मे दैनिक राष्ट्रीय हिंदी मेल का सम्पादक हूँ.खुल्लम खुल्ला मेरी अभिव्यक्ति है .अपना विचार खुलेआम दुनिया के सामने व्यक्त करने का यह सशक्त माध्यम है.अरुण बंछोर-मोबाइल -9074275249 ,7974299792 सबको प्यार देने की आदत है हमें, अपनी अलग पहचान बनाने की आदत है हमे, कितना भी गहरा जख्म दे कोई, उतना ही ज्यादा मुस्कराने की आदत है हमें...
शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010
वामा विशेष
अस्मा अब आसमान छूती है!
वाकई बड़ी तबीयत की जरूरत पड़ती है अगर सुराख आसमान में करना हो तो। महज उन्नीस साल की अस्मा परवीन से पूछिए कि उसने ये पत्थर कितनी तबीयत से उछाला था, जो यूनाइटेड नेशन पॉपुलेशन फंड (संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष) ने अपने कैलेंडर पर उसकी तस्वीर को छापा है।
अब तक घर के भीतर बंद रहने वाली छोटी-सी अस्मा आज सारी दुनिया में अपने नाम का डंका पीट रही है। अब उसे स्कूल जाने के लिए डरने के जरूरत नहीं और न ही घर में बंद रहने की बल्कि अब तो उसे घर में रहने की ताकीद देने वाले उसके पापा और भाई भी उसे स्कूल जाने और कराते सीखने को मना नहीं करते। आखिर अस्मा की जिंदगी में ऐसा कौन-सा चमत्कार हुआ, जो वह रातों-रात अपने कस्बे की ही नहीं पूरी दुनिया की प्रेरणास्रोत और नायिका बन गई? चलिए विस्तार से जानते हैं।
बिहार के उस छोटे-से गाँव के एक रूढ़िवादी मुस्लिम परिवार में उन छः भाई-बहनों में अस्मा कुछ अलग थी। उसे स्कूल जाना और पढ़ाई करना अच्छा नहीं, बहुत अच्छा लगता था लेकिन परिवार में इसकी सख्त मनाही थी। ज्यादा से ज्यादा वह मदरसे तक जा सकती थी।
यहाँ तक कि अस्मा और उसकी बड़ी बहन कोघर से बाहर निकलने की भी इजाजत केवल तब थी जब वे मदरसे जा रही हों। उसके बाद फिर वही घर की दीवारों की कैद और केवल घर के कामकामज सीखने की हिदायतें। लेकिन क्या बुलंद हौसले ऐसी छोटी-मोटी बातों से टूटते हैं? हरगिज़ नहीं।
तभी तो अस्मा जल्दी-जल्दी घर का सारा काम निपटाती और फिर चुपचाप बिना किसी को बताए गाँव में ही चलने वाले 'महिला समाख्या' के लड़कियों के लिए चलाए जा रहे शिक्षा केंद्र में पढ़ने जा पहुँचती। फिर भाइयों और पिता के घर वापस आने से पहले ही लौट आती।
उसके अंदर पढ़ने की इतनी ललक थी कि घर के कामों का बोझ बढ़ने के बावजूद वह किसी भी तरह रोज शिक्षा केंद्र पहुँच ही जाती। उसकी इस ललक को शिक्षा केंद्र की एक शिक्षिका ने भाँप लिया। उन्होंने उसे उत्साहित किया और गाँव से लगभग 23 किलोमीटर दूर मुजफ्फरपुर में स्थित केंद्र के लिए उसका चयन कर लिया।
NDNDयह चयन मुख्यतः बालिकाओं की क्षमता तथा प्रतिभा के आधार पर किया जाता था। अस्मा जानती थी कि उसके परिजन कभी इस बात के लिए तैयार नहीं होंगे और यही हुआ भी। फिर खुद इस केंद्र की जिला कार्यक्रम समन्वयक ने अस्मा के परिजनों से बात की और उन्हें अपने केंद्र की व्यवस्था देखने के लिए आमंत्रित किया।
व्यवस्थाएँ देखने के बाद तथा यह पुख्ता करने के बाद कि अस्मा वहाँ सुरक्षित रहेगी, घर वालों ने हाँ कर दी। अस्मा के लिए यह पहली सीढ़ी थी। इस केंद्र में आकर अस्मा ने पढ़ाई के अलावा कराते सीखना भी प्रारंभ किया। उसके लिए अब आसमान खुला था।
पढ़ाई के अलावा पेंटिंग, कैंडल मैकिंग आदि सीखने के अलावा कराते ने उसे खास आकर्षित किया और केंद्र से बारहवीं पास करने के बाद भी वह यहाँ कराते सीखती रही। उल्लेखनीय है कि कराते में ब्लैक बेल्ट पाने के लिए आपको 8 स्तरों तक प्रशिक्षण पूरा करना होता है। अस्मा इनमें से 6 स्तर पूरे कर चुकी है और उसके पास ब्राउन बेल्ट है।
अब वह ब्लैक बेल्ट से केवल दो स्तर दूर है। यही नहीं, कराते के प्रति उसका समर्पण देखते हुए महिला समाख्या केंद्र ने उसे एक विद्यालय में लड़कियों को कराते सिखाने के लिए नियुक्त किया है। इससे अस्मा को आर्थिक आधार भी मिल गया। उसे प्रत्येक सेशन के हजार रुपए मिलते हैं तथा वह कुल पाँच सेशन लेती है। इसके अतिरिक्त शासन द्वारा बालिकाओं के लिए संचालित एक अन्य योजना के विद्यालय से भी उसे प्रत्येक सेशन के लिए पारिश्रमिक मिलता है।
अस्मा बहुत खुश है, क्योंकि अब उसे अपने भाइयों या पिता से पैसे नहीं माँगने पड़ते। उलटे वह घर पर कुछ पैसे भेज सकती है। हाल ही में उसने अपनी माँ के बीमार पड़ने पर उनके सारे मेडिकल बिल अदा किए। वह बैंक में पैसे रख बचत भी कर रही है। अस्मा की यह खुशी और भी बढ़ गई, जब वह इस वर्ष संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष द्वारा पटनाClick here to see more news from this city के एक कन्या महाविद्यालय में आयोजित कार्यक्रम में बोलने के लिए चुनी गई। बकौल अस्मा- 'पहली बार मैं इतने लोगों के सामने बोल रही थी लेकिन मुझे जरा भी डर नहीं लग रहा था।'
लड़कियों ने जब मुझसे पूछा कि 'क्या घरवालों के पढ़ाई हेतु मना करने के बाद मैंने उम्मीदें खो दी थीं? तो मैंने कहा कि मैं पढ़ाई करने को लेकर दृढ़संकल्पित थी और इस बात ने मेरा आत्मविश्वास और बढ़ा दिया तथा मैं हर परिस्थिति से लड़ सकी। अगर आपके मन में इच्छाशक्ति हो तो चुनौतियों पर विजय पाना कठिन नहीं है।' शायद यही वह जज्बा था जिसने अस्मा की तस्वीर को उस कैलेंडर तक पहुँचाया।
अस्मा फिलहाल हिस्ट्री (ऑनर्स) के द्वितीय वर्ष की छात्रा है और अपनी रोल मॉडल किरण बेदी की तरह पुलिस सेवा में जाना चाहती है। पढ़ाई छोड़ चुके उसके भाई-बहन भी अब वापस स्कूल जाने लगे हैं और अस्मा को विश्वास है कि उसकी बहन की तस्वीर भी एक दिन इस कैलेंडर में होगी। अस्मा ने आज अपनी राह तो बनाई ही है वह दूसरी लड़कियों को भी आगे बढ़ने का हौसला देती रहती है।
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