अब बेटियाँ सब जानती हैं!
जानता हूँ कि सारा भारत, दिल्लीया मुंबई नहीं है और यह भी जानता हूँ कि मैं जो बात कहने जा रहा हूँ वह सभी पर समान रूप से लागू नहीं होती है। हम सब इस देश में, एक ही समय में रहते हुए भी एक समय में नहीं रहते। हम सब एक जगह चलते हुए भी एक ही गति से नहीं चलते। हम सब बदलते हुए भी एक गति से नहीं बदलते। हमारे समाज में बहुत तरह की परतें हैं, सामाजिक चेतना तथा आर्थिक स्थितियों के अनेक धरातल हैं।
हमारे भूगोल, हमारी सांस्कृतिक-सामाजिक स्थितियाँ कई अर्थों में भिन्न हैं इसलिए यहाँ सामान्यीकरण करना कठिन है मगर फिर भी समय को समझने की कोशिश में कुछ सामान्यीकरण करने जरूरी होते है ।
मैं मध्य प्रदेश के एक कस्बे में पला-बढ़ा हूँ जहाँ मेरे कॉलेज में प्रवेश लेने से करीब एक दशक पहले ही कॉलेज खुला था । आज से करीब चार दशक पहले, ठीक-ठीक 38 वर्ष पहले की दुनिया कई-कई मायनों में आज से बहुत ही भिन्न थी। आज यह सोचकर भी कितना अजीब लगता है कि मैं जिस कक्षा में तीन साल तक पढ़ता रहा, उसमें दो लड़कियाँ थीं और मेरी ही क्या, 99 प्रतिशत लड़कों की उनसे कभी कोई बातचीत नहीं हुई। उन तीन सालों में एक ही कक्षा में, एक ही कॉलेज में पढ़ते हुए भी हम एक-दूसरे से अपरिचितों जैसा व्यवहार करते थे। इस तरह जैसे कि एक-दूसरे को जानते ही न हों। आज मेरा विश्वास है कि यह दुनिया उस कॉलेज में भी नहीं रही होगी।
और दुनिया बदलते-बदलते कितनी बदल गई है! उस जमाने में लड़कियों का लड़कों से बात करना, कम से कम, हमारे कस्बे में तो एक दुस्साहस माना जाता था और फौरन इसका दूसरा अर्थ लगाया जाता था यानी यह कि दोनों में कुछ 'गड़बड़' चल रहा है। 'बदनामी' हो जाती थी लड़की की। खुद बात करने वाले लड़के को यह भ्रम हो जाता था या उसके साथी दिला देते थे कि लड़की ने उससे बात की है यानी वह उस पर मरने लगी है।
हालाँकि एक-दूसरे पर मरने-जीने से भी सामान्यतः कोई खास फर्क नहीं पड़ता था क्योंकि होना वही था, जो मंजूरे माँ-बाप होता था। और प्रेम विवाह न माँ-बाप को मंजूर होता था, न बाकी समाज को। यह जमाना 'प्यार किया तो डरना क्या, प्यार किया कोई चोरी नहीं की, छुप-छुप के आहें भरना क्या' जैसे गाने के मशहूर होने के कुछ साल बाद का था मगर आम लड़के-लड़की वही करते थे, जिसकी मुमानियत यह गाना करता है हालाँकि किसी लड़की को देखकर लड़के यह या ऐसा ही कोई गाना अक्सर गाने लगते थे।
लड़कियाँ तब भी लड़कों के या उस समय के हीरो के सपने देखा करती थीं। मुझे याद है कि एक लड़की उस जमाने में विश्वजीत और जॉय मुखर्जी पर बहुत मरती थी। लेकिन उसका और तमाम लड़कियों का (तथा साथ ही लड़कों का भी) हश्र वही हुआ, जो होना बदा था। उनमें से 99 प्रतिशत की शादियाँ माता-पिता की पसंद से स्वजाति के सरकारी नौकरीशुदा लड़कों से हुईं, जिनसे विवाह उस जमाने में सबसे सुरक्षित माना जाता था।
उनकी भी हुई, जो उस जमाने में भी चोरी-छुपे प्यार करने का दुस्साहस कर बैठती थीं लेकिन इसका रहस्य जितनी जल्दी उजागर हो जाता था, उतनी जल्दी उन लड़कियों की शादियाँ भी हो जाती थीं और ऐसे रहस्य ज्यादा देर तक छुपे नहीं रहते थे इसलिए कॉलेज की परीक्षा पास करने का लक्ष्य सामने रखने वाली लड़कियों को बेहद संभल-संभलकर चलना पड़ता था ताकि उनका बी.ए. पास करने का सपना कहीं अधूरा न रह जाए और उनकी 'अच्छे' घर में शादी हो जाए। लेकिन यह न समझा जाए कि इन बंधनों को लड़के-लड़की बिल्कुल काट ही नहीं पाते थे मगर बहुत ही कम।
आज शायद ही किसी कस्बे में ठीक ऐसी ही स्थितियाँ हों और होंगी तो वहाँ शायद आज से चार दशक पहले इससे भी बुरे हालात रहे होंगे लेकिन सच यह भी है कि तब से लड़कियों की दुनिया बहुत बदली है, घर में भी और बाहर भी। मेरे आसपास ऐसे बहुत से परिवार हैं जो चाहते हैं कि लड़की अगर किसी लड़के से प्यार करती है तो वह बता दे माँ-बाप को और वे जाति-धर्म के बंधनों को तोड़ते हुए उस लड़के से उसकी शादी कर देते हैं बल्कि सच यह है कि वे खुद चाहते हैं कि लड़की किसी लड़के को पसंद कर ले ताकि उन्हें लड़का ढूँढने के जटिल चक्कर में न फँसना पड़े ।
मेरे एक मित्र कुछ-कुछ हिंदूवादी हैं लेकिन जब उन्होंने बेटी पर शादी के लिए दबाव बनाया तो अंततः उसने बता दिया कि वह वर्षों से एक मुस्लिम लड़के से प्रेम करती है। उससे शादी करने का निर्णय निश्चित रूप से उसके माता-पिता के लिए कठिन था लेकिन अपने आपसे जूझते हुए अंततः यह साहसिक फैसला उन्होंने लिया। एक और ने अपनी से निम्न समझी जाने वाली जाति के लड़के से अपनी लड़की की शादी बेहिचक कर दी।
हर जमाने में लड़के-लड़की प्रेम करते हैं मगर आज कम-से-कम शहरी लड़के-लड़कियों के पास एक-दूसरे को बेहतर ढंग से, लंबे समय तक जानने-पहचानने-समझने के अवसर हैं। इसलिए लड़कियाँ जब जाति और धर्म की दीवारें पार करती हैं तो सिर्फ भावुक होकर नहीं, दुनियावी समीकरणों को ठीक से सोच-समझकर, विवाह के दीर्घकाल तक चलने की संभावनाओं को बड़ी हद तक जाँच-परखकर।
वे अपने कॅरियर को और लड़के के कॅरियर को भी पूरी तरह ध्यान में रखती हैं। उनके सामने हमारे जमाने की तरह यह समस्या नहीं है कि जो लड़का नजदीक आ जाए, उसके ही प्यार में मर मिटो, फिर चाहे बाकी जिंदगी बर्बाद हो जाए। आज मध्यवर्गीय परिवारों में लड़कियाँ अक्सर माता-पिता से हर बात खुलकर करती हैं, अधिकारपूर्वक करती हैं और उनके आतंक में नहीं जीतीं। अपनी मर्जी हो, वही पहनती हैं, खाती हैं, घूमती हैं और जब चाहती हैं, तभी शादी करती हैं या नहीं करती हैं।
वे माता-पिता को यह विश्वास दिलाती हैं कि वे बाहर की स्थितियों का सामना करने में सक्षम हैं। वे कोई छुई-मुई नहीं हैं कि जिन्हें कोई भी डरा-धमका ले। वे परिवार के साथ कॅरियर की भी सोचती है और आसानी से अपना कॅरियर छोड़कर घर में नहीं बैठ जाती है। या ऐसा त्याग करती तो कुछ समय के लिए ताकि स्थितियाँ सामान्य होने पर फिर से कॅरियर की राह पर चल सकें।
उनका विश्वास और आत्मविश्वास देखकर सचमुच अच्छे अर्थों में मुझे उनसे ईर्ष्या होती है-अपनी ही बेटियों से ईर्ष्या! और जो लड़कियाँ मध्य वर्ग की नहीं है, उनसे नीचे पायदान पर हैं, वे इतनी आगे अगर नहीं हैं तो बहुत पीछे भी नहीं है। वे भी संभल-संभलकर दृढ़ता से कदम रखना सीख गई है। हालाँकि गलतियाँ और चूक किससे नहीं होती? इनसे भी हो जाती है। कौन सा ऐसा युग हो सकता है जब आपका विश्वास न छला जाए?
किस समय सारे मार्ग सभी को प्रशस्त मिलते हैं? महत्वपूर्ण यह नहीं है कि चीजें बहुत आसान है या नहीं हैं, महत्वपूर्ण यह है कि मुश्किलों के बीच अपना रास्ता निकालने का आपमें साहस है या नहीं? जहाँ साहस हैं, वहाँ खतरे भी हो सकते हैं। जहाँ खतरे हैं वहाँ कामयाबियाँ भी हैं और नाकामयाबियाँ भी, हालाँकि कई बार कामयाबियाँ ठोंकरें खा कर मिल जाती है, लेकिन किस चलने वाले ने कभी ठोंकरें नहीं खाई? कौन है जो रास्ते से नहीं भटका? और इस बात को हमारी ये बेटियाँ जानती हैं!
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