सरकारी वादे और व्यावहारिक सच्चाई
प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह ने राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में गुरुवार को कहा है कि अब से देश में कोई भी बच्चा अशिक्षित नहीं रहेगा। उनका कहना है कि इस कानून के तहत 6 वर्ष से 14 वर्ष के बच्चों के लिए शिक्षा बच्चों का बुनियादी अधिकार बन जाएगा। राज्य सरकारों को यह सुनिश्चित करना होगा कि समूचे देश में उन 1 करोड़ बच्चों को भी शिक्षा मिले, जिन्हें अभी तक ऐसी कोई सुविधा नसीब नहीं हुई है।
सरकार राइट टू इन्फॉरमेशन और मनरेगा की तरह शिक्षा के मौलिक अधिकार को अपने एजेंडे के तौर पर पेश कर रही है और अगले पाँच वर्ष के लिए केन्द्र सरकार ने इस मिशन को पूरा करने के लिए करीब डेढ़ लाख करोड़ रुपए का प्रावधान किया है।
सरकार का कहना है कि गरीब बच्चों को बेहतर स्कूलों में शिक्षा दिलाने के लिए 2011 से निजी स्कूलों में भी पहली कक्षा से 25 फीसदी कोटा लागू होगा और अगले 12 वर्षों में इसे पूरी तरह से लागू करा लिया जाएगा। इस पहल से सरकार यह भी साबित करना चाहती है कि उसकी प्राथमिकता और सरोकारों में आम आदमी का वर्तमान और भविष्य भी है।
बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार कानून, 2009 को पारित कर सरकार ने बहुत ही अहम और दूरगामी पहल की है लेकिन इस कानून के साथ कुछ खूबियाँ जुड़ी होंगी तो कुछ खामियाँ भी समय-समय पर आम जनता और सरकार के सामने आएँगी, जिनका निराकरण करना होगा। सरकार ने अपने वादों और मंशा को तो स्पष्ट कर दिया है लेकिन यह मंशा कैसे यथार्थ में बदलेगी, इसे देखना होगा।
इस कानून के तहत सरकार के लिए उन सभी बच्चों को शिक्षित करना जरूरी हो जाएगा, जो 6 से 14 आयु वर्ग में आते हैं। लेकिन सरकार उन बच्चों को कैसे अनिवार्य शिक्षा दिला पाएगी, जो अपने परिवार का भरण पोषण करने के लिए दिनभर काम करते हैं।
छोटे-छोटे बच्चे प्लास्टिक की पन्नियाँ बीनने का काम करते हैं और ऐसे ही बहुत सारे कामों में लगे होते हैं जिनसे उनके परिवारों को बहुत थोड़ी आर्थिक मदद मिलती है। ऐसे बच्चों को स्कूलों में दाखिला दिलाना और उन्हें पढ़ाने के काम में लगाना सबसे मुश्किल काम होगा।
नए कानून के तहत शिक्षा की गुणवत्ता में भी सुधार की बात कही जा रही है। यह स्कूलों में शिक्षक और छात्रों के बीच अनुपात को कम करने का दावा करता है। कानून कहता है कि एक शिक्षक पर 40 बच्चों से अधिक नहीं होंगे, लेकिन इसके लिए बड़ी संख्या में शिक्षक, स्कूल तथा अन्य बुनियादी जरूरतों की व्यवस्था कैसे होगी? सरकार को यह व्यवस्था सुचारु रूप से चलाने में कितना समय लग जाएगा?
नए कानून के मुताबिक राज्य सरकारों को बच्चों की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए पुस्तकालय, कक्षाएँ, खेल का मैदान और अन्य जरूरी चीजें उपलब्ध कराना होंगी, पर क्या राज्य सरकारें और उनके अधिकारी पूरी ईमानदारी से यह सब काम करेंगे?
सरकार को 15 लाख नए अध्यापकों की भी भर्ती करना होगी और इन्हें अक्टूबर तक प्रशिक्षित भी करना होगा, पर क्या यह आसानी से संभव हो पाएगा?
यह कानून कहता है कि स्कूल के प्रबंधन, जन्म प्रमाण-पत्र और स्थानान्तरण प्रमाण पत्र के आधार पर प्रवेश देने से मना नहीं कर सकेंगे और सत्र के दौरान किसी भी समय पर बच्चे का प्रवेश संभव होगा। पर क्या यह सब व्यवहारिकता में संभव हो पाएगा?
निजी स्कूलों में भी 25 फीसदी सीटें गरीब बच्चों के लिए आरक्षित होंगी, लेकिन इस बात को सुनिश्चित कराना आसान नहीं होगा।
देश के अन्य कानूनों की तरह से यह नया कानून भी खामियों से अछूता नहीं है। इसमें 6 वर्ष से 14 वर्ष तक के बच्चों की बात कही गई है, लेकिन प्रारंभ से 6 वर्ष तक के बच्चों के लिए क्या व्यवस्था होगी? जो बच्चे 14 वर्ष से अधिक आयु के और 18 वर्ष तक के होंगे, उनके लिए क्या प्रावधान होंगे?
हमारे देश के संविधान के अनुच्छेद 45 में यह बात कही गई है कि संविधान के लागू होने के दस वर्ष के अंदर सरकार 0 से 14 वर्ष आयु तक के बच्चों को अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा देगी, लेकिन क्या यह अब तक संभव हो पाया है?
अंतरराष्ट्रीय बाल अधिकार समझौते के अनुसार देश में 18 वर्ष तक की आयु के किशोरों को बच्चा ही माना जाता है। भारत ने दुनिया के उन 142 देशों के साथ यह समझौता किया है, लेकिन इस कानून में 14 से 18 वर्ष के बच्चों के लिए अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा की कोई बात नहीं की गई है।
जहाँ तक उच्च शिक्षा की बात है तो सरकार हर साल इसके बजट में कमी करती जा रही है। यह दिनोंदिन महँगी होती जा रही है और उच्च शिक्षा संस्थान होशियार छात्रों के लिए अच्छी नौकरियाँ पाने का जरिया भर बनकर रह गए हैं।
मौलिक काम करके दुनिया में नाम कमाने के लिए ऐसे संस्थानों के छात्रों को विदेश ही जाना पड़ता है और वहीं रहकर ही वे कुछ ऐसा काम करपाते हैं जिसके बल पर उनका दुनिया में नाम होता है।
प्राथमिक शिक्षा में भी उच्च शिक्षा की तरह निजीकरण के चलते यह हालत हो गई है कि शहरी क्षेत्रों में केवल वे पालक ही अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ने को भेजते हैं, जिनके पास पैसा नहीं होता है। ग्रामीण क्षेत्रों में तो प्राथमिक और उच्च शिक्षा की हालत में फर्क करना ही मुश्किल है।
शिक्षा के साथ मुश्किल यह है कि सरकार ने निजीकरण के नाम पर शिक्षा को व्यवसायियों के हवाले कर दिया है और सरकार यह सुनिश्चित नहीं कर पाई है कि शिक्षा देना उसका काम है भी या नहीं?
सरकार की तरफ से कह दिया जाता है कि तेल बेचना, बिजली बनाना या कल कारखाने चलाना उसका काम नहीं है, लेकिन शिक्षा के मामले में सरकार ऐसा नहीं कह सकती है कि यह उसका काम नहीं है। वरना एक लोकताँत्रिक समाजवादी देश में (जो ना तो पूरी तरह से ही लोकताँत्रिक है और न ही पूरी तरह से समाजवादी ही) शिक्षा को सड़क पर पड़े जानवर की तरह नहीं समझा जाता कि जिसे जब जिसकी इच्छा हो, इसे लतियाता चला जाता है।
सरकार यह नहीं कह सकती है कि शिक्षा घाटे का सौदा है अगर ऐसा होता तो देश में पूर्व प्राथमिक से लेकर विश्वविद्यालयीन स्तर पर शिक्षा की इतनी बड़ी-बड़ी दुकानें नहीं होतीं और ज्यादातर राजनेताओं को अपने नाम पर ये दुकानें चलाने की जरूरत ही नहीं होती।
...इसलिए कहा जा सकता है कि शिक्षा जैसे मामले पर अगर सरकार कुछ सार्थक और अहम पहल करना चाहती है तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि इस बात की गारंटी नहीं ली जा सकती है कि दिल्ली के नर्सरी स्कूलों में भी सरकार इस कानून का पालन करवा पाने में सफल होगी?
इस कानून के साथ भी सबसे बड़ा प्रश्न भी यही है कि केन्द्र और राज्य सरकारें अपने ही बनाए कानून को इतनी पारदर्शी ईमानदारी और सक्षमता के साथ लागू करा सकती हैं। इसी तथ्य से इस कानून की उपयोगिता और औचित्य का निर्धारण किया जा सकेगा।
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