी एक पक्ष की रीढ़ टूट चुकी हो। इस किस्म के समझौतों से तो सुरक्षा और पुलिस बलों का मनोबल ही टूटेगा, जो अपनी जान की बाजी लगाकर ऐसे तत्वों के खिलाफ लड़ रहे हैं।
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