दुर्लभ से दुर्लभतम मार्कण्डेय
स्वातन्त्रयोत्तर भारत के जनजीवन को जानने समझने के लिए जिन कुछ साहित्यकारों की रचनाओं को हमारे लिए पढना जरूरी है उसमें से एक नाम है मार्कण्डेय। दो मई 1930 को उ.प्र. के जौनपुर जिले के बराई गांव में जन्मे मार्कण्डेय की बनावट-बुनावट गांव में हुई। गांधीजी से प्रभावित अपने बाबा के सान्निध्य में स्वाधीनता आन्दोलन में जुडे अनेक प्रसंगों से रूबरू होने का मौका इन्हें बचपन में ही मिला। माध्यमिक शिक्षा के लिए ये प्रतापगढ आए जहां बाबा रामचंद्र के नेतृत्व में किसान आन्दोलन अपनी अलख जगाए हुए था। यहीं पर मार्क्सवाद से इनका प्रथम परिचय हुआ जो दिन-ब-दिन प्रगाढ होता चला गया और अंतत: जो उनकी जीवनशैली में ही शुमार हो गया। उच्च शिक्षा के क्रम में मार्कण्डेय इलाहाबाद आए जो उस समय भारत की सांस्कृतिक राजधानी के रूप में विख्यात था। निराला, पंत, महादेवी वर्मा, रामकुमार वर्मा, भैरव प्रसाद गुप्त, प्रकाश चंद्र गुप्त जैसे साहित्यकारों से इसी क्रम में मार्कण्डेय का सहज संपर्क हुआ और इस तरह से मार्कण्डेय के लेखकीय व्यक्तित्व की निर्मिती हुई। इसी समय संयोग से इलाहाबाद दुष्यंत कुमार और कमलेश्वर की नई एवं युवतर उपस्थिति से गुलजार था। मार्कण्डेय से जुडकर इनकी त्रयी बनी जिसके तमाम किस्से इलाहाबाद के गली कूचों में सुरक्षित-संरक्षित हैं। समय के साथ जब कमलेश्वर और दुष्यंत कुमार ने इलाहाबाद को छोडा तब इलाहाबाद को बेहद चाहने वाले मार्कण्डेय ने अमरकांत और शेखर जोशी के साथ मिलकर नयी कहानी आंदोलन को नयी दिशा देने वाली एक नयी त्रयी निर्मित की जो आजीवन चलती रही।
भारतीय संस्कृति की विरासत को वास्तविक तौर पर संचालित करने वाले गांव, स्वाभाविक रूप से मार्कण्डेय की कहानियों के विषय में बने जहां का जीवन सशक्त, प्राणवान, निष्कलुष एवं सुंदरता से ओतप्रोत था। भोजपुरी प्रयोगों से लदी-फंदी उनकी भाषा जैसे हमारे सामने एक शब्दचित्र खींचती चली जाती है और हम अनायास ही उसके मोहपाश में बंधते चले जाते हैं। मार्कण्डेय आमतौर पर अपनी कहानियों में मानवीय रागात्मक संबंधों के सूक्ष्मतम एवं कोमलतम तंतुओं को पकडने और उसकी रसमयता में डूबकर कथा कहने की शैली अपनाते हैं और इसमें उन्हें सफलता भी मिलती है। 1952 ई. में पान-फूल कहानी संग्रह से शुरू हुआ उनकी कहानियों का सफर महुए का पेड, हंसा जाई अकेला, भूदान, माही, सहज और शुभ और बीच के लोग जैसे कहानी संग्रहों तक अनवरत चलता रहा। इन सभी संग्रहों की कहानियों में भारतीय ग्रामीण जीवन अपने तमाम अंतर्विरोधों एवं विडम्बनाओं के साथ उपस्थित दिखाई पडता है और इसी क्रम में वे भारतीय राजनीति, समाज, समय, शासन आदि को विवेचित विश्लेषित करते हुए आगे बढते हैं। भारतीय ग्रामीण जीवन की वास्तविकताओं को मार्कण्डेय बडी तफसील से अपने उपन्यास अग्निबीज में उठाते हैं। आज के समय में जबकि पूंजीवाद का आतंक अपने चरम पर है, ग्रामीण ढांचा और जीवन एक संक्रमण के समय से गुजर रहा है। अग्निबीज में मार्कण्डेय की यह उम्मीद हमें आज भी संबल प्रदान करती है कि विपरीत परिस्थितियों के बावजूद कोई चिंगारी क्रांति की संपूर्ण ज्वाला का स्त्रोत बनकर सामने आयेगी और तब आम आदमी जीवन की आधारभूत सुविधाओं के साथ समानता के स्तर पर स्वतंत्रता के साथ जी सकेगा।
कहानी और उपन्यास के अतिरिक्त मार्कण्डेय ने एकांकी के क्षेत्र में भी अपनी उल्लेखनीय उपस्थिति दर्ज करायी। छ: एकांकियों का संग्रह पत्थर और परछाइयां इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। दो पैसे का नमक और अंधेरी झांकी जैसी एकांकियों में ग्रामीण जीवन का यथार्थ अपनी संपूर्ण विकृतियों, खूबियों, ंसंघर्ष एवं सहानुभूति के साथ नाट्यांतरित हुआ है। अपनी तरह का यह उनका अनूठा प्रयास था क्योंकि ग्राम्यप्रधान एकांकियां हिंदी साहित्य में बिरले ही दिखाई पडती हैं। सपने तुम्हारे थे मार्कण्डेय का अब तक एकमात्र प्रकाशित कविता संग्रह है जिसकी अधिकांश कविताएं बेहद उत्कृष्ट हैं और हमें चकित करती हैं। यह धरती तुम्हें देता हूं नामक उनका काव्य संग्रह अभी भी अपने प्रकाशन का इंतजार कर रहा है।
कहानी की बात नामक उनके आलोचनात्मक संकलन में आलोचना के नए प्रतिमान दिखाई पडते हैं। अपने पूर्ववर्ती एवं समकालीन रचनाकारों की रचनाओं की खबर मार्कण्डेय ने जिस बेबाकी के साथ ली वह अन्यत्र दुर्लभ है। यही नहीं कल्पना के साहित्यधारा स्तंभ के अंतर्गत उन्होंने चक्रधर छद्मनाम से एक लंबे अरसे तक साहित्य जगत में जिस अंदाज में हलचल मचाई वह भी अनूठी थी। इसी क्रम में उन्होंने अपनी कहानियों की भी निर्मम समीक्षा की।
संपादकीय कौशल के बिना मार्कण्डेय की बात पूरी ही नहीं होती। 1965 ई. का माया कहानी विशेषांक आज भी अपने विषयवस्तु के लिए याद किया जाता है। 1969 ई. में उन्होंने अनियतकालिक पत्रिका कथा का संपादन शुरू किया जो कुछ गत्यावरोधों के बावजूद निरंतर प्रकाशित होती रही। पत्रिकाओं की भीड में कथा जब भी आई अपने तेवर और कलेवर के चलते चर्चा के केंद्र में बनी रही।
नया साहित्य प्रकाशन के माध्यम से मार्कण्डेय ने लेखकों के अपने प्रकाशकीय उपक्रम की शुरुआत की भी पहल की। इसी क्रम में आज के प्रख्यात साहित्यकार अमरकांत और शेखर जोशी के पहले कहानी संग्रह और मशहूर कवि शंभुनाथ सिंह एवं केदारनाथ सिंह के पहले कविता संग्रह प्रकाशित हुए। कला और लोकगीतों पर भी मार्कण्डेय की अद्भुत पकड थी। इन तमाम गुणों के बावजूद मार्कण्डेय इतने सहज और विनम्र थे कि उनसे मिलने पर सहज ही हम यह विश्वास नहीं कर पाते थे कि यह कोई बडी विभूति हैं।
गजब की जिजीविषा से भरे मार्कण्डेय विगत दो दशकों से कैंसर और हृदयाघात जैसी बीमारियों से जूझ रहे थे। हर समय उनके पास नयी योजनाएं होतीं, नये काम होते और वह एक अजब उत्साह और जीवन की उद्दाम लालसा से भरे होते। लेकिन 18 मार्च 2010 को जब वे दिल्ली से इलाहाबाद लौटने की तैयारी कर रहे थे कि अचानक एक नई यात्रा पर निकल पडे।... और आखिर हम इंतजार करते रह गये मार्कण्डेय के यादों की, बातों की, चिंतन तत्व की, अपनत्व की, जो आज के समय में दुर्लभ से दुर्लभतम होता जा रहा है।
अंगारा
रविवार को किसी छात्र का प्रोफेसर विद्यासागर से मिलने आना आम बात थी, लेकिन जिस चिढे स्वर में दयानंद ने बताया कि कोई लडका उनसे मिलना चाहता है, विद्यासागर चौंक उठे थे।
कौन है?
कोई राह चलता सा दिखता है, आपका छात्र तो नहीं लगता।
चलो, देखें कौन है? कहकर विद्यासागर उठ खडे हुए।
आगंतुक लफंगा सा था, लेकिन राह चलता नहीं। काली डेनिम की कमीज के खुले बटनों से सोने की चेन झांक रही थी। घडी, जींस और जूते ब्रैंडेड थे। प्रोफेसर को लगा कि बिंदास, लापरवाह लगने के लिए उस वय:संधि की सीमा रेखा पर खडे युवक ने काफी कोशिश की थी। कहो, क्या कर सकता हूं? विद्यासागर हर छात्र से ऐसे ही बात करते थे।
बहुत कुछ., युवक ने व्यंग्य से कहा, वह सब, जो एक पिता पुत्र के लिए कर सकता है। चौंकिए मत, मैं आपका बेटा हूं और ब्रह्मचारी होने के आपके दावे को झुठलाने के लिए मेरे पास पर्याप्त प्रमाण भी हैं।
विद्यासागर शांत भाव से बोले, ऐसे आरोपों का पुख्ता प्रमाण डी.एन.ए. टेस्ट होता है। मैं तैयार हूं, हालांकि जानता हूं कि यह समय की बर्बादी है और मुझे इन फालतू कामों के लिए फुर्सत भी नहीं है।
उससे पहले आप मां की डायरी पढ लें तो बेहतर रहेगा। युवक ने हाथ में पकडा पैकेट आगे बढाया।
बगैर यह जाने कि तुम्हारी मां है कौन?
सुचित्रा सेनगुप्ता?
विद्यासागर चौंक कर बोले, प्रोफेसर अरबिंदो सेनगुप्ता की बेटी। उसका तो शादी के प्रथम वर्ष में ही देहांत हो गया था प्रसव के दौरान..?
जी, लेकिन बच्चा बच गया था। वह बच्चा मैं हूं। युवक बोला।
शांतनु का बेटा? विद्यासागर ने विह्वल स्वर में पूछा।
मां की डायरी पढने तक मैं भी इस खुशफहमी में था। लेकिन अब तो मेरा सुख-चैन खत्म हो गया। मैं एक आग में जल रहा हूं, दहकता अंगारा समझ लीजिए मुझे। स्वर की वेदना विद्यासागर को छू गई।
मैं तुम्हारे मनोभाव समझ सकता हूं। विद्यासागर के स्वर में सहानुभूति थी। सुचित्रा और शांतनु के बेटे के नाते तुम्हें स्नेह से घर में बैठाना चाहिए। अंदर चलो, पहले यह बताओ कि शांतनु कहां और कैसा है?
युवक थोडा नरम पडा।
बाबा ठीक हैं। यहीं कोलकाता में हैं।
दुर्गापुर स्टील प्लांट की कालोनी में हम पडोसी और बचपन के दोस्त थे, लेकिन शांतनु तो चाय बागान में मैनेजर था, यहां क्या कर रहा है? उनके दादा जी का जो प्रिंटिंग प्रेस था, उसे प्रकाशन संस्थान में बदल कर उसका संचालन कर रहे हैं..।
लेकिन शांतनु या उसके पिता जी की तो बिजनेस में रुचि ही नहीं थी।
थी तो नहीं, लेकिन मुझे दूरदराज के चाय-बागानों में अकेले कैसे पालते, इसलिए यहां चले आए।
दोबारा शादी नहीं की शांतनु ने?
जब उन्होंने मेरी परवरिश के लिए नानी-दादी तक पर भरोसा नहीं किया तो किसी अनजान औरत पर कैसे करते?
ऐसे त्याग करने वाले पिता को छोडकर तुम मुझे बाप बनाने चले आए? विद्यासागर ने चिल्लाकर पूछा, क्यों? मेरे पैसे या नाम के लिए?
किस नाम और पैसे की बात कर रहे हैं प्रोफेसर साहब? युवक ने व्यंग्य से पूछा, मानता हूं कि आपका बहुत नाम है, लेकिन एक सीमित परिधि में। कई समाजसेवी संस्थानों से जुडे, रोटरी क्लब के डिस्ट्रिक्ट गवर्नर और बंगाल चैंबर ऑफ कॉमर्स के चेयरमैन शांतनु बोस का भी समाज के व्यावसायिक वर्ग में कम नाम नहीं है। रहा सवाल पैसे का तो मेरे एटीएम और क्रेडिट कार्ड की सीमा आपकी मासिक आय से ज्यादा ही होगी। बाबा ने दूसरी शादी नहीं की है, मगर संन्यास भी नहीं लिया है। वह बहुत जिंदादिल इंसान हैं, हमारे घर में हमेशा मौज-मस्ती और रौनक रहती है। मेरे जीवन में कोई अभाव नहीं है।
तो फिर मेरी तलाश में आने की वजह?
असल जन्मदाता को देखने की जिज्ञासा है। मैं मां की डायरी पढ कर उनके जीवन के बंद परिच्छेद शायद कभी न खोलता, अगर गाहे-बगाहे नानी-नाना को यह कहते न सुनता कि शांतनु के साथ सुखी होने के बावजूद न जाने क्यों सुचित्रा एक अनजान सी आग में सुलगती थी। एक बार बाबा को कहते सुना था कि सुचित्रा की मौत डॉक्टरों की लापरवाही के कारण नहीं, बल्कि किसी आंतरिक व्यथा के कारण हुई, जिसने उसके तन-मन को इतना झुलसा दिया था कि वह प्रसव पीडा सहन नहीं कर सकी। किताबों के बक्से में अचानक मिली मां की डायरी पढने की जिज्ञासा मैं इसीलिए रोक नहीं सका कि शायद मां के बारे में कुछ पता चल सके। ..पता चलने पर मैं खुद दहकने लगा हूं।
तब तो मुझे भी डायरी पढने के लिए समय निकालना होगा।
निकालना चाहिए भी। यह मेरा कार्ड है, आप डायरी पढने के बाद जब चाहें मुझे फोन कर लें। कहकर युवक उठ खडा हुआ।
विद्यासागर ने कार्ड देखा, सुशांत बोस।
उसके जाने के बाद विद्यासागर ने पैकेट खोला।
समय के साथ पीले पडते पन्नों पर धुंधली पड रही सुचित्रा की ऊबड-खाबड लिखावट जानी पहचानी थी। प्राय: हर सप्ताह सुचित्रा कॉलेज की मासिक पत्रिका में छपने के लिए कुछ लिखती थी, जो संपादक होने के नाते उन्हें पढना पडता था। रूप, गुण और बुद्धि के साथ ही विधाता ने विद्यासागर को मधुर कंठ भी दिया था। कॉलेज का कोई भी समारोह उनके कविता पाठ और गायन के बिना पूरा नहीं होता था। खाली पीरियड में भी सहपाठियों को कुछ न कुछ सुनाना पडता था। ऐसे छात्र पर छात्राओं का मर-मिटना स्वाभाविक था। उनके करीब आने के लिए कई बार लडकियां ऐसी हरकतें करतीं कि विद्यासागर को लडकियों से ही ऊब सी होने लगी, शायद इसीलिए वह शादी न कर सके। लेकिन सुचित्रा की बात अलग थी। विद्यासागर प्रोफेसर सेनगुप्ता के प्रिय छात्र थे और प्रोफेसर उन्हें अकसर पढने के लिए घर बुलाते थे। तब सुचित्रा किसी न किसी बहाने से उनके पास मंडराती रहती। जब उसके इस तरह आने से प्रोफेसर चिढकर उन्हें डांटते तो विद्यासागर को हंसी रोकनी मुश्किल हो जाती, लेकिन इससे शह पाकर सुचित्रा फिर किसी बहाने से टपक पडती थी।
एक दिन कॉलेज में फिसलने से प्रोफेसर के पैर में हलकी मोच आ गई। हालांकि प्राथमिक उपचार के बाद वह चलने लगे थे और उनका घर भी करीब था, लेकिन विद्यासागर उन्हें घर पहुंचाने गए थे।
प्रोफेसर के यह कहने के बावजूद कि वह ठीक हैं और थोडी सी सूजन है, जो आराम के बाद ठीक हो जाएगी, सुचित्रा ने रुआंसे स्वर में पूछा था, बाबा ठीक तो हो जाएंगे न?
हो जाएंगे? बल्कि वह ठीक ही हैं। बस उन्हें आराम करने दो।
लेकिन मुझे डर लग रहा है सागर। कल सुबह अगर तुम्हें तकलीफ न हो तो बाबा को कॉलेज ले जाने के लिए आ जाना।
तकलीफ कैसी? मैं आ जाऊंगा।
तुम कितने अच्छे हो सागर, मैंने कभी सोचा भी नहीं था। तुम मेरा इतना खयाल रखते हो, सुचित्रा ने विह्वल स्वर में कहा।
सर के लिए मैं कुछ भी कर सकता हूं, उसमें तुम्हारा खयाल कहां से आ गया? उन्होंने झुंझला कर पूछा।
अगली सुबह जब वह प्रोफेसर के घर गए तो वह नाश्ता कर रहे थे। उनके आग्रह करने पर विद्यासागर को भी नाश्ता करना पडा। हॉस्टल के खाने से कहीं ज्यादा स्वादिष्ट थी घर की बनी लुच्ची और आलू बैंगन की भाजी। तारीफ सुन कर श्रीमती सेनगुप्ता ने आग्रह किया कि वह जब भी घर पर आएं, खाना खाकर ही जाएं। धीरे-धीरे वह परिवार के सदस्य जैसे हो गए, लेकिन सुचित्रा के साथ उनके संबंध औपचारिक रहे। हालांकि कॉलेज में इसे लेकर कुछ बातें होती रहतीं, लेकिन घर में सुचित्रा की शादी की बात चल रही थी। शादी तय होते ही अफवाहों पर विराम लग जाएगा, सोचकर विद्यासागर चुप कर जाते। एम.ए. करने के दौरान वह हॉस्टल छोडकर अलग कमरा लेकर रहने लगे थे। एक बार छुट्टियों के बाद घर से लौटे तो पता चला कि सुचित्रा की शादी हो चुकी है। कुछ रोज बाद सेनगुप्ता ने उन्हें सुचित्रा और उसके पति से मिलने घर पर बुलाया। वहां सुचित्रा के पति के रूप में अपने बचपन के दोस्त शांतनु से मिलकर वह खुश हुए। सुचित्रा बार-बार बुलाने के बाद ही बाहर आई और कुछ उखडी हुई सी लगी, लेकिन विद्यासागर ने ध्यान नहीं दिया। वह आश्वस्त थे कि शांतनु के साथ वह खुश रहेगी।
प्रोफेसर सेनगुप्ता की सिफारिश पर उन्हें इंग्लैंड जाने की छात्रवृत्ति मिल गई थी। वह पढाई और तैयारियों में व्यस्त हो गए। जाने से कुछ दिन पहले ही सुचित्रा की मौत के बारे में पता चला। वह प्रोफेसर के घर गए, लेकिन तब तक वे शांतनु के घर जा चुके थे। उसके बाद प्रोफेसर से मुलाकात न हो सकी। पत्रों से संपर्क रहा, लेकिन प्रोफेसर परिवार के बारे में कुछ नहीं लिखते थे। कुछ समय बाद विद्यासागर केविदेश प्रवास के दौरान सेनगुप्ता दंपती का निधन हो गया। कई साल बाद नौकरी पर वापस विश्वविद्यालय में आए तो बगैर प्रोफेसर सेनगुप्ता के उन्हें परिसर अपरिचित सा लगने लगा। पढने-पढाने में ही वह सिमट कर रह गए थे। लेकिन आज सुचित्रा के बेटे ने उनके अतीत के साथ ही उनके वर्तमान को भी झकझोर कर रख दिया।
न चाहते हुए भी उन्होंने डायरी के पन्ने पलटे। शुरू में तो रोजमर्रा की बातें थीं, उनका नाम भी कई जगह था। जैसे, सागर ने इस बार भी मेरी कविता नहीं छापी या सागर के गले में जादू है, पुराने गाने में भी उसके स्वर ने प्राण फूंक दिए थे। लेकिन इससे यह अटकल नहीं लगा सकते थे कि सुचित्रा को उनसे प्यार था। कई जगह उसने मां-बाबा द्वारा अपने लिए वर खोजने के विषय में लिखा था कि कैसे वह उनके लाए हर रिश्ते में खोट निकाल देती थी। इंतजार कर रही हूं कि कब मां-बाबा पूछें कि मैं कैसा वर चाहती हूं तो मैं उन्हें बताऊं और बाबा चौंक कर कह उठें, अरे, वर तो मेरे सामने है और मैं इधर-उधर भटक रहा हूं।
आगे लिखा था, आज तो मामला हाथ से फिसल रहा है। शांतनु में मैं कोई कमी नहीं ढूंढ पा रही हूं। मेरी चुप्पी को मां-बाबा ने मेरी स्वीकृति समझा है, फिर भी बाबा चाहते हैं कि मैं और शांतनु मिल लें। इसलिए अभी शांतनु के घर गए हैं। अब तो मुझे ही कुछ करना होगा।
अंतिम पन्ने पर लिखा था, मैं हिम्मत करके सागर के कमरे में गई। मुझे मालूम था कि वह आसानी से मेरी बात नहीं मानेगा, लेकिन सागर ने जो किया, वह तो मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। उस जैसा कोमल स्वभाव वाला कवि किसी की भावनाओं को इस कदर रौंद सकता है, इसकी तो मैंने कल्पना भी नहीं की थी। जिस निर्दयता से उसने मेरी लाल साडी फाडने के बाद मुझसे जो करवाया और फिर कमरे से निकल जाने को कहा, उससे इतने वर्ष आकाश में उडती हुई मैं औंधे मुंह यथार्थ की कठोर धरती पर आ गिरी हूं। किस मुंह से किसी को बताऊं कि सागर के पास गई थी और कैसे उसने मुझे मेरी ही नजरों में गिरा दिया?
अब यही रास्ता है कि शांतनु से शादी करके दूर चली जाऊं, लेकिन सागर ने जो कुछ मेरे साथ किया है, उसे भूलना मुमकिन नहीं होगा।
डायरी पढकर विद्यासागर पहले तो कुछ सोचने लगे, फिर ठहाका लगा कर हंस पडे। अगले क्षण ही गंभीर होकर उन्होंने अपनी भर आई आंखें पोंछीं और बुदबुदाए, सिली गर्ल।
उन्होंने सुशांत को फोन किया और बोले, मैंने सुचित्रा की डायरी पढ ली है सुशांत। उसने जो लिखा है, वह सही है और उसे पढने के बाद तुम्हारी प्रतिक्रिया स्वाभाविक है। लेकिन सुचित्रा को इतना विचलित जिस बात ने किया है, वह असलियत में तुम्हें बताना चाहता हूं..।
लेकिन मैं कुछ सुनना नहीं चाहता.. सुशांत ने बात काटी, वैसे भी अब आपके पास कहने को बचा ही क्या है?
अगर तुम नहीं सुनोगे तो शांतनु को बताना होगा। मैं नहीं चाहता कि मेरी वजह से सुचित्रा की तरह शांतनु भी जीते-जी मर जाए।
बाबा को डायरी के बारे में मालूम नहीं है। वादा करें, आप भी नहीं बताएंगे। सुशांत ने कहा, कब आऊं? क्या फोन पर नहीं बता सकते?
तो फोन पर ही सुनो। उस दिन मैं पूजा की छुट्टियों में घर जाने के लिए सामान बांध रहा था कि लाल साडी पहने सिंदूर की डिबिया लिए सुचित्रा आई। मुझे कुछ पूछने का मौका दिए बगैर उसने बताया कि मां-बाबा उसके रिश्ते की बात करने शांतनु के घर गए हैं, लेकिन वह मुझसे ही शादी करना चाहती है। चाहती है कि मैं उसकी मांग में सिंदूर भर दूं। सुनकर मुझे गुस्सा आ गया। उसकी लाल साडी की किनारी फाड कर मैंने उसके हाथ में पकडाई और कहा, रिश्ता बनाना चाहती हो मुझसे तो बांधो राखी मेरे हाथ में और करो सिंदूर से मेरे माथे पर तिलक। सिवा इसके मैं गुरु-पुत्री से किसी अन्य रिश्ते के बारे में सोच भी नहीं सकता। प्रोफेसर सेनगुप्ता की बेटी होकर चोरी-छिपे मुझसे शादी का विचार तुम्हें आया कैसे? इससे पहले कि मैं कुछ और बोलूं, निकल जाओ यहां से?
शायद इसी बात को उसने अपने रूप और यौवन का अपमान समझा और ग्लानि में सुलगने लगी। मैं डायरी जला रहा हूं सुशांत, ताकि तुम शांतनु को शांति से जीने दो। कहकर उन्होंने फोन रख दिया।
..दूसरी ओर से भी दोबारा संपर्क करने की कोई चेष्टा नहीं हुई। सुलगता हुआ अंगारा ठंडा हो रहा था।
पुरातत्व के रक्षक
कोकिला जब दसवीं में पढ रही थी, उसी दौरान अपने पैरेंट्स के साथ एक बार नालंदा के खंडहर देखने गई थी। उसने इतिहास की किताब में पढ रखा था कि प्राचीन काल में वहां विश्वविख्यात विश्वविद्यालय हुआ करता था। यही कारण है कि उस स्थान पर पहुंच कर वह बेहद रोमांचित थी। हालांकि उसे यह देख-सुनकर काफी दुख हुआ कि उचित देख-रेख न होने पाने के कारण वह ऐतिहासिक विरासत और जर्जर हो गई है। उसने तभी तय कर लिया कि वह अपना करियर ऐतिहासिक इमारतों का संरक्षण करने में ही बनाएगी। प्राचीन इतिहास से स्नातकोत्तर करके आर्कियोलॉजी में एमफिल और पीएचडी करने के बाद अध्यापन करने के अलावा आज वह पुरातत्व संरक्षण के कार्य से भी जुडी हुई है। सैकडों साल पुरानी धूल-धूसरित इमारतों उन पर चकित कर देने वाली कलाकृतियां, दरख्तों के बीच झांकती सीढियां और हरे-भरे खूबसूरत लैंडस्केप.. । इन नजारों को देखकर एकबारगी अपने गौरवशाली अतीत पर फख्र महसूस होने लगता है। ये मनमोहक नजारे भारत के कोने-कोने में पसरे पडे हैं। चारों तरफ फैली सांस्कृतिक धरोहरों और आर्कियोलॉजिकल रिसोर्सेज का व्यवस्थित लेखा-जोखा, उनके प्रबंधन का काम आसान नहीं है। देश और विदेश में भारी तादाद में पुरातात्विक इमारतें होने के कारण इस क्षेत्र में स्किल्ड प्रोफेशनल्स इन दिनों खूब डिमांड में हैं। यदि आप भी इमारतों के रख-रखाव यानी आर्कियोलॉजी में दिलचस्पी रखते हैं, तो इस क्षेत्र में चमकदार करियर बना सकते हैं।
दायरा है बडा
हजारों साल पहले कैसा होता होगा जीवन? किन-किन तरीकों से जीवन से जुडे अवशेषों को बचाया जा सकता है? एक सभ्यता, दूसरी सभ्यता से कैसे अलग है? क्या हैं इनकी वजहें? जैसे अनगिनत सवालों से सीधा सरोकार होता है आर्कियोलॉजिस्ट्स का। आर्किटेक्चर्स मॉन्यूमेंट्स, शिलालेख, मुहर, बर्तन, औजार जैसे तमाम छोटे-बडे साक्ष्य आर्कियोलॉजिकल अध्ययन के मुख्य आधार होते हैं। इन साक्ष्यों का वैज्ञानिक छानबीन कर एक तार्किक निष्कर्ष पर पहुंचना ही इनका मुख्य उद्देश्य होता है। न्यूमिस्मैटिक्स, इपिग्राफी, आर्काइव्स और म्यूजियोलॉजी आर्कियोलॉजी के मुख्य ब्रांचेज हैं। दरअसल, यह एक मल्टीडिसिप्लिनरी फील्ड है। इस फील्ड से जुडेप्रोफेशनल्स मानव विज्ञान, समाजशास्त्र, आर्किटेक्चर, पेलियो-जियोलॉजी, पेलियो-बॉटनी, स्ट्रक्चरल कंजरवेशन ऑफ मॉन्यूमेंट्स, हेरिटेज मैनेजमेंट, अंडरवाटर आर्कियोलॉजी आदि विषयों के भी जानकार होते हैं।
जरूरी योग्यता
प्राचीन या मध्यकालीन इतिहास, आर्कियोलॉजी, एंथ्रोपोलोजी, जियोलॉजी विषयों में से किसी एक विषय में मास्टर डिग्री वाले कैंडिडेट्स आर्कियोलॉजी में करियर बना सकते हैं। साथ ही, एक बेहतरीन आर्कियोलॉजिस्ट अथवा म्यूजियम प्रोफेशनल बनने के लिए प्लीस्टोसीन पीरियड अथवा कुछ क्लासिकल लैंग्वेज, मसलन-पाली, संस्कृत, प्राकृत, अरेबियन, परसियन भाषाओं में से किसी की जानकारी आपको कामयाबी की राह पर और आगे ले जा सकती है। यदि आप हेरिटेज कंजरवेशन के क्षेत्र में जाना चाहते हैं, तो आपके पास सिविल इंजीनियरिंग से बीटेक अथवा आर्किटेक्चर (कंजरवेशन) में बैचलर डिग्री होना जरूरी है। इसके अलावा, आर्कियोलॉजी में आने वाले महत्वपूर्ण क्षेत्रों केमिस्ट/रिस्टोरर (केमिकल प्रिजरवेशन) के पदों के लिए केमिस्ट्री विषय में पोस्ट ग्रेजुएट की डिग्री जरूरी है। हां, यदि विशेष योग्यताओं की बात करें, तो इस क्षेत्र में खुदाई की विधियों, डॉक्यूमेंटेशन और आर्कियोलॉजिकल रिसर्च की कार्य-पद्धतियों का बेहतर ज्ञान को अहम माना जाता है।
उपलब्ध कोर्स
आर्कियोलॉजी से जुडे रेगुलर कोर्स, जैसे-पोस्ट ग्रेजुएशन, एमफिल या पीएचडी देश के अलग-अलग संस्थानों में संचालित किए जा रहे हैं। हालांकि हेरिटेज मैनेजमेंट और आर्किटेक्चरल कंजरवेशन से जुडे कोर्स केवल गिने-चुने संस्थानों में ही पढाए जा रहे हैं। आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की फंक्शनल बॉडी इंस्टीट्यूट ऑफ आर्कियोलॉजी में आर्कियोलॉजी में दो वर्षीय डिप्लोमा कोर्स की पढाई होती है। अखिल भारतीय स्तर के प्रवेश परीक्षा के आधार पर इस कोर्स में दाखिला दिया जाता है। यहां कुछ शॉर्ट-टर्म ट्रेनिंग कोर्स व वर्कशॅाप आदि भी संचालित होते हैं। इसी तरह, गुरु गोविंद सिंह इंद्रप्रस्थ यूनिवर्सिटी, नई दिल्ली से एफिलिएटेड इंस्टीट्यूट, दिल्ली इंस्टीट्यूट ऑफ हेरिटेज रिसर्च ऐंड मैनेजमेंट आर्कियोलॉजी और हेरिटेज मैनेजमेंट में दो वर्षीय मास्टर कोर्स का संचालन होता है। इन दिनों प्रोफेशनल कोर्स भी काफी पॉपुलर हो रहे हैं। यही कारण है कि आर्कियोलॉजी के अलग-अलग क्षेत्रों में डिप्लोमा, पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा मौजूद हैं, जैसे- डिप्लोमा इन आर्काइव्स कीपिंग, पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा इन म्यूजियोलॉजी ऐसे तमाम तरह के कोर्स इन दिनों लोकप्रिय हो रहे हैं। एमफिल इन कंजरवेशन स्टडीज भी इसी तरह का एक प्रोफेशनल कोर्स है। डिग्री कोर्स की अवधि तीन वर्ष, पोस्ट ग्रेजुएट कोर्स की अवधि दो वर्ष और डिप्लोमा व पीजी डिप्लोमा कोर्स की अवधि क्रमश: एक से दो वर्ष होती है। एमफिल इन कंजरवेशन स्टडीज की अवधि दो साल है।
पर्सनल स्किल
आर्कियोलॉजी न केवल दिलचस्प विषय है, बल्कि इसमें कार्य करने वाले प्रोफेशनल्स के लिए चुनौतियों से भरा क्षेत्र भी है। इन चुनौतियों से निपटने के लिए अच्छी विश्लेषणात्मक क्षमता, तार्किक सोच, कार्य के प्रति समर्पण जैसे महत्वपूर्ण गुण जरूर होने चाहिए। कला की समझ, उसकी पहचान भी आपको औरों से बेहतर बनाने में मदद करेगा। चूंकि ज्यादातर आर्कियोलॉजिस्ट आउटडोर एक्टिविटीज से जुडे होते हैं, इसलिए जरूरी है कि आप फिजिकली फिट होने के साथ-साथ कडी मेहनत करने का जज्बा रखते हों।
ख् ाूब है डिमांड
आर्कियोलॉजिस्ट की डिमांड सरकारी और निजी हर जगह है। इन दिनों कॉरपोरेट हाउसेज में भी नियुक्ति हो रही है। वे अपने रिकॉर्ड्स के रखरखाव और संरक्षण के लिए एक्सपर्ट की नियुक्तिकरते हैं। इसी तरह, आकॉइव्स, यूनिवर्सिटीज और रिसर्च इंस्टीट्यूट्स में आर्कियोलॉजिस्ट की मांग रहती है। आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया में आर्कियोलॉजिस्ट पदों के लिए संघ लोक सेवा आयोग हर वर्ष परीक्षा आयोजित करता है। राज्यों के आर्कियोलॉजी डिपार्टमेंट में भी असिस्टेंट आर्कियोलॉजिस्ट की डिमांड रहती है। वहीं, यूजीसी आयोजित नेट-जेआरएफ क्वालिफाई कर लेक्चररशिप पद पर नियुक्ति हासिल कर सकते हैं। एमफिल इन कंजरवेशन स्टडीज कोर्स कर लेने के बाद कंजरवेशन आर्किटेक्ट्स के अलावा, कई तरह के डेवलपमेंटल प्रोजेक्ट्स में जॉब के अवसर मिल जाते हैं। विदेश में पढना चाहते हैं, तो विदेशी स्कॉलरशिप के माध्यम से अपनी ख्वाहिश पूरी कर सकते हैं। अमेरिका स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ मेंफिस और विदेश की अन्य यूनिवर्सिटीज में यह सुविधा उपलब्ध है। यहां से कोर्स पूरा करने के बाद आपको क्यूरेटर, हेरिटेज कंजरवेटर्स, आर्किविस्ट की आकर्षक जॉब मिल सकती है।
सैलरी
आर्कियोलॉजी फील्ड में किसी भी पद पर न्यूनतम सैलॅरी 25 हजार रुपये है। उसके बाद सैलॅरी का निर्धारण पद और अनुभव के आधार पर होता है।
इंस्टीट्यूट वॉच
इंस्टीट्यूट ऑफ आर्कियोलॉजी (आर्कियोलॉजीकल सर्वे ऑफ इंडिया, दिल्ली)
asi.nic.in
पटना यूनिवर्सिटी, पटना, बिहार
www.patnauniversity.ac.in
डॉक्टर हरि सिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर, मध्य प्रदेश
sagaruniversity.nic.in
बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी, वाराणसी
www.bhu.ac.in
छत्रपति साहू जी महाराज यूनिवर्सिटी, कानपुर
www.kanpuruniversity.org
पंजाब यूनिवर्सिटी, पंजाब
www.puchd.ac.in
कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी, कुरुक्षेत्र
kukinfo.com
दिल्ली इंस्टीट्यूट ऑफ हेरिटेज रिसर्च ऐंड मैनेजमेंट, दिल्ली
www.dihrm.com
यूनिवर्सिटी ऑफ पुणे, महाराष्ट्र
www.unipune
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