नर्मदा किनारे बसा ओंकारेश्वर
शिवशंभू का अनूठा धाम
ओंकारेश्वर हिंदू धर्म के पवित्र प्रतीक 'ओम' को प्रतिध्वनित करता है। यह हर उम्र के तीर्थ यात्रियों को अपनी ओर आकर्षित करता है। यहाँ नर्मदा और कावेरी का संगम है जिसमें श्रद्धालु डुबकी लगाने के बाद पवित्र ज्योतिर्लिंग के दर्शन को जाते हैं। ओंकारेश्वर का शिवलिंग देश के बारह पवित्र ज्योतिर्लिंगों में से एक है। मंदिर को ओंकार मांधाता मंदिर के नाम से जाना जाता है।
मध्यप्रदेश के अन्य मंदिरों की तरह ही यह मंदिर भी प्रकृति से मनुष्य के जुड़ाव को प्रदर्शित करता है। यहाँ प्रकृति ने स्वयं दो पर्वतों के बीच एक खाई को जोड़कर ओम का आकार ग्रहण किया है।
मंदिर के उत्तर में विंध्य पर्वत और दक्षिण में सतपुड़ा के बीच नर्मदा नदी मूक वाहक की तरह है। पहले नदी में बहुतायत में घड़ियाल थे। अब भी यहाँ बड़ी संख्या में मछलियाँ हैं जिन्हें हाथों से दाना खिलाने का सुख प्राप्त किया जा सकता है। नदी पर स्थित पुल यहाँ की सुंदरता को द्विगुणित करता है।
ओंकार मांधाता मंदिर
यह मंदिर नर्मदा द्वारा काटे गए एक मील लंबे और आधा मील चौड़े द्वीप पर स्थित है। इसके नर्म पत्थरों को काटकर बारीक नक्काशी उकेरी गई है और विशेष रूप से इसका ऊपर का भाग देखने लायक है। मंदिर की छत भी बहुत सुंदरता से उकेरी गई है। मंदिर को घेरे हुए बरामदे में बने स्तंभों पर वृत्त, बहुकोणीय आकृतियाँ और वर्ग बने हुए हैं।
सिद्धनाथ मंदिर
यह मध्यकाल की ब्राह्मण कला का बेहतरीन नमूना है। इसकी विशेषता बाहरी दीवारों पर हाथियों की खूबसूरत नक्काशी है।
चौबीस अवतार
यहाँ हिंदुओं और जैन मंदिरों का समूह है। हरेक मंदिर स्थापत्य के लिहाज से बेहतरीन कला का नमूना पेश करता है।
सातमातृका मंदिर
ओंकारेश्वर से छ: किलोमीटर दूर यहाँ दसवीं शताब्दी के मंदिरों का समूह है।
काजल रानी की गुफा
ओंकारेश्वर से नौ किलोमीटर दूर यह प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर स्थल है। क्षितिज तक फैले चौड़े हरियाले मैदान धरती से अंबर का मेल खाते से लगते हैं। यहाँ का प्राकृतिक सौंदर्य अवर्णनीय है।
कैसे जाएँ
हवाई मार्ग
सबसे निकट का हवाई अड्डा इंदौर 77 किमी. दूर है जो मुंबई, भोपाल और दिल्ली से जुड़ा है।
सड़क मार्ग
यह इंदौर, उज्जैन और खंडवा से सड़क मार्ग से जुड़ा है।
रेल मार्ग
सबसे निकट का रेल मुख्यालय ओंकारेश्वर रोड 12 किमी. दूर है। यह पश्चिम रेलवे के रतलाम-खंडवा सेक्शन से जुड़ा है।
कब जाएँ
अक्टूबर से मार्च तक आप कभी भी यहाँ जा सकते हैं। अक्टूबर-नवंबर का महीना आदर्श कहा जा सकता है।
बेजोड़ नमूना : साँची
भारतीय इतिहास की बौद्ध परंपरा के स्वर्ण युग का अमिट दस्तावेज है साँची। प्रदेश की राजधानी भोपाल से 46 किमी पर स्थित साँची के स्मारक भारत में स्थित बौद्ध स्मारकों में सर्वाधिक आकर्षक और अतुलनीय है।
एक खूबसूरत छोटी पहाड़ी पर स्थित इन स्मारकों में विभिन्न स्तूपों के अलावा गुप्तकालीन मंदिर और विहार आदि शामिल है। विश्व धरोहर की सूची में शामिल इन स्मारकों का निर्माण तीसरी सदी ई.पू. से लेकर बारहवीं सदी ई. तक किया गया है।
प्रमुख आकर्षण-
स्तूप -: साँची स्थित इन स्तूपों का निर्माण प्राय: धार्मिक उद्देश्यों को लेकर किया गया था। कहा जाता है कि इन स्तूपों में बुद्ध और उनके शिष्यों के अवशेष रखे गए हैं। सर्वाधिक प्रसिद्ध स्तूप क्रमांक एक का निर्माण महान मौर्य शासक अशोक ने करवाया था। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि अशोक की पत्नी ‘देवी’ बेसनगर (वर्तमान विदिशा) के एक व्यापारी की बेटी थी। विदिशा साँची से 12 किमी दूर है।
स्तूप क्रमांक एक के चारो और स्थित चार द्वारों पर गौतम बुद्ध के जीवन की प्रमुख घटनाओं को चित्रों के द्वारा प्रदर्शित किया गया है। खास बात यह है कि इन चित्रों में बुद्ध को प्रतीकों के रूप में दिखाया गया है। ये प्रतीक घोड़े-हाथी, तोरण, स्तूप आदि के रूप में है।
स्तूप क्रमांक दो पहाड़ी के शिखर पर स्थित है और यह पत्थर की सुंदर चारदीवारी से घिरा हुआ है। स्तूप क्रमांक तीन, पहले स्तूप के पास स्थित हैं। इस स्तूप के अंदरूनी भाग में बुद्ध के दो शिष्यों सारिपुत्र और महामोगल्लेना के अवशेष पाए गए हैं।
अशोक स्तम्भ - यह स्तम्भ, मुख्य स्तूप के दक्षिणी द्वार के पास स्थित है। वर्तमान में इसका स्तंभ ही वहाँ है। चार सिंहों वाला इसका प्रमुख शीर्ष नीचे संग्रहालय में देखा जा सकता है। एक दूसरे की ओर पीठ किए हुए ये चार सिंह भारत के राष्ट्रीय प्रतीक हैं। यह स्तम्भ वास्तुकला की ग्रीक बौद्ध शैली का उत्कृषट नमूना है।
गुप्तकालीन मंदिर - अब लगभग खंडहर हो चुका यह मंदिर 5वीं शताब्दी में बना था। यह मंदिर भारतीय मंदिरों की प्राचीन शैली की झलक देता है।
बौद्ध विहार - साँची में प्राचीन बौद्ध विहारो के भग्नावशेष देखे जा सकते हैं। जहाँ तत्कालीन बौद्ध भिक्षु निवास करते थे।
बड़ा कटोरा - साँची में एक ही चट्टान को काटकर बनाया गया एक बड़ा कटोरा है। कहा जाता है कि सभी बौद्ध भिक्षु भिक्षा में मिला अन्न इसमें डाल देते थे, जिसे बाद में सभी को बाँट दिया जाता था।
संग्रहालय - पहाड़ी के ठीक नीचे भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा संग्रहालय की स्थापना की गई है। इस संग्रहालय में साँची के क्षेत्रों में मिली विभिन्न वस्तुएँ संग्रहित है। संग्रहालय का प्रमुख आकर्षण है, अशोक स्तम्भ का शीर्ष, बुद्द की विभिन्न मूर्तियाँ तथा विहारों में रहने वाले भिक्षुओं के बरतन आदि।
साँची के नजदीक अन्य आकर्षण-
हेलियोडोरस स्तंभ - साँची से 12 किमी दूरी पर प्राचीन नगरी बेसनगर (विदिशा) स्थित है। यहाँ पाँचवी शताब्दी में ग्रीक राजदूत हेलियोडोरस द्वारा बनवाया गया स्तंभ दर्शनीय है।
उदयगिरी - विदिशा से चार किमी और साँची से सोलह किमी की दूरी पर स्थित हैं उदयगिरी की गु्फाएँ। इन गुफाओं में प्राचीन काल में हिंदू एवं जैन साधु-संत रहते थे। ऐतिहासिक महत्व की इन गुफाओं वाले पर्वत के शिखर पर छठी शताब्दी का गुप्तकालीन मंदिर है।
कब जाएँ - यूँ तो वर्षभर में किसी भी समय साँची की यात्रा की जा सकती है। लेकिन फिर भी अक्टूबर से मार्च तक का समय साँची जाने के लिए बेहतर होता है। नवंबर में साँची में चैत्यगिरी विहार का उत्सव मनाया जाता है। उस समय बुद्ध के शिष्यों के अवशेष भी लोगों के दर्शन के लिए रखे जाते हैं।
कैसे जाएँ - साँची, झाँसी- इटारसी रेलमार्ग पर स्थित है। यहाँ एक छोटा सा रेलवे स्टेशन भी है, परंतु नजदीकी बड़ा स्टेशन विदिशा 12 किमी दूर है। भोपाल से साँची की दूरी मात्र 46 किमी है। सड़क मार्ग द्वारा एक से डेढ़ घंटे में आसानी से पहुँचा जा सकता है। भोपाल से टैक्सियाँ और बसें उपलब्ध है। भोपाल हवाई मार्ग से भी देश के सभी बड़े शहरों से जुड़ा़ हुआ है।
कहाँ ठहरें - साँची में ठहरने के लिए अनेक सुविधाएँ हैं। मप्र पर्यटन की ओर से लॉज एवं टूरिस्ट कैफेटेरिया में रूकने और भोजन की व्यवस्था है। इसके अतिरिक्त अनेक रेस्ट हाउस और लॉज हैं, जहाँ आराम से रूका जा सकता है।
बजट - छोटी जगह होने के कारण साँची बहुत महंगी जगह नहीं है। यहाँ आराम से ठहर कर घूमने के लिए लगभग 5000 रूपए पर्याप्त है।
टिप्स - 1. एक ऐतिहासिक स्थल होने के कारण साँची में पर्यटन का पूरा आनंद लेने के लिए गाइड अवश्य कर लें।
2. नकली गाइडों और दलालों से सावधान रहें।
3. साँची का धार्मिक महत्व होने के कारण वहाँ मर्यादित आचरण करें।
सौंदर्य से परिपूर्ण हैं नर्मदा की संगमरमरी चट्टानें
नर्मदा के घाटों का अलौकिक सौंदर्य
-उद्गम से लेकर सागर समागम तक नर्मदा का जो तेज, जो सौंदर्य, जो अठखेलियाँ और जो अदाएँ दिखाई देती हैं वे जबलपुर के अलावा अन्यत्र दुर्लभ हैं। प्रकृति ने तो इस क्षेत्र में नर्मदा को अतुलित सौंदर्य प्रदान किया ही, स्वयं नर्मदा ने भी अपने हठ और तप से अपने सौंदर्य में वृद्धि इसी क्षेत्र में की है।
यहाँ नर्मदा ने हठ और तप से रास्ता भी बदला है। पहले कभी वह धुआँधार से उत्तर की ओर मुड़कर सपाट चौड़े मैदान की ओर बहती थी। उसकी धार के ठीक सामने का सौंदर्य संभवतः नर्मदा को भी आकर्षित करता होगा।
तभी तो लगातार जोर मारती लहरों से चट्टानों का सीना चीरकर हजारों वर्ष के कठोर संघर्ष के बाद नर्मदा ने यह सौंदर्य पाया है जिसे निहारने देश ही नहीं, विदेशी पर्यावरण प्रेमी भी खिंचे चले आते हैं। संगमरमरी चट्टानों के बीच बिखरा नर्मदा का अनूठा सौंदर्य देखते न तो मन अघाता है और न आँखें ही थकती हैं। भेड़ाघाट, तिलवाराघाट के आस-पास के क्षेत्र का इतिहास 150 से 180 करोड़ वर्ष पहले प्रारंभ होता है। कुछ वैज्ञानिक इसे 180 से 250 करोड़ वर्ष पुरानी भी मानते हैं।
भेड़ाघाट के नाम को लेकर अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। प्राचीन काल में भृगु ऋषि का आश्रम इसी क्षेत्र में था। इस कारण भी इस स्थान को भेड़ाघाट कहा जाता है। एक अन्य मान्यता के अनुसार इसी स्थल पर नर्मदा का बावनगंगा के साथ संगम होता है।
लोक भाषा में भेड़ा का अर्थ भिड़ना या मिलना है। इस मत को मानने वालों के अनुसार इसी संगम के कारण इस स्थान का नाम भेड़ाघाट हुआ।
एक अन्य मत के अनुसार यह स्थान 1,700 वर्ष पूर्व शक्ति का केंद्र था। शैव मत वालों के अलावा शक्ति के उपासक भी यहाँ आते थे इसलिए निश्चय ही यह स्थान कभी भैरवीघाट रहा होगा और बाद में अपभ्रंश होकर भेड़ाघाट हो गया। गुप्तोत्तर काल में संभवतः इस मंदिर का विस्तार किया गया और इसमें सप्त मातृकाओं की प्रतिमाएँ स्थापित की गईं थीं।
748 हेक्टेयर क्षेत्र में फैला यह क्षेत्र आज शैव, वैष्णव, जैन तथा अन्य मत-मतांतर मानने वालों के लिए आस्था का केंद्र है। पर्यटन और सौंदर्य की दृष्टि से तो यह महत्वपूर्ण है ही। इस क्षेत्र में नौका विहार द्वारा भ्रमण करते समय नर्मदा के अलौकिक सौंदर्य के दर्शन होते हैं। बंदरकूदनी तक पहुँचते-पहुँचते पर्यटक संगमरमरी आभा से अभिभूत होता है और रंग-बिरंगे पत्थर उसे मुग्ध कर देते हैं।
जबलपुर के भेड़ाघाट में जहाँ से नौका विहार शुरू होता है वहाँ स्थित है पचमढ़ा का प्रसिद्ध मंदिर। यहाँ एक ही प्रांगण में चार मंदिर हैं। दो सौ साल पुराने इन मंदिरों का सौंदर्य अद्वितीय है। ये सभी मंदिर शिव को समर्पित हैं। जबलपुर में इसके अलावा भी अनेक ऐसे स्थान हैं जो नर्मदा क्षेत्र के पर्यटन में चार चाँद लगाते हैं। इनमें ग्वारीघाट, तिलवाराघाट, लम्हेटाघाट, गोपालपुर, घुघुआ फॉल, चौंसठ योगिनी मंदिर और पंचवटीघाट जैसे सौंदर्य से परिपूर्ण स्थल हैं।
इन क्षेत्रों में भी सौंदर्य की अपनी छटा है पर भेड़ाघाट के सौंदर्य के आगे सब फीके नजर आते हैं। जबलपुर में नर्मदा की आस्था का सबसे महत्वपूर्ण केंद्र है ग्वारीघाट। शाम होते ही यहाँ का सौंदर्य अद्भुत होता है। घाट पर खड़े होकर नर्मदा की जलराशि में तैरते असंख्य दीप ऐसे लगते हैं मानो पूरा आकाश ही धरती पर उतर आया हो। नर्मदा की मद्धिम लहरों में झिलमिलाते दीपों का प्रकाश मन को प्रसन्न कर देता है।
रोज शाम को दीपदान करने वालों का रेला यहाँ पहुँचता है। नदी के बीच में देवी नर्मदा का मंदिर श्रद्धालुओं के लिए विशेष आकर्षण है। नाव से वहाँ तक पहुँचकर पूजा करना रोमांचक अनुभव है। इसके अलावा घाट पर अनेक मंदिर हैं, जिनमें कुछ प्राचीन हैं तो कुछ हाल के वर्षों में बने हैं। घाट से दूर जाने पर माँ काली का प्राचीन और सिद्ध मंदिर है।
विभिन्न संतों के आश्रम भी आस-पास होने के कारण यहाँ श्रद्धालुओं का ताँता लगा रहता है। कहते हैं नर्मदा के दर्शन से ही सारे पाप नष्ट होते हैं। इसलिए यहाँ दर्शनार्थियों का भी ताँता लगता है। ग्वारीघाट में नौका विहार की भी सुविधा है।
नर्मदा का दूसरा महत्वपूर्ण घाट है तिलवाराघाट। यहाँ लगने वाला मकर संक्रांति का मेला बड़ा प्रसिद्ध है। इस मेले का इतिहास भी प्राचीन है। यहाँ स्थित मंदिर भी बहुत प्राचीन है। पुराने समय से गोपालपुर स्थित मंदिर की बाहरी छटा अत्यंत सुंदर है।
अपने में इतिहास समेटे बाग की गुफाएँ
प्राकृतिक सौन्दर्य के साथ इतिहासबोध
'शब-ए-मालवा' से 150 किलोमीटर दूर एक ऐसी एतेहासिक और प्राकृतिक धरोहर स्थित है जिसका ज्यादातर लोगों ने नाम तो सुना है लेकिन देखा कम ही है। दुर्गम स्थल पर स्थित होने के कारण सैर-सपाटा पसंद करने वाले लोग उस तरफ आसानी से रुख नहीं करते लेकिन दूर देश से आने वाले विदेशी पर्यटकों के लिए यह धरोहर एक जिज्ञासा का विषय हमेशा से बनी रहती है।
खासतौर से बौद्ध धर्म से जुड़े लोगों के लिए यह किसी तीर्थ से कम नहीं है। यह धार जिले में स्थित विश्व प्रसिद्ध बाग की गुफाएँ हैं जो अपने भित्ति चित्रों की वजह से अजंता के समकक्ष मानी जाती हैं। इन्हें भारत सरकार ने राष्ट्रीय महत्व का सुरक्षित पुरा स्मारक घोषित कर रखा है।
क्या है बाग में :
बाग नदी और बाग कस्बे के नाम की वजह से इन गुफाओं को 'बाग की गुफाओं' के नाम से जाना जाता है। गुफाओं के बनाने के लिए खूबसूरत जगह का चुनना यह बताता है कि बाग गुफा मंडप के निर्माता प्राकृतिक सौन्दर्य के उपासक थे। वर्ष 1953 में भारत सरकार द्वारा बाग गुफाओं को 'राष्ट्रीय स्मारक' घोषित किया गया। इसके संरक्षण का जिम्मा पुरातत्व विभाग को सौंपा गया। विंध्याचल पर्वत श्रृंखला के एक रेतीले पत्थर के पर्वत पर निर्मित इन गुफाओं की संख्या 9 है।
पहली गुफा 'गृह गुफा' कहलाती है। दूसरी गुफा 'पांडव गुफा' के नाम से प्रख्यात है। यह बाकी सब गुफाओं से अधिक बड़ी और अधिक सुरक्षित प्रतीत होती है। तीसरी गुफा का नाम 'हाथीखाना' है। इसमें बौद्ध भिक्षुओं के रहने के लिए कोठरियाँ बनी हुई हैं। चौथी गुफा को 'रंगमहल' कहा जाता है। पाँचवी गुफा बौद्ध भिक्षुओं के एक स्थान पर बैठकर प्रवचन सुनने के लिए बनाई गई थी। पाँचवी और छठी गुफा आपस में मिली हुई हैं तथा इनके बीच का सभा मंडप 46 फुट वर्गाकार है।
सातवीं, आठवीं और नौवीं गुफाओं की हालत ठीक नहीं है और वे अवशेष मात्र ही नजर आती हैं। इन गुफाओं की एक विशेषता यह भी है कि इनके अंदर जाकर इतनी ठंडक का अहसास होता है जैसे आप किसी एयरकंडीशन कक्ष में आ गए हों। गुफाओं के अंदर कई जगह से पहाड़ों से प्राकृतिक तरीके से पानी भी रिसकर आता रहता है। ये गुफाएँ कई शताब्दी पुरानी हैं।
लेकिन इनका काल निर्धारण आज भी नहीं हो पाया है। इतिहासविद इन्हें अजंता से पुराना तो नहीं मानते लेकिन यह जरूर मानते हैं कि यहाँ के भित्ति चित्रों में अंकित मनुष्यों की वेश-भूषा व अलंकार आदि से इनका समय वही निश्चित होता है जो अजंता की पहली और दूसरी गुफाओं का है। विख्यात इतिहासविद और पुराविद श्री कुमार स्वामी ने इन्हें पाँचवी शताब्दी का माना है।
भित्ति चित्र अब संग्रहालय में :
बाग की गुफाओं के भित्ति चित्र कई शताब्दियों तक प्रकृति ने सहेजकर रखे थे। बाद में जंगलों की कटाई और गुफाओं में बाबाओं-महात्माओं द्वारा आग जलाने और धुँआ करने के बाद इन भित्ति चित्रों पर संकट मंडराने लगा। गुफाओं के अंदर चमगादड़ों ने भी अपने डेरे बना लिए थे। नमी और आर्द्रता की वजह से भी भित्ति चित्र प्रभावित हो रहे थे। तब इन्हें गुफा से हटाने का निर्णय लिया गया।
1982 से इन चित्रों को दीवारों व छतों से निकालने का कार्य शुरू हुआ। नमी से प्रभावित इन चित्रों को तेज धार वाले औजारों से काटकर दीवारों से अलग किया गया। निकाले गए चित्रों को मजबूती देने के उद्देश्य से फाइबर ग्लास एवं अन्य पदार्थों से माउंटिंग की गई। चित्रों को वापस मूल स्वरूप में लाने के लिए उनकी रासायनिक पदार्थों से फैंसिंग की गई।
बाद में इन चित्रों को गुफाओं के सामने निर्मित संग्रहालय में रखा गया। इन चित्रों को अब संग्रहालय में ही देखा जा सकता है। गुफाओं के भीतर अब सिर्फ मूर्तियाँ ही बची हैं जिनमें से अधिकांश बुद्ध की हैं या फिर बुद्ध के जीवनकाल से जुड़ी घटनाओं को बयान करती हैं।
कैसे जाएँ, कब जाएँ :
बाग की गुफाएँ बहुत सुंदर स्थान पर स्थित हैं। सामने बाग नदी बहती है और चारों ओर हरियाली तथा जंगल हैं। धार जिले में विंध्य श्रेणी के दक्षिणी ढाल पर, नर्मदा नदी की एक सहायक नदी बागवती के किनारे उसकी सतह से 150 फुट की ऊँचाई पर यह विश्व प्रसिद्ध गुफाएँ हैं। अगर आप स्वंय के वाहन से बाग जाना चाहते हैं तो उसमें काफी सहूलियत रहेगी। इंदौर से 65 किलोमीटर दूर है धार।
धार से 71 किलोमीटर की दूरी पर आदिवासी क्षेत्र टांडा है। यहाँ पहुँचने के बाद बाग कस्बा सिर्फ 20 किमी दूर रह जाता है। बाग पहुँचने के बाद 7 किमी का रास्ता तय करके इन गुफाओं तक पहुँचा जा सकता है। यहाँ जाने का सबसे अच्छा मौसम बारिश का है क्योंकि गुफाओं के सामने बहने वाली बाग नदी उस समय बहती है। यह मौसमी नदी है और गर्मियाँ आने तक सूख जाती है। नदी के सूखने से वहाँ का दृश्य थोड़ा अधूरा-अधूरा सा लगने लगता है।
इन्दौर का प्राणी संग्रहालय
केंद्रीय संग्रहालय, इंदौर एक राज्य स्तरीय संग्रहालय है, जहाँ मालवा से प्राप्त पुरावशेषों को एकत्रित कर शोधाथिर्यों एवं पर्यटकों एवं जनसामान्य को जानकारी उपलब्ध कराई जाती है। केंद्रीय संग्रहालय भवन में मूर्तियाँ, जो अधिकांश परमार कालीन विशेषता लिए हुए हैं, के अतिरिक्त अभिलेख, मुद्राएँ, इटैलियन कलाकृतियाँ प्रदर्शित की गई हैं।
केंद्रीय संग्रहालय इंदौर की स्थापना 29 नवंबर, 1923 में हुई थी। यह तत्कालीन आयुक्त डॉ. अरुण्डले के निर्देशन में नररत्न मंदिर से प्रारम्भ हुआ। इसमें सबसे पहले 60 छायाचित्र तथा इस्लामी पुस्तक तथा 100 ग्रंथ रखे गए। एक अक्टूबर 1929 को इस संस्था को संग्रहालय में परिवर्तित कर दिया गया और कृष्णपुरा स्थित भवन, जहाँ वर्तमान में देवलालीकर कला वीथिका है, में दर्शकों के लिए प्रारंभ किया गया।
सन् 1930 में दसवीं शती की प्रतिमाएँ और प्रस्तर अभिलेख, उनके छापे, कुछ ताम्रपत्र संग्रहीत किए गए। सन् 1931 में यह संग्रहालय, जो शिक्षा विभाग के अधीन था, पुरातत्व विभाग को सौंप दिया गया। स्थानीय लोगों के रुझान को देखते हुए आगरा-बाम्बे मार्ग पर नवीन संग्रहालय भवन की स्थापना कर यहाँ पर संग्रहालय विधा के अनुरूप पुरावशेषों को प्रदर्शित किया गया। इस संग्रहालय का कुल क्षेत्रफल 10804 वर्गफुट है तथा यह दोमंजिला है।
इस संग्रहालय में पुरावशेषों के प्रदर्शन के लिए छः वीथिकाएँ बनाई गई हैं। स्थानीय संग्रहों के साथ-साथ मध्यप्रदेश में हुए उत्खननों से प्राप्त पुरावशेष, सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेषों के प्रदर्शन के साथ-साथ हिंगलाजगढ़ की परमारकालीन विशिष्ट प्रतिमाओं का संग्रह इस संग्रहालय के लिए महत्वपू्र्ण माना जाता है। प्रस्तर अभिलेखों व उनके छापों के साथ-साथ ताम्र पत्रों को भी प्रदर्शित किया गया है। प्राचीन मुद्रा प्रणाली को जानने के लिए मुद्रा प्रचलन से लेकर मुगलकालीन सिक्कों तक को प्रदर्शित किया गया है।
पुरावस्तु वीथी
यहाँ से संग्रहालय का वास्तविक प्रदर्शन प्रारंभ होता है। सबसे पहले पुरावस्तु वीथिका है, जिसमें मानव का विकास तथा उसकी संस्कृतियों के विस्तार को क्रमबद्ध रूप में प्रदर्शित किया गया है। इनमें प्रदेश के विभिन्न स्थानों से प्राप्त मानव एवं पशुओं के जीवाश्म तथा पाषाण कालीन उपकरण प्रदर्शित हैं। बताया गया है कि इसी दीर्घा में सिंधु-घाटी की सभ्यता से संबंधित मोहन-जोदड़ो के उत्खनन में प्राप्त अश्मोपकरण, ताम्र उपकरण आदि प्रदर्शित हैं। इनकी तिथि 2350 ईसा पूर्व के लगभग मानी जाती है।
मध्य प्रदेश के संग्रहालय
जीवन में एक बहुत ही अहम भूमिका है इतिहास की। ऐतिहासिक घटनाओं से जुड़ा हुआ है मनुष्य। आइए मध्यप्रदेश के कुछ संग्रहालयों में हम इतिहास को करीब से देखें।
भोपाल के प्रसिद्ध बिड़ला संग्रहालय में विभिन्न प्रकार की सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक प्रतिमाएँ रखी गई हैं। आदिकाल में जब मनुष्य पत्थर इस्तेमाल करते थे उनके भी अंग यहाँ पर देखे जा सकते हैं।
सातवीं सदी से लेकर तेरहवीं सदी तक की ऐतिहासिक जगहों के चित्र प्रदर्शित किए गए हैं। पुराने सिक्के, पत्तों पर लिखे गए शब्द चित्र भी प्रदर्शित किए गए हैं। टेराकोटा से बनाई गई प्रतिमाएँ यहाँ पर प्रयोग की जाती हैं।
भोपाल में राष्ट्रीय (सेंट्रल) संग्रहालय 1949 में स्थापित किया गया था। चित्रकला, पौराणिक सिक्के जिन पर राजा महाराजाओं एवं अँग्रेज शासकों के चित्र बनाए गए। ऐसे सिक्के यहाँ पर पाए जाते हैं। ताँबे या पीतल से बनाई गई वस्तुएँ मिलती हैं। लकड़ी से बनाई गई वस्तुएँ प्रदर्शित की जाती हैं। हाथ से बनाए गए भिन्न प्रकार की प्रतिमाएँ, कढ़ाई की गई वस्तुएँ देखी जा सकती हैं।
भोपाल में भारत भवन एक अलग प्रकार का संग्रहालय है। रंग महल, अन्हद, शास्त्रीय संगीत के भवन वागर्थ पुस्कालय जहाँ पर कविताओं की पुस्तकें रखी गई हैं। बहारि रंगमंच जहाँ पर नाटक, खेल, हास्य रंग आयोजित किए जाते हैं। मुख्य रूप से रूपांकर चित्रालय में असंख्य प्रकार के चित्र प्रदर्शित करते हैं। रूपांकर में दो प्रकार की चित्रकला देखी जा सकती है।
एक स्थान है जहाँ पर वर्तमान के चित्र एवं नक्काशी की प्रतिमाएँ प्रदर्शित की गई हैं। परंतु कुछ विभागों में लोक गीत प्रस्तुत किए जाते हैं। 4000 के करीब वस्तुएँ मध्यप्रदेश से संग्रहित की गई हैं। विभिन्न जाति की संस्कृति एवं कला से चित्र के माध्यम से परिचित किए गए हैं। इस राज्य में विभिन्न प्रकार के चित्र नजर आते हैं। भिन्न क्षेत्रों से वस्तुएँ संग्रहालय में सुरक्षित रूप से प्रदर्शित कर दिए गए हैं। जीव, पक्षी एवं खिलौने के रूप में वस्तुएँ प्रदर्शित किए गए हैं।
ग्वालियर के पुरात्तात्त्विक संग्रहालय
वर्ष 1922 में इस संग्रहालय को स्थापित किया गया था। ताँबे की वस्तुओं पर सुंदर चित्र अंकित किए गए हैं। पत्थरों के स्तम्भ स्थापित किए गए हैं। टैराकौटा की प्रतिमाएँ वहाँ पर सजाई गई थीं। पद्मावती, बेसावनगर, उज्जयिनी एवं महेश्वर से पौराणिक वस्तुएँ मिली हैं।
साँची के पुरात्तात्त्विक संग्रहालय
राजा अशोक ने यहाँ पर स्तम्भ स्थापित किया था जिस पर शेर की मूर्ति लगाई गई थी। भगवान बुद्ध की प्रतिमाएँ श्रद्धापूवर्क स्थापित की गई थीं। भगवान गणेश की मूर्ति भी वहाँ पर है। साँची में सबसे प्रसिद्ध हैं सम्राट अशोक के बनाए गए स्तूप। मंदिर, मठ एवं स्तूप यहाँ पर स्थापित किए गए हैं।
केंद्रीय संग्रहालय
सन् 1929 में स्थापित संग्रहालय सबसे पुराना संग्रहालय है। मध्यप्रदेश के मालवा जिले में इस केंद्रीय संग्रहालय को स्थापित किया गया था। वहाँ पर विभिन्न प्रकार के चित्र, प्रतिमाएँ भी देखी जा सकती हैं।
ऐतिहासिक स्थलों की नगरी शिवपुरी
हल्की-हल्की बूँदों की वर्षा हो रही थी। प्रभात ने घने काले बादल की चुनरी ओढ़ रखी थी। सखियों के साथ मैं टाटा सफारी में सवार होकर आगरा-मुंबई राष्ट्रीय राजमार्ग पर जा रही थी कि हमें एक ढाबा खुला दिखाई दिया। प्रातः पाँच बजे थे, मन कर रहा था कि हमें गरमागरम चाय मिल जाए तो सफर तय करना और भी आसान हो जाएगा।
गाड़ी ढाबे के पास रुकी, हमारी नज़र कोयले की आँच पर बन रही चाय से निकलते धुएँ पर पड़ी एवं उसके साथ-साथ नाश्ते के लिए बाजरे की रोटी तथा सब्जी मिली। ढाबे के चारों ओर हरियाली नज़र आ रही थी, रंग-बिरंगे महुए एवं पलास के फूल खिले हुए थे जिन पर वर्षा की बूँदें मोती की तरह चमक रही थीं।
इंदौर से शिवपुरी तक का सफर हम लगभग तय कर चुके थे। गुना क्षेत्र से हम गुजरते हुए शिवपुरी ज़िले में पहुँचे। हमारी नज़र यहाँ के पहा़डों पर पड़ी, जिन पर हरियाली थी एवं घने जंगल स्थित थे। वादियों के मध्य प्रकृति की गोद से झरने बह रहे थे एवं उठती सूर्य की किरणों के प्रकाश में वे झिलमिलाते, बलखाते हुए नदियों की ओर बह रहे थे।
गुना जिले से हम जब शिवपुरी नगर की ओर गाड़ी में सफर कर रहे थे तब हमने देखा कि सिंध नदी गुना से उत्तर दिशा से बहती हुई भिड़ से चंबल नदी से जा मिलती है। शिवपुरी की चार मुख्य नदियाँ हैं सिंध, कूनो, बेतवा एवं पार्वती।
कहते हैं कि शिवपुरी का माधव नेशनल पार्क, विभिन्न प्रकार के वन्यजीवों के लिए बहुत ही प्रसिद्ध है। मुख्य रूप से नहार बाघ, तेंदुआ, लक्कड़ बग्घा, तरक्षु, भालू, सांभर आदि जानवर यहाँ पर पाए जाते हैं। वर्षा के आने से मोर अपने रंग-बिरंगे पंख को फैला देते हैं। उपस्थित जनता खूबसूरत दृश्य की प्रशंसा करने लगी तथा कैमरे से छायाचित्र लेने लगी।
नेशनल पार्क में पक्षी एवं जानवरों का हमने जीवंत रूप देखा। माधव विलास महल में सिंधिया राजवंश ग्रीष्म काल के समय निवास करते थे। वन वाटिका के मध्य स्थित यह महल गुलाब के फूल के समान प्रतीत हो रहा था। महल के भीतर कला की सुंदर मूर्तियाँ प्रदर्शित थीं। सुंदर आकृतियों वाले महल की छत से शिवपुरी नगर एवं माधव नेशनल पार्क नजर आते हैं। खूबसूरत चित्रकला से महल के विभिन्न कक्षों को सजाया गया था। अब यह महल भारत सरकार के अधीन है।
शिवपुरी में पर्यटक महाराजा एवं राजकुमारों द्वारा बनाई गई छतरियों को देखने आते हैं। इस ऐतिहासिक स्थल पर विभिन्न गाथाएँ एवं प्राचीन कहानियाँ सुन सकते हैं। ये छतरियाँ संगमरमर की हैं एवं इन पर सुंदर आकृतियाँ उकेरी गई हैं। सिंधिया राजकुमारों ने इन्हें मुगल वाटिका में स्थापित किया था। इस स्थान पर माधवराव सिंधिया की छतरी स्थित है उसी तरह महारानी सँख्याराजे सिंधिया की सुंदर छतरी भी है। हिंदू एवं इस्लामी के वास्तुशिल्पीय मिश्रित रूप नजर आते हैं। राजपूत एवं मुगल परम्पराओं के वास्तुशिल्पीय को रूपांतर करती कला दर्शकों को अपनी ओर आकृष्ट करती है।
ऐतिहासिक स्थलों के दर्शन करने में काफी देर हो गई थी। सूरज ढलने वाला था कि हमारी दृष्टि जॉर्ज किले की ओर आकर्षित हुई। सँख्या सागर के तट पर स्थित इस किले को जीवाजीराव सिंधिया ने निर्मित किया था। परंतु इस किले की एक विशेषता है जो अक्सर आम किलों के स्थान पर देखी नहीं जाती, वह यह है कि यह महल माधव नेशनल पार्क के अंदर स्थित है। इसलिए महल की सुंदरता और निखर उठती है जब किले के चारों ओर घने जंगल स्थित हैं।
प्राचीन महलों एवं प्रसिद्ध पर्यटक स्थलों के दर्शन कर जब हम वापस लौट रहे थे तब हमने वहाँ के स्थानीय रंगमंच एवं लोकगीत सुने जो आदिवासी लोगों ने पात्रों के माध्यम से दर्शाए थे। कार्यक्रम के अंत में हम होटल वापस लौट आए।
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