सुख-दुख दोनों है खास
अकबर के दरबार के नवरत्नों में बीरबल का अलग स्थान था। बादशाह कैसा भी प्रश्न पूछते, बीरबल सही व सटीक उत्तर देकर उनकी जिज्ञासा शांत कर देते। एक बार उन्होंने कहा, कुछ ऐसा लिखो जिससे खुशी के वक्त पढ़ें तो गम याद आ जाए और गम के वक्त पढ़ें तो खुशी के पल याद आएँ। बीरबल ने कुछ देर सोचा, फिर कागज पर यह वाक्य लिखकर बादशाह को दिया- यह वक्त गुजर जाएगा। सच! इन चार शब्दों के वाक्य में जीवन की कितनी बड़ी सच्चाई छुपी है।
सभी जानते हैं कि सुख-दुख जीवन के दो पहलू हैं जिनका क्रमानुसार आना-जाना लगा ही रहता है। किंतु हम सब कुछ जानते-समझते हुए भी दोनों ही वक्त अपनी भावनाओं-संवेदनाओं पर नियंत्रण नहीं रख पाते। जब खुशियों के पल हमारी झोली में होते हैं तो उस समय हम स्वयं में ही इतने मग्न हो जाते हैं कि क्या अच्छा क्या बुरा, इस पर कभी विचार नहीं करते हैं।
अपनी किस्मत व भाग्य पर इठलाते हुए अन्य की तुलना में श्रेष्ठ समझते हैं और अहंकारवश कुछ ऐसे कार्य तक कर देते हैं जिनसे स्वयं का हित और दूसरे का अहित हो सकता है। इस क्षणिक सुख को स्थायी मानते हुए ही जीने लगते हैं और वास्तव में यही सोच अपना लेते हैं कि अब हमें क्या चाहिए, सब कुछ तो मिल गया। बस! एक इसी भ्रांति के कारण स्वयं को उतने योग्य व सफल साबित नहीं कर पाते जितना कि कर सकते थे।
इसी तरह दुःखद घड़ी में भी अपना आपा खो बेसुध होकर सब भूल जाते हैं। छोटे-से छोटे दुःख तक में धैर्य-संयम नहीं रख पाते। बुद्धि-विवेक व आत्मबल होने के बावजूद स्वयं को इतना दयनीय, असहाय व बेचारा महसूस करते हैं कि त्मसम्मान, स्वाभिमान तक से समझौता कर लेते हैं। यही कारण है कि सब कुछ होते हुए भी उम्रभर अयोग्य-असफल होने लगते हैं।
कहने का सार यह है कि जो भी छोटी-सी जिंदगी हमें मिली है उसमें सुख व दुख दोनों ही से हमारा वास्ता होगा, यही शाश्वत सत्य है। इस सच को हम जितनी जल्दी स्वीकार कर लेंगे उतना ही हमारे लिए अच्छा रहेगा, क्योंकि फिर ऐसा समय आने पर हम अपने संवेगों पर काबू कर उन्हें स्थिर रख सकेंगे।
सुष्मिता की खूबसूरत दुनिया
हाँ, एक अंतरराष्ट्रीय सौंदर्य प्रतियोगिता के लिहाज से उनकी मोहक सुंदरता, गजब का आत्मविश्वास और सधे कदम तो काम आए ही... एक और चीज़ थी जिसने सुष्मिता सेन !! को मिस यूनिवर्स का खिताब दिलवाने में मुख्य भूमिका निभाई। वह था अंतिम राउंड में पूछे गए प्रश्न के लिए उनका जवाब। यह वह रुहानी सुंदरता थी जिसने ब्रह्माण्ड को सुष्मिता के सर का ताज बना दिया।
मिस यूनिवर्स (1994) प्रतियोगिता का अंतिम राउंड बेहद कड़ी प्रतिस्पर्धा का था। तीनों प्रतियोगी एक-दूसरे को टक्कर देने वाले। और अंतिम प्रश्न पूछा गया-'व्हाट इज़ द एसेंस ऑफ बीइंग अ वूमन?' (नारी होने का सार क्या है?) और जिस जवाब ने सुष्मिता को ताज दिलवाया वो था- 'नारी ईश्वर की वह अनुपम देन है जिसका महत्व हम सभी को समझना चाहिए।
एक नई ज़िंदगी के सृजन का स्रोत माँ अर्थात नारी ही है। नारी वह है, जो केवल प्रेम बाँटना जानती है और वही पुरुषों को बताती है कि आखिकार असल में प्रेम, त्याग और किसी की देखभाल करने का सार्थक अर्थ क्या है।' सुष्मिता ने यह जवाब केवल प्रतियोगिता जीतने के लिए नहीं दिया बल्कि असल जिंदगी में भी इसे खुद पर लागू किया।
पूरे आत्मविश्वास के साथ, उन्होंने 'सिंगल मदर' होने का दायित्व लिया और उसे बखूबी पूरा कर रही हैं। उनकी बड़ी बेटी रेने दस साल की हो चुकी हैं और हाल ही में एक और प्यारी-सी बेटी 'अलीशा' (3 माह) उनके जीवन का हिस्सा बनी हैं। वैसे दूसरी बेटी उन्हें और भी पहले मिल जाती यदि न्यायालय ने यह नियम नहीं बनाया होता कि एक लड़की गोद लेने के बाद दूसरे बच्चे के रूप में किसी को भी बेटा ही गोद लेना होगा। जैसे ही कुछ माह पूर्व यह नियम हटा, सुष ने अलीशा को अपना लिया।
सुष्मिता की यह अपनी दुनिया है जिसे वे पूरी ईमानदारी, आत्मविश्वास और दृढ़ इरादों के साथ जीती हैं। उन्हें खुद के महिला होने पर गर्व है और वे अपनी बेटियों को भी यही सिखाती हैं। और बकौल सुष्मिता- 'रेने इसे सीख भी रही है। अपनी छोटी बहन को लेकर वह बहुत रोमांचित है। उसने बड़ी बहन का दायित्व पूरी गंभीरता से संभाल लिया है।
वह छोटी बहन के डायपर्स चेंज करती है, उसको गाना गाकर सुलाती है और यह भी जानती है छोटी बहन को अभी गर्दन पर सहारा देकर ही उठाया जाना चाहिए।' मातृत्व को ईश्वरीय वरदान मानने वाली सुष्मिता कहती हैं-'मैं हर पल अपने बच्चों के साथ हूँ। जरूरत पड़ने पर वे मुझे पुकारें उससे पहले मैं उनके साथ होने की कोशिश करती हूँ। जैविक रूप से भी मेरे लिए माँ बनने का मतलब केवल कोख से नहीं बल्कि दिल से किसी बच्चे को जन्म देना होगा।
मातृत्व एक तरह का वादा है अपने बच्चे से, कि चाहे दुनिया इधर की उधर हो जाए लेकिन माँ कभी भी बच्चे का साथ नहीं छोड़ेगी। सुरक्षा और देखभाल का यह बोध मैंने रेने में भी विकसित करने की कोशिश की है और अलीशा में भी करूँगी। वे दुनिया को समझने के दौरान अगर गलतियाँ भी करेंगी तो भी मैं उन्हें जज नहीं करूँगी... हाँ... वे हमेशा मेरे पास लौटकर वापस आ सकें, ये वादा जरूर दोनों से करूँगी।'
वे अपना दायित्व समझती हैं और पूरी शिद्दत से उसे पूरा करने को समय देती हैं। ऐसे में वो 'समाजी' लोग जो आज भी सिंगल मॉम को प्रश्नवाचक दृष्टि से देखते हैं, उनके बारे में सुष्मिता का क्या सोचना है? जवाब में वे कहती हैं- 'सच कहूँ तो फिलहाल मेरे पास किसी और चीज के बारे में सोचने तक का वक्त नहीं है। अरे भई... दो छोटी बेटियों की मम्मी होना आसान नहीं है। फिलहाल तो मैं इन पलों को खूब 'एन्जॉय' कर रही हूँ।'
गर्मी में यूँ सजाएँ होठों को
लिपस्टिक भी लाइट कलर की ही लगाएँ, क्योंकि इससे ठंडक का अहसास होता है। वैसे इन दिनों केवल लिपग्लास से भी काम चल सकता है। यह भी आपको ताजगी भरा लुक देगा। चाहें तो लाइट शेड की लिपस्टिक साथ हल्का सा शिमर का टच दें। शिमरी ग्लास या लिप कलर इस सीजन के लिए परफेक्ट चॉइस है। लिपस्टिक लगाने के बाद ट्रांसपेरेंट ग्लास लगाएँ।
समझे शिशु की भाषा
रोने के साथ-साथ बच्चा अपने हाव-भाव से भी अपनी बात कहता है। कुछ कहना चाहता है बच्चा आपसे आपको उसे समझना चाहिए जैसे-
अगर बच्चा उबासी लेता है, अपनी मुट्ठी को बार-बार आँखों पर रखता हो तो वह आपको बता रहा है कि अब उसे नींद आ रही है।
अगर बच्चा बार-बार मुँह खोलता है तो समझ लीजिए कि वह भूखा है।
यदि बच्चा अपनी आँखें खोलता है और खूब हाथ पैर चलाता है तो इसका मतलब है कि वह खेलना चाहता है।
खुशी का विस्तार है परिवार
समाजशास्त्र बताता है कि परिवार इंसान की पहली पाठशाला है। वह जो कुछ भी अच्छा या बुरा सीखता है, परिवार से ही सीखता है। मनोचिकित्सक जब किसी मुश्किल केस को हल करते हैं तो परिवार पर ज्यादा तवज्जो देते हैं। संक्षेप में परिवार हमारी नींव में, आचरण में और फिर हमारे पूरे जीवन में झलकता और छलकता है।
परिवार एक विचार है, सुरक्षा और जीवनशैली है। इसमें होने और रहने का एक तरीका है, जिसे हम पारिवारिक संस्कार कहते हैं। यह "मैं" से निकलकर "हम" तक फैलता है।
का आश्वासन, संस्कारों और संवेदनाओं की सहभागिता। साथ रहने और जोड़ते चलने का संबल है परिवार। इसी पर आगे आपका चरित्र, आकांक्षा, अपेक्षा और प्राथमिकता का निर्धारण निर्भर करता है।
शहरीकरण के साथ-साथ आए बदलावों ने परिवारों को तोड़ जरूर दिया है, लेकिन उसकी भावना अब भी जीवित है। तभी तो होली या फिर दिवाली के आसपास कोई कहीं भी रह रहा हो, कितना ही व्यस्त हो, अपने परिवार के पास पहुँचना चाहता है। इस दौरान बसों और ट्रेनों की भीड़ देखकर हमें एहसास होता है कि परिवारों का होना मात्र सांस्कृतिक जरूरत नहीं, बल्कि यह इंसानी वजूद का अहम हिस्सा है।
त्योहारों को साथ मनाना... मतलब साथ-साथ खुश होना, खुशी को बाँटना। यह खुद से बाहर खुद के होने या स्व का विस्तार है। अरस्तू परिवार के विस्तार को ही समाज मानते हैं तो फिर यह दुनिया की पहली या प्रारंभिक इकाई है। यही हमें मानवीय गुणों से समृद्ध करती है।
परिवार में रहना हमें सहिष्णुता सिखाता है। हम अपने छोटे-छोटे स्वार्थों और छोटी जरूरतों के प्रति आक्रामकता का परित्याग परिवार में रहकर ही सीख पाते हैं और आश्चर्य यह है कि हमें यह अहसास भी नहीं होता है कि हमने कुछ त्यागा है, ऐसा नहीं है कि यह एकाएक होता है। एक पूरी प्रक्रिया के तहत एक बच्चा पारिवारिक संस्कृति के इस स्तर तक पहुँचता है। कहा जा सकता है कि आपका चरित्र आपके परिवार का आईना है।
इसमें ही इंसान असहमत होते हुए भी सहमत होता है। इसमें ही वह प्रेम और उदारता सीखता है। इसमें ही वह खुद के अतिरिक्त दूसरों को स्वीकारता है और प्रेम करता है। यही वह जगह है, जहाँ व्यक्ति मैं से हम तक का सफर तय करता है। इसी से आगे स्वस्थ, सुखी और संतुष्ट समाज की तरफ जाता रास्ता खुलता है।
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