सात फेरों का बंधन या..
हाल ही में महाराष्ट्र सरकार ने लिव-इन रिलेशनशिप में रह रहे जोडों को शादीशुदा दंपती के बराबर दर्जा दिए जाने का प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजा था। इससे यह विवाद फिर से गहरा गया है कि सहजीवन का रिश्ता सिर्फ वैधता का ही मामला है या नैतिकता सामाजिकता का भी। हालांकि इस रिश्ते को कानूनी दर्जा दिए जाने की बात पहले सुप्रीम कोर्ट भी कर चुका है। वास्तव में विपरीत सेक्स के प्रति आकर्षण और उसकी जरूरत को सही स्वरूप देने के लिए ही विवाह संस्था को अनिवार्य समझा गया था। इसके अंतर्गत नियम-कायदा या परंपरा बना कर उसमें स्त्री और पुरुष को बांधा जाए, जिससे इस संबंध की मर्यादा को चिरजीवी और समाज में अनुशासन बनाए रखा जा सके। समाजशास्त्रियों का मानना है कि वास्तव में इस संस्था का जन्म तब हुआ जब हमारे जीवन में भौतिकतावादी सुख-सुविधाओं के साथ संपत्ति ने कदम रखे। संपत्ति को लेकर विवाद न हो और वह सही हाथों में जाए, इसके लिए समाज ने कुछ नियम बनाए और धर्म व कानून का दखल भी उसमें रखा गया। इस प्रकार विवाह संस्था को मजबूत आधार दिए गए।
बदला स्वरुप
समय के साथ रिश्ते और उनका स्वरूप भी बदला। पिछले कुछ सालों में जिस तरह तेजी से जीवनशैली में बदलाव आए हैं, उसी तेजी से लोगों की सोच भी बदली है। आज का युवा वर्ग बंधन में विश्वास नहीं रखता। उसे खुली और आजाद जिंदगी चाहिए। इसी सोच के साथ शुरुआत हुई सहजीवन की.. साथ-साथ रहो, प्यार करो लेकिन तुम अपनी जगह आजाद और मैं अपनी जगह। जब तक रहना चाहो रहो, जब मन ऊब जाए तो नमस्ते कर लो। लेकिन ये सोच कितने लोगों की है। अपने आसपास नजर डालें तो शायद गिनती के कुछ नाम ही सामने आएंगे। उन्मुक्त जीवन और खुला आसमान किसे पसंद नहीं होता। लेकिन इन रिश्तों का अंदरूनी सच क्या है, यह जानना भी आम आदमी के लिए जरूरी है। ऊपरी तौर पर देखने पर यह बात आकर्षक तो लगती है, लेकिन इसके साथ मुश्किलें भी कुछ कम नहीं है। सहजीवन को अपनाना आसान निर्णय नहीं, लेकिन इसे अपनाने पर यदि आप इस रिश्ते को स्वीकार नहीं कर पा रहे तो इसका आधार कहां है, इसका सच क्या है? आज भी अपनी मर्जी से विवाह करने वाली युवतियां शादी के जोडे को पारंपरिक ढंग से धारण कर रही हैं और पढे-लिखे युवक भी सेहराबंदी और घुडचढी में यकीन रखते हैं। जब पढे-लिखे आधुनिक युवा विवाह संस्था की परंपराओं का पालन खुशी से कर रहे हैं तब इसकी प्रतिष्ठा पर सवाल उठाने का प्रश्न ही नहीं उत्पन्न होता। जो जुडे हैं जमीनी सच्चाइयों से वे अपने मूल्यों को भलीभांति समझते और स्वीकारते हैं।
कानूनी पक्ष
सुप्रीम कोर्ट दिल्ली के वकील बालेन्दु शेखर का कहना है कि यह ठीक है कि कानून बनाए जाते हैं आम आदमी के हितों की रक्षा और अच्छे लक्ष्यों को लेकर लेकिन बहुत जल्दी ही इनका दुरुपयोग होने लगता है। यही बात लिव-इन रिलेशनशिप के पक्ष की भी है। प्रस्ताव में लिखा गया है कि तर्कसंगत अवधि तक कोई लडकी किसी लडके के साथ पत्नी की तरह बिना शादी के रहती है तो उसे पत्नी का दर्जा मिलना चाहिए। लेकिन आप कब से उस पुरुष के साथ हैं, क्या साक्ष्य देंगी सहजीवन के, सहजीवन के लिए जो तर्कसंगत अवधि बताई गई है वह कितनी लंबी होगी आदि अनेक प्रश्न ऐसे हैं जिनका जवाब देना शायद कठिन होगा। मान लें साल दो साल एक युवक और युवती साथ रहे, बाद में मतभेद होने पर दोनों ने अलग रहने का निर्णय ले लिया, ऐसे में क्या वह युवती गुजारा भत्ता मांगने की हकदार होगी। यदि होगी तो यह कितना सही फैसला होगा? अभी बहुत कुछ होना और करना बाकी है। यह कानून जमीनी सच्चाइयों से अभी कोसों दूर है। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि यह भी हो सकता है कि इस तरह की सुरक्षा अनैतिकता को बढावा दे।
बदले हैं आदर्श
हमारे समाज के आदर्श अब बदल गए हैं। पहले जहां स्वतंत्रता सेनानी, समाज सुधारक, विचारक हमारे आदर्श होते थे, वहीं अब नई पीढी के रोल मॉडल ग्लैमर की दुनिया से आ रहे हैं। हमारे आदर्श नायक-नायिकाएं जो चरित्र पेश करते हैं उनके प्रभाव से मुक्ति आम इंसान के लिए आसान नहीं। बॉलीवुड हो या हॉलीवुड, सहजीवन हो या दो से तीन विवाह, अनेक जोडे इसमें विचरते नजर आ जाएंगे। लेकिन वास्तविक धरातल पर जाकर इनकी सच्चाई जानने की कभी कोशिश किसी ने की है? हेमा मालिनी जैसी नायिका संसद में अपने को विवाहित बता पति के तौर पर धर्मेन्द्र का नाम लिखती है, वहीं धर्मेन्द्र राज्यसभा के सदस्य होने के नाते पत्नी की जगह प्रकाश का नाम लिखते हैं। क्या आधार है ऐसे रिश्तों का और कौन सा समाज इन्हें स्वीकार कर रहा है जब ये दोनों ही अपने बारे में स्पष्ट नहीं।
जीवन का सच
पति और पत्नी का रिश्ता एक अनोखा रिश्ता है। संसार को चलाने और समाज को नई दिशा देने में भी इसके महत्व को अनदेखा नहीं किया जा सकता। लेकिन यह तभी वाजिब है जब परंपराओं और नियमों के तहत धर्म, समाज और कानून द्वारा मान्यता प्राप्त हो। यदि आप बिना किसी बंधन के रहना चाहते हैं तो गलत कुछ नहीं, लेकिन उसके भविष्य और परिणामों को लेकर सुनिश्चित होइए। इसी विषय पर जानिए जाने-माने लोगों के विचार।
शादी से वचनबद्धता आती है
जया भट्टाचार्या, अभिनेत्री
मेरे हिसाब से विवाह के बारे में लोगों की सोच अभी भी बहुत बदली नहीं है। विवाह संस्था में लोगों का आज भी यकीन है। परंतु हर व्यक्ति की सोच अलग-अलग है। कोई पारंपरिक शादी को सही मानता है तो कोई प्रेम विवाह को। पर मकसद एक ही होता है और वह है एक रिश्ता जिसे दोनों को सामंजस्य के साथ निभाना पडता है। चाहे लिव-इन रिलेशनशिप हो या शादी, जिम्मेदारी दोनों ही हालत में निभानी पडती है। कई बार शादी करके भी व्यक्ति अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाता इससे रिश्ते प्रभावित होते हैं। लेकिन शादी हो जाने पर भी यह गारंटी नहीं कि व्यक्ति अपनी जिम्मेदारी पूरी तरह निभाएगा। शादी जरूरी है क्योंकि इससे आपसी संबंधों में वचनबद्धता आती है। आप एक दूसरे से सामंजस्य स्थापित करने की कोशिश करते हैं। कोई बात जो आप हर किसी से बांट नहीं सकते, वह अपने जीवन साथी से कह सकते हैं। सफलता मिलने पर खुशी और दुखी होने पर एक दूसरे का हाथ थाम सकते हैं। पहले लिव-इन रिलेशनशिप हो फिर शादी हो या न हो कोई फर्क नहीं पडता। लिव-इन रिलेशनशिप में भी वही वचनबद्धता प्यार और सामंजस्य होता है। केवल शादी जैसे फेरे या फिर पार्टी नहीं होती मानसिक स्थिति इसमें भी शादी के बाद की ही होती है। करियर और शादी दोनों अलग बात होती है। अब अधिकतर लोग करियर में स्थायित्व मिलने के बाद ही शादी करते हैं। अगर व्यक्ति सिर्फ करियर को ही देखे, तो एक समय ऐसा आएगा जब वह अपने आपको अकेला महसूस करेगा। इसलिए कामयाबी कितनी भी मिले पर शादी का महत्व हमेशा अलग ही रहा है और रहेगा। शादी हमेशा से जरूरी है। समाज में लिव-इन रिलेशनशिप का प्रचलन कहीं बढा नहीं है। पहले यह रिश्ता दिखता नहीं था, आज दिखता है। लोग आज इसे चोरी-छिपे निभाने में नहीं, खुलकर स्वीकारने में यकीन रखते हैं। आज हर कोई कामयाबी के बाद ही शादी करना चाहता है। इसलिए इस तरह के रिश्ते और देर से विवाह का चलन बढ रहा है। इसे मैं बुरा नहीं मानती। मैं भी कई वर्ष साथ रही, पर अब अकेली हूं। अगर कोई ढंग का साथी मिला तो अवश्य साथ दूंगी और शादी करूंगी।
संबंधों को दीर्घजीवी बनाती है शादी
श्वेता केसवानी, अभिनेत्री
विवाह संस्था पर भारतीयों का सदियों से विश्वास था, है और रहेगा। पिछले कुछ सालों से मेट्रोपॉलिटन शहरों मे सहजीवन के मामले बढ रहे हैं। पर यह फंडा केवल बडे शहरों तक सीमित है। हम सभी जानते हैं कि पुराने जमाने में राजे-महाराजे इस तरह के संबंधों पर यकीन रखते थे। पर उन स्त्रियों को किसी प्रकार की मान्यता नहीं मिलती थी। जो आदर और मान वैवाहिक रिश्तों में है वह लिव-इन में नहीं हो सकता। पश्चिम में लिव-इन रिलेशनशिप के मामले अधिक होंगे। वहां का सांस्कृतिक और सामाजिक माहौल हमसे काफी अलग है। आजकल लिव-इन के मामले इसलिए ज्यादा बढ रहे हैं क्योंकि अपने करियर को ज्यादा तवज्जो देने वालों की तादाद बढी है। नई पीढी अपने करियर और पर्सनल लाइफ के साथ किसी प्रकार का खतरा मोल लेना नहीं चाहती। आज भी छोटे शहरों में लिव-इन का रिश्ता किसी के लिए भी हंगामे का विषय हो सकता है। समाज के सामने सहजीवन के संबंधों को स्वीकारने की हिम्मत हर किसी में नहीं होती। नच बलिए प्रोग्राम में मेरे साथ नजर आए एलेक्स। एक कार्यक्रम के दौरान मेरी और एलेक्स की मुलाकात जे.डब्लू.मैरिअट में हुई थी। हमें एक-दूसरे से प्यार हो गया। मेरे पेरेंट्स हमेशा चाहते थे कि मेरी शादी सिंधी लडके से ही हो। एलेक्स अमेरिकन हैं। उसे स्वीकारने की कोई गुंजाइश नजर न आने पर मैंने एलेक्स के साथ सहजीवन में रहने का निर्णय लिया, मेरे उस निर्णय पर हंगामा हुआ। शायद मेरे बोल्ड निर्णय से घबराकर मेरे पेरेंट्स ने मुझे उनसे शादी करने की इजाजत दे दी। हाल ही में हम विवाह संस्था में बंध गए। मेरे सहजीवन के मकसद के पीछे एलेक्स को शादी से पहले आजमाना, उसके स्वभाव को जानना था। लिव-इन रिलेशनशिप हो या शादी का रिश्ता, अपने संबंधों को प्रगाढ बनाना या बिगाडना हर दंपती की आपसी समझ पर निर्भर है। यह दुनिया की किसी भी पुस्तक में नहीं लिखा कि शादी के संबंध ही लंबे समय टिक पाते हैं और लिव-इन के नहीं। दुनिया के सामने खासकर भारतीय समाज के सामने एक बडा सबक छोडकर गई, मशहूर लेखिका अमृता प्रीतम। उनके और इमरोज के बीच कोई शादी का बंधन नहीं था। पर लिव-इन संबंध प्रगाढ कैसे हों, इसकी वो जीती-जागती और खूबसूरत मिसाल थीं। सहजीवन के बीच मित्रता का इससे अच्छा उदाहरण नहीं मिलेगा।
अधूरा कमिटमेंट है सहजीवन
अंकिता श्रीवास्तव, टीवी. कलाकार
मेरे खयाल से संबंध व्यक्तिगत सोच पर निर्भर करते हैं। लोगों की सोच तो काफी समय पहले से बदल गई है। समय के साथ-साथ होने वाले हर स्तर के बदलाव को व्यक्ति धीरे-धीरे स्वीकार कर लेता है। पहले मां-बाप और रिश्तेदारों की सलाह पर शादी तय की जाती थी। ऐसा नहीं था कि तब लोग प्यार नहीं करते थे। धीरे-धीरे लोगों ने ऐसे विवाह को स्वीकृति दे दी। अब लव कम अरेंज मैरिज दोनों साथ हो गई। मुझे लगता है शादी हर किसी के लिए जरूरी है। हर किसी को ऐसे व्यक्ति का साथ चाहिए, जिससे वह अपने सुख-दुख बांट सके। अगर पति-पत्नी समझदार हुए तो शादी सफल हो जाती है। अपवाद हर जगह होते हैं। कहीं भी किसी प्रकार की सफलता की गारंटी नहीं होती। अगर यह कहा जाए कि लोगों का लिविंग टुगेदर में विश्वास बढा है तो शायद सही नहीं होगा। भारत में अभी इस तरह का कंसेप्ट इतनी स्वीकारा नहीं जा सकता। मुझे लगता है कि जो लोग जिम्मेदारी नहीं स्वीकार करना चाहते, वे ही लिव-इन रिलेशनशिप में विश्वास रखते हैं। शादी को अगर अनिवार्य जरूरत की तरह लेंगे तो शायद यह भी कोई नहीं करना चाहेगा। अगर किसी बच्चे से कहा जाए कि तुम्हें इतने बजे उठना, इतने बजे पढना और इतने बजे खाना अनिवार्य है, तो वह शायद उसे नहीं मानेगा। जिद में वह नियम को तोडने की कोशिश करेगा। इसलिए अनिवार्यता नाम से शादी जैसे पवित्र बंधन को मापना कठिन होगा। शादी मर्जी से की जाए तभी सफल होती है। इसका यह मतलब नहीं कि बिना शादी के ही एक पुरुष-स्त्री साथ-साथ रहें। विवाह संस्था में कहीं न कहीं किसी कमी के कारण भले ही लोग इस विकल्प की ओर बढ रहे हैं, लेकिन अगर विवाह संस्था में कुछ सुधार कर लिए जाएं तो यह सफल हो जाएगा। एक स्त्री या, लडका कितने लोगों के साथ अलग-अलग रह सकता है? इससे मानसिक, भावनात्मक और शारीरिक हर स्तर पर असर पडता है। लिव-इन रिलेशनशिप में अगर एक लडका समझ में न आया तो दूसरे, फिर तीसरे किस-किसके साथ रहेंगे? सोचती हूं कि कितनी बडी विडंबना का सामना करना पडता होगा लिव-इन रिलेशनशिप में। इसलिए मैं इस व्यवस्था के एकदम खिलाफ हूं अधूरे कमिटमेंट से। मुझे लव-अरेंज मैरिज में विश्वास है। मैंने ऐसे न जाने कितने उदाहरण अपने सामने देखे हैं। किसी न किसी डर, असुरक्षा के कारण ही शायद अब लोग अपने रिश्ते को बिना कोई नाम दिए साथ-साथ रहने लग गए हैं। लेकिन ऐसे लोग अभी भी गिने-चुने ही हैं।
समय रहते शादी करें
सुप्रिया पाठक, अभिनेत्री
विवाह संस्था को लेकर लोगों की सोच में बदलाव आया है, ऐसा मैं नहीं मानती क्योंकि सबकी सोच नहीं बदली। विवाह को आज भी सबसे अधिक अहमियत दी जाती है। ऐसा इसलिए भी किया जा रहा है कि नई पीढी इसकी महत्ता को समझे। विवाह को लेकर कोई भी थोडा इसलिए सोचता है क्योंकि आज चाहे लडकी हो या लडका अपने करियर को पहले देखते हैं फिर बाद में शादी के बारे में सोचते हैं। हमारी संस्कृति में विवाह को हमेशा ही महत्वपूर्ण माना गया है। अगर हम गांव में जाएं तो वहां इसकी मिसाल देखने को मिलती है। ये जो भी लिव-इन रिलेशनशिप के बारे में चर्चा करें तो यह शहरी, खासकर मेट्रो में अधिक है। जबकि छोटे शहर और गांव में नहीं है हमारे देश की अधिकांश जनसंख्या आज भी मेट्रो में नहीं बसती, गांव में रहती है। इसलिए विवाह की मान्यता हमेशा से ही है। विवाह एक बहुत ही सुंदर बंधन है। इससे पूर्णता का एहसास होता है। इसे शब्दों में पूरी तरह बयान करना संभव नहीं। लिव-इन रिलेशनशिप के प्रति लोगों का आकर्षण बढ रहा है, यह बात मैं नहीं मान पाती। यह केवल बडे शहरों के लिए है, गांव या छोटे शहरों में नहीं। विवाह की अहमियत हर एक के जीवन में होती है। चाहे भारत में हो या किसी दूसरे देश में। कुछ लोगों को आजाद खयाल के कारण विवाह शायद जरूरी न लगे। पर चाहे वे साथ रहते भी हों, उसमें भी वचनबद्धता और प्यार आवश्यक है। लेकिन हर व्यक्ति अलग है, इसलिए उसकी सोच का अलग होना भी स्वाभाविक है। जो जिसे ठीक लगे वह अपनी मर्जी से कर सकता है। पहले लडकियां अपने पिता, पति या भाई पर निर्भर थीं, आज वे स्वतंत्र हो चुकी हैं। वे आत्मनिर्भर हैं, ऐसे में कई बार वे शादी नहीं करतीं। पर इस बात से यह साबित नहीं होता कि वे शादी करना नहीं चाहतीं। कुछ परिस्थितियां ऐसी रही होंगी, जिससे वे नहीं कर पाई। व्यक्ति अधिक दिनों तक अकेले नहीं रह सकता। एक समय ऐसा आता है जब सबको किसी हमसफर या साथी की आवश्यकता पडती है। कम उम्र में इस बात का पता नहीं चल पाता है। जैसे-जैसे उम्र बढती है, तो इसका एहसास होने लगता है। इसलिए समय रहते ही शादी कर लेनी चाहिए। लिव-इन रिलेशनशिप को आज समाज मानने लगा है। आज अगर कोई साथ रहता है तो लोग उनके रिश्तों पर पहले की तरह उंगली नहीं उठाते। लेकिन संबंधों को आधार देने में विवाह संस्था का कोई विकल्प नहीं।
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