आओ टीचर-टीचर खेलें
अरुण बंछोर
मैं काफी समय से देख रहा हूँ कि मेरी पुत्री एवं उसकी सहेलियाँ जब भी वक्त मिलता, टीचर-टीचर खेलने लग जाती हैं। यह कोई खेल नहीं होकर बस पब्लिक स्कूलों की शिक्षिकाओं की नकल भर बन जाता है। खेल में एक लड़की टीचर बनती हैं, शेष लड़कियाँ विद्यार्थी की भूमिका का निर्वाह करती हैं। खेल की शुरूआत उपस्थिति लेने से होती है, धीरे-धीरे होमवर्क की जाँच से लेकर, लंच, बच्चों को डाँटना, उन पर फब्तियाँ कसना, सजा देना आदि गतिविधियाँ भी इसमें शामिल होती जाती हैं।
बच्चों का यह खेल पालकों एवं पूरी शिक्षा व्यवस्था तथा समाज की संकुचित मानसिकता को आईना दिखाने का काम भी करता है। यह न किसी नियम से बँधा है और न ही इसमें किसी खास सामान की आवश्यकता होती है। इस खेल को चुनने में या इसके बनने में पालकों की संकुचित मानसिकता ने बड़ी भूमिका अदा की है।
बच्चा यदि मैदान में खेले तो धूल में कपड़े गंदे होने का डर, संक्रमित होने का डर, बच्चे को गंदा नहीं होने का हिटलरी आदेश, छिपा-छाई जैसे पारंपरिक खेल कतई परमिट नहीं किए जाएँगे, घर के आसपास ही खेलो, माँ की आँखों के सामने रहो जैसे अघोषित नियम, होमवर्क के दबाव एवं टीवी कार्यक्रमों के शेड्यूल के कारण बच्चों के खेलने का समय सिमट कर चंद मिनटों का रह गया।
ताश, शतरंज या चौसर खिलाने का माता-पिता के पास समय नहीं, और न ही संयुक्त परिवार रहे, जिसमें सदस्यों की भरमार रहती थी। बच्चा जिसके साथ चाहे खेल सकता था या किसी के भी साथ पार्क-बगीचे या खेतों में घूमने चला जाया करता था। क्रिकेट, हॉकी, फुटबॉल न तो गली-मोहल्लों में खेले जा सकते हैं न ही टीम बनाने लायक सदस्य ही उपलब्ध हो पाते हैं। इन्हीं कारणों के मद्देनजर बच्चों ने 'टीचर-टीचर' नामक सस्ते, सुविधाजनक एवं सरल खेल को ईजाद कर लिया।
इस खेल में बच्चों की अभिनय क्षमता में निखार आता है लेकिन इस खेल का स्याह पक्ष यह कि शिक्षिका के व्यवहार के अनचाहे पक्ष भी उजागर होते हैं। 'मुझे सब पता है आप सभी आलसी हैं।' 'सभी दीवार पर नाक टेक कर खड़े हो जाएँ' 'आशीष तुम अँगरेजी में बहुत कमजोर हो' 'शट-अप' 'स्टुपिड', 'यू फूल', 'सभी हेड डाऊन रखेंगे 5 मिनट तक' 'तुम्हारी जबान बहुत चलती है।' 'तुम्हारी अकल भैंस चराने गई है' 'बेवकूफ कहीं के।'
ये सभी वे कथन हैं जो शायद शिक्षिकाओं-शिक्षकों द्वारा कक्षा में बोले जाते हैं तथा जिनकी नकल इस खेल में हुबहू की जाती है, शिक्षिकाओं-शिक्षकों की कुंठा एवं बाल मनोविज्ञान का ज्ञान न होना, इन उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है। इतना ही नहीं लंच खाने में देरी होना, लघु शंका के लिए जाना, पानी-पीना, आपस में बातें करना जैसे साधारण कृत्यों पर शिक्षिकाओं की प्रतिक्रियाएँ या झिड़कियाँ खेल ही खेल में सुनकर दिल दहल जाता है।
प्रार्थना में तरह-तरह के फरमान जारी करना, प्रिंसिपल द्वारा सामूहिक डरावने कथन कहना, अनुशासन के नाम पर घंटों धूप में खड़े करना जैसे भयावह उदाहरण भी इस खेल में नजर आते हैं।
वस्तुतः यह खेल एक तरह से हमारी शिक्षा प्रणाली का मूल्यांकन करने के लिए काफी है। हमारी मानसिकता, बच्चों को स्वावलंबी बनाने का ढोंग, तथाकथित आधुनिकता आदि स्पष्टतया परिलक्षित हो रही है।
यह एक चेतावनी की तरह है कि हम शिक्षा के नाम पर हो रहे अंधानुकरण को रोक दें, अन्यथा बहुत देर हो जाएगी। पालकों को चाहिए कि स्वयं बच्चों के साथ खेलने का समय निकालें, बच्चों को पारंपरिक एवं आधुनिक खेल सिखाएँ। तभी बच्चों का समग्र विकास हो पाएगा और बच्चों को 'टीचर-टीचर' खेलने की जरूरत नहीं पड़ेगी।
श्..श्..श...श पीछे कोई है
रोहित बंछोर
बड़े से बड़े अपराध के मूल में नजर है। एक नजर या फिर कई दिनों तक की चौकस निगाहें। चोरी, लूट या छेड़छाड़ सारा नजर का मामला। बस, इस नजर से बचें तो बहुत हद तक अपराध से भी बचा जा सकेगा। कौन कहता है कि अपराध केवल हथियार से ही होते हैं। नजरों से होती है अपराध की शुरुआत।
दुनिया के सारे के सारे अपराध नजरों से ही किए जाते हैं, क्योंकि दुनिया की सारी गतिविधियों पर आँखों से नजर रखी जाती है। बिना देखे इंसान भला अपराध कैसे कर सकता है? नजरों के शिकार होने से हमें हर एक चीज को बचाना होगा। आज अगर बाजार जाती हैं तो रुपए-पैसों के बैग, बटुए को लोगों की नजर से बचाकर रखें।
ज्यादातर जेबकतरे सब्जी वगैरह खरीदते समय आपके बैग पर नजरें गड़ाए रहते हैं, क्योंकि हम किसी एक से तो सब्जी नहीं खरीद पाते हैं, कई लोगों से कई तरह की सब्जियाँ खरीदना पड़ती हैं। जगह-जगह लेने और देने के समय हमारा पर्स हो जाता है जेबकतरों की नजर का शिकार। इसलिए हमें चाहिए कि कुछ छोटे नोट और खुल्ले पैसे रख लें ताकि बार-बार बड़े नोट न निकालने पड़ें। सफर इत्यादि भी करते समय अपने माल और जान दोनों को ही लोगों की नजरों से बचाकर रखें।
इतना ही नहीं, आप अगर महिला हैं तो स्वयं को भी लोगों की नजरों से बचाकर रखें। लोगों की नजर आप पर न पड़ने दें, बल्कि लोगों की नजरों पर आप नजर रखें और पहचानने का प्रयास करें कौन-सी नजर आपसे क्या कह रही है? घर से निकलते ही सार्वजनिक जगहों पर चाहे वह बाजार, दफ्तर, स्कूल, कॉलेज ही क्यों न हों- नजरों से बचने का भरपूर प्रयास करें। इसके लिए शालीनतापूर्ण कपड़े सबसे जरूरी हैं। अपने बैग या पर्स का प्रदर्शन अत्यधिक हिला-हिलाकर न करें।
चिल्लाकर बातें न करें। अपनी बच्ची चाहे वह कितनी भी छोटी क्यों न हो, उसे भी नजरों से बचाए रखें। अपनी बेटियों को भी वही कपड़े पहनाएँ, जो उन पर अच्छे और शालीन लगें। उन्हें भी लोगों की नजरों को परखने की सीख दें। उन्हें आजादी तो दें, पर नजरों को पढ़ने की सीख पहले दे दें।
शादी-विवाह जैसे समारोह में जाने पर भी अपने गहनों का अत्यधिक प्रदर्शन और बखान न करें। याद रखिए हथियार से हुए शिकार का इलाज हो सकता है, परंतु नजरों से हुए शिकार का कोई भी इलाज नहीं है। इसलिए जरा बचकर रहिए नजरों से।
महिलाओं की याददाश्त ज्यादा तेज
शेषनारायण बंछोर
महिलाओं की याददाश्त पुरुषों की बनिस्बत काफी तेज होती है यह बात एक अध्ययन में सामने आई है। वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि किसी भी बात को याद रखने के मामले में महिलाएँ पुरुषों से आगे होती हैं। शोधकर्ताओं ने पाया कि पुरुषों की स्मरण क्षमता बढ़ती उम्र के साथ कम होती है वहीं महिलाओं में यह बढ़ती उम्र के साथ और बढ़ती है।
वैज्ञानिकों ने पुरुषों और महिलाओं की स्मरण क्षमता की तुलना करने के लिए 50 वर्ष से अधिक उम्र के 10000 लोगों पर अध्ययन किया। इस अध्ययन में इन लोगों की स्मरण क्षमता का परीक्षण भी किया गया। हालांकि यह साफ नहीं हो पाया कि महिलाओं की अधिक स्मरण क्षमता का राज क्या है लेकिन वैज्ञानिक इसका कारण हार्मोन ओस्ट्रोजन को मान रहे हैं।
इस अध्ययन में शामिल 10000 ब्रिटिश, इंग्लिश और वेल्श लोगों के समूह पर पहले भी चिकित्सीय, शैक्षिक और रिश्तों संबंधी अध्ययन होते रहे हैं। 1958 में एक ही सप्ताह में पैदा हुए इस समूह के 50 वर्ष का होने पर यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन के शोधकर्ताओं ने इन पर स्मरण क्षमता की तुलना करने के लिए अध्ययन किया।
स्मरण टेस्ट में इन्हें रोजाना 10 शब्द दिए जाते थे जिन्हें इन लोगों को पाँच मिनट बाद दोबारा याद करके लिखना होता था। पहले टेस्ट में महिलाओं ने पुरुषों से पांच प्रतिशत अधिक अंक प्राप्त करें जबकि दूसरे टेस्ट में महिलाओं ने 8 प्रतिशत अधिक अंक प्राप्त करें। तीसरी बार जब टेस्ट लिया गया तो महिलाओं ने पुरुषों से पहले ही यह टेस्ट पूरा कर लिया।
अध्ययनकर्ता जेन एलियट ने कहा कि नतीजों से यह पता चलता है कि महिलाओं की स्मरण क्षमता अधिक होने का जैविक कारण भी है। इसे महिलाओं में सेक्स हार्मोन ओस्ट्रोजन से भी जो़ड़ा जा सकता है।
लाड़ली बिटिया का चाँद-सा वर !
ओमप्रकाश बंछोर
लाडो हमारी है चाँदतारा,
वो चाँदतारा वर माँगती है
बन्नो हमारी है चाँदतारा,
वो चाँदतारा वर माँगती है॥
ढोलक की थाप और घर में गूँजते ये विवाह के गीत सुन मन मयूर नाच उठता है। बेटी के ब्याह की सोच-सोच ही ऐसा लगने लगता है, मानो सारे जहाँ की खुशियाँ हाथ लग गई हों, सारे सपने पूरे हो गए हों। सच ही तो है! बेटी के जन्म के साथ उसको स्पर्श करते ही न जाने कितने रंग-बिरंगे खुशियों की सौगात से परिपूर्ण सपने आँखों में तैरने लगते हैं।
ज्यों-ज्यों वो बड़ी होती जाती है, त्यों-त्यों ख्वाब के साकार होने की इच्छा भी माता-पिता की बलवती होने लगती है और वे तन-मन धन से उन्हें पूरा करने में लग जाते हैं।
यही फिर उनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य रह जाता है कि बेटी को सिर्फ और सिर्फ सुखी संसार ही मिले। कैसी भी परेशानी अथवा दुःख की घड़ी सदा-सदा कोसों दूर रहे। लेकिन सपना जब तक सपना रहता है तभी तक अच्छा लगता है, क्योंकि हकीकत बन जब सामने आता है तो जरूरी नहीं जैसा आपने देखा-सोचा, बिलकुल वैसा ही यथार्थ में भी दिखाई दे, थोड़ा-बहुत अदल-बदल तो हो ही जाता है।
NDNDइसीलिए कहा गया है कि जो माता-पिता आपसी सूझ-बूझ व समझदारी से सपने व सच्चाई में ठीक सामंजस्य स्थापित कर लेते हैं। वे फिर स्वयं के साथ-साथ बेटी के सुखद भविष्य की भी नींव रख लेते हैं अन्यथा उनके साथ-साथ ताउम्र उसे भी परेशानी उठानी पड़ती है।
रश्मि, मलिक दंपति की इकलौती बेटी है। बचपन से लेकर आज तक जो भी उनकी भावी दामाद को लेकर इच्छाएँ-आकांक्षाएँ थीं, सब वे एक ही लड़के में देखना चाहते थे। नतीजतन जितने भी रिश्ते आते, सभी में कुछ न कुछ कमी उन्हें नजर आ ही जाती। कभी संयुक्त परिवार है तो कभी खानदान ज्यादा ऊँचा नहीं लग रहा।
कभी लड़के का रूप-रंग सलोना है तो कभी लड़के की कम आय ही नजर आने लगती। देखते-देखते रश्मि 27 साल की हो गई। अब न तो उसमें वो मासूमियत-रौनक रह गई, जो पहले थी साथ ही मलिक दंपति का भी धैर्य व हिम्मत धीरे-धीरे जवाब देने लगी। अब तो हर पल उन्हें यही लगता, बड़ी भूल कर दी जो इतने नुक्स निकाले।
कई अच्छे-अच्छे रिश्ते बिना वजह ही हाथ से निकल जाने दिए। जहाँ पहले मनमाफिक सब कुछ मिल जाता, वहीं अब मन को समझा कहीं न कहीं बात पक्की करनी ही होगी, नहीं तो देर होती जाएगी।
NDNDऐसा सिर्फ मलिक दंपति के साथ ही न होकर कई माता-पिताओं के साथ होता है और अच्छे-अच्छे के चक्कर में वे इधर-उधर भटकते ही रहते हैं। समझदारी व बुद्धिमत्ता से न सोच पाने के कारण फिर बाद में जैसे-तैसे समझौता करना ही पड़ता है और जिंदगीभर यही अफसोस दिल में रह जाता है कि हमारी बेटी को ज्यादा सुख-खुशियाँ मिल सकती थीं, यदि हमने वास्तविकता को पहचान हवा में सपने न बुने होते।
ऐसे ही मेरी परिचिता की बेटी साधारण रंग-रूप की है। पढ़ाई-लिखाई या फिर अन्य क्षेत्र में भी औसत दर्जे की ही रही है किंतु उसे भी चाहिए- सपनों का-सा राजकुमार, जो जिन्ना की भाँति पलक झपकते ही उसकी हर इच्छा पूरी कर दे। पलभर में सारे सुख-साधन उपलब्ध करा दे। आजकल इस तरह की विचारधारा का एक बड़ा कारण व्यक्ति की अपरिपक्व सोच तथा आर्थिक स्थिति का मजबूत होना भी है, क्योंकि पैसे के बल पर वे सब कुछ पाना चाहते हैं।
जब माता-पिता लड़का देख रिश्ते तय करने जाते हैं तो एक खरीददार की तरह ही उनका व्यवहार हो जाता है कि जब पैसा अच्छा देंगे तो माल भी अच्छा ही चाहिए। कहीं किसी प्रकार की कोई कमी नहीं होनी चाहिए। बस! यही संकीर्ण मानसिकता व सोच का ढंग ही उनकी परेशानी का कारण बन जाता है, जो कि आज नहीं तो कल उन्हें पछताने के लिए मजबूर करता ही है।
कहते हैं न जोड़ियाँ स्वर्ग में बनती हैं। हम तो केवल यहाँ थोड़ी-बहुत दौड़भाग कर उनको मिलाते हैं, गठबंधन कराते हैं अतः बेटी हो या बेटा, दोनों ही जब विवाह योग्य हो जाएँ तो उनके लिए उन्हीं के अनुरूप दामाद अथवा बहू चुनें। जरूरत से ज्यादा नुक्ताचीनी या फिर मन में वहम पालना उचित नहीं होता।
जहाँ भी, जब भी यथायोग्य जोड़ा मिले, खुशी-खुशी बिना किसी शंका व चिंता के बच्चों को उनके सुखद भविष्य का आशीर्वाद देकर नवजीवन में प्रवेश करने की अनुमति दें और ईश्वर से प्रार्थना कर दीर्घायु तथा सदा सुखी रहने की कामना करें।
1 टिप्पणी:
जब मूल्य ले कर कोई दुकानदार इच्छित सामान नही दे तो क्या हम खाली हाथ निराश घर लौट आते हैं? महंगी से महंगी गाड़ी भी अगर हमें अपने इच्छित स्थान पर नही पहुँचाए तो क्या हम गाड़ी महंगी होने के कारण उसमें की गई यात्रा का पैसा देते हैं? कोई ठेकेदार आपका काम पूरा करने के स्थान पर लिखित प्रमाण पत्र दे दे कि आपका कार्य पूरा कर दिया गया है तो क्या हम उसे पूर्ण भुगतान करना पसंद करते हैं?
शिक्षा के बाजार में आज हमारे साथ ऐसा ही बर्ताव किया जा रहा है। और जब अभिभावक का बच्चे के विकास में, विद्यालय के क्रिया कलापों में धन खर्च करने के अलावा कोई योगदान या रूचि ही नही है तो विद्यालय प्रबन्धन भला क्यों योग्य अध्यापकों पर पैसा खर्च करेगा? वह हर साल आपके बच्चे को मात्र बढिया प्रतिशत अंक देकर (ठेकेदार की तरह बिना कार्य किए झूठा प्रमाण पत्र) आपको खुश रखेगा, भले ही आपके बच्चे का बौद्धिक स्तर, चारित्रिक स्तर, व्यक्तित्ब अपरिवर्तित रहे। परीक्षा परिणाम आजकल विश्वविद्यालयों व शिक्षा बोर्डों में बोली लगा कर खुले आम खरीदे जा रहे हैं। कोई बोर्ड, विश्वविद्यालय या स्कूल यह दावा नही कर सकता कि जिन विद्यार्थियों को परीक्षा पास का प्रमाण पत्र दिया गया है वे बोर्ड या विश्वविद्यालय के द्वारा निर्धारित मानकों को पूरा कर सकते हैं। इस झूठे प्रमाण पत्र के लिए हम सब इस कदर सम्मोहित है कि कई बार तो विद्यार्थियों को झगड़ते देखा गया है कि संस्थान ने हमें फेल कैसे किया क्या फैल होने के लिए पैसे खर्च किये थे? क्या दुकानों पर भी हम पैसे के बदले सामान न लेकर आकर्षक पैकिंग के लिए झगड़ते हैं?
दुनिया भर में आज स्थिति यह है कि अभिभावक अपने बच्चे के बीमार होने पर तो अपना सब कुछ दांव पर लगाने लगते हैं। डॉक्टर की योग्यता, अस्पताल की सुविधाओं आदि सब की पड़ताल करते हैं। इतना ही नही सहानुभूति प्रकट करने के लिए परिवार के अन्य सदस्यगण दूर दराज से आकर अस्पताल व रोगी को घेर लेते हैं।
अभिभावक आज अपने बच्चों को जीवित मात्र देखना चाहते हैं। इस बच्चे का जीवन स्तर क्या होगा, किन जीवन मूल्यों को अपनाएगा, इस प्रशिक्षण के लिए जिन विद्यालयों में बच्चे को भेजते हैं उन विद्यालयों में कभी झांक कर नही देखते हैं कि कैसी सुविधाएं हैं, कैसे शिक्षक हैं। अभिभावकों की लापरवाही का ही नतीजा है कि आज विद्यालयों में शिक्षक के स्थान पर जीभ के मजदूर आठ महीने की मौसमी मजदूरी कर रहे हैं। जिन शिक्षकों में आर्थिक असुरक्षा के कारण आत्मविश्वास व स्वाभिमान नही वह बच्चों के समग्र विकास में भला क्या योगदान कर सकते हैं?
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